Saturday, 22 November 2014

हाकिम आपकी क्षुद्रता को भगवान दूर करें..

हाकिम आपकी क्षुद्रता को भगवान दूर करें....आपके जातिगत अहंकार को भगवान शिव पी जाएं ,भगवान शिव आपकी शारीरिक श्रेष्‍ठता -भाव का भी शमन करें ।वायुदेव आपकी क्षेत्रीय दुर्भावना को उड़ा दें , आपके लोभ पर इंद्रदेव का वज्र गिरे ,आपकी कामुकता गलकर बर्फ हो जाए ।आपके झूठको भगवान गणेश अच्‍छा शिल्‍प दें ,माता सरस्‍वती आपके आडम्‍बर को विश्‍वसनीय बनाएं......

Wednesday, 19 November 2014

चंद्रकान्‍त देवताले और आधुनिक कविता की शक्ति

चंद्रकांत देवताले की एक कविता में से -
मैं वेश्‍याओं की इज्‍ज़त कर सकता हूं
पर सम्‍मानितों की वेश्‍याओं जैसी हरकतें देख
भड़क उठता हूं पिकासो के सांड की तरह
मैं बीस बार विस्‍थापित हुआ हूं
और जख्‍मों ,भाषा और उनके गूंगेपन को
अच्‍छी तरह समझता हूं
उन फीतों को मैं कूड़ेदान में फेंक चुका हूं
जिनसे भद्र लोग जिन्‍दगी और कविता की नाप-जोख करते हैं
चन्‍द्रकांत देवताले की यह कविता आधुनिकतावाद के सुसभ्‍य केंचुलों को फाड़ते हुए आधुनिक कविता के नए उपकरणों को स्‍थापित करती है ।यहां छंदमुक्‍त कविता अपने सर्वाधिक शक्तिशाली रूप में मौजूद है ।

Thursday, 2 October 2014

(रसूलपुर डायरी 1)

छह साल से हम लोग लगे हुए थे ......पंडित जाति का था अधिकारी .....जब भी मिलते पैर छू लेते ,हमारे दादा भी 'पांउ लागी' तो कहते ही थे.............हम सारे लोग एक ही चीज की मांग कर रहे थे कि हमारा चक पासियों के बीच से हटाइए....दूसरी चकबंदी थी ,और यही मौका था कि हम लोग किसी दूसरे क्षेत्र में अपना चक बनबा लें .......साहब खरचा-बरचा की बात तो हमने खुल के कहा .........पर हरदम ईमानदारी का झौंस देता था...........अब जब चक बन रहा है तो नियम-कानून पाद रहा है .......कहते हैं कि लेलो पचास-साठ हजार तुम भी खुश ,हम भी खुश ,पर हमारा काम करते गांड फट रही है ,जैसे कि सरकार राजधानी से हमारा चक और इनका जेब ही चेक कर रही है ।साहब बार-बार कहा कि किसी भी तरह से हम लोगों का चक यहां से हटाओ....अब कितना कहें कि सुबह-शाम आप खेत की ओर घूम नहीं सकते ।हमारे ही खेत में दिसा-मैदान करना ,इसी में साग-पात करना ,इसी में घास छिलना और रोको तो गाली-गलौज ,मार-पीट ,पर ये सब कहके क्‍या होगा ,काम जब होना ही नहीं है ।तुम अपना कानून अपने गां... में रखो ,हम अपना चक अपने गां... में रखते हैं ।पैसा रहेगा ,तो तुम नहीं करोगे ,कोई और करेगा ,तुम नहीं तुम्‍हारा साहेब करेगा ,वह तुम्‍हीं से कराएगा ,और तूम जीसर ,यससर कहके करोगे .........
(रसूलपुर डायरी 1)

Sunday, 21 September 2014

(घूस के रसशास्‍त्री)

घूस के रसशास्‍त्री पूरे दिन बुलाते -बतियाते रहे बाबा तुलसीदास से
कभी जुबान से कभी हाथ से कभी लतियाते रहे फुटबाल की तरह
राग-भैरवी 'प्रविसि नगर ...' से होते हुए बार-बार राग-दरबारी में खतम हो जाती
कभी उन्‍हें भय के बिना प्रीत होते हुए नहीं दिखता
कभी-कभी कुर्सियों में धँस के , कभी टेबुल पर पैर चढ़ा के
कभी गुटखा और तम्‍बाकू को ओंठों और मंसूड़े के बीच रखते हुए
बार-बार ढ़ोल-गँवार को बुलाते
वाह रे तुलसी बाबा सब मौका के लिए लिख गए
घूस के रसशास्‍त्री भरत को नहीं जानते थे
भरत भी इनको नहीं जानते थे
इसीलिए दोनों के साधारणीकरण अलग रास्‍ते जाते थे
दोनों के उद्दीपक अलग थे
संचारी आदि भी........

Sunday, 31 August 2014

महान इतिहासकार विपिन चंद्र

विपिन चंद्र की उपलब्धियां ऐतिहासिक थी ।उन्‍होंने आधुनिक भारतीय इतिहास को औपनिवेशिक ,राष्‍ट्रवादी ,गांधीवादी एवं मार्क्‍सवादी अतिवादों से दूर किया ।उन्‍होंने 1857 के विद्रोह को राष्‍ट्रवादी आंदोलन एवं सैनिक विद्रोह के बीच के उचित धरातल पर देखा ।भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था के पिछड़ेपन को मार्क्‍सवादी एवं औपनिवे‍िशिक व्‍याख्‍या से दूर करते हुए वस्‍तुनिष्‍ठ राष्‍ट्रवादी नजर से देखा ।नरमवादी कांग्रेसियों की उपलब्धियों को सही परिपेक्ष्‍य में देखा ।इनके राष्‍ट्रवादी सोच के आ‍र्थिक आधार पर अपनी थीसिस पूरी की ।उग्रवादी कांग्रेसियों एवं हिंसक राष्‍ट्रवादियों की सीमाओं को जनआंदोलन एवं ब्रिटिश सत्‍ता के मूल स्‍वरूप पर ध्‍यान रखकर विचार किया ।गांधीवादी राष्‍ट्रीय आंदोलन के संपूर्ण वैचारिक आधार को टटोलते हुए जन आंदोलन की गांधीवादी सोच एवं रणनीति को टटोला ।उन्‍होंने सांप्रदायिकता के मध्‍यवर्गीय आधार को परखते हुए उसके चरणों को रेखांकित किया ।सांप्रदायिकता एवं देशविभाजन के पीछे की राजनीति एवं जनाधार को व्‍यक्तिवादी व्‍याख्‍या से परहेज करते हुए पूरे राष्‍ट्र की मनोवैज्ञानिक मीमांसा किया ।
(अपने आकाशी गुरू को श्रद्धांजलि)

Sunday, 6 April 2014

हम जहां रहते हैं

भोर में टहलते हुए सड़क पर प्राय: किसी का कफ ,पानका पीक या चबाया गुटखा दिख जाता है ,तब द्विअक्षरी गाली से काम नहीं चलता है और पंचाक्षरी तक जाना पड़ता है ।यही हाल हिंदी साहित्‍य ,पत्रकारिता और विश्‍वविद्यालयों में प्राय:देखने को मिलता है ,कोई किसी का भाई है ,दामाद है ,बेटा है ,चेला है ,और उनका सबसे बड़ा एसाइनमेंट यही है ।अब इन आलियाओं ,कपूरों और धवनों के सामने आपको उखाड़ने के लिए क्‍या बचता है ?

Saturday, 29 March 2014

(सांप्रदायिकता बहुआयामी ,जटिल एवं बहुस्‍तरीय होता है ।

चना श्रेष्‍ठ होता है गेहूं से ,गेहूं के पत्‍ते चने के पत्‍ते से ज्‍यादा सजीला होता है ,गेहूं देश के बारे में ज्‍यादा सोचता है ,गेहूं पूरबैया में ज्‍यादा जोर से नाचता है ।चना का फूल ज्‍यादा कामुक होता है ,चना लतर कर देश का ज्‍यादा जमीन छेकता है ,चना की नीयत गेहूं के प्रति खराब़ है ।चना गेहूं को बरबाद करना चाहता है ।गेहूं अपनी लंबाई से चने के परागन को रोकता है ,गेहूं चने की ओर आने वाले हवा ,पानी ,गीत सबको रोकता है ।खेत ज्‍यादा अच्‍छे होते यदि केवल चना ही होता ।ये दुनिया ज्‍यादा प्‍यारी होती ,यदि केवल चने की खेती की जाती ,आखिर प्रोटीन ही तो सब कुछ है ।देश का ज्‍यादा से ज्‍यादा संसाधन केवल गेहूं के लिए खर्च हो रहा है ,सारी बिजली ,सारा खाद ,श्रमिक वर्ग ,थ्रेशिंग ,ट्रैक्‍टर सब गेहूं की पूजा में व्‍यस्‍त ।

(रवि भूषण पाठक)

Friday, 21 March 2014

संपादक का परिवारवाद

समास-8 के प्रकाशक ,लेखक और संपादक पर जरा ध्‍यान दीजिए ।
संपादक-उदयन वाजपेेयी,प्रकाशक-अशोक वाजपेयी
तीन सौ बीस पृष्‍ठ के साठ पृष्‍ठ में संपादकीय और वार्तालाप मिलाकर उदयन वाजपेयी हैं ।पांच पृष्‍ठ और लेकर एक आलेख में भी है ।पांच पृष्‍ठ में प्रकाशक महोदय की कविता पर ध्रुव शुक्‍ल का आलेख है ।चौदह पृष्‍ठ किसी आस्‍तीक वाजपेयी के लिए है ,जिनके घर का पता संपादकीय कार्यालय का पता है ।मतलबसाहित्‍य ,कला और सभ्‍यता पर एकाग्र की घोषणा के साथ इस अनियतकालीन पत्रिका का एक चौथाई हिस्‍सा अपने घर-परिवार से संबंधित है ।ये सामग्री चाहे जितनी भी अनिवार्य रही हो ,प्रकाशक और संपादक को अपने विवेक का इस्‍तेमाल तो करना ही चाहिए ।और आस्‍तीक जी आपकी कविता चाहे जितनी भी कमाल की हो ,घर में छपने से बचिए ।

Wednesday, 12 March 2014

कबीर संजय की कहानी 'मकड़ी के जाले '

कबीर संजय की कहानी 'मकड़ी के जाले'  नया ज्ञानोदय के फरवरी अंक में प्रकाशित हुई है ।कहानी नई कहानी के बहुप्रचारित 'नएपन' से आगे आकर प्रारंभ होती है ।पहली कक्षा में पढ़ रहा अंची के हवाले से लेखक गांव के दुआरा ,बरामदा,कमरा ,नीम से जुड़े भूगोल का मुआयना करता है ,तथा बहुत ही बारीकी से अंची के दिमाग में प्रवेश करता है ।चींटे के जैविक चक्र,आवास को बालमनोविज्ञान के चश्‍मे से कहानी में शामिल करते हुए लेखक अभिव्‍यक्ति के नए स्‍वर्ग की ओर प्रस्‍थान करता है ।करौंदे का पेड़ ,घोंसला ,मकड़ी का जाला केवल अंची के लिए ही नया बन के नहीं आता है ,एक पाठक को भी ऐसे सहज सामान्‍य चीजों को देखने का नया एंगल मिलता है ।अंची के सर में तेल लगाने ,उसे नहाने एवं टिफिन तैयार करने के विवरण में इतनी सहजता है ,और एक-एक चरण पर इतना गहन ध्‍यान कि कहानियों में रूपक और प्रतीक की बात बेमानी लगने लगती है ।अंची का एक बड़ा भाई भी है जो अपने पिता को एक औरत के साथ सोए देखकर घर से भाग गया है ,इस सोने वाले प्रसंग को कबीर विस्‍तार नहीं देते हैं ,विमल चंद्र पांडेय की एक कहानी जो 'अनहद' में प्रकाशित हुई है ,लगभग ऐसे ही प्रसंग में बेडरूम के चित्‍कारों से भरी है ।कबीर का संयम बहुत ही कलात्‍मक है ।इस कहानी में नन्‍दू लौटता है ,और पिता उसके भागने के कारणों से अनजान पिटाई करते हैं ।नंदू क्रोध और प्रतिशोध से अपना ओठ भींचता है ।अंची भी ओंठ को भींचते हुए चींटी ,ललमुनिया और कौवा के प्राकृतिक आवास पर आक्रमण करता है ।नाराज कौवे अंची पर आक्रमण करते हैं तथा उसके हाथ से पेड़ की डाली छूट जाती है ।कबीर संजय की इस कहानी के द्वारा हम ग्रामीण बाल मनोविज्ञान की एक अछूती दुनिया से परिचित होते हैं ।निरंतर क्रूर हो रही दुनिया और परिवार के पास अंची और नंदू के लिए कुछ भी नही है ।परिवार और विद्यालय यहां पर क्रोध ,हिंसा और प्रतिशोध सिखाने के साधन मात्र हैं ।अंची जो मकड़ी के जाले को जिज्ञासा से देखता है , और  उसमें फँसता ही चला जाता है ............

(रवि भूषण पाठक)

Thursday, 13 February 2014

।दलाली जिंदाबाद !

किसानी बकबास है ,बनियौटी चोखा ,निवेशक की बजाय ब्रोकिंग में चमक थी ,और जो था फायदा ही ,निवेश केवल मुंह ,मुखौटा एवं भंगिमा का ही था ।देह धुनती थी रंडियां ,मजा मारते थे भड़ुए ।लेखक की बजाय प्रकाशक बनना मुफीद था ,नए लेखक यहां आराम से फँसते थे ।यह कोई छोटा-खोटा धंधा नहीं था ,दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश जो अपने आपको सबसे बड़ा लोकतंत्र और सबसे महान वामपंथी कहते थे , को भी ये पता था कि दलाली कोई साधारण चीज नहीं है ,इसीलिए वे हथियार बनाते भी थे ,और दलाली भी खुद ही करते थे ।यह महायुग था ,जिसमें सबसे ज्‍यादा चमक तृतीयक क्षेत्र के पास ही था ।दलाली जिंदाबाद !



दलाली कर रहे हैं न भैया ,एकदम करिए ,परंतु आकाश की ऊंचाई से या फिर धरती की गुरूता से एकदम ही प्रभावित नहीं होइए ,होइए भी तो दिखे नहीं ,और दिख भी जाए तो उसका फायदा हो ।मौका मिले तो ये भी कहिए कि धरती की गुरूत्‍वाकर्षण शक्ति को आप कम या ज्‍यादा कर सकते हैं ,या फिर आकाश को खींच के नीचा या फिर मुक्‍का मार के ऊपर कर सकते हैं यदि नहीं कर पाए तो ये बताइए कि आपकी नामर्दी जनहित में है ।

Saturday, 8 February 2014

(मऊ से पटना वाया फेफना,बक्‍सर

सरकारों ने भले ही मऊ से पटना जाने के लिए वाया बलिया और वाया भटनी का रूट बनाया ,सजाया हो ,जनता इस रूट से नहीं चलती ।यहां के लोग फेफना में उतरकर ऑटो एवं जीप से बक्‍सर पहुंचते हैं ,फिर बक्‍सर से रेल के माध्‍यम से पटना पहुंचते हैं ।व्‍यापारियों ,किसानों ,कर्मचारियों ,तस्‍करों का यही रूट है ।यही रूट ज्‍यादा लोकप्रिय और सुरक्षित भी है ।बक्‍सर के टूटे पुल से निर्बाध यात्रा जारी है ,पुल का मुख्‍य हिस्‍सा कई भागों में बँटा दिखता है ,और एक हिस्‍से से दूसरे पर जाते वक्‍त दोनों हिस्‍से हिलते हैं ,आवाज करते हैं तथा डराते हैं ।लोगों ने बताया कि कई महीना पहले ही पुल को सरकारी तौर पर बंद कर दिया गया है ,परंतु भारी और हल्‍के वाहन पहले की ही तरह चल रहे हैं ।कुछ लोग डरे भी हैं कि कहीं सही में रूट बंद हो गया तो बलिया से पटना की यह यात्रा कुछ ज्‍यादा घंटों की मांग करेगी ।शायद उत्‍तर प्रदेश और बिहार के सरकारों के लिए यह उच्‍च प्राथमिकता का विषय नहीं रहा हो ,परंतु यहां के लोगों के लिए यह रोटी-बेटी का प्रश्‍न है ।
(मऊ से पटना वाया फेफना,बक्‍सर)