
शम्मीकपूर से मेरी भेंट अगस्त 1989 में किसी दिन पटना के अशोक सिनेमा हॉल में हुई ।मेरे पिता व भाई मुझे डॉक्टर बनाना चाहते थे व कोचिंग के लिए पटना लाए थे ।एक कोचिंग संस्थान में मेरा एडमिशन कराने के बाद उन्होंने नजदीक के ही एक गंदे से कमरे में मुझे ठहराया व समस्तीपुर के लिए निकल गए ।घर उसी दिन पहुंचने की धुन में उन्होंने जल्दी जल्दी आर्शीवाद व रूपए दिए व बस स्टैंड की तरफ लौट गए ।उनके घर से निकलते ही मैं गांधी मैदान की तरफ लौटा व फिल्मों का पोस्टर देखने लगा ।मैंने सोचना नहीं चाहा कि मैं यहां पढने आया हूं तथा इस अंदेशे पर भी विचार नहीं किया कि कहीं पिता न लौट जाएं ।एक ठेले वाले ने बताया कि अशोक सिनेमा स्टेशन के पास है व मैं तुरत रिक्शे पर बैठ निकल गया 'कश्मीर की कली'देखने ।घर के पारंपरिक अनुशासन व संस्कार का यह बहुत ही सहज अतिक्रमण था ।उन दिनों मैं मारपीट व हिंसा वाले फिल्मों में रूचि लेता था ,परंतु उस दिन हमें एक नए नायक से भेंट हुई ।प्रेम व साहस से लवरेज ।परंपरा के प्रति लापरवाह व आधुनिकता के प्रति उन्मुख ।उचक्का ,लोफर ,प्रेमी ,आवारापन का हिप्पी भारतीय प्रतिनिधि ।उसकी अदाओं व शोखिओं ने हिंदी फिल्म को एक नया मोड दिया ।ऐसा मोड जिससे आज भी प्रत्येक अभिनेता गुजरना चाहता है ।मुहम्मद रफी उनकी आवाज बन गए तो रफी को भी उन्होंने एक हंसमुख मुखौटा दिया ।मुहम्मद रफी इसी चेहरे की बदौलत किशोर युग के चिल्लाहट व शोखियों में भी प्रासंगिेक बने रहे ।
इस वजनदार अभिनेता को हिंदी साहित्य संसार की विनम्र श्रद्धांजलि ।
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