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Saturday 19 March, 2011

बेटा बैनीआहपीनाला

हम निछन्‍द उस्‍सर बलुआहा
रसगंगाधर बन तू निराला
दिखे दिन कर दुपहरिया के
नही मरीचिका न छल सपना
सींच रहा अपनी मरूभूमि
किसकी साकी कौन सा प्‍याला
भले बाप को रंग का लाला
बेटा बैनीआहपीनाला






Wednesday 16 March, 2011

बैद्यनाथ मिश्र यात्री अर्थात नागार्जुन

नागार्जुन बहुआयामी हैं ।जितने क्‍लासिक,उतने ही भदेस ।रीतिवाद के धुरविरोधी,परंतु कविता कहने की रीति के प्रति पूरी तरह से सजग ।यहां तक कि उनकी कविता में रीतिवाद का भी संकेत है ,अर्थात उनकी कई कविता उस लक्ष्‍य को संकेतित करती है कि कविता कैसे कही या लिखी जाए ।जन्‍म से मैथिल परंतु समूचे ब्रह्माण्‍ड के अनुभव से तादात्‍म्‍य स्‍थापित करते । मिथिला और ग्राम तरौनी के प्रति प्रेम सिंध,श्रीलंका ,तिब्‍बत के प्रति प्रेम को कम नहीं करता है ।अष्‍टभुजा शुक्‍ल उन्‍हें छन्‍दोमय कहते हैं ,वे नागार्जुन को छन्‍दबद्ध या मुक्‍तछंद में बांटने की कोशिश को महत्‍व नहीं देते ।

नामवर सिंह ने भी नागार्जुन के विषय चयन की विविधता को आश्‍चर्यसहित स्‍वीकार किया है । केदार,शमशेर जैसे अपने समकालीनों के साथ ही कालिदास,विद्यापति,निराला,रवीन्‍द्रनाथ जैसे स्‍थापित स्‍तंभों के साथ बाबा एक ही लय में संवाद करते हैं ।इसी प्रकार जवाहर लाल ,माओ ,जेपी ,इन्दिरा जैसे राजनीतिक व्‍यक्तित्‍व से भी काव्‍यात्‍मक आलाप करने में वे देरी नहीं करते ।यही नही बाल ठाकरे जैसे विवादास्‍पद व्‍यक्ति को ऐसी तैसी करने के लिए भी वे कविता का ही सहारा लेते हैं ।यही नही भोजपुर के क्रांतिकारी आयाम को खुलकर स्‍वीकार करते हुए सामंतवादियों के द्वारा हरिजनों के जलाने को भी कविता का विषय बनाते हैं । वर्तमान के प्रति उनका यह अनुराग उनके काव्‍यशिल्‍प ही नही उनकी कविता को परखने वाले औजारों को भी प्रभावित करती है ।केदार नाथ सिंह ने अपने पुस्‍तक समय के शब्‍द में इसे ही खतरनाक ढंग से कवि होने का साहस कहा है ।

विद्वानों ने बताया है कि ये कविताएं अपनी तात्‍कालिकता के बावजूद स्‍थायी महत्‍व को धारण करती है ।केवल मार्क्‍्सवाद ही नहीं लोक और शास्‍त्र का प्रगाढ अनुभव भी नागार्जुन के अदभुत कवि व्‍यक्तित्‍व से मिलकर तात्‍कालिकता को सार्वभौम रसायन में परिवर्तित करती है ।संवेदना की जटिल व बहुस्‍तरीय परत इन कविताओं को अखबारी होने से बचाती है ।

कबीर के बाद वे संभवत: पहले कवि हैं,जिनके यहां जीवन व कविता एकरूप हो गया हो,शायद निराला से भी ज्‍यादा ।उनके कविता की प्रतिज्ञा उनके जीवन की प्रतिज्ञा से उद्भूत हुई है ,और उनकी कविता उनके जीवन की ही तरह ज्‍यादा प्रतिज्ञा करने में विश्‍वास नहीं करती ।इसीलिए वे कट्टर मार्क्‍सवादी होते हुए भी जीवन की बाधाओं के प्रति ही प्रतिश्रुत हैं न कि किसी भी प्रकार के वाद के प्रति ।

आधुनिक काल के वे विरले लेखक हैं जिन्‍होंने हिंदी के साथ ही मैथिली,बांग्‍ला और अन्‍य भाषाओं में गंभीरता से लेखन किया हो ।वे इन तमाम भाषाओं को जानने वाले के प्रिय कवि हैं तथा उनकी कविताओं पर इन सब लोगों का अधिकार है ।आज फेसबुक पर कुछ लोगों के द्वारा इस बात पर बल दिया गया कि चूंकि बाबा को साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार मैथिली रचना पर मिली ,अत: अकादमी द्वारा बाबा के सम्‍मान में आयोजित समारोह में मात्र मैथिली भाषा और साहित्‍य के विद्वानों को ही बुलाना चाहिए ।मेरे विचार में यह उचित नही है । बाबा का लेखन ही इसका सबसे बडा प्रमाण है ।लेकिन बाबा की जिन्‍दगी उनकी कविता की ही तरह तमाम चित्‍ताकर्षक चित्रों से भरी है ,इसका कोई एक पाठ संभव नही है ।




रवि भूषण पाठ‍क

Monday 14 March, 2011

नामवर सिंह भारतीय आलोचना के केंद्र में हैं,विभिन्‍न विवादों के बावजूद उनके किताबों,लेखों व भाषणों ने सर्जनात्‍मक उत्‍तेजना पैदा किया है ।उनके कहे गए एक एक शब्‍द के पक्ष व विपक्ष में आपको हथियारबंद आलोचकों का समुदाय मिल जाएगा ।उनकी केन्‍द्रीयता को स्‍वीकार करते हुए एक मैथिली में हास्‍य कविता लिखी गई है ,जिसमें एक हिंदी आलोचक उनको मिल रहे सम्‍मान से क्षुब्‍ध है ।यह कविता होली के अवसर पर मैथिली पाक्षिक विदेह के 78 वें अंक में प्रकाशित हुई है ।
ई नामवर बहुत सताबइ
ई नामवरबा बहुत सताबइ
कखनो टीवी,कबहु रेडियो
ब्‍लॉग,न्‍यूज पर आबइ
तुरते मम्‍मट,तुरत लोंजाइनस
मुक्तिबोध बताबइ । ई नामवरबा 0000
कविता नाटक उपन्‍यास पर
अजबे गजब सुनाबइ
नागार्जुन अपभ्रंश हजारी
सबहक सत्‍व दिखाबइ
लिख मारलक दू चारि किताब बस
बाजि बाजि घोलटाबइ । ई नामवरबा 0000
आब रमत नहि लिखत पढत मे
बात से बात निकालइ
बाज बाज वौआ दिन तोहर
शणियो सुघड,मंगलबो गाबइ । ई नामवरबा 0000
की खाइ छें,कोन पानि पिबइ छें
घाट घाट के वानि बजइ छें
हमरो दे किछु जंतर मंतर
बाजी कम ,गुण अधिक सुनाबइ ।
ई नामवरबा बहुत सताबइ ।
ई नामवरबा बहुत सताबइ ।