
(जानकी वल्लभ शास्त्री के साहित्यिक अवदान पर प्रेम भारद्वाज के द्वारा की गयी अविवेकपूर्ण टिप्पणी को समर्पित)
स्थगित था कविता लेखन
भ्रष्टमंडल खेल भी
उठबा न सका लेखनी
ए राजा भी नहीं
न ही मनमोहिनी चुप्पी
भट़टा परसौल की घटना को
समझ कर मायावी राजनीतिक हथकंडा
खामोश रही लेखनी
कि
अचानक महाप्रयाण पर चले गए
जानकी वल्लभ जी
आचार्य जी
शास्त्रीजी
अचानक नामवर आलोचक के अनुचरों को
याद आ गए लीद ,कूडा जैसे शब्द
महान गुरूओं से परंपरा स्वरूप
लिए गए हैं ये शब्द
क्रितघ्नता इतनी कि गुरूओं को
क्रितज्ञता ज्ञापन तक नहीं
नाम कमाना चाहते हैं ये
नाथूराम गोडसे की तरह
पर अफसोस
कायर इतने कि
सामने से फायर झोंकने की जगह
उचित समझते हैं
सज्जन पुरूष के दरवाजे पर
लीद फेंकना
और आज का तथाकथित
मेरे जैसा समाज सुधारक
उठा लेता है
झाडू की जगह कलम ।
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