नीरज और शक़ील ,साहिर ,जिगर के फिल्मी गीतों एवं गैरफिल्मी साहित्यिक कार्य में एक ख़ास अंतर है । नीरज फिल्मी गीतों में ही अपनी रौ में होते हैं । 'वो हम न थे ' , 'ऐ भाई ' , ' फूलों के रंग से ' ,' दिल एक शायर है ' , 'आज की रात बड़ी' या फिर 'स्वप्न झरे फूल से ' जैसे गीत ही उनकी प्रतिनिधि कृति है । इन गीतों की सफलता को वे अच्छी तरह से भुु नाते हैं , मंच पर भी ,साहित्यिक जगत में भी । मंच पर उनकी सफलता अप्रतिम ,असंदिग्ध है ,परंतु यही कारनामा वे साहित्यिक पत्रिकाओं ,मुख्यधारा की स्वीकृतियों में नहीं कर पाए । इस अस्वीकृति को वे पचा भी नहीं पाए ।उनके लेखन का एक चौथाई तो इस अस्वीकृति को लेकर दर्द ही है । इस दर्द को उनका छायावादी संस्कार एक शिल्प तो दे देता है ,परंतु वे कविताएं अभूतपूर्व ,अद्वितीय नहीं है ।वे एक खास साहित्यिक धारा की धुुॅुँधली अनुकृति के रूप में दिखती है ।शक़ील और साहिर के साथ दूसरी चीज है ।वे दोनों जगह सार्थक भी हैं ,सफल भी । फिल्मी गीतों में कहीं-कहीं वे बाजार के दबाव में आते भी हैं ,पर मुख्यधारा की उनकी शायरी की सृजनात्मकता पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता है ।
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