नयी कविता का जादू 1960 के आसपास कमजोर होने लगा ।भारत चीन युद्ध का परिणाम हो या नेहरूयुगीन लोकतंत्र के सामाजिक आर्थिक अविकास से हो रही निराशा,नए कवियों मे नवीन जीवन जगत के यथार्थ को व्यक्त करने की बेचैनी थी ।इसी बेचैनी से नए प्रश्न,चिंता एवं तनाव की अभिव्यक्ति हुई ।इस साठोत्तरी कविता का मिजाज नयी कविता से भिन्न है ।इस कविता में कई धाराएं ,काव्यशैलियॉ एवं काव्यध्वनि है ।काल चेतना की सजगता इन्हें साठोत्तरी बनाती है तो संवेदना और शिल्प का आधार 'संपूर्ण परिवेश के यथार्थ 'की कविता ।फार्मूले के महामानव व लघुमानव की बजाय सामान्य आदमी इस कविता के केंद्र में है ।
नयी कविता की संप्रेषनीयता को स्वीकार कर भी यह काव्यधारा नयीकविता की रूढिवादिता को नकार देती है ।धूमिल ,लीलाधर जगूडी ,राजकमल चौधरी ,विनोद कुमार शुक्ल ,केदार नाथ सिंह ,अशोक वाजपेयी जैसे कवि नवीन काव्यदिशाओं की खोज करते हैं ।इसी खोज के दौरान सातवें दशक मे कविता पर बहस करती हुई दर्जनों लघुपत्रिकाएं प्रकाशित हुई तथा उस काल की हिंदी कविता के लिए दर्जनों नाम प्रस्तावित हुए ।
कुछ ज्यादा चर्चित नाम इस प्रकार हैं 'अकविता ,अन्यथावादी कविता ,विद्रोही कविता ,सनातन सूर्योदयी कविता ,सीमान्तक कविता ,अभिनव कविता ,अधुनातन कविता ,निर्दिशायामी कविता ,एब्सर्ड कविता ,नवप्रगतिवादी कविता ,साम्प्रतिक कविता ,कांक्रीट कविता ,कोलाज कविता ,प्रहार कविता ,अगीत कविता आदि ।लघुजीवी होते हुए भी इन छोटे छोटे आंदोलनों ने एक नए प्रकार के काव्य परिवेश का निर्माण किया ।देश के अंदर नेहरूविरोधी वातावरण के साथ ही नक्सलवादी आंदोलन ,माओवादी तथा जे पी के विचारों ने भी इस साहित्यिक माहौल को सींचा ।साम्प्रदायिकतावादी एवं अपभोक्तावादी तर्को के विरोध ने भी इस काव्यधारा को एक माकूल मंच दिया ।
के डी पालीवाल समकालीन कविता को अपने गहरे अर्थ में राजनीतिक कविता मानते हैं ।राजनीति पर कविता तो लिखी ही जाती रही है ,पर इस युग में राजनीति को केन्द्रीय स्थान मिलता है ।राजनीति पर इस समय वरिष्ठ कवियों ने भी खूब लिखा ।
हरिजन गिरिजन नंगे भूखे हम तो डोलें वन में
खुद तुम रेशम साडी डॉटे उडती फिरो पवन में (नागार्जुन)