
गोर्की टॉल्सटाय व दोस्तोवस्की
तुम्हें सूरजप्रकाश ने
बंद कर दिया है
मिथिला के एक गांव में
गांव के पुस्तकालय
व पुस्तकालय की आलमारियों से बाहर तुम लोग निकलोगे
केवल कविताओं में ।
यह उन तमाम देशनिकालाओं से अलग होगा
जो तुम्हारे नायकों ने झेले होंगे
साइबेरिया के अनाम गांवों में
रूस के समूचे बर्फ में
नहीं पाया होगा तूने
इतना सर्द पांडित्य ।
इतना छंदबद्ध जीवन
लोहे के वर्ण
कालदेव के यति गति
तूने न रूस के जारशाही में
न स्टालिन के यहां देखे होंगे ।
न ही देखा होगा ताण्डव धर्म का
देवताओं के नाम पर
यूरोप की अनंत युद्धलिप्सा के बावजूद ।
यह गंगा व गंडक की जमीन है
जहां विदेह माधव पहुचे थे
तीन सहस्र साल पहले
वनों को जलाकर बोया था
धान के बिरवे ।
उसी धान को बोते काटते
इस देश ने बूना उपनिषदों
ब्राह्मणेां स्मृतियों का महाजाल ।
यहां की मिट्टी
नूतन जलोढ़ नाम है खादर जिसका
महीन बारीक कोमल कणों से बने
हमारी चालाकी भी महीन
दोमट मिट्टी जानती है राज
हमारी सभ्यता की
नमी धारण करने का अपार सामर्थ्य
मुकुटों के षड्यंत्र की साक्षी
देखती रही हैं साम्राज्यों की विशाखाएं ।
तुम तो विशाल प्रेयरी के वासी
कुछ गलत तो नहीं कह रहा
बुरान की हड्डी गलाने वाली हवा
बहुत याद आएगी तुमको
पर यहां के भी किसान मजूर
प्रिय बनेंगे तेरे ।
मिथिला के किसानों के पसीने का गंध
भी शायद वही होगा
जो मास्को या लेनिनग्राद के भाईयों का ।
रात को पुस्तकालय की टूटी खिड़कियों से जरूर बाहर निकलना
घूमना मिथिला के खेत जंगल पोखर में
नाचना मैथिलजन के मिठास पर
सीखना उनसे मैथिली के कुछ भदेस शब्द मुहावरे गीत
हँसना हहा हहाकर ।
पूरा करना उन अधूरे उपन्यासों को
जो नहीं पूरा हो पाए वोल्गा किनारे ।
2 बोलो सूरज प्रकाश
क्यूं हटाए इन किताबों को अपने घर से
किताबों के काले अक्षर
या झक सफेद कागज परेशान करता था ।
या खोए रहते थे रातदिन
उन मित्रों को देखसोच
जिन्होंने अपनी लिखी किताब सौंपी थी
लिखावट उसकी
तारीख तब का
कितना परेशान करता था ?
या मगन थे किताबों में
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व सुनते रहते थे अपनों की
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किताबों के पन्ने में
सूखे गुलाबों ने
कितना रूलाया ?
पन्नों पर मरे मच्छरों के अंश से ही हो गए विरक्त
या इस धार्मिक देश में दान की महिमा पर ही मर मिटे ?
अब तेरे किताब
सहेगी गंवई राजनीति
धूल ओस जाति अहम्मनीयता हजारों साल की ।
जेठ की नदी की तरह
क्या बची है केवल बालू की उपत्यकाएं
या गंभीर नदी की तरह बचाए हो थोड़ी सी किताब
तेरे ही किताबों को गांवों में रख
मैं तो हो गया जेठ का ठूंठ
पल्लवों की कोई आश नहीं
सच सच बोलना मित्र
अब कितने रिक्त हो
कितने पूर्ण ।
बहुत जरूरी है संन्यास लेना पुस्तकों के मोह से
ReplyDeleteजीवन तो अपने आप ही छूट जाता है।
आओ हम भी नेत्रदान की तर्ज पर
पुस्तकों का दान करें।
सामाजिक उत्सव हो या कोइ मिलने आएं... सालों से सच्चे पाठकों तक पुस्तकों की भेंट देता ही हूँ... यह बड़ा ही सुखद अनुभव भी हैं मेरे लिए... काफी लोग प्रेरित होते हैं ...
ReplyDeletesuraj prakash ji ke rini hum bhi hain. unhone mere gaon ke pustkalay ko lagbhag 200 pustaken aur patrikayen donate ki hain. sudur gaon me pustakalay ke liye unka yeh yogdan amuly hai
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