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Sunday 1 September, 2019

रेणु और कालीचरण

गजब है कालीचरण । पैंसठ साल का हो गया है ,परंतु अपने सामाजिक-राजनीतिक रेशाओं के कारण सब पर भारी है ।उसके संवाद पिछड़ावाद के टैगलाइन हैं ,उसकी कमजोरियां ‍पिछड़ावादी राजनीति की उदासीन करती जन्‍मपत्री । पिछड़ावाद ने ‍किस तरह ब्राह्मणवादी चोला को धारण किया या फिर ब्राह्मणवाद ने किस तरह से पिछड़ावाद को अभिषिक्‍त किया ? और शिकार भी ,इसको अच्‍छी तरह से कालीचरण की महत्‍वाकांक्षा में देेखा जा सकता है । लालू-मुलायम की राजनीति को समझने में यदि कहीं संशय हो ,उलझन आए ,वर्गीय या वैचारिक ,कालीचरण को एक बार देख लें । हिंदीपट्टी केे एक वृहत आंदोलन की कमजोर नसें दिख जाएंगी । 'मैला आंचल' का अमर पात्र ।उसकी नस-नस में भविष्‍य की राजनीति है ।रेणु ने पिछड़ावाद को भ्रष्‍ट होते ‍दिखाया है । समतावादी नारों ,बयानों ,गतिविधियों से सराबोर कालीचरण का फाउंडेशन कमजोर है ।यादव-कायस्‍थ-राजपूत समीकरण के द्वारा जमीन और सम्‍मान को ‍मिलते ही उसकी वैचारिक समृद्धि बिला जाती है ,वह आदिवासियों के विरूद्ध हो जाता है । । समाजवादी विचार और मूल्‍य के प्रति ढ़ुलमुल एक व्‍यक्ति के जातीय और अर्थवादी अनुराग के सबल होते जाने का अत्‍यंत ही यथार्थवादी रूपांतरण कालीचरण में दिखता है । रेणु की जय ,उससे भी ज्‍यादा कालीचरण की जय !

Thursday 22 August, 2019

नीरज और साहिर

नीरज और शक़ील ,साहिर ,जिगर के ‍फिल्‍मी गीतों एवं गैरफिल्‍मी साहित्यिक कार्य में एक ख़ास अंतर है । नीरज फिल्‍मी गीतों में ही अपनी रौ में होते हैं । 'वो हम न थे ' , 'ऐ भाई ' , ' फूलों के रंग से ' ,' ‍दिल एक शायर है ' , 'आज की रात बड़ी' या फिर 'स्‍वप्‍न झरे फूल से ' जैसे गीत ही उनकी प्रतिनिधि कृति है । इन गीतों की सफलता को वे अच्‍छी तरह से भुु नाते हैं , मंच पर भी ,साहित्यिक जगत में भी । मंच पर उनकी सफलता अप्रतिम ,असंदिग्‍ध है ,परंतु यही कारनामा वे साहित्यिक पत्रिकाओं ,मुख्‍यधारा की स्‍वीकृतियों में नहीं कर पाए । इस अस्‍वीकृति को वे पचा भी नहीं पाए ।उनके लेखन का एक चौथाई तो इस अस्‍वीकृति को लेकर दर्द ही है । इस दर्द को उनका छायावादी संस्‍कार एक शिल्‍प तो दे देता है ,परंतु वे कविताएं अभूतपूर्व ,अद्वितीय नहीं है ।वे एक खास साहित्यिक धारा की धुुॅुँधली अनुकृति के रूप में दिखती है ।शक़ील और साहिर के साथ दूसरी चीज है ।वे दोनों जगह सार्थक भी हैं ,सफल भी । फिल्‍मी गीतों में कहीं-कहीं वे बाजार के दबाव में आते भी हैं ,पर मुख्‍यधारा की उनकी शायरी की सृजनात्‍मकता पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता है ।