मुक्तिबोध के बाद की पुरस्कृत हिंदी कविता प्रचलित साहित्यिक संस्कारों और रूढि़यों के ओसारे में पलकर बड़ी हुई है ।इसका 'नकार' पूर्ववर्तियों का अनुकरण भर है ।इसकी 'क्रांति' पहले के आंदोलनों की तुकबंदी भर है ।इसका 'जन' बस अहसास दिलाता है कि यह उस 'हिंदी' की कविता है ,जिसमें निराला ,नागार्जुन ,मुक्तिबोध जैसे कवि हुए हैं ।पुरस्कृत कविता और आलोचना की जुगलबंदी लोकप्रिय तो है ,परंतु कविता और आलोचना के असाधारणता की खोज मर गई है ।वह कविता ही क्या जो विवाद पैदा न करे !वह कविता ही क्या जो अस्वीकार एवं असफल माने जाने की चुनौती को स्वीकार न करे !वह कविता ही क्या जो आलोचना की नई पौध को जन्म न दे !
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