Labels

Followers

Thursday 8 December, 2016

हजारी प्रसाद द्विवेदी

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
सांस्‍कृतिक निरंतरता और अखंडता के बोध के साथ पदार्पण ।अनुसंधानपरक ऐतिहासिक और सांस्‍कृतिक पृष्‍ठभूमि को आधार बनाकर समीक्षा कार्य कार्य ।नवीन मानवतावाद और समाजशास्‍त्रीय दृष्टिकोण के कारण उनका पांडित्‍य सर्वस्‍वीकार्य ।संस्‍कृत साहित्‍य ,रवीन्‍द्र साहित्‍य तथा लोकोन्‍मुख आधुनिक बोध से एक नए तरह का आलोचना ।


दृष्टि--
1स्‍व्‍च्‍छन्‍दतावादी एवं ऐतिहासिक समीक्षा शैली जो क्रमश: मानवतावादी एवं समाजवादी मूल्‍यों को स्‍वीकारने से पुष्‍ट होती चली गयी है ।
2 हिन्‍दी सा‍हित्‍य को भारतीय चिन्‍ता का स्‍वाभाविक विकास माना , हतदर्प पराजित जाति की सम्‍पत्ति नहीं ।
3व्‍याख्‍यात्‍मक आलोचना पर्याप्‍त नहीं ,आलोचना का मूल्‍यांकन आवश्‍यक ।इसके लिए संस्‍कृत के लक्षणग्रंथ पर्याप्‍त नहीं ।
4साहित्‍य का चरम लक्ष्‍य मनुष्‍य
5 यथार्थ का मतलब प्रकृतवादी असीमित यथार्थ नहीं , कला माध्‍यमों के विशिष्‍ट प्रयत्‍नों एवं चयनों का महत्‍व स्‍वीकारा ।
6 जीवन और साहित्‍य राजनीति ,अर्थनीति ,आधुनिक विज्ञान के बिना मात्र वाक्विलास ।
7 कविता भी स्‍वर्गीय कुसुम नहीं ।यह केवल कौशल नहीं ।
8 लोकभाषा ही वास्‍तविक और सच्‍ची भाषा ।इसकी शैली सहज ,आडम्‍बररहित एवं प्रसन्‍न ।इसी में शक्ति और प्रभाव ।
8 छन्‍द को रसानुभव का सहायक माना ,जो वाणी में आवेश की गति आ जाने से भावावेग के प्रकाशन में सुविधा करती है ।
9 शब्‍दों को कवि के देश-काल से जोड़ना ।
10आदिकालीन साहित्‍य के विरोधाभासों की काव्‍य-रूढि़यों एवं कथानक-रूढि़यों के माध्‍यम से व्‍याख्‍या ।
11 साहित्‍य को वृहत सांस्‍कृतिक आयामों से जोड़ा ।साहित्‍य के साथ ही उस युग की समस्‍त साधनाओं- नृत्‍य ,कला ,इतिहास ,विज्ञान आदि की बात भी करते हैं ।













योगदान/ व्‍यावहारिक समीक्षा
1सूर-सा‍हित्‍य को भक्तिशास्‍त्र और समाजशास्‍त्र की सांस्‍कृतिक पृष्‍ठभूमि पर आकलित किया ।कृष्‍ण के व्‍यक्तित्‍व में समाहित विभिन्‍न धर्म साधनाओं के मार्मिक तत्‍वों की व्‍याख्‍या ।राधा को लिरिकल पात्र माना ,तथा सूर-सागर को गीति काव्‍यात्‍मक मनोरागों पर आधारित विशाल महाकाव्‍य ।
2 कबीर के काल,समाज एवं व्‍यक्तित्‍व के विभिन्‍न गांठों को अपने ऐतिहासिक एवं सांस्‍कृतिक गांठों से खोला ।कबीर को मूलत: भक्‍त माना ,तथा उनकी छन्‍द योजना ,उक्ति-वैचित्र्य और अलंकार-विधान के स्‍वाभाविक और अयत्‍नसाधित रूप का उद्घाटन किया ।कबीर काव्‍य के विभिन्‍न शब्‍दों को कवि के देश-काल से जोड़ा ।
3
जायसी ,कृष्‍ण काव्‍य के श्रोत एवं स्‍वरूप , केशव ,रीतिकाव्‍य तथा बिहारी के संबंध में चिंतन ने शुक्‍ल जी के चिंतन को पुष्‍ट किया ।
4 नन्‍ददुलारे वाजपेयी के विपरीत
तुलसीदास ,राम की शक्तिपूजा और सरोज स्‍मृति को निराला का श्रेष्‍ठ रचना कहा ।
5 प्रेमचन्‍द को महान प्रगतिशील लेखक के रूप में याद किया ।
6आधुनिकता की सबसे पहले व्‍याख्‍या ।अनासक्‍त भाव से देखना और व्‍यक्ति से अधिक दृश्‍य(परिवेश) को मानना आधुनिकता की बुनियादी शर्त ।उन्‍होंने आधुनिकता की व्‍याख्‍या में परलोक के स्‍थान पर इहलोक और व्‍यष्टि के स्‍थान पर समष्टि को महत्‍वपूर्ण माना।
7 अपने निबंधों एवं समीक्षा आलेखों में आलोचनात्‍मक शब्‍दों ----कृती-तत्‍वान्‍वेषी ,विनिवेशन ,अन्‍यथाकरण ,अन्‍वयन ,भावानुप्रवेश ,यथालिखिताभाव आदि के द्वारा हिंदी आलोचना को समृद्ध किया ।






सीमा--
1मनुष्‍यता को रस और साहित्‍य का पर्याय मान लिया ।इससे साहित्‍य और असाहित्‍य के बीच कोई विभाजक रेखा खींचना संभव नहीं हो पाता ।
2राम स्‍वरूप चतुर्वेदी का मानना है कि अपने युग के साहित्‍य के प्रति उनकी समझदारी और साझेदारी सीमित रही है ।

(रवि भूषण पाठक)

Tuesday 6 December, 2016

डॉ0 नगेन्‍द्र

डॉ0 नगेन्‍द्र
वाजपेयी जी के साथ ये भी समन्‍वयकारी आलोचक माने जाते हैं ।सौंदर्यमूलक स्‍वच्‍छन्‍दतावादी और रसवादी आलोचक ।सैद्धांतिक मनोविज्ञान के साथ ही युगीय मनोविज्ञान का सहारा । राम स्‍वरूप चतुर्वेदी के शब्‍दों में वे क्रमश: काव्‍य से शास्‍त्र की ओर उन्‍मुख होते गए हैं ।


साहित्‍य ,रस और आनन्‍द
1 साहित्‍य आत्‍मीय अभिव्‍यक्ति है ।
2 साहित्‍य का मूल्‍य साहित्‍यकार के आत्‍म की महत्‍ता और अभिव्‍यक्ति की पूर्णता और सच्‍चाई पर आधारित है ।
3 जीवन के अन्‍य अभिव्‍यक्तियों की तरह इसका भी एक विशेष स्‍वरूप ,शैली ।इसको ग्रहण करने के लिए विशेष संस्‍कार की आवश्‍यकता ।इसके अधिकारी इस कला के विशेषज्ञ ही हो सकते हैं ,सामान्‍य जन नहीं ।ये केवल उसका रस ग्रहण कर सकते हैं ।
4साहित्‍य वैयक्तिक चेतना है ,सामूहिक नहीं ।
5रस ही साहित्‍य का चरम मान ।अन्‍य मान एकांगी या असाहित्यिक ।
6 रस आनंद का पर्याय ,प्‍लेजर ,लज्‍जत या विनोद का नहीं ।आनंद और कल्‍याण परस्‍पर विरोधी नहीं ,परंतु सापेक्षत: आनंद का ही मूल्‍य ज्‍यादा ।
7 कवियों की अ‍नुभूति का ही साधारणीकरण होता है ,उसी के पास वह क्षमता कि अपनी अनुभूति को सामान्‍य की अनुभूति बना सके ।
8 नई कविता एवं व्‍यंग्‍य में भी रस की स्थिति होती है ।
9 काव्‍य का प्रयोजन आनन्‍द ही है ।समष्ठिगत लोककल्‍याण और व्‍यष्टिगत चेतना का परिष्‍कार उसके ही रूप ।
10 अलंकार अभिव्‍यक्ति के अभिन्‍न अंग ,परंतु साधन ही ,साध्‍य नहीं ।इनकी स्‍वतंत्र सत्‍ता नहीं ।ये अंग से अंगी होकर अराजक बनते हैं ।
11 भाषा और कला का अभिन्‍न संबंध ।भाषा की समृद्धि जीवन से ।भाषा का वैयक्तिक प्रयोग साधारणीकरण में बाधक ।
12 छंद को कविता का अनिवार्य और आंतरिक अंग माना ।
13साहित्‍य को विशुद्ध रागात्‍मक माना ,बुद्धिवादी या नीतिवादी नहीं ।आलोचक का स्‍वधर्म निश्‍छल आत्‍माभिव्‍यक्ति है ।आलोचना को अपनी आलोचना दृष्टि आलोच्‍य से ही प्राप्‍त करना चाहिए ।
13 शैली वैज्ञानिक आलोचना में मात्र भाषिक विज्ञान के विश्‍लेषण को आलोचना नहीं माना ।शैली की व्‍याप्ति साहित्‍य से सभी रूप तक नहीं ।यह कला का पर्याय नहीं ।
14 उन्‍होंने रमणीयार्थ को ही काव्‍य का साध्‍य माना ,तथा मूल्‍यों की चिंता किए बिना कहा कि काव्‍यानंद में ही मूल्‍य पर्यवसित हो जाते हैं ।
सैद्धांतिक योगदान----

1शुक्‍ल जी के साधारणीकरण संबंधी सिद्धांत का खंडन ।शुक्‍ल जी आलंबनत्‍व धर्म का साधारणीकरण मानते हैं ,उनके हिसाब से पाठक का तादात्‍म्‍य आश्रय के भावों से ।शुक्‍ल जी रस की मध्‍यकोटि स्‍वीकार करते हैं ।शुक्‍ल जी का रस का एकाधिक कोटि मानना दोषपूर्ण । आलंबनत्‍व धर्म में अनुभाव आदि का अंर्तभाव नहीं हो पाता ।संस्‍कृत आचार्य ने स्‍थायी भाव ,आश्रय आदि सबका साधारणीकरण माना है ।
2 रीति संप्रदाय पर विचार करते हुए वामन का विरोध करते हैं तथा आंशिक रूप से काव्‍य-शैली के भौगोलिक आधार को मानते हैं ।रीति-शैली में बहुत अंतर नहीं मानते ।
3कुंतक की तरह वक्रता-व्‍यापार को काव्‍य के मूल में अनिवार्य मानते हैं ।उन्‍हीं की तरह कवि-व्‍यापार को महत्‍व देते हैं ।


योगदान---
1 छायावाद की उत्‍पत्ति एवं स्‍वरूप की लौकिक एवं मनोवैज्ञानिक व्‍याख्‍या ।

2 काव्‍यशास्‍त्र के विभिन्‍न आयामों का तुलनात्‍मक गहन अध्‍ययन ।इससे व्‍यावहारिक आलोचना में गहराई ।
3
सुमित्रानंदन पंत , साकेत :एक अध्‍ययन , देव और उनकी कविता , आधुनिक हिंदी नाटक में व्‍यावहारिक आलोचना के विभिन्‍न आयाम ।
4 सौंदर्यानुभूति को लेखक की जीवनी से जोड़ा ।जीवन-यात्रा के विभिन्‍न मोड़ों ,बॉंधों को मनोवैज्ञानिक आयाम दिया तथा साहित्‍य से संबंध स्‍थापित किया ।इस दृष्टि से पंत ,मैथिलीशरण ,देव ,दिनकर एवं सियारामशरण गुप्‍त पर लेखन महत्‍वपूर्ण है ।जीवनी के प्रयोग ने आलोचना को समृद्ध किया ।
5 एक ही तरह की वस्‍तुओं के सूक्ष्‍मातिसूक्ष्‍म पार्थक्‍य को पकड़ लेने की अचूक दृष्टि । रूपानुभूति के भिन्‍न-भिन्‍न शेड्स का सूक्ष्‍मता से विश्‍लेषण ।

6
नयी समीक्षा:नये संदर्भ में पश्चिम में विकसित समीक्षा की नवीन प्रवृत्तियों का अध्‍ययन ।चिंतन के विभिन्‍न सूत्रों को पहचानने का प्रयास ।नयी समीक्षा के केंद्र में इलियट और रिचर्डस को रखा ।



सीमा--
1विभिन्‍न परिभाषाओं के आधार भिन्‍न। अत: सिद्धांतों में एकता नहीं असंगति ।
2 प्रयोगवाद को अनगढ़ और भदेस के अनावश्‍यक आग्रह का दोषी माना ,इसके आधार और स्‍वरूप को स्‍पष्‍ट नहीं कर सके ।

3 शेखर एक जीवनी और त्‍यागपत्र का विश्‍लेषण व्‍यक्तित्‍व और कर्तृत्‍व में सामंजस्‍य के आधार पर  ,अपनी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अज्ञेय पर पैनी नजर रखते हैं,परंतु प्रसाद के नाटकों का सफल मूल्‍यांकन नहीं कर सके ।
4छायावादोत्‍तर हिंदी कविता में
नयी कविता की तुलना में राष्‍ट्रीय सांस्‍कृतिक कविता तथा उत्‍तर छायावादी कविता को अधिक महत्‍व दिया ,परंतु उसे स्‍थापित नहीं कर सके ।

(रवि भूषण पाठक)

Monday 5 December, 2016

नन्‍द दुलारे वाजपेयी

शुक्‍लोत्‍तर आलोचक---आचार्य नन्‍द दुलारे वाजपेयी

छायावादी आलोचक वाजपेयी जी के लिए छायावादी ,स्‍वच्‍छंदतावादी ,सौष्‍ठववादी ,रसवादी ,अध्‍यात्‍मवादी संज्ञा और विशेषण का प्रयोग किया गया है ।वे किसी एक धारा में रूकते नहीं ,यह जहां तक उनकी विशेषता है ,वहीं सीमा भी ,क्‍योंकि विभिन्‍न धाराओं में भ्रमण करते हुए वे बहुत सारा असंगत तथ्‍यों एवं विचारों को एकत्र कर लेते हैं ।नन्‍द किशोर नवल ने उनकी आलोचना में
विरोध के स्‍थान पर समन्‍वय और विवादी स्‍वरों के स्‍थान पर संवादी स्‍वरों का उल्‍लेख किया है ।उनमें भौतिकवाद के साथ भाववाद और अध्‍यात्‍मवाद के साथ मार्क्‍सवाद का समन्‍वय दिखता है ।नवल जी उनको समन्‍वयवादी आलोचक मानते हैं ।बच्‍चन सिंह ने उनकी आलोचनात्‍मक मान में भावात्‍मक निष्‍पत्ति और रूपात्‍मक सौंदर्य को शामिल किया है ।इनकी प्रमुख पुस्‍तकें हैं –‘आधुनिक साहित्‍य ,नया साहित्‍य:नए प्रश्‍न ,जयशंकर प्रसाद ,कवि निराला ,हिंदी साहित्‍य :बीसवीं शताब्‍दी ,राष्‍ट्रीय साहित्‍य तथा अन्‍य निबन्‍ध ,प्रकीर्णिका

योगदान-
1 भक्ति कवियों और छायावादी कवियों के मूल्‍यांकन में आचार्य शुक्‍ल की सीमा का जोरदार उद्घाटन ।

2 छायावादी नूतन कल्‍पना छवि ,भाव और भाषा-रूपों पर पहली बार सकारात्‍मक दृष्टि
।छायावाद का अपना जीवन-दर्शन ,अपनी भाव-सम्‍पत्ति ।यह द्विवेदीकालीन परिपाटीबद्धता ,नीतिमत्‍ता और स्‍थूलता के विरूद्ध नवोन्‍मेष है ।इसमें अनुभूति ,दर्शन और शैली का अद्भूत सामंजस्‍य है ।यह राष्‍ट्रीय चेतना के स्‍वरों से परिपूर्ण है ।
3 निराला की आलोचना करते हुए बुद्धि तत्‍व और अभिधात्‍मक काव्‍य-शैली को आधार बनाया ।
4 जैनेन्‍द्र के सीमित दृष्टिकोण ,वैविध्‍यहीनता ,काल्‍पनिकता और ह्रासोन्‍मुखी मूल्‍यों पर प्रहार । शेखर एक जीवनी की मार्मिकता को स्‍वीकारा ,परंतु सामाजिक दृष्टि से इसे निम्‍नतर रचना बताया ।अश्‍क के उपन्‍यास संसार को सजीव ,परंतु प्राणियों को निर्जीव कहा ।

5 छायावाद पूर्व खड़ी बोली काव्‍य का दाय और कविता में आधुनिक युग के प्रवर्तन का श्रेय मैथिली शरण गुप्‍त को दिया ।रत्‍नकार की कविता को युग का अनिवार्य काव्‍य नहीं माना ।साकेत में सूक्ष्‍म कवित्‍व को स्‍वीकारा ।साकेत को आरंभिक कृति तथा कामायनी को प्रतिनिधि काव्‍यग्रंथ कहा ।
6 प्रसाद के नाटकों की ऐतिहासिकता ,काव्‍यात्‍मकता का उद्घाटन ।
चन्‍द्रगुप्‍त की तुलना में स्‍कन्‍दगुप्‍त की संरचनात्‍मक अन्विति एवं रंगमंचीयता पर बल ।


दृष्टि-
1 काव्‍य में मूलत: सौन्‍दर्यानुसन्‍धान ,इसे जीवन-चेतना से जोड़ा ।
2कथा साहित्‍य और नाटक में जीवन चेतना और सामाजिक प्रभाव तथा उनके परिदृश्‍य का आकलन ।प्रसाद को स्‍वच्‍छंदतावादी और लक्ष्‍मी नारायण मिश्र को पुनरूत्‍थानवादी कहा ।
3 रसवाद को स्‍वीकार करते हुए भी इसे बहुत उपयोगी नहीं माना ,क्‍योंकि यह निम्‍न कोटि के कवियों को संरक्षण देता है ।
4 प्रारंभ में मानते हैं कि साहित्‍यकार को समाज की चिंता करने की जरूरत नहीं ,
शिव शब्‍द को व्‍यर्थ माना ,जहां सत्‍य और सुंदर होगा ,वहां शिव होगा ही ।
5 प्रगीत और प्रबंध की तुलना करते हुए प्रगीत को ऐसा शिल्‍प माना ,जिसमें कवि की भावना की पूर्ण अभिव्‍यक्ति संभव है ।
6 शुद्ध कविता की खोज करना चाहा ,तथा आलोचना में सिद्धांतविहीनता का पक्ष लिया ।
7 आलोचना में सात प्रतिमानों को वरीयता क्रम दिया ,जिसमें कवि की अंर्तवृत्ति को सर्वोपरि माना ,तथा अंत में कवि के सामाजिक संदेश को रखा ।



सीमा-
1 विभिन्‍न मतवादों ,विचारों ,आग्रहों का समन्‍वय करना चाहा ।
सैद्धांतिक दृढ़ता का अभाव ।

2प्रेमचन्‍द के पात्र वर्गगत ,जातिगत हैं ,व्‍यक्तिगत नहीं ,यह माना । वे भावात्‍मक एवं समसामयिक कहानी लिखते हैं । गोदान को राष्‍ट्रीय एवं महाकाव्‍यात्‍मक मानने का विरोध किया ।

(रवि भूषण पाठक)