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Sunday 30 December, 2012

श्रीलाल शुक्‍ल


श्री लाल शुक्‍ल

जन्‍म तिथि :  31 दिसंबर 1925

निधन   :28 अक्‍तूबर   2011

प्रमुख कृति  : सूनी घाटी का सूरज ,राग दरबारी ,पहला पड़ाव ,विश्रामपुर का संत ,अंगद का पांव
साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार :राग दरबारी(1969)

व्‍यास सम्‍मान: विश्रामपुर का संत(1999)

2008 में पद्म भूषण
2009 में ज्ञानपीठ पुरस्‍कार






Saturday 29 December, 2012

सत्‍य


           सत्‍य
सत्य को लकवा मार गया है
वह लंबे काठ की तरह
पड़ा रहता है सारा दिन, सारी रात
वह फटी–फटी आँखों से
टुकुर–टुकुर ताकता रहता है सारा दिन, सारी रात
कोई भी सामने से आए–जाए
सत्य की सूनी निगाहों में जरा भी फर्क नहीं पड़ता
पथराई नज़रों से वह यों ही देखता रहेगा
सारा–सारा दिन, सारी–सारी रात

सत्य को लकवा मार गया है
गले से ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
सोचना बंद
समझना बंद
याद करना बंद
याद रखना बंद
दिमाग की रगों में ज़रा भी हरकत नहीं होती
सत्य को लकवा मार गया है
कौर अंदर डालकर जबड़ों को झटका देना पड़ता है
तब जाकर खाना गले के अंदर उतरता है
ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
सत्य को लकवा मार गया है

वह लंबे काठ की तरह पड़ा रहता है
सारा–सारा दिन, सारी–सारी रात
वह आपका हाथ थामे रहेगा देर तक
वह आपकी ओर देखता रहेगा देर तक
वह आपकी बातें सुनता रहेगा देर तक

लेकिन लगेगा नहीं कि उसने आपको पहचान लिया है

जी नहीं, सत्य आपको बिल्कुल नहीं पहचानेगा
पहचान की उसकी क्षमता हमेशा के लिए लुप्त हो चुकी है
जी हाँ, सत्य को लकवा मार गया है
उसे इमर्जेंसी का शाक लगा है
लगता है, अब वह किसी काम का न रहा
जी हाँ, सत्य अब पड़ा रहेगा
 लोथ की तरह, स्पंदनशून्य मांसल देह की तरह!

(1975)

Sunday 23 December, 2012

ओ सामने वाली पहाड़ी : सुरेश सेन निशांत

सुरेश सेन निशांत की कविताओं में पहाड़ का वह रूप नहीं है ,जो पंत या उसके बाद की कविताओं में है ।जहां पंत के पहाड़ 'ग्‍लोबल' हैं ,वहीं सुरेश के 'लोकल' ।इस स्‍थानीयता की अपनी आभा है ।यहां पहाड़ के साथ ही स्‍थानीय जीवन की तमाम तल्‍ख सच्‍चाईयां सामने हैं ।यह पर्वत-यात्रा आनंदित नहीं करती ,और इसके झकझोड़ने में ही कविता की शक्ति समाहित है



ओ सामने वाली पहाड़ी


एक(1)


मुझे नहीं पताइस बसंत में कैसी नजर आएगी तू
कैसी दिखेगी इस सावन में
जब बारिश से भींगी हुई होगी
तुम्‍हारी देह ।

हरे रंग का परिधान
तेरे जिस्‍म पर बहुत फबता है
बहुत भाता है मुझे
बुरांश के फूलों से सजा
तेरा रूप ।


मैं घंटों निहारता रहता हूं तुझे
जैसे कोई प्रेमी
अपनी प्रेमिका को निहारता है
जैसे कोई सत्रह बरस का युवक
किसी अति सुंदर लड़की को
अचरज से भरा निहारता ही जाता है
अपनी सुध-बुध खोता हुआ ।
जैसे कोई मछेरा हसरत भरी नजरों से
निहारता है नदी के निर्मल जल को।

उसी तरह हां उसी तरह
मैं निहारता रहता हूं तुम्‍हें ।

हर रोज नित नए ढ़ंग से
सँवरा हुआ लगता है मुझे तेरा रूप ।
तुम्‍हारी आंखों के जल में
रोज धोता हूं मैं अपनी देह ।
तुम्‍हारी देह की आंच में
सुखाता हूं अपना जिस्‍म ।
तुम्‍हारी आवाज की लहरों पर
तैराता हूं गांव भर के बच्‍चों के संग
अपनी भी कागज की कश्तियां।
मैं तुम्‍हारे जिस्‍म में
डूबो देता हूं अपना जिस्‍म
मिलता हूं वहां असंख्‍य जंतुओं से
असंख्‍य पंछियों से करता हूं दोस्‍ती ।


पता नहीं
कितने ही रहस्‍यों से भरी पड़ी है तू
जब भी तेरी देह में उतरता हूं
मैं ईश्‍वर को देखता हूं
तेरी देह में हरे रंग का परिधान पहने
एक कोमल पत्‍ते सा हिलते हूए


मैं देखता हूं वहां
अपने पुरखों को घास काटते हुए ।
सूखी लड़कियों का भरौटा उठाए
देखता हूं गांव भर की औरतों को उतरते ।
मैं हल की फाल उठाये
पिता को देखता हूं तेरे पास से
खुशी-खुशी लौटते ।
मैं देखता हूं
मुंह अंधेरे की गई मेरी बहिनें
मीठे काफलों की
भरी टोकरी लेकर लौट रही है तेरे पास से ।

पर इधर कोई
हरीश सिमेंट वाला टांग रहा है
तेरी देह पर अपना बोर्ड
तेरी देह से वस्‍त्र उतारने की
कर रहा है नित नए षड्यंत्र ।
हमारे ग्राम प्रधान और विधायक
लालच की नदी में डूबकर
उसकी महफिलों की बन गए हैं रौनक ।

ओ सामने वाली पहाड़ी
आजकल पूरे जनपद के कुम्‍हार
जब भी बनाने बैठते हैं घड़े
चाक पर रखी गीली मिट्टी में
सुनाई देती हैं उन्‍हें तुम्‍हारी सिसकियां
तुम्‍हारी कराहटों से भरी रहती है
उदास लुहारों की सुलगती गोरसियां


जब भी चरने छोड़ते हैं हम अपने मवेशी
वे दिन भर तुम्‍हें ही निहारते रहते हैं
मां से बिछुड़ रहे बच्‍चे सा होता है
उदासी और विलाप से भरा उनका रम्‍भाना


सो सामने वाली पहाड़ी
बच्‍चे आजकल
तुम्‍हारी वनस्‍पतियों को , पंछियों को
और तुम्‍हें अपने सपनों में बचाने की बातें
करते रहते हैं
वे तुम्‍हें सुमेरू पर्वत सा उठाकर
कही दूर छुपाकर बचा लेना चाहते हैं
उनकी भोली बातें सुन
दुख और क्रोध से भर जाती हैं औरतें
दुख और क्रोध से भर जाते हैं हम


हमारे इस विलाप में शामिल है
गीदड़ों का भी विलाप



दो (2)


ओ सामने वाली पहाड़ी
तीन कोस दूर पे
एक और फैक्‍टरी है सिमेंट की
ए0सी0सी0 नाम है उसका ।

यहां हर रोज बारूद के धमाकों से
तोड़ी जाती है एक पहाड़ी
वहां हर रोज
मरते हैं कुछ चिडि़यों के बच्‍चे
जो अभी उड़ना ही सीख रहे होते हैं

हर रोज बारूद के धमाकों से
सहमा जल निथरता जाता है
धरती की गहराई की ओर
हर रोज कम होता जाता है
हमारी बावडि़यों और कुओं का जल
हर रोज बढ़ती जाती है
हमारे गांव-घर की औरतों की
पानी के स्रोतों से दूरी ।


यहां हर रोज़ धमाकों से
कांपती है घरती
कांपता है हमारा मन
कांपती रहती है आसपास की
पहाडि़यों की रूह
कांपता रहता है भय से भरा
देर तक इस सतलुल का भी जल ।

ओ सामने वाली पहाड़ी
उसमें थोड़ा सा दूर जाएं
तो एक और सीमेंट फैक्‍टरी है
दूजी पहाड़ी पर बनी
अंबुजा नाम है उसका
वहां भी वैसी ही है
बारूद के धमाकों की गूंज
वैसा ही है धूऍं के बीच दौड़ते
ट्रकों का बेतहाशा शोर ।
उसकी बगल वाली पहाड़ी पर
जे0पी0 सीमेंट फैक्‍टरी है ।


यहां हर जगह सुनी जा सकती है
धरती की सिसकियां
और इन पहाडि़यों के सौदागरों की
ऊँची ठहाकेदार हँसी भी ।



तीन (3)
  

कहां जाऍंगे हम
हमारे मवेशी कहां जाऍंगे
कहां जाएँगे इन पहाडि़यों पर
बसने वाले परिंदे

हम बारिशों को
कौन से गीत गाकर बुलाऍंगे
हम धरती के इतने घावों को
कैसे भरेंगे
कहां रखेंगे
कहां बोएंगे
भय से सूखते
इन पेड़ों के बीज


चार(4)


ए0सी0सी0 सिमेंट फैक्‍ट्री के
बगल वाले गांव में है
मेरी बहिन का घर
धूल की एक मोटी दीवार है
हमारे और बहिन के घर के बीच
नहीं सुनाई देती है
बहिन की दुख भरी आवाज
उसकी सिसकियां ।
धूल की एक मोटी पर्त
बिछी रहती है
बहिन की घर की छत पर भी
जिसे धोती है कभी कभार होने वाली वारिश ।
धूल ही धूल है
घासनियों की घास पर भी
जिसे नहीं खाते हैं मवेशी ।
बहिन के पांच साल के बेटे को
हो गई है खांसी
जो जाती ही नहीं
यही बीमारी है उसके पिता को भी
वंशानुगत नहीं है यह रोग
अभी-अभी फैला है ।


सुरेश सेन निशांत

( गांव-सलाह ,डाक-सुन्‍दरनगर-1 ,जिला-मण्‍डी ,174401 ,हिमाचल प्रदेश)

फोन 09816224478


सभार 'बया' ,'अंतिका प्रकाशन' , गौरीनाथ(संपादक 'बया')

Sunday 16 December, 2012

अब तो पिताओं के भी मरने के दिन आ गए हैं ।

उम्र चालीस
चर्बियों के हिसाब से किसी नौकरी में
 मोटरसाईकिल की डिक्‍की में बी0पी0 शुगर की रिपोर्ट
रंगरूप और सफाचट ललाट से तेल-क्रीम की विफलता स्‍पष्‍ट थी
कई और चूर्ण ,अर्क भी फेल हुए थे
बच्‍चों की मार्कशीट :इस बार भी ससुरा थर्ड ही आया
जेब में मॉल का पता :कब तक झूठमूठ का व्‍यस्‍त रहोगे
हैंडिल में लटका सब्जियों का झोला:फिर अदरख भूले हो ससुर
फोन पर बार-बार नजर: फिर कौन सी मीटिंग है
गांव में मां भी बीमार है
अब तो पिताओं के भी मरने के दिन आ गए हैं ।

Monday 10 December, 2012

केदारनाथ सिंह का काव्‍य-संसार

गांव और शहर
 यह कहना काफी नहीं कि केदारनाथ सिंह की काव्‍य-संवेदना का दायरा गांव से शहर तक परिव्‍याप्‍त है या यह कि वे एक साथ गांव के भी कवि हैं तथा शहर के भी । दरअसल केदारनाथ पहले गांव से शहर आते हैं फिर शहर से गांव ,और इस यात्रा के क्रम में गांव के चिह्न शहर में और शहर के चिह्न गांव में ले जाते हैं ।इस आवाजाही के चिह्नों को पहचानना कठिन नहीं हैं ,परंतु प्रारंभिक यात्राओं के सनेस बहुत कुछ नए दुल्‍हन को मिले भेंट की तरह है ,जो उसके बक्‍से में रख दिए गए हैं । परवर्ती यात्राओं के सनेस में यात्री की अभिरूचि स्‍पष्‍ट दिखती है ,इसीलिए 1955 में लिखी गई ‘अनागत’ कविता की बौद्धिकता धीरे-धीरे तिरोहित होती है ,और यह परिवर्तन जितना केदारनाथ सिंह के लिए अच्‍छा रहा ,उतना ही हिंदी साहित्‍य के लिए भी ।


बहुत कुछ नागार्जुन की ही तरह केदारनाथ के कविता की भूमि भी गांव की है ।दोआब के गांव-जवार,नदी-ताल,पगडंडी-मेड़ से बतियाते हुए केदारनाथ न अज्ञेय की तरह बौद्धिक होते हैं न प्रगतिवादियों की तरह भावुक ।केदारनाथ सिंह बीच का या बाद का बना रास्‍ता तय करते हैं ।यह विवेक कवि शहर से लेता है ,परंतु अपने अनुभव की शर्त पर नहीं ,बिल्‍कुल चौकस होकर ।



गंगा तट का यह कवि

छायावाद के बाद संभवत: पहली बार नदियों की इतनी छवियां एकसाथ दिखती है ।1979 में बिहार-उत्‍तरप्रदेश की सीमा पर मांझी गांव में घाघरा नदी पर स्थित पुल पर एक कविता लिखी गई है ।कवि ,उसकी दादी ,चौकीदार ,बंशी मल्‍लाह,लाल मोहर ,जगदीश ,रतन हज्‍जाम और बस्‍ती के लोग ही नहीं झपसी की भेड़ें भी पुल के जनम ,उसके विस्‍तार ,ईंट और बालू पर चर्चा करते हैं । फिर इसके बाद- मछलियां अपनी भाषा में

क्‍या कहती हैं पुल को ?

सूंस और घडि़याल क्‍या सोचते हैं
 कछुओं को कैसा लगता है पुल?

जब वे दोपहर बाद की रेती पर
अपनी पीठ फैलाकर
उसकी मेहराबें सेंकते हैं?
 मैं जानता हूं मेरी बस्‍ती के लोगों के लिए
 यह कितना बड़ा आश्‍वासन है
 कि वहां पूरब के आसमान में
 हर आदमी के बचपन के बहुत पहले से
 चुपचाप टॅंगा है मांझी का पुल

(मांझी का पुल )





उसी प्रकार कवि गंगा को एक लंबे सफर के बाद तब देखता है जब उसे साहस और ताजगी की बेहद जरूरत होती है ।कवि के लिए नदी कोई बाहरी चीज नहीं बिल्‍कुल घरेलू सामान जैसा है : सचाई यह है
 कि तुम कहीं भी रहो
तुम्‍हें वर्ष के सबसे कठिन दिनों में भी
 प्‍यार करती है एक नदी
 नदी जो इस समय नहीं है इस घर में
 पर होगी जरूर कहीं न कहीं
 किसी चटाई

या फूलदान के नीचे चुपचाप बहती हुई (नदी)

धर्म या अध्‍यात्‍म के किसी भी तत्‍व पर बल दिए बिना केदारनाथ सिंह की कविता में नदी अपने पूरे सामाजिक –जीवमंडल के साथ मौजूद है
 कीचड़ सिवार और जलकुम्भियों से भरी
 वह इसी तरह बह रही है पिछले कई सौ सालों से
 एक नाम की तलाश में
 मेरे गांव की नदी (बिना नाम की नदी)

प्रतिरोध का नया रूप

केदारनाथ सिंह की नदियां ,पहाड़ ,पौधे स्‍वाभाविक तेज से दीप्‍त हैं और कवि ‘पहाड़’ कविता में पहाड़ को सुस्‍ताते ,गहरे ताल में उतरते देखता है :
अन्‍त में
 खड़े-खड़े
विराट आकाश के जड़ वक्षस्‍थल पर
 वे रख देते हैं अपना सिर
 और देर तक सोते हैं
क्‍या आप विश्‍वास करेंगे
 नींद में पहाड़
रात-भर रोते हैं ।

केदारनाथ सिंह की कविता में नदी ,पहाड़ ,नीम ही नहीं गधा और कौआ भी अपनी बात कह लेते हैं ।पर किसी प्रकार का बड़बोलापन यहां नहीं दिखती ।
 जिरह के बीचोबीच एक गधा खड़ा था
खड़ा था और भींग रहा था
पानी उसकी पीठ और गर्दन की
तलाशी ले रहा था
 उसके पास छाता नहीं था
 सिर्फ जबड़े थे जो पूरी ताकत के साथ
 वारिस और सारी दुनिया के खिलाफ
बन्‍द कर लिये गये थे
 यह सामना करने का
 एक ठोस और कारगर तरीका था
 जो मुझे अच्‍छा लगा
 (वारिस)

 इसी प्रकार ‘भरी दोपहरी में बोलता रहा कौआ’ अपनी आवाज से जितना चिढ़ाता है ,चुप रहकर भी उतना ही परेशान करता है ।



व्‍यंग्‍य का नया रूप

 रूलाने वाला व्‍यंग्‍य कम कवियों के पास है ।केदारनाथ सिंह के व्‍यंग्‍य व्‍यवस्‍था या नियति पर चित्‍कार करते हैं

पानी में घिरे हुए लोग
 प्रार्थना नहीं करते

वे पूरे विश्‍वास के साथ देखते हैं पानी को
 .............
मगर पानी में घिरे हुए लोग
 शिकायत नहीं करते
वे हर कीमत पर अपनी चिलम के छेद में
 कहीं न कहीं बचा रखते हैं
थोड़ी-सी आग

(पानी में घिरे हुए लोग)


लोककथाओं की शैली

केदारनाथ सिंह लोककथाओं का उपयोग करते हुए अपनी कविता को बढ़ाते हैं ।प्राय: पौधों ,जानवरों ,पहाड़ों या नदियों से बात करते हुए ,परंतु वे 'असाध्‍य वीणा' जैसा लंबा रूपक नहीं रचते हैं ।लोककथाओं का भी केवल बतियाने वाला तत्‍व ही उनके दिमाग में आता है ,वे किसी पुराने लोककथा का प्रयोग करने से बचते हैं ,परंतु उनका प्रयोग इतना लोकधर्मी है कि ये कविता किसी पुराने लोककथा की तरह सामाजिक-मनोविज्ञान के अनगिन स्‍नायुओं को स्‍पर्श करते हैं ।


अपने समय की रचनात्‍मकता पर नजर

कोई लेखक कई तरह से अपने समय की रचनात्‍मकता में हस्‍तक्षेप करता है ,केवल लिखकर ,केवल काटकर ,लिखकर और काटकर .............. और केदारनाथ सिंह लिखते हैं भी और काटते हैं ।आलोचनात्‍मक लेख लिखकर ही नहीं कविता में भी वे कई बार काट-खूट करते रहते हैं
दो लोग तुम्‍हारी भाषा में ले आते हैं
कितने शहरों की धूल और उच्‍चारण
क्‍या तुम जानते हो

(दो लोग)

एक साइकिल धूप में खड़ी थी
जो साइकिल से ज्‍यादा एक चुनौती थी
मेरे फेफड़ों के लिए
और मेरी भाषा के पूरे वाक्‍य-विन्‍यास के लिए

(दुश्‍मन)


और भाषा जो मैं बोलना चाहता हूं
मेरी जिह्वा पर नहीं
बल्कि दांतों के बीच की जगहों में
सटी है

(फर्क नहीं पड़ता)

हमारा हर शब्‍द
किसी नये ग्रहलोक में
एक जन्‍मान्‍तर है


यह जन्‍मांतर उनकी हर कविता में दिखता है ,और अपनी बात को अनूठी तरह से रखने वाला यह कवि हमारे समय का बहुत बड़ा कवि है ।विषय ,भाषा और शैली का नवोन्‍मेष उसे बेजोड़ बनाता है ,इस दृष्टि से उनमें और उनकी कविता में नवीनता का अत्‍यंत ही सजग एहसास है ,परंतु नई कविता की घोषणाओं से बहुत कुछ अलग ।

जीवन का अबाध स्‍वीकार

केदारनाथ सिंह की कविताओं में जीवन की स्‍वीकृति है ,परंतु तमाम तरलताओं के साथ यह आस्तिक कविता नहीं है ।

मैं जानता हूं बाहर होना एक ऐसा रास्‍ता है
जो अच्‍छा होने की ओर खुलता है
और मैं देख रहा हूं इस खिड़की के बाहर
एक समूचा शहर है
(बीमारी के बाद)

और केदारनाथ सिंह की इस बेहतर दुनिया में ईश्‍वर नहीं हैं ।यह बैंकों ,ट्रेनों,वायुयानों की दुनिया है ,जहां ईश्‍वर के पास करने के लिए कुछ भी नहीं है


यह कितना अद्भुत है
कि दस बजे हैं
और दुनिया का काम चल ही रहा है
बिना ईश्‍वर के भी
बसें उसी तरह भरी हैं
उसी तरह हड़बड़ी में हैं लोग
डाकिया उसी तरह चला जा रहा है
थैला लटकाये हुए
(बिना ईश्‍वर के भी)

और केदारनाथ सिंह की कविता में कोई ईश्‍वर है भी तो माचिस और लकड़ी  के साथ ही

मेरे ईश्‍वर
क्‍या मेरे लिए इतना भी नहीं कर सकते
कि इस ठंड से अकड़े हुए शहर को बदल दो
एक जलती हुई बोरसी में
(शीतलहरी में एक बूढ़े आदमी की प्रार्थना)



Sunday 9 December, 2012

मैं एक कवि था

गुरूजी सही कहते थे कि बचुवा पहले खूब पढ़ ले तब लिखना


और हम इतना जल्दियाए थे कि कहते थे बस्‍स गुरू जी बस्‍स

और एक दिन एक कवि का शीर्षक मैच कर गया तो

 एक ससुरा इतना जोर से डांटा कि जैसे उनकी बछिया चुरा ली हो हमने

और इसी तरह एक दिन किसी कविता की गाली भी

तो लगा ऐसे जैसे सारी गालियां का कॉपीराइट उन्‍हीं के पास हो

हरेक डांट-फटकार ,गाली-गलौज में याद तो आते हैं गुरू जी

पर जितना कठिन है गलती मानना उससे भी कठिन महाभूतों का साक्षात्‍कार

सो गुरू जी क्षमा करिएगा कविता का विकास ऐसे ही लिखा था

पटना में दिल्‍ली में इंदौर में और आगे भी और आप जहां हैं वहां भी

और कविताओं की संख्‍या उतनी तेजी से बढ़ रही है जितनी तेजी से छोटका गिनती सीख रहा है

और पत्‍नी भी मुंह चमकाकर हाथ नचाकर विद्वान मानने लगी है

सो गुरू जी सही सही बताइएगा क्‍या गुरूआइन भी इसी तरह हाथ नचाकर आपको सराहती थी
जब दुनिया के सारे संज्ञा-सर्वनाम ,क्रिया और विशेषण घिस चुके थे
बिक चुका था मैगजीन और चौराहों का हरेक कोना
हम भी पुराने आइडिया को पूरी बेशरमी से मौलिक कह संपादक को भेजते
और संपादक भी उसी तेजी से आभार प्रकट कर चुप्‍पी मार देता
दरअसल अब कविता को अस्‍वीकृत नहीं किया जाता था
और कविता लौटाना भी पुराना फैशन था
इसी सुविधा ने मुझे कवि बनाए रखा सालों साल
और मैं भी एक कवि था
मेरे भी कुछ छंद थे ,विषय था
कुछ मेरे भी पाठक थे ,श्रोता भी थे
मंच ,गुट और कंठ को सुरीला बनाता
गोलमिर्च ,अदरख खाता
मैं एक कवि था

Monday 17 September, 2012

कुमार विश्‍वास: मँहगे कवि की सस्‍ती कविता

कुमार विश्‍वास क्‍या आप मैथिली शरण गुप्‍त के बाद के किसी कवि को जानते हैं ,यदि हां तो आपने उनसे क्‍या सीखा ,और नहीं तो जान लीजिए गुप्‍त युग के बाद छायावाद ,प्रगतिवाद ,प्रयोगवाद ,नई कविता ,समकालीन कविता के रास्‍ते हिंदी कविता नई सदी में प्रविष्‍ट हुई है ।इस लंबे रास्‍ते में हिंदी कविता ने बहुत सारे गहनों को छोड़ा है , ढ़ेर सारा नयापन आया है ।आजहिंदी कविता निराला ,नागार्जुन ,अज्ञेय ,शमशेर ,मुक्तिबोध ,धुमिल के प्रयोग को स्‍वीकार करती है ।आप गुप्‍त युग के ही किसी अदने कवि के सौवें फोटोस्‍टेट की तरह आवारा बादल बरसा रहे हैं ,पर यदि वो वारिश ही सही है ,तो फिर अज्ञेय का क्‍या होगा :

अगर मैं तुमको ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका
या शरद के भोर की नीहार न्‍हाई कुंई
टटकी कली चम्‍पे की
वगैरह अब नहीं कहता ।
तो नहीं कारण कि मेरा ह्रदय
उथला या कि सूना है ।
देवता अब इन प्रतीकों के कर गए हैं कूंच
कभी वासन अधिक घिसने से मुलम्‍मा छूट जाता है ।

परंतु आप उन भगोड़े देवताओं को कहते हैं 'इहा गच्‍छ इहा तिष्‍ठ ' ।कहे हुए बातों को दुहराने तिहराने से कविता नहीं बनती ,ये आपसे कौन कहे ,क्‍योंकि आपको हरेक सुझाव दाता आपको ईर्ष्‍यालु नजर आता होगा ,जो आपके स्‍टाईल ,आपकी लोकप्रियता ,मिलने वाली धनराशि से जलता होगा ।मैंने आपका दर्शन तो नहीं किया कभी ,परंतु एक मित्र ने मुझे फोन करके कहा कि आप हिंदी के सबसे बड़े कवि हैं मतलब सबसे मंहगे कवि ,आपके एक रात का खर्चा चार-पांच लाख है ,और आप महीनों महीनों पहले से ही 'बुक' रहते हैं ।अब गुरू आपने तो साहित्‍य अकादमी और ज्ञानपीठ की ऐसी तैसी कर दी ।ससुर साहित्‍यकार लोग आजन्‍म लिखकर भी ज्ञानपीठ नहीं पाते ,जिसकी पुरस्‍कार राशि पांच लाख है ,और आप तो अमिताभ बच्‍चन की तरह आते हैं ,और दो घंटे में ही पांच लाख ले लेते हैं ,वैसे धनराशि मजेदार और ईर्ष्‍योत्‍पादक जरूर है ,परंतु मिहनत जरा कविता पर भी कर लीजिए ।एक और अदने कवि शमशेर की कुछ पंक्तियां आपको भेज रहा हूं :

हिन्‍दी का कोई भी नया कवि अधिक-से अधिक ऊपर उठने का महत्‍वाकांक्षी होगा तो उसे और सबों से अधिक तीन विषयों में अपना विकास एक साथ करना होगा
1 उसे आज की कम-से-कम अपने देश की सारी सामाजिक,राजनैतिक और दार्शनिक गतिविधियों को समझना होगा ,अर्थात वह जीवन के आधुनिक विकास का अध्‍येता होगा  ।साथ ही विज्ञान में गहरी और जीवंत रूचि होगी ।
हो सकता है इसका असर ये हो कि वो कविताएं कम लिखे मगर जो भी लिखेगा व्‍यर्थ न होगा ।

2 संस्‍कृत ,उर्दू ,फ़ारसी ,अर‍बी ,बंगला ,अंग्रेजी और फ्रेंच भाषाऍं और उनके साहित्‍य से गहरा परिचय उसके लिए अनिवार्य है ।(हो सकता है कि उसका असर ये हो कि बहुत वर्षों तक वह केवल अनुवाद करे और कविताऍं बहुत कम लिखे जो नकल-सी होंगी ,व्‍यर्थ सिवाय मश्‍क के लिखने को या कविताऍं लिखना वो बेकार समझ) इस दिशा में अगर वह गद्य भी कुछ लिखेगा तो वह भी मूल्‍यवान हो सकता है ।

3 तुलसी ,सूर ,कबीर ,जायसी ,मतिराम ,देव ,रत्‍नाकर और विद्यापति के साथ ही नज़ीर ,दाग़ ,इक़बाल ,जौ़क और फ़ैज के चुने हुए कलाम और उर्दू के क्‍लासिकी गद्य को अपने साहित्‍यगत और भाषागत संस्‍कारों में पूरी-पूरी तरह बसा लेना इसके लिए आवश्‍यक होगा ।

अब फिर से एक पाठक की घटिया दलील ।दलील ये कि पांच लाख प्रति घंटा देने वाला चूतिया नहीं है न ,टोपियां ,गमछा ,आंगी उछालने वाले हजारों युवा बेवकुफ़ नहीं है न  ।अब गुरू ये सोचो कि राजू श्रीवास्‍तव तुमसे कम तो नहीं लेता है ,तुमसे ज्‍यादा ही लोकप्रिय है ,और उसके हूनर में भी कविता की गंध है ,तो क्‍यों न उसके कॉमेडी को भी कविता ही कहा जाए ।

और इस अदने पाठक की दूसरी और अंतिम दलील (दलील नहीं अनुरोध)कि लिखने के लिए पढ़ना भी जरूरी ही है ।हरेक आंदोलन  को ठोस बुनियाद चाहिए ,कविता को भी ।और कविता का गोत्र तो निश्चित ही अलग होना चाहिए ।आपकी कविता आपकी ही कविता दिखनी चाहिए ,और आपकी सब कविता अपनी ही कविता से अलग भी ।कमाने और उड़ाने का तर्क अलग है ,अच्‍छी कविता का अलग ।











Thursday 13 September, 2012

'कान्‍यकुब्‍ज कुल कुलांगार' का प्रयोग केवल कान्‍यकुब्‍जों के लिए नहीं था ।इस शब्‍द के द्वारा निराला ने एक व्‍यापक क्षेत्र में परिवर्तनविरोधी हठधर्मिता को पहचाना ।खाकर के पत्‍तल में छेद करने वालों की स्थिति मज़बूत ही हुई है ।हिंदी दिवस के अवसर पर हिंदी भाषा और हिंदी कविता के सबसे बड़े साधक का याद आना स्‍वाभाविक है ।इस अवसर पर निराला की कविता 'हिन्‍दी के सुमनों के प्रति पत्र ' :
'हिन्‍दी के सुमनों के प्रति पत्र '

मैं जीर्ण-साज बहु छिद्र आज,

तुम सुदल सुरंग सुबास सुमन
मैं हूं केवल पदतल-आसन

तुम सहज विराजे महाराज ।

ईर्ष्‍या कुछ नहीं मुझे ,यद्यपि
मैं ही वसन्‍त का अग्रदूत,
ब्राह्मण -समाज में ज्‍यों अछूत
मैं रहा आज यदि पार्श्‍वच्‍छवि ।


तुम मध्‍य भाग के महाभाग
तरू के उर के गौरव प्रशस्‍त
मैं पढ़ा जा चुका पत्र, न्‍यस्‍त
तुम अलि के नव रस-रंग-राग ।

देखो,पर,क्‍या पाते तुम फल

देगा जो भिन्‍न स्‍वाद रस भर
कर पार तुम्‍हारा भी अंतर
निकलेगा जो तरू का सम्‍बल ।

फल सर्वश्रेष्‍ठ नायाब चीज
या तुमा बांध कर रँगा धागा
फल के भी उर का कटु त्‍यागा,
मेरा आलोचक एक बीज ।


















 

Wednesday 12 September, 2012

अनिल की जुबान से

अनिल त्रिपाठी ने स्‍वतंत्रता सेनानी रामबचन सिंह का चौमहला मकान  देखते हुए कहा कि
बाबा पर भूत सवार था कि देश ही परिवार है

और आजादी के बाद वे ग्राम स्‍वराज का मूर्दा सपना देखते रहे
जवाहिर लाल और कमलापति त्रिपाठी के भेजे चिट्ठियों के गट्ठर को याद करते भाई अनिल ने कहा कि
यदि बाबा एक बार भी कमलापति को संकेत करते
तो मुमकिन था कि पिता अच्‍छी जगह पर रहते
परंतु पिता ऐसे  वकील थे कि
आई0पी0सी0 से ज्‍यादा रामचरितमानस का पन्‍ना उलटाते थे
जमते कचहरी से ज्‍यादा गोष्ठियों ,सेमिनारों,चौराहों पर
खरे खर्रुश लंठ थे
मुंहफट थे चंठ थे
 दुश्‍मनी का कम मौका छोड़ते थे
फिर भी कुछ शुभचिंतक थे
जिन्‍हें चिंता थी कि पांच बेटा को वीरेंद्र कैसे पोसेगा
और उन्‍होंने आटाचक्‍की -स्‍पेलर लगाने की सलाह दी
आटा मसल्‍ला तेल की समस्‍या भी खतम
और पांचों बेटे खप भी जाएंगे
और पिता परेशान कि दुनिया का कौन सा धंधा शुरू करें
कि इज्‍जत ,पुस्‍तैनी जमीन और जान बचे
महीनों की मथचटनी के बाद पिता ले आए एक प्रेस
और यह बाजार की दूसरी प्रेस थी
पिता सोचे कि ससुर लोग पढ़ाई लिखाई में ही तो लगे रहेंगे
हम लोग असूर्यपश्‍या हो गए
दिन रात लगे रहते कंपोजिंग ,टाईपिंग में
दादी कहती कि ई वीरेंद्र मार देगा बच्‍चों को
और तभी पिता बन गए प्रकाशक-मुद्रक-संपादक 'अचिरावती ' के
उन दिनों हम पांचों भाई मगन हो कम्‍पोज करते थे
उन पत्रों की कंपोजिंग करते हम बहुत खुश होते थे
जिसमें 'अच्‍छा प्रयास' ,अद्भुत ,' प्रशंसनीय' ,'अतुलनीय' लिखा होता था
बेतिया बिहार के सुधीर ओझा का ललित निबंध कंपोज करने के लिए हम भाईयों में बहस हो जाती थी
और एक बार तो बाकायदा पिता ने इन्‍हें सम्‍मानित करने की घोषणा कर दी
और ओझा जी एक साल तक पत्र भेजते रहे कि जनाब सम्‍मान में क्‍या है
कितनी राशि ,कब दोगे ,आदि आदि
और एक बार तो उन्‍होंने क्रोध में भी पत्र लिख दिया
अब तक भाई अनिल और हम कलेक्‍ट्रेट तक आ गए थे
और कलेक्‍ट्रेट के मीनार पर लगे घड़ी को देखते हुए उन्‍होंने कहा कि
ओझा जी का एक सौ इक्‍याबन अभी भी बकाया है
कभी कभी प्रभा खेतान और विवेकी राय की कविताएं भी आ जाती थी
एक बार तो अमृत राय की रचना भी आई
जब अजय भैया ने अग्निशिखा खोल के लिखा कि
केवल बड़ी पत्रिका को ही आप लोग रचना देंगे क्‍या
बात इतनी ही नही थी पाठक जी
अचिरावती का संपादन महीने के गेहूं ,चावल ,दाल के कोटे को घटाकर भी किया गया
वे भी कठिन दिन थे
और हमें भी अपना गाम याद आया
और गरीबी के वे अन्‍न मड़ुआ ,जौ ,सामा ,कोदो
करमी ,बथुआ का स्‍वर्गिक साथ
जॉगिंग करते हुए अनिल ने बताया कि
अब भी पत्रिका नाम बदलकर चलती है
अच्‍छे अच्‍छे लेखक और साफ सूतरे पन्‍नों के साथ
चमकदार कवर और रंग के साथ
परंतु उन दिनों की 'अचिरावती' अलग थी
उस रोशनाई में हमारे खानदान का पसीना मिला था











































Friday 7 September, 2012

मनोज कुमार झा की कविताएं

नई सदी की कविता ,पुरानी-नई दुखों में नया अर्थ भरने का प्रयास करते हुए ।यह नागार्जुन के भूमि की कविता है ।भूख ,मृत्‍यु ,प्रेत ,प्रवास ,अपमान ,संताप के असंख्‍य चित्रों के साथ ,परंतु भंगिमा उत्‍तर नागार्जुनी है ।मनोज नागार्जुन की तरह सीधे प्रहार करने में विश्‍वास नहीं करते ।व्‍यंग्‍य की भी नागार्जुनी अदा यहां अनुपस्थित है ।मनोज की जो शैली बन पड़ी है ,उस पर समकालीन पश्चिमी कविता का प्रभाव कम नहीं है ,परंतु प्रसंग खांटी भारतीय है ,और मनोज के पास कहने के लिए बहुत कुछ है ,भंगिमा भी स्‍टीरियोटाईप नहीं......।मनोज कहने की इस परंपरा में विश्‍वास करते हैं कि 'शेष ही कहा जाए' अर्थात जो कहा जा चुका है ,उससे बचते हुए अपनी बात कही जाए ।
मनोज इक्‍कीसवीं सदी के उत्‍तरपूंजीवादी जीवन में सामंती गर्भ का अल्‍ट्रासाउंड करते हैं
मैं जहां रहता हूं वह महामसान है
चौदह लड़कियां मारी गयी पेट में फोटो खिंचाकर
और तीन मरी गर्भाशय के घाव से

.......................
मृतक इतने हैं और इतने करीब कि लड़कियां साग खोंटने जाती है
तो मृत बहने भी साग डालती जाती हैं उनके खोइंछे में
कहते हैं फगुनिया का मरा भाई भी काटता है उसके साथ धान
वरना कैसे काट लेती है इतनी तेजी सेऔर



जिंदगी और मौत का यह बहनापा विरल है ,और यही बात मनोज को विशिष्‍ट बनाती है ,तथापि वे जीवन के कवि हैं ,और  जीवन विरोधी तथ्‍यों के प्रति  उनका तर्क मुखर है
इतनी कम ताकत से बहस नहीं हो सकती
अर्जी पर दस्‍तखत नहीं हो सकते
इतनी कम ताकत से तो प्रार्थना भी नहीं हो सकती
इन भग्‍न पात्रों से तो प्रभुओं के पांव नहीं धुल सकते
फिर भी घास थामती है रात का सिर और दिन के लिए लोढ़ती है ओस

यहां घास और ओस के साथ रात और दिन का प्रयोग विशिष्‍ट है ,और इस चीज को साबित करने के लिए पर्याप्‍त है कि मनोज काव्‍योपकरण के स्‍तर पर भी दुहराव से बचते हैं ।
'वागर्थे प्रतिपत्‍तये ' की तमाम संभावनाओं पर दृष्टि रखते हुए :
इस तरह न खोलें हमारा अर्थ
कि जैसे मौसम खोलता है विवाई
जिद है तो खोले ऐसे
कि जैसे भोर खोलता है कंवल की पंखुडि़यां


मनोज की कविताएं 'तथापि कविता ' नही है ।जीवन के विभिन्‍न रंगों से नहाया यह काव्‍य-संसार सभी कसौटियों पर उच्‍च कोटि की कविता है

मलिन मन उतरा जल में कि फाल्‍गुन बीता विवर्ण
लाल-लाल हो उठता है अंग-अंग अकस्‍मात
कौन रख चला गया सोए में केशों के बीच रंग का चूर ।

मनोज कुमार झा को जन्‍मदिन की मंगलकामना ।
















Saturday 25 August, 2012

आचार्य शुक्‍ल वर्णाश्रम धर्म और तुलसी


जिस प्रकार मुक्तिबोध ने पूरी जिंदगी एक ही कविता लिखी ,उसी प्रकार रामचन्‍द्र शुक्‍ल ने भी पूरी जिंदगी में एक ही निबंध ‍लिखा ,तथा पूरी जिंदगी उसकी झाड़ पोंछ करते रहे ।आचार्य रामचन्‍द्र शुक्‍ल ने सरस्‍वती पत्रिका (1909 ईस्‍वी)के लिए एक निबंध लिखा कविता क्‍या है ,आगे का तीस साल भी उन्‍होंने इसी निबंध को लिखा ।मिटाते गए और फिर फिर लिखते रहे ।
साहित्‍य के इतिहास ,हिंदी शब्‍द सागर ,चिंतामणि और यहॉ तक कि उनकी कविता भी कविता के स्‍वरूप की ही चर्चा करती है
खलेगा प्रकाशवाद जिनको हमारा यह
कहेंगे कुवाद वे जो लेंगे सह सारे  हम ।(साभार हिंदी साहित्‍य और संवेदना का विकास)


उनका अंग्रेजी साहित्‍य का अध्‍ययन भी कविता के रूप का ही अन्‍वेषण है ।न्‍यूमैन के लिटरेचर का अनुवाद साहित्‍य नाम से ,एडिसन के प्‍लेजर ऑफ इमैजिनेशन का कल्‍पना का आनंद(1905) तथा हैकेल के रीडिल आफ दी यूनीवर्स का अनुवाद (विश्‍वप्रपंच) नाम से किया ।इस विश्‍वप्रसिद्ध साहित्‍य के अध्‍ययन की उनकी रूचियों ने हिंदी आलोचना को भी विश्‍वस्‍तरीय बनाने की जरूरत पैदा की ।
(साभार आधुनिक हिन्‍दी साहित्‍य का इतिहास ,बच्‍चन सिंह )
                                 आचार्य शुक्‍ल संस्‍कृत और अंग्रेजी आलोचना से इतना ही ग्रहण करते हैं कि हिंदी भाषा और साहित्‍य तथा हिंदी आलोचना के विकास के लिए माकूल जमीन बनी रहे ।इसीलिए तुलसी ,सूर या जायसी की आलोचना न ही संस्‍कृत काव्‍यशास्‍त्र के बोझ से दबी है न ही अंग्रेजी आलोचना के तर्कों ,तथ्‍यों ,दृष्टियों से भ्रमित ।
                 उनका सबसे बड़ा प्रयास कविता और साहित्‍य को विभिन्‍न अतिवादों के बीच सुरक्षित रखना था ।इसीलिए वे धर्म और अध्‍यात्‍म ,दर्शन और रहस्‍यवाद ,विज्ञान और राजनीति ,अभिव्‍यंजनावाद और उपयोगितावाद के चंगुल से कविता को बचाना चाहते थे ।इन प्रयासों ने ही हिंदी साहित्‍य को उसका सबसे बड़ा आलोचक दिया 
परंतु कविता को धर्म और अध्‍यात्‍म से बचाते समय उनके सामने आदिकालीन रचनाशीलता और कबीर आ जाते हैं ।दर्शन और रहस्‍यवाद से कविता को बचाने के चक्‍कर में वे पूरी छायावाद को ही निशाना पर ले लेते हैं ,तथा ,मानक गढ़ने के चक्‍कर में इतने मगन हो जाते हैं कि अपने युग के सबसे बड़े कवि निराला के नवोन्‍मेष पर ध्‍यान नहीं देते ।यद्यपि नवोन्‍मेष शब्‍द की चर्चा वे निराला के संदर्भ में ही करते हैं ।यही नहीं राजनीति से  उनका परहेज इतनी ज्‍यादा है कि नये युग की रचनाशीलता की उपेक्षा करते हैं ।
तुलसी उनके प्रिय कवि हैं ,तथा ,आलोचना एवं इतिहास की किताब तो छोड़ दीजिए निबंधों में भी तुलसी के प्रसंग आते हैं ,तथा आचार्य शुक्‍ल उन पर रीझते रहते हैं ।
हिंदी साहित्‍य का इतिहास में बारह पृष्‍ठों में तुलसी की चर्चा है।पहले चार पृष्‍ठ में उनके जन्‍म ,काल ,स्‍थान का विवेचन ,और आगे तुलसी के कृतित्‍व का विवेचन ।
                              तुलसी का विवेचन वे कई दृष्टि से करते हैं ।तुलसी के प्रति उनका राग निश्‍शब्‍द नहीं है ।वे भाषाओं के चयन ,रचना शैलियों में निपुणता ,भक्ति की सर्वांगपूर्णता के आधार पर तुलसी को सर्वोपरि मानते हैं ।
                    इस प्रकार काव्‍यभाषा के दो रूप और रचना की पॉंच मुख्‍य शैलियॉ साहित्‍य क्षेत्र में गोस्‍वामी जी को मिली ।तुलसीदासजी के रचनाविधान की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा के बल से सबके सौंदर्य की पराकाष्‍ठा अपनी दिव्‍य वाणी में दिखाकर साहित्‍य क्षेत्र में प्रथमपद के अधिकारी हुए ।
                           भारतीय जनता का प्रतिनिधि कवि यदि किसी को कह सकते हैं तो इन्‍हीं महानुभाव को ।और कवि जीवन का कोई एक पक्ष लेकर चले हैं  जैसे ,वीरकाल के कवि उत्‍साह को ,भक्तिकाल के दूसरे कवि प्रेम और ज्ञान को ,अलंकारकाल के कवि दांपत्‍य प्रणय या श्रृंगार को ।पर इनकी वाणी की पहुंच मनुष्‍य के सारे भावों और व्‍यवहारों तक है ।एक ओर तो वह व्‍यक्तिगत साधना के मार्ग में विरागपूर्ण शुद्ध भगवद्भक्ति का उपदेश करती है,दूसरी ओर लोकपक्ष में आकर पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्‍यों का सौंदर्य दिखाकर मुग्‍ध करती है ।
                            गोस्‍वामीजी की भक्तिपद्धति की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी सर्वांगपूर्णता ।जीवन के किसी पक्ष को सर्वथा छोड़कर वह नहीं चलती है ।सब पक्षों के साथ उसका समन्‍वय है ।न उसका कर्म या धर्म से विरोध है ,न ज्ञान से ।धर्म तो उसका नित्‍यलक्षण है ।तुलसी की भक्ति को धर्म और ज्ञान दोनों की रसानुभूति कह सकते हैं ।
                                रामचरितमानसमें उन्‍हें रचनाकौशल ,प्रबंधपटुता ,सह्रदयता आदि गुणों का समाहार मिलता है ।वे चार बिंदु पर मानस की प्रशंसा करते हैं
1 कथाकाव्‍य के सब अवयवों का उचित समीकरण
2 कथा के मार्मिक स्‍थलों की पहचान
3  प्रसंगानुकूल भाषा
4  श्रृंगार की शिष्‍ट मर्यादा के भीतर बहुत ही व्‍यंजक वर्णन
                     तुलसी के प्रबंध कौशल व काव्‍यरूप के रूप में प्रबंध के चयन की वे प्रशंसा करते हैं
यह निर्धारित करना कठिन है कि आचार्य शुक्‍ल वर्णाश्रम धर्म के समर्थक होने के कारण तुलसी की प्रशंसा करते हैं या तुलसी की रक्षा करते हुए वो वर्णाश्रमधर्म का बचाव करते हैं ,परंतु तुलसी के इस रूख का वो प्राय: मजबूती से अपना पक्ष भी मानते हैं ।उन्‍होंने कहीं भी इसे तुलसी काव्‍य में अंर्तविरोध के रूप में नहीं देखा है ,तथा यह आश्‍चर्य का विषय है कि बीसवीं सदी के चौ‍थे दशक तक जी रहा व्‍यक्ति तुलसी काव्‍य के इस कमजोर पक्ष्‍ा का मजबूत बचाव करता है ।इसे आचार्य शुक्‍ल का वैचारिक विचलन ही माना जाना चाहिए ।मार्क्‍स या लेनिन की बात छोड़ दीजिए ,समस्‍त दक्षिण भारतीय भाषाओं ने दलित आंदोलन की गरमाहट को उसी समय महसूस किया था ,तथा भारतीय राजनीति  एवं समाज में भी अंबेडकर के विचारों की धाख मानी जाती थी ।ऐसे समय में आचार्य शुक्‍ल अपने प्रसिद्ध निबंध लोकधर्म और मर्यादावाद में कहते हैं
                            ऐसे लोगों ने भक्ति को बदनाम कर रखा था ।भक्ति के नाम पर ही वे वेदशास्‍त्रों की निंदा करते थे ,पंडितों को गालियॉं देते थे और आर्यधर्म के सामाजिक तत्‍व को न समझकर लोगों में वर्णाश्रम धर्म के प्रति अश्रद्धा उत्‍पन्‍न कर रहे थे ।यह उपेक्षा लोक के लिए कल्‍याणकर नहीं ।जिस समाज में बड़ों का आदर ,विद्वानों का सम्‍मान ,अत्‍याचार का दलन करने वाले शूरवीरों के प्रति श्रद्धा इत्‍यादि भाव उठ जायें ,वह कदापि ,फल फूल नहीं सकता, उसमें अशान्ति सदा बनी रहेगी ।
                                        इसी प्रसंग में वे आगे कहते हैं
         किसी समुदाय के मद ,मत्‍सर,ईर्ष्‍या ,द्वेष और अहंकार को काम में लाकरअगुआ और प्रवर्तक बनने का हौसला रखने वाले समाज के शत्रु हैं ।यूरोप में जो सामाजिक अशान्ति चली आ रही है ,वह बहुत कुछ ऐसे ही लोगों के कारण । पूर्वीय देशों की अपेक्षा संघनिर्माण में अधिक कुशल होने के कारण वे अपने व्‍यवसाय में बहुत जल्‍दी सफलता प्राप्‍त कर लेते हैं । यूरोप में जितने लोक विप्‍लव हुए हैं ,जितने राजहत्‍या ,नरहत्‍या हुई है ,सबमें जनता के वास्‍तनिक दु:ख और क्‍ेश का भाग यदि 1/3 या तो विशेष जनसमुदाय की नीच प्रवृत्तियों का भाग 2/3 है ।
                                         अब इस शांति ,सुशासन ,व्‍यवस्‍था और सोशल डिसीप्‍लीन के क्‍या तर्क हैं और इसका क्‍या स्‍वरूप हो सकता है ,इस पर चर्चा करने की कोई आवश्‍यकता ही नहीं बची है ।बड़ों के प्रति इस सम्‍मान का क्‍या स्‍वरूप है ,तथा यह सम्‍मान कितना लोकतांत्रिक और मानवीय है ,इसे आचार्य उसी निबंध में आगे स्‍पष्‍ट करते हैं
                       परिवार में जिस प्रकार उँची नीची श्रेणियॉ होती है ,उसी प्रकार शील,विद्या ,बुद्धि ,शक्ति आदि की विचित्रता से समाज में भी उंची नीची श्रेणियॉ रहेंगी ।कोई आचार्य होगा ,कोई शिष्‍य ,कोई राजा होगा ,कोई प्रजा ,कोई अफसर होगा ,कोई मातहत ,कोई सिपाही होगा ,कोई सेनापति ।यदि बड़े छोटों के प्रति दु:शील होकर हर समय दुर्वचन कहने लगें ,यदि छोटे बड़ों का आदर सम्‍मान छोड़कर उन्‍हें ऑख दिखाकर डॉटने लगे तो समाज चल ही नहीं सकता ।इसी से शूद्रों का द्विजों का ऑंख दिखाकर डॉटना ,मूर्खों का विद्वानों का उपहास करना गोस्‍वामीजी को समाज की धर्मशक्ति का ह्रास समझ पड़ा ।
                                   ऐसा भी नहीं था कि अपने विचार के पुराने और धूल भरे होने का अहसास उन्‍हें नहीं था ।इसी निबंध में वे शूद्र वाले मुद्दे पर बार बार बोलते हैं ,परंतु जितना भी बोलते हैं ,सफाई पूरी नहीं होती और कुछ न कुछ दाग रह ही जाता है
              अत: शूद्र शब्‍द को नीची श्रेणी के मनुष्‍य का कुल ,शील ,विद्या ,शक्ति आदि सब में अत्‍यन्‍त न्‍यून का बोधक मानना चाहिए ।इतनी न्‍यूनताओं को अलग अलग न लिखकर वर्णविभाग के आधार पर उन सबके लिए एक शब्‍द का व्‍यवहार कर दिया है ।इस बात को मनुष्‍य जातियों का अनुसंधान करने वाले आधुनिक लेखकों ने भी स्‍वीकार किया है कि वन्‍य और असभ्‍य जातियॉ उन्‍हीं का आदर सम्‍मान करती हैं जो उनमें भय उत्‍पन्‍न कर सकते हैं ।यही दशा गँवारों की है इस बात को गोस्‍वामी जी ने अपनी चौपाई में कहा है
    ढ़ोल गँवार सूद्र पसु नारी ।ये सब ताड़न के अधिकारी ।।
जिससे कुछ लोग इतना चिढ़ते हैं ।चिढ़ने का कारण है ताड़न शब्‍द जो ढ़ोल शब्‍द के योग में आलंकारिक चमत्‍कार उत्‍पन्‍न करने के लिए लाया गया है ।स्‍त्री का समावेश भी सुरूचि विरूद्ध लगता है ,पर वैरागी समझकर उनकी बात का बुरा न मानना चाहिए ।
        वन्‍य और तथाकथित असभ्‍य जातियों के प्रति जिन आधुनिक लेखकों की चर्चा शुक्‍ल जी ने कहा है ,संभवत: वे उपनिवेशवादी रहे होंगे ,परंतु शुक्‍ल जी तो स्‍वाधीनता की ओर अग्रसर एक लोकतांत्रिक देश के महत्‍वपूर्ण भाषा के प्रतिनिधि थे ।अत:उनका बचाव संभव नहीं ।जहॉ तक चमत्‍कार उत्‍पन्‍न करने की बात है ,प्रत्‍येक गाली आलंकारिक चमत्‍कार ही उत्‍पन्‍न करती है ।और वैरागी समझकर बुरा न मानने का तर्क कमजोर है ,क्‍योंकि तुलसी उतने वैरागी भी नहीं है ,तथा जो वास्‍तव में गृहस्‍थ होकर भी वैरागी है ,उस कबीर के प्रति आचार्य शुक्‍ल अपेक्षित संवेदनशीलता नहीं दिखा पाते ।

Friday 11 May, 2012

'प्रश्‍न ये नही है कि होरी कैसे मरा ,प्रश्‍न ये है कि होरी कैसे जीया '

विजय देव नारायण साही

 गोदान की आलोचना से खिन्‍न होके कभी साही जी ने ये लिखा था ,और बात सही भी है ।कथादेश का किसान विशेषांक आया है(मई 2012) ,और कविताओं को देखकर तो यही लगता है कि किसानी जीवन कम आत्‍महत्‍याओं का मुद्दा ज्‍यादा महत्‍व पा रहा है ।कविताएं अच्‍छी हैं ,परंतु ढर्रा एक ही ।एक ही रंग दिख रहा है ।प्रश्‍न ये है कि  किसानी जीवन के वे अंश साहित्‍य का अंग क्‍यों नहीं बन रहे हैं ,जिसे किसान पचास- साठ साल तक जीता है ।

Sunday 15 April, 2012

नामवर सिंह और छायावाद



'आधुनिक साहित्‍य की प्रवृत्तियां' नामवर सिंह की बहुचर्चित पुस्‍तक है ,और उनके आलोचनात्‍मक विवेक को जानने के लिए शायद सबसे महत्‍वपूर्ण भी ।यद्यपि उनके खाते में कई उच्‍च्‍ा कोटि के किताब हैं परंतु सबका रूख अलग-अलग है ।'हिंदी भाषा और साहित्‍य के विकास में अपभ्रंश का योगदान 'उनके प्रखर छात्र जीवन की पुस्‍तक है ।समापवर्त्‍तन के योग्‍य दक्षिणा के रूप में और लेखक अपभ्रंश में हिंदी का मूल ही नहीं खोजता ,अपने आलोचनात्‍मक दृष्टि की गहरी नींव भी डालता है ।
सिद्ध-नाथ साहित्‍य को 'अनगढ़ नवीन ' के रूप में गले लगाने की जिद का परिणाम उस समय जितना दिखता है ,बाद में और भी ज्‍यादा ।'दूसरी परंपरा की खोज' एक योग्‍य शिष्‍य का संस्‍मरण है इतिहास और आलोचना की पारंपरिक हदों को तोड़ता हुआ । 'कविता के नए प्रतिमान' प्रतिमानों को खोज रहे एक कीर्तिजिगीषु विद्वान के तर्क हैं ।अत:' आधुनिक साहित्‍य की प्रवृत्तियां 'उनके तर्कों ,विचारों ,आलोचना पद्धति को समझने का सर्वश्रेष्‍ठ मंच है ,वैसे भी उन्‍होंने छायावाद पर एक पूर्ण पुस्‍तक 1954-55 में ही लिख दिया था ।अत: छायावाद पर उनके विचारों में एक अद्वितीय परिपक्‍वता है ।


नामवर जी छायावाद के परिचय से प्रारंभ करते हैं ,तथा काल(1918-36) एवं प्रमुख कवियों का नामोल्‍लेख करते यह भी कहते हैं 'भावोच्‍छवास-प्रेरित स्‍वच्‍छन्‍द कल्‍पना-वैभव की वह स्‍वच्‍छन्‍द प्रवृत्ति' है जो देश-काल-गत वैशिष्‍ट्य के साथ संसार की सभी जातियों के विभिन्‍न उत्‍थानशील युगों की आशा-आकांक्षा में निरंतर व्‍यक्‍त होती रही है ।

अब 'छायावाद' संज्ञा पर विचार करते हुए मुकुटधर पांडेय तथा सुशील कुमार जैसे कम परिचित आलोचकों की कृतियों ,जिसमें लेखमाला एवं निबंध ही मुख्‍य है ,के द्वारा छायावाद के उदयकाल की उस वैचारिकता को तौला जाता है ,जो छायावाद से सबसे पहले परिचित होते हैं ।तत्‍कालीन आलोचकों जिसमें उपरोक्‍त दोनों विद्वानों के अलावा आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी भी हैं ,की शब्‍दावलियों पर नामवर गौर फरमाते हैं ,तथा 'मिस्टिसिज्‍म' ,'अध्‍यात्‍मवाद' ,'कोरे कागद की भॉति अस्‍पष्‍ट', 'निर्मल ब्रह्म की विशद छाया' ,'वाणी की नीरवता' ,'अनंत का विलास' जैसे वृत्ति को सामने लाते हैं ।अब नामवर जी 'छायावाद' को 'स्‍वच्‍छंदतावाद' एवं 'रहस्‍यवाद' से अलगाते हैं । इस सम्‍बन्‍ध में आचार्य रामचंनद्र शुक्‍ल के विचारों पर निर्णयात्‍मक रूप से कहते हैं
'शुक्‍ल जी के 'स्‍वच्‍छन्‍दतावाद' में छायावाद की रहस्‍यभावना के लिए कोई जगह न थी ।फलत:'स्‍वच्‍छन्‍दतावाद' अंग्रेजी के 'रोमैंटिसिज्‍म' का अनुवाद होते हुए भी छायावादी कविता का केवल एक अंग बनकर रह गया और धीरे-धीरे 'छायावाद' संपूर्ण 'रोमैंटिसिज्‍म' का वाचक बन गया ।'

अब नामवर सिंह छायावाद संबंधी परिभाषाओं और आलोचनाओं के आधार पर छायावादी रचना और कवियों में शुद्ध छायावादी रचना और कवि खोजने की प्रवृत्ति की खबर लेते हैं तथा छायावाद को किसी स्थिर या जड़ मानने की बजाय प्रवहमान काव्‍यधारा साबित करते हैं ।वे बीस वर्ष तक बहने वाली धारा के विभिन्‍न सोतों ,झरनों की पड़ताल करते हुए करते हैं ' छायावाद विविध यहॉ तक कि परस्‍पर-विरोधी-सी प्रतीत होने वाली काव्‍य-प्रवृत्तियों का सामूहिक नाम है और छानबीन करने पर इन प्रवृत्तियों के बीच आन्‍तरिक सम्‍बन्‍ध दिखाई पड़ता है ।स्‍पष्‍ट करने के लिए यदि भूमिति के उदाहरण लें तो यह कह सकते हैं कि यह एक केंद्र पर बने हुए विभिन्‍न वृत्‍तों का समुदाय है ।इसकी विविधता उस शतदल के समान है जिसमें एक ग्रन्थि से अनेक दल खुलते हैं ।'
अब नामवर सिंह छायावाद के केंद्रीय प्रवृत्ति की खोजबीन करते हैं तथा उनकी नजर बीसवीं सदी के प्रारंभ के हिंदी समाज में व्‍याप्‍त व्‍यक्तिवादिता पर जाती है ।वे प्रगीत को इसी का परिणाम मानते हुए छायावादी कवि के व्‍यक्तिगत जीवन और भक्ति काव्‍य की निर्वैयक्तिकता में स्‍पष्‍ट भेद करते हैं ।इस वैयक्तिकता का उत्‍स आधुनिक शिक्षा और प्राचीन कृषि व्‍यवस्‍था की अतिशय सामाजिकता के बीच के द्वन्‍द्व में देखते हैं । ' 'आत्‍मकथा 'उसका विषय हो गया और 'मैं' उसकी शैली ।प्रसाद ने तो स्‍पष्‍टत: अपनी आत्‍मकथा का स्‍पष्‍टीकरण ही लिख डाला और निराला ने सब की ओर से स्‍वीकार किया कि 'मैंने 'मैं' शैली अपनायी ।'

व्‍यक्तिवाद के कोमल पक्षों पर विचार करते हुए वे इसके परूष पक्ष पर भी विचार करते हैं तथा 'सरोज-स्‍मृति' और 'वनबेला' जैसी कविताओं को इसी आधार पर देखने की खास वजह बताते हैं ।अंत में व्‍यक्तिवादी धारा ने जिस ओर रूख किया उस पर नामवर जी विस्‍तार से कहते हैं ' आरम्‍भ में जिस व्‍यक्ति ने अपने व्‍यक्तित्‍व की खोज के लिए निर्जन प्रकृति में प्रवेश किया था , अंत में उसी ने समाज से भागकर प्रकृति के कल्‍पनालोक में शरण ली ।जिससे आरंभिक आत्‍मप्रसार में समाज के सामन्‍ती मूल्‍यों को चुनौती दी ,उसके अन्तिम अहंभाव में संपूर्ण समाज ,विशेषत: अपने ही मध्‍यवर्गीय समाज की व्‍यवसायिकता से घबड़ाहट का तीव्र असंतोष और निराशा है ।'

व्‍यक्तिवाद के एक महत्‍व परिणाम की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि इससे उनका संपूर्ण दृष्टिकोण व्‍यक्तिनिष्‍ठ हो गया ।संसार की सभी वस्‍तुओं को आत्‍मरंजित करके देखने के प्रयास मे 'छायावाद का ध्‍यान वस्‍तु के बाह्य आकार की अपेक्षा या तो उसमें निहित भाव की ओर गया या उसकी सूक्ष्‍म छाया की ओर ।प्रकृति-चित्रण में पहले के कवि जहॉ पेड़-पौधों का नाम गिनाकर अथवा प्राकृतिक दृश्‍यों के स्‍थूल आकार का वर्णन करके संतुष्‍ट हो लेते थे ,वहॉ छायावादी कवि ने प्रकृति के अन्‍त:स्‍पन्‍दन का सूक्ष्‍म अंकन किया ।'

व्‍यक्तिवाद से व्‍यक्तिनिष्‍ठ सौंदर्य की ओर बढ़ते हुए नामवर जी बहुत ही कंपैक्‍ट हैं ,आलेख में सुई के बराबर जमीन नहीं ,जो व्‍यर्थ ही जमीन घेर रहा हो ,फिर इसी सौंदर्य के रास्‍ते प्रकृति की ओर यात्रा ,और नामवर जी एक महत्‍वपूर्ण चीज बताते हैं ' छायावादी कवियों ने प्रकृति के छिपे हुए इतने सौंदर्य-स्‍तरों की खोज की ,वह आधुनिक मानव के भौतिक और मानसिक विकास का सूचक है ।इस सौन्‍दर्य-बोध का विकास प्रकृति और मानव के पारस्‍परिक सम्‍बन्‍धों का परिणाम है ।प्रकृति ने मनुष्‍य में सौंदर्यबोध जगाया और मनुष्‍य ने उदबुद्ध होकर प्रकृति में नवीन सौंदर्य की खोज की और इस तरह दोनों परस्‍पर वर्धमान हुए ।'सौंदर्य और सामाजिक विकास को सहचर बनाते हुए नामवर जी बिना किसी मार्क्‍सवादी सिद्धांतों की चर्चा करते हुए बड़ी बात कहते हैं ।

व्‍यक्तिबाद का तीसरा परिणाम भावुकता है और नामवर जी इस परिणाम का विश्‍लेषण भी एक खास दृष्टि से करते हैं ।सबसे पहले भावुकता के उत्‍स ,फिर उसके स्‍वरूप ,अंत में उसकी सीमा ।नामवर जी प्रत्‍येक प्रवृत्ति का ऐसे ही विश्‍लेषण करते हैं ।भावुकता की सीमा को स्‍पष्‍ट करते हुए वे कहते हैं 'कबीर ,सूर ,तुलसी के करूणा-विगलित आर्त आत्‍म-निवेदन में भी परिणत वय और धीर स्‍वभाव का संयम है ।किन्‍तु छायावादी कवि में उच्‍छल भावुकता का अबाध उद्गार है ,यहॉ तक कि भावुकता छायावाद का पर्याय हो गयी ।'

छायावाद और भक्तिकाव्‍य के दृष्टिगत भेद में निहित 'तुलना'औजार का उपयोग नामवर जी कई बार करते हैं ,तथा इस औजार को चरम ऊंचाई देते हैं ।तुलनात्‍मकता का हिंदी आलोचना में नामवर जी से सुंदर उपयोग शायद ही कोई करता हो !भावुकता को कल्‍पना से जोड़ते हुए वे कालिदास का पंत से तथा निराला का बिहारी से तुलना करते हैं 'कालिदास का 'मेघ' पंत के 'बादल' से अधिक वास्‍तविक और कम कल्‍पनाबाहुल है ।'मेघदूत' में मेघ के लिए जगह-जगह नि:सन्‍देह बड़ी ही मनोरम उपमाऍ लायी गयी है लेकिन अन्‍तत: उससे रामगिरि से लेकर कैलास तक की भारतभूमि की यात्रा करायी गयी है .......किसी वस्‍तु को देखकर यदि प्राचीन कवि को अधिक से अधिक उस वस्‍तु से मिलती-जुलती अथवा उसे संबद्ध दो-एक अन्‍य अप्रस्‍तुत वस्‍तुओं की ही याद आती थी ,तो छायावादी कवि के मन में सैकड़ों 'एसोसिएशन्‍स' अथवा स्‍मृति-चित्र जग जाते थे ।'यमुना' को देखकर यदि बिहारी ने इतना ही कहा था कि -सघन कुंज छाया सुखद.....तो निराला के मन में यमुना से सम्‍बन्धित सैकड़ों स्‍मृति-चित्र ऊभर आये और 'यमुना' के किनारे उन्‍होंने कल्‍पना की एक दूसरी ही सृष्टि खड़ी कर दी ।'

छायावाद की स्‍वानुभूति ,भावुकता ,कल्‍पना आदि के विशद विवेचन के बाद वे इस स्‍वभाव के माकूल शब्‍द-चयन ,वाक्‍यविन्‍यास ,प्रतीक योजना तथा छन्‍द-गठन की भी चर्चा करते हैं ।शब्‍दगठन के श्रोतों को खोजते हुए वे क्‍लासिक संस्‍कृत कवियों ,ब्रजभाषा काव्‍य और रवीन्‍द्र काव्‍य के साथ ही अंग्रेजी की रोमैंटिक कविता को भी याद करते हैं ,तथा उपयोग में लाए गए शब्‍दों की तुलना ऐसे करते हैं - 'पन्‍त के शब्‍द अपेक्षाकृत छोटे ,असंयुक्‍त वर्णवाले ,हल्‍के तथा वायवी हैं ।प्रसाद के शब्‍द अधिक प्रगाढ़ ,मधुमय और नादानुकृतिमय है ।महादेवी के शब्‍दों में रूपये की -सी स्‍प्‍ष्‍ट ठनक और खनक है और निराला में सन्धि-समास युक्‍त विविध जाति और ध्‍वनिवाले शब्‍दों में भी अनुप्रासमय व्‍यंजन-संगीत उत्‍पन्‍न करने की चेष्‍टा है । 'निबंध के अंत में वे इस आरोप को खारिज करते हैं कि छायावाद का संबंध तत्‍कालीन आन्‍दोलन से नहीं था ।ऐसा लगता है कि नामवर जी का हरेक प्रयास भ्रमों ,अफवाहों से आलोचना को बचाने का ही है ,तथा वे कट्टर दिखकर भी कविता को दुरभिसंधियों से वापस ले आते हैं ।अंत में वे छायावाद का गद्य पर पड़े प्रभाव की चर्चा करते हैं तथा तुलना करने और मूल्‍य देने के खतरों को स्‍वीकारते हैं ' काव्‍यशैली की भॉति गद्यशैली पर छायावाद का प्रभाव स्‍पष्‍ट है ।इस प्रभाव का सर्वोत्‍तम रूप प्रसाद और महादेवी के गद्य में मिलता है और निकृष्‍टतम रूप चंडीप्रसाद 'ह्रदयेश' की कहानियों में ।'


पूरे निबंध में नामवर जी आलोचकीय उद्धरणों से बचते हैं ,तथा एक -दो जगह रामचंद्र शुक्‍ल एक जगह नगेंद्र की छाया तथा इस बात का औचित्‍य कि छायावाद को 'स्‍थूल के विरूद्ध सूक्ष्‍म का विद्रोह 'क्‍यों कहते हैं तथा अंत में रामविलास शर्मा को उद्धृत करते हैं ।अतिशय सामाजिकता को स्‍पष्‍ट करता वर्डसवर्थ की एक पंक्ति अंग्रेजी में तथा सौंदर्य को स्‍पष्‍ट करता हुआ रवींद्रनाथ की कविता 'मानसी' को मूल बांग्‍ला में ।पूरा का पूरा संदर्भ छायावादी कवियों का ही ।सारा का सारा तर्क साहित्यिक ,एक जगह ज्‍यामिति का भी ,एक जगह मानवशास्‍त्र का भी ,परंतु कटने काटने की ललक कम लगभग सर्वस‍म्‍मति की ओर बढ़ती ........

Saturday 14 April, 2012

जय गंगे


बिसूखी गाय इस आशा से किसान को जिलाती कि
बस नौ-दस महीने की ही तो बात है
पर जब नदी बिसूखती है तो
झुलसा शहर पचास सौ किलोमीटर आगे-पीछे हो जाता है
मेरा विश्‍वास नहीं होगा आपको तो थार के नीचे की जमीन खोद डालिए
सरस्‍वती आज भी गुमनाम बहती वहां
इस इंतजार के साथ कि कोई न कोई भगीरथ तो होगा उसके भी नसीब में

2 जब तुम्‍हें सूखना ही था गंगा
तो क्‍यों की हजार किलोमीटर की जद्दोजहद
लाखों वर्षों की वह यात्रा
जो गोमुख से बंगाल तक में पूरी होती
क्‍या इतने दिन में तुम समर्थ हुई सबको पवित्र करने में
सभ्‍यताओं का कचड़ा ढ़ोने में निहित संवेग तब मिला
या वैसे ही बढ़ती रही समुद्र से मिलने
कहीं उन बोलियों से मिलने तो नहीं बढ़ती रही
जो सुवासित थे प्रयाग ,काशी ,पटना ,सिमरिया ,हावड़ा के घाटों पर
या देखने चली थी राजवंशों का इतिहास
उनके सनक करतब उनके
कभी हँसी या नहीं मगध के पतन पर

3 विद्यापति की वह कविता है मेरे पास
जिसमें तुम्‍हारे घाटों पर वह अंतिम समय बिताते हैं
और जगन्‍नाथ की 'गंगा लहरी ' भी
जिसे लिखते लिखते आचार्य तुम्‍हारी लहरों में समा गए
अब बोल गंगे
तुम्‍हारी अंतिम ईच्‍छा क्‍या है
तुम्‍हें कैसी मौत पसंद है
जूता उद्योग वस्‍त्र उद्योग
कागज उद्योग या शहरी सीवर
या सरकारी परियोजनाओं के फाईलों पर सर रखकर

4 जैसे बसंतबहार फिल्‍म में भीमसेन जोशी को हारना ही था मन्‍नाडे के सामने
उसी तरह वैजुबावरा में उस्‍ताद आमिरखान हारे
फिल्‍मों में प्राण ,अमजद खान ,अमरीश पुरी रेगुलरली हार रहे हैं
क्‍यों क्‍यों क्‍यों
क्‍योंकि ये स्क्रिप्‍ट में लिखा है
और गंगा तेरी मौत भी स्क्रिप्‍ट का ही हिस्‍सा है
बस बरसात के कुछ दिन तू अपनी कर
फिर स्क्रिप्‍ट में समा जा माते.........
5 होना तो बस एक ही है
या तो तुम हमें बर्बाद कर दोगी
या हम तुम्‍हें नाथ देंगे
तुम्‍हारे लहरों को गिन
तुम्‍हारे वेग को बांध
कल-कल ध्‍वनि को टेप कर
तमाम दृश्‍यों की क्‍लोनिंग कर
तुम्‍हें छोड़ देंगे
या फिर तुम हमें हमारे शहरों को
धर्म सभ्‍यता को
कालदेव की गति से मिल
अखंड अनुरणन से नष्‍ट कर दोगी

Saturday 7 April, 2012

राम लोचन ठाकुर की दो मैथिली कविताएं



कविता और कविता और कविता

बन्‍धु !
ऐसा होता है
ऐसा होता है कभी काल
भादो का 'सतहिया'
माघ की शीतलहरी
कोई नयी बात नहीं
जब दिन पर दिन
सूर्य का अस्तित्‍व
रहा करता अगोचर
तो मान लेना सूर्यास्‍त
आलोक पर अन्‍धकार का वर्चस्‍व
कौन सी बुद्धिमानी है
सामयिक सत्‍य होकर भी
शाश्‍वत नहीं होता अन्‍धकार
और आगे
जब पूंजीवादी विस्‍तार लिप्‍सा का
जारज संतान वैश्‍वीकरण
संपूर्ण विश्‍व को बाजार बना देने के लिए
हो रहा उद्धत अपस्‍यांत
आवश्‍यक ही नहीं अनिवार्य भी है
'प्रतिकार'शब्‍द साधक के लिए
कविता मार्ग से विचारना-बतियाना
विचारना-बतियाना कविता मार्ग से
हो जाता अनिवार्य
शब्‍द संस्‍कृति की रक्षा के लिए
जो सबसे पहले हाता आक्रांत
बाजार-संस्‍कृति के द्वारा
बाजार संस्‍कृति
भाट और भड़ुए के बल पर
रूप विस्‍तार करती
विकृत और विकार युक्‍त
बाजार-संस्‍कृति
आदमी से आदमियत
शब्‍द से संवेदना तक को
वस्‍तु में बदल देने के लिए रच रहा षड्यंत्र
शब्‍द का अपहरण
शब्‍दार्थ के संग बलात्‍कार
तब कविता ही खड़ी हो पाती एकमात्र
अपनी संपूर्ण ऊर्जा व आक्रामकता के संग
बना अभेद्य ढ़ाल
एकमात्र कविता ।
एक मात्र कविता
हां बन्‍धु
मैं कविता की बात करता हूं
शब्‍द-समाहार का नहीं
शब्‍द जादूगर द्वारा सृजित-संयोजित इन्‍द्रजाल
साहित्‍य की अन्‍यान्‍य विधाएं
अनुगमन करती कविता की
पर आगे तो कविता ही रहता
वही करता नेतृत्‍व
मुक्ति के नाम पर
पददलित होता कोई देश कोई जाति
जनतंत्र के नाम पर दलाल-तंत्र
प्रतिष्‍ठा का प्रयास
सुरक्षा को मुखौटा बना
लुंठित होता सम्‍पत्ति -सम्‍मान
सभ्‍यता का धरोहर
स्‍वस्तिक खजाना संस्‍कृति का
काबुल से कर्बला तक रक्‍तरंजित
जाति-सम्‍प्रदाय-पूंजीवाद का त्रिशूल व ताण्‍डव
तब कविता और एक मात्र कविता ही
उठाए हुए मशाल
विध्‍वंस के विरूद्ध सृष्टि के संग
दानवता के विरूद्ध मानवता की
शोषण के विरूद्ध मुक्ति की
आशा-विश्‍वास का प्रतीक‍ बन
अपनी संपूर्ण अर्थवत्‍ता
उपयोगिता-उपादेयता के संग
जातीयता के मध्‍य अंतर्राष्‍ट्रीयता का
व्‍यष्टि के मध्‍य समष्टिगत चिंतन चेतना के संग
दीपित रहती कविता
मेरी कविता
आपकी कविता
आशा की कविता
भाषा की कविता
कविता...
और कविता...
और कविता.....


2 एक फॉक अन्‍हार:एक फॉक इजोत

संध्‍या होते ही
अंधकार की गर्त में
खो जाता गांव
एक आशंका
एक आतंक
फैल जाता
सब जगह
गांव
जहां भारत की आत्‍मा रहती है !
संध्‍या होते ही
शहर बन जाता
लिलोत्‍तमा
नित नूतन आभूषण
नए-नए साज
रंग-बिरंगा आलोक का संसार
एक आकांक्षा
एक उन्‍माद
शहर
जहां भारत-भाग्‍य-विधाता रहते हैं !

Sunday 1 April, 2012

नामवर सिंह और आनंद मोहन





पिछले सप्‍ताह मैं दिल्‍ली गया था ,तो सोचा कि अपने नामवर दादा यहीं रहते हैं ,तो क्‍यों न उनसे भी मिल लिया जाए ! सो एक अनूठे उत्‍साह से ,जो प्राय:बिहार ओर पूर्वांचल के पाठकों में होता है ,मैं ऑटो वाले को अलकनंदा अपार्टमेंट चलने के लिए कह दिया । और लगभग एक घंटे में ही मैं उनके यहां पहुंच गया .....समय था लगभग छह बजे भोर का । समय का चुनाव मेरे इस तर्क पर आधारित था कि अभी तो कोई कवि ,पत्रकार वहां होगा नहीं ,मैं बचपन से ही सुनता आ रहा था कि दिल्‍ली में सुबह दस बजे हुआ करती है ।वहां की मेमें तो तब जगती हैं ,जब सूर्य भगवान दो -तीन घंटे से उनकी दरवाजों -खिड़कियों पे मिहनत कर चुके होते हैं .....अफसोस ! ये सब किताबी बातें ही साबित हुई ।अलकनंदा अपार्टमेंट के विशाल मैदान में औरतें जॉगिंग कर रही थी ,और अपने शरीर की वसाओं को वैसे ही कम कर रही थी ,जैसे नामवर जी कविता में से अलंकार को कम करने के लिए कहते हैं । फिर भी मैं डरते-डरते उनके पास पहुंचा कि कहीं वही उनके कमरे के विषय में बता दे ,और उस महिला ने कहा कि 'गुड नामवर को कौन नहीं जानता ।गो अहेड... देन टर्न लेफ्ट ..ग्रेट मेन लिब्‍स देयर विद ए लॉट ऑफ चेला ,चेलाइन ,जर्नलिस्‍ट एंड .......'

और उस महिला के बताए नक्‍शे के ही हिसाब से मैं वहां पहुंचा ,कमरा नंबर कई कई बार चेक किया ,फिर दरवाजे पर खड़े दो राईफलधारी से विनम्रतापूर्वक कहा कि जाईये और बता दीजिए कि महिषी ग्राम से आपका एक प्रशंसक आया है ।राईफलधारी ने अपने मन से ही पूछा 'क्‍या काम है '
मैंने पुन:विनम्रता पूर्वक कहा कि बस नामवर जी का दर्शन करना है
दूसरे राईफलधारी ने तुरत कहा कि 'परंतु दर्शन के लिए तो साहब ने शाम का समय रखा है '
मैंने तुरत अपने को काबिल ,महान ,प्रगतिशील होने का मुखमंडल बनाया और एक मोटी किताब से अपने मुंह पर हवा करते हुए कहा कि बस आप एक बार बता तो दीजिए ......
सो यह पत्‍ता काम कर गया और बंदे ने अंदर जाने की आज्ञा दे दी ।
अंदर का कमरा बहुत बड़ा था ,और एक व्‍यक्ति मेज पर ही लेटा हुआ था ।कई व्‍यक्ति सूटेड बूटेउ और लुंगी धोती में भी ,उस आदमी के मॉलिश में लगे थे ।कोई तेल ,कोई बिना तेल ही ,कोई कविता कहानी की अंर्तकथाओं के साथ कोई चुपचाप अपने काम में लगा हुआ था ।इन व्‍यक्तियों में कई मेरे परिचित थे ,कई बनारस ,पटना ,भोपाल के थे ,तथा बहुतों को अखबारों से ,पत्रिकाओं से और फेसबुक से जानता था ।

जल्‍दी ही पता चल गया था कि लेटा हुआ व्‍यक्ति ही नामवर सिंह हैं ,तथा उनको कोई बीमारी नहीं थी तथा उपस्थित व्‍यक्ति भी रूटीन में लगे थे ।मैंने भी नामवर जी को प्रणाम किया और बताया कि सर मैं महिषी ग्राम से आया हूं आपसे मिलने ।
'परंतु मैं तो कभी महिषी गया नहीं '
हां पर वह गांव भी प्रसिद्ध है सर
'तो क्‍या उस गांव में भैंसे ज्‍यादा मिलती है ,अर्थात ग्राम की प्रसिद्धि भैंसबहुलता के कारण है या भैंस पर चढ़ने वाली कोई माता ,कोई तांत्रिक सम्‍प्रदाय ?'
नहीं सर ,वह मंडन का गांव है न
'कौन मंडन ,कोई विधायक हैं क्‍या ? '
मैंने कहा नहीं सर ,मंडन मिश्र प्रसिद्ध दार्शनिक हैं न वहीं ,अरे वही भारती के पति ....जिसने शंकराचार्य को भी परिचित कर दिया था
'अच्‍छा तो आप उनके गांव से आए हैं ,बताइए क्‍या हाल चाल हैं आपके .....'

तभी आनंद मोहन जी भी आ गए ।आनंद मोहन सिंह हमारे विधायक रहे हैं तथा एक अधिकारी की हत्‍या के जूर्म में सजा काट रहे हैं ।आनंद मोहन जी मुझे देख मुस्‍कुराए पर नामवर जी तुरत खड़े हो गए ।उन्‍होंने धोती ,कुरता धारण किया ,पान को पनबट्टी में से निकाला ,पान को अंगुलियों मे फंसाया ,तथा मुंह के अंदर रख लिया ।पानग्रहण (पाणिग्रहण नहीं) की बाकायदा तस्‍वीरें ली गई ,तथा नामवर जी आनंद मोहन सिंह की पुस्‍तकों को उलटापुलटाकर देखने लगे ।नामवर जी के चेहरे पर गर्व और संतोष का भाव था ।कुछ ऐसा ही भाव जैसा अपभ्रंश पर लिखते ,छायावाद पर लिखते ,आधुनिक साहित्‍य की प्रवृत्तियां लिखते और नए प्रतिमानों की बात करते हुए रहा करता है ।फिर कमरे से मुझको और कुछ अन्‍य लोगों को निकालने की तैयारी होने लगी ।


हम लोग कमरे में से बाहर आ गए तथा लॉन में एक वृक्ष के छाये में आ गए ।पता नहीं कब नींद आ गयी और एक बड़े दृश्‍य को मैं देखने लगा ।सपने में नामवर की एक विराट मूर्ति दिखी और आनंद मोहन सिंह विनीत भाव से उनके सामने बैठे थे ।नामवर जी कह रहे थे
'हम दोनों महान राम के वंशज हैं ,तथा उनका ही काम बढ़ाते हैं ।हम दोनों संहार करते हैं ।यह न ही कवियों का न ही व्‍यक्तियों का संहार है यह तो प्रवृत्तियों का संहार है ।किए हुए काम के प्रति पश्‍चाताप का भाव व्‍यर्थ है । उनके लिए तर्क का खोजा जाना जरूरी है ,तर्क ही सृजन कराता है ,और तुममें वह बीज है ।बाल्‍मीकि जब वह कर सकते हैं ,तो तुम तो इक्‍कीसवीं सदी के पढ़े लिखे ठाकुर हो ....तुम क्‍यूं नहीं ?'


नामवर जी के यह बोलते ही आनंदमोहन का भ्रम जाता रहा । 'आत्‍म तत्‍व विवेक ' से वे परिचित हो चुके थे ।शब्‍द ,स्‍फोट ,जगत् ही उनके लिए भ्रम नहीं गोली और गन भी माया प्रतीत हो रहा था ।इस हेत्‍वाभास पर आप जल्‍द ही नयी कविता का दर्शन करेंगे ।प्रकाशक होंगे राजकमल ,वाणी या कोई और जिनको प्रसिद्धि भी चाहिए और पुरस्‍कार भी ।नामवर जी ने प्रकाशकों को पूरी गारंटी दिया है कि मुनाफा 'सरबा' कहां जाएगा !

महाराज दिलीप ,भरत और भगवान राम के वंशज दोनों ठाकुर पैदल ही राजपथ पर टहल रहे थे ।कभी अंबानी ,कभी लालू ,कभी सहारा के सुब्रत राय ,हजारी प्रसाद द्विवेदी ,रामविलास शर्मा ,आदि कई लोग उनको चलते देख आनंद आनंद हो रहे थे ।
इस दृश्‍य को देखकर यद्यपि पुष्‍पवर्षा नहीं हुई थी ,परंतु एक चालू आलोचक जो जाति का ब्राह्मण ,स्‍वभाव से मसखरा और वेतन बिल के हिसाब से प्रोफेसर था तुरत डायरी में लिखने लगा :
तुलनात्‍मक आलोचना - आनंद मोहन की तुलना में नामवर जी ज्‍यादा मारक हैं ,क्‍योंकि उनका मारा पानी नहीं मांगता ।जबकि आनंद मोहन का मारा कई आदमी जिंदा है । यद्यपि दोनों भगवान राम के वंशज हैं ,दोनों में क्रोध और उत्‍साह ज्‍यादा है ,परंतु आनंद मोहन उत्‍तर आधुनिकता की ओर प्रस्‍थान करते हैं ।उन्‍होंने सोचने समझने की केंद्रीय धारा को चुनौती दी है ।दोनों प्रगतिशील हैं तथा रस की बजाय संघर्ष पर बल देते हैं ।

नयी आलोचना - यह चर्चा इस बात पर बल देती है कि कवि की बजाय कविता महत्‍वपूर्ण है ।अत:कौन ,कहां ,कैसे मारा ,मरा ,मराया यह महत्‍वपूर्ण नहीं है ।सबसे महत्‍वपूर्ण है उजले कागज पर कवि का लिखा हुआ वह काला वह काला ........... ।

निष्‍कर्ष :आनंद मोहन की तुलना में नामवर ज्‍यादा मारक हैं ,क्‍योंकि उनका मारा पानी भी नहीं मांग पाता ,जबकि आनंद मोहन की शूटिंग कला में कई खामियां हैं ,उनका मारा कई जगह मिल जाएगा ,एक हाथ ,एक पैर ,एक आंख के साथ ......जी0 कृष्‍णैया तो अभागा था बस ।नामवर जी किसी को पूरी कला ,साजसज्‍जा के साथ मारते हैं ।पहले आधा घंटा बोलेंगे ,फिर पानी पियेंगे ,फिर उसके मरने की ऐतिहासिक अनिवार्यता पर बात करेंगे ,अंत में गोली मारेंगे ।फिर गरदन हिलायेंगे कि मरा कि नहीं .....इस कलात्‍मकता का आनंद मोहन में अभाव है ।

Wednesday 28 March, 2012

पश्चिमी घाट का राजा



पश्चिमी घाट का राजा
भूमंडलीकरण के पक्ष मे भाषण देता अलसुबह
नाश्‍ता नसीहत के साथ जिसमें
देश मुक्‍त था सीमाओं से करों से
डिनर विश्‍वग्राम के दरोगाओं मसखरों के साथ
लंच में परोसता गरम गालियां उन मजदूरों को जो सुदूर पूरब से आए
गिने-चुने शब्‍दों मुहावरों सेकाम चलाता हमारा नायक
शब्‍दकोष पढ़ना तौहीन मानता वह
हल्‍की-हल्‍की दाढ़ी बहुत फबती उस पर
बाखूब जाहिल पर हिट है वह
क्‍योंकि बड़ी-बड़ी आंखे उसकी
छुपाए हैं फरेबी सपनों को
देखते ही वमन करते नौजवान
पश्चिमी घाट पर विधर्मियों के गोश्‍त
मिर्गियों में घूमते त्रिशुल के साथ ।

बहुत विद्वान हैं भैया वे लोग
बकवास मानते कि एक त्रिशूलधारी ने ही
हलाहल को पी डाला
दिखाते नए नए पुराण
सँपोला भी वही बोलता
जमाना तैयार बैठा कि कुछ नया सुने
पर मेंडल जिंदाबाद है गुरू
गुलाब ही न गुलाब पैदा करेगा

वैसे बहुत क्रिएटिव हैं साहब
साहब ही नहीं पूरा खानदान जनाब
बहू कार्टून फिल्‍में बनाती
एक फिल्‍म मे राम के सौ सिर को
रावण ने त्रिशूल से काट डाला

पोता आर्थिक चिंतक है
नाथूराम गोडसे को चूतिया कहता है
यह काम तो त्रिशूल से भी संभव था
नाहक तीन गोली खर्च करता था

छोटा बेटा इतिहास पढ़ाता
उसने साबित किया कि सबसे पहला आदमी इसी जगह जन्‍मा
फिर कभी डार्विन कभी नित्‍से
कभी कभी हिटलर को भी उद्धृत करते हुए
साबित करने की विराट धुन
पहले आदमी की भाषा
उसका देश -प्रदेश
अदब- मज़हब
समझाने के लिए उसके पास कर्इ चीजें हैं
उसकी दाढ़ी ,उसकी आंखें
उसका कलम ,उसके गण
हाफपैंट धारण किए हुए पश्चिमी घाट पर त्रिशूल के साथ
आप चाहें जैसे समझे

Sunday 25 March, 2012

एन0एच0 पे भगवान

दिन जुमा हो या मंगल का
रस्‍ता रोके खुदा का बीच सड़क पर
सन्2013 की राजधानी
हो रहा नमाज मंगलगान
बना रहे घूसखोर
दान-दक्षिणा ले रहे भगवान
मस्‍त भी व्‍यस्‍त भी
खुदा हो रहा आग
हो रहा पानी-पानी

2 रस्‍ता जाम कर हो रहा ईबादत
ओ भैये ,गुरू ,दादा ,अन्‍ना
कौन सा मौलिक अधिकार है तेरा
पढ़ाई-लिखाई ,अस्‍पताल दुकान
क्‍या खुदा के कहने से करता हलकान
भगवान केा उंचा सुनने की बीमारी नहीं है प्‍यारे
तो मैं कबीर का प्रवचन बंद करू न !
ठीक है तो आ रहा थानेदार गंडा सिंह
उसे ही पकड़ाता हूं पांच सौ का नोट
मारेगा डंडा घूमा घूमा के आगे-पीछे
तब बताना उसको मानवाधिकार का सेक्‍शन नं0 फलां

Friday 23 March, 2012

देश ,इतिहास और रामदेव



विश्‍व इतिहास में बहुत सारे बैद्य आए ,नाम ,अर्थ ,यश कमाया ,राजाओं की चिड़ौड़ी की ,राजबैद्य कहलाए ,चले गए ।यहां तक कि हेप्‍पोक्रेट्स ,चरक और सुश्रूत राजदरबार में रहकर भी इतना प्रभावी नहीं हुए कि उनकी हनक चिकित्‍सा से भिन्‍न क्षेत्र में भी दिखाई दे ।अरस्‍तू की विद्वता ,प्रतिभा ,विषय और क्षेत्र की सीमाओं को भेदने वाली दृष्टि अन्‍य को नहीं मिली ।कृष्‍णदेव राय ,बरनी ,अमीर खुसरो बड़े ही विद्वान मंत्री थे ,परंतु कोई भी इतनी प्रसिद्धि और शक्ति अर्जित नहीं कर सका कि राजनीति का एक अन्‍य केंद्र बन सके ।यद्यपि इतिहास ऐसे षड्यंत्रों से भरा परा है जिसमें मंत्रियों ने राजा को सत्‍ताच्‍युत कर दिया हो ,पर मैं कुछ दूसरी बात कहना चाह रहा हूं बाबा रामदेव जी ।

मैं यह कहना चाह रहा हूं कि चिकित्‍सा पद्धतियों के प्रणेताओं ,आचार्यों ने भी इतना अर्थ और यश नहीं अर्जित किया होगा कि जितना आपको मिला ,परंतु यह कहना कठिन है कि आपने अपने लिए इस देश के लिए उसका महत्‍तम उपयोग किया ।आयुर्वेद और योग को लोकप्रिय बनाने के आपके प्रयासों की प्रशंसा हुई है ,परंतु आपने इस वैकल्पिक चिकित्‍सा पद्धति को ग्रामीण भारत में फैलाने तथा भारत के ग्रामीण एवं गरीब जनता को सरल एवं सुगम चिकित्‍सा उपलब्‍ध कराने का प्रयास किया हो ,ऐसा कहना कठिन है ।शोध और अनुसंधान के क्षेत्र में भी डाबर और हिमालया जैसी कंपनी की उपलब्धि आपसे बेहतर है ।गुणवत्‍ता और मूल्‍य की दृष्टि से भी उक्‍त कंपनियां बेहतर रही है ।

राजनीति एवं संस्‍कृति के प्रति आपकी अभिरूचि सम्‍मानजनक होते हुए भी दिशाहीन है ।भारतीय राजनीति के किस पहलू की तरफ आपका झुकाव है ,तथा किन तत्‍वों पर आपको बल देना है ,यह अभी तक आपने सुनिश्चित किया है ।आप कभी संघी राजनीति तथा कभी प्राचीन भारतीयतावाद के घोषित पॉपुलिज्‍म की और लगाव दिखाते हैं ,परंतु खुलकर स्‍वीकार नहीं करते ।आपके विचार की यह दिशाहीनता आपकी राजनीति में भी है ,आप यह सुनिश्चित नहीं कर पा रहे हैं कि आपको वैद्य ,आचार्य बनना है या कौटिल्‍य जैसा राजनिर्माता ।आप खुलकर संसदीय राज‍नीति में भी घुस नहीं रहे हैं ।वैचारिक एवं राजनीतिक स्‍तर पर यह घाल-मेल आपके लिए जितना भी सुविधाजनक है ,देश के लिए थकाने वाला । देश वैसे भी राजनीतिक नौटंकियों से घबड़ा गया है ।यद्यपि देश इन नौटंकियों में समय-समय पर भाग लेता है ,तथापि अभिनय की भूमि मंच ही है , गंगा-सिंधु की विशाल भूमि नहीं ।आपका भगवा विंध्‍याचल से दक्षिण भी बेअसर रहा है ,तथा अल्‍पसंख्‍यकों विशेषकर मुसलमानों में अपने प्रति गलतफहमी पाले रहने का निरंतर मौका दिया है ।यदि आपको राजनीति में रहना है गुरू तो साफ करो कि वे बातें गलतफहमी ही है या सही है ।

आपके अब तक की राजनीति एवं वैद्याचार्यत्‍व से स्‍पष्‍ट है कि आपको प्रो-हिंदू ,प्रो-अर्बन ,घालमेली राजनीति प्रिय है ।आम गरीब जनता को वैचारिक एवं चिकित्‍सकीय स्‍तर पर उद्वेलित करने का एक शानदार मौका आपने खो दिया है ।देश ने अभी भी आपको नकारा नहीं है , पर देश नए एवं स्‍वच्‍छ परिधान में ही आपको गले लगाएगा ।

Saturday 17 March, 2012

गुरूदेव अब शांति निकेतन में नहीं रहेंगे


शांतिनिकेतन के प्रशासक अब चहार दीवारी को किला बनाने पर तुले हैं

परिंदा भी पर न मारे का ठसक लिए हुए

गुरूदेव ठेकेदारी में दलाली से परेशान नहीं दिखे

यद्यपि उन्‍होंने यह तो नहीं कहा कि सब चलता है

ऐसा भी नहीं लगा कि वो लिखना पढ़ना बोलना भूल गए हैं

गुरूदेव ने कहा यही तो दिक्‍कत है यार

मेरे कंठ को ,आंख को ,कान को भीलकवे ने नहीं मारा है

और मुझे सब कुछ दिख सुन रहा है

वी0सी0 रजिस्‍ट्रार मास्‍टर से उन्‍हें कोई शिकायत नहीं

सब फूल माला पहनाते ही थे

पर चाहते थे कि रवींद्र नाथ बुत बने रहे

अपने किताबों के साथ आलमारी में बंद रहें

इन मास्‍टरों की श्रद्धा भी गुरूदेव को लुभाती है

पर इनकी लिस्‍ट देख लजा जाते हैं

हर कोई पचीस पचास लाख कमाकर

दिल्‍ली लंदन में बच्‍चों को पढ़ाकर

एक दो किताब लिखकर अमर हो जाना चाहता था ।

ऐसा भी नहीं कि उन्‍हें कोई शिकायत ही नहीं

अब हर कोई अपने जिला जवार

देश प्रदेश का मानचित्र अपने कमीज के नीचे छिपाए हुए है

शांति निकेतन में सैकड़ो बंगाल ,बिहार ,उत्‍तर प्रदेश

प्रशासकों ,शिक्षकों ,छात्रों की ये देशीयताये

कौन सा आंचलिक आंदोलन है प्रिय

ये ध्रुवों परिधियों के लिए प्रेम समेटे उत्‍तर आधुनिकता तो नहीं

उस दिन गुरूदेव रह गए अवाक्

सूर्यदेव के अस्‍ताचल होने सेलाभान्वित प्रेमी युगल को

छुपकर देख रहे दो शिक्षकबतिया रहे

'इस स्‍साली को यही मिला है क्‍या '

और दोनों शिक्षक युवती के संग अपने

भोग की कुटिल कल्‍पना से हँसते रहे हो - हो -हो

फिर युवती ,उसकी जाति ,माता-पिताके लिए खर्च करते रहे अपनी सारी योग्‍यता ।

रवींद्र नाथ ने निश्‍चय कर लिया है

वे चले जायेंगे शरतचंद्र के गांव

या फिर परमहंस के गांव

इससे पहले कि कोई व्‍योमकेश दरवेश

शांति निकेतन के द्वार पर धकियाया जाए

व मांगा जाए उससे सर्टिफिकेट

वे छोड़ देंगे शांति निकेतन

फिलहाल बंगाल में ही कहीं रहेंगे ।

अनिल त्रिपाठी की कविता :खटारा जीप की टंकी




मैं जो कहना चाहता था.....

वे सब समझ रहे थे

वे जानते थे मेरा कष्‍ट

मैं ज्‍यादे क्‍या कहूं .....

सर ,खुद ही समझदार हैं

इतनी अच्‍छी आपसी समझ-बूझ के

बावजूद

मेरा मधुमेह और उच्‍च रक्‍तचाप

बढ़ ही रहा है ।

स्‍वप्‍न में दिखाई देती खटारा जीप

और उसकी विशाल होती टंकी

पसीने से तरबतर हो जाती थी शरीर

जब बताया जाता था मुझे ,

कल माननीय फलॉ

अतिथिगृह में पधार रहे हैं

इस व्‍यवस्‍था में रससिक्‍त विज्ञ जन

उपदेश देते

इतना एडजस्‍ट करना ही पड़ता है

फिर

असंख्‍य उदाहरण ,एडजस्‍ट करने के

मन ही मन अपने अबोध बच्‍चों

की निर्मल आकांक्षाओं को दबाते हुए

अपने को तैयार करने लगता हूं


अगले एडजस्‍टमेंट के लिए

............

(अनिल कुमार त्रिपाठी)

Sunday 11 March, 2012

मायामृग :लेखन और प्रकाशन का सच




आप मित्रों की सार्थक चर्चा के बीच कुछ कहने का साहस कर रहा हूं जो संभवत: अप्रिय लग सकता है पर हमें प्रकाशन और लेखक के बीच के संबंध और बाजार के साथ उसके त्रिकोण को नए सिरे से समझने की जरुरत जान पड़ती है। कुछ बातें यहां उल्‍लेखनीय हैं-
1. यह सही है कि प्रकाशकों ने ऐसा वातावरण बना दिया है कि लगने लगा है वहां सब गलत ही गलत है, सही कुछ हो नहीं सकता।
2. कविताओं की पुस्‍तकें सर्वाधिक लिखी और प्रकाशित की जा रही हैं उनमें से बहुत कम ही प्रभाव छोड़ पाती हैं और बिक्री के मामले में तो यह आंकड़ा और कम रह जाता है।
3. एक महत्‍वपूर्ण सवाल बिक्री का-
निवेदन यह कि हिन्‍दी पुस्‍तकों का बाजार दो जगह है
एक हिन्‍दी पुस्‍तकालय, सरकारी या गैर सरकारी खरीद के जरिये
दूसरा सीधे पाठकों को बिक्री
पुस्‍तकालयों में खरीद की पूरी प्रक्रिया अपारदर्शी और भ्रष्‍टाचार को बढ़ावा देने वाली है। अधिकांश राज्‍यों में सरकारी खरीद के लिए पहले खुद सरकार तीस से पैंतीस प्रतिशत छूट मांगती हैं और राज्‍य के विभिन्‍न पुस्‍तकालयों में वितरण के लिए वितरण व्‍यय के नाम पर पांच प्रतिशत अलग से राशि पहले प्रकाशक से ले ली जाती है।
यानी सौ रुपये की किताब 135 रुपये की तो यहीं हो गई। इसमें प्रकाशक के ट्रांसपोटेशन, पैकेजिंग आदि के व्‍यय जोड़ दें तो यह 140 रुपये हो जाती है। इसके बाद खरीद का तंत्र जिस तरह काम करता है वह मुझे नहीं लगता किसी प्रकाशक या लेखक से छिपा हुआ है। ऐसे में प्रकाशक अगर इस किताब की कीमत 200 से ऊपर ना करे तो उसके पास लागत भी लौटना मुश्किल हो जाए। यानी किसी भी किताब की कीमत यहां दुगुनी स्‍वाभाविक रुप से हो जाती है।
कविताओं की पुस्‍तकें अघोषित तौर पर आमतौर पर सरकारी खरीद में दोयम मानी जाती हैं। यथासंभव गद्य विधाओं की खरीद को प्राथमिकता दी जाती है।
दूसरा तरीका है सीधे पाठकों को विक्रय। जिन मित्रों ने पुस्‍तक मेले में कविताओं की पुस्‍तकें बिकती हुई देखी हैं उनसे जानना रुचिकर होगा कि किसी काव्‍य पुस्‍तक की कितनी प्रतियां उनके अनुसार विक्रय होती होंगी...। बेहतरीन कविताओं की पुस्‍तक की 100 प्रतियां अगर पूरे मेले के दौरान बिक जाएं तो यह बड़ी से भी बड़ी उपलब्धि मानी जानी चाहिए। यहां जरुर ध्‍यान रहे कि पुस्‍तक मेले में स्‍टॉल और उसे चलाए रखने का व्‍यय जोड़ा जाना चाहिए। यह बिक्री केवल तभी संभव है जब पुस्‍तक का मूल्‍य 50 रुपये से कम हो। इससे अधिक होते ही कविता पुस्‍तक की बिक्री नगण्‍य हो जाती है। हम अपने ही लेखक मित्रों से जान सकते हैं कि उन्‍होंने इस शानदार मेले में कविताओं की कितनी पुस्‍तकें खरीदी....किस दाम की...;।
अब रही बात नए लेखकों की तो एक साधारण सा प्रश्‍न है कि कोई प्रकाशक हमारी किताब अपने पूरे व्‍यय पर क्‍यों छापे...एक 100 पेज की पुस्‍तक मोटे तौर पर 20 हजार के लगभग व्‍यय पर छपती है, अनेक तरह की छीजत, मुफ्त भेंट, समीक्षा आदि के लिए भेजे जाने के व्‍यय इसमें जोड़ लें। तो लगभग 22 से 25 हजार रुपये में स्‍तरीय मुद्रण प्रकाशन संभव हो पाएगा। अब इसकी बिक्री की गति और दर तय करें। एक पुस्‍तक की बिक्री में दी जानी वाली छूट, विक्रय प्रतिनिधि के व्‍यय, ट्रांसपोटेशन, डेमेज आदि भी गिन लिए जाएं। एक साल में यदि उस पुस्‍तक की 100 से 150 प्रतियां बिक्री हों तो आप अनुमान लगा सकते हैं कि इस पुस्‍तक की लागत कितने समय में लौटेगी और प्रकाशक जो कि व्‍यवसायी भी है, उसका लाभांश कितने समय बाद और कितना आएगा....आएगा भी कि नहीं..;। यह खतरा कोई प्रकाशक कब उठाना चाहेगा, और किसके लिए यह विचारणीय सवाल है।
प्रकाशक के पास नित्‍य प्रकाशनार्थ आने वाली पांडुलिपियों की संख्‍या जान लें तो पता लगेगा कि यदि रोजाना तीन किताब छापें तो भी किसी किताब का नंबर साल भर से पहले नहीं आएगा...वह भी तब जबकि पांच में से एक पांडुलिपि ही छपे...शेष चार लौटा दी जाएं। इस गति से छापने के लिए प्रकाशक को हर माह लाखों रुपये की जरुरत होगी। यह ऐसा इनवेस्‍टमेंट होगा जिसके लाभ की कोई गारंटी नहीं, मूल लौटने का भी तय नहीं। ऐसे में उसे पहली खरीद की प्रक्रिया की तरफ आकर्षित होने से रोकना मुश्किल ही होगा। और ऐसे में प्रकाशक केवल भरोसे के नाम ही छापना पसंद करेगा, जिनकी बिक्री की संभावना नए लेखकों की तुलना में काफी अधिक है। आज भी मुंशी प्रेमचंद की किताब छापना किसी नए कहानीकार की ि‍कताब की तुलना में कहीं अधिक बिकती है। ऐसे में क्‍या किया जाए। क्‍या नए लेखकों की किताब छापना बंद हो जाए...या सौं में से एकाध ही छापी जाए। पिफर आने वाली नई पीढ़ी कहां से आएगी...। नए रचनाकार कितने भी प्रतिभाशाली हों, उन्‍हें सामने लाने का काम कैसे हो....।
क्‍या ऐसा संभव है कि प्रकाशकों को दोष देने की बजाए सीधे पाठक तक बिक्री का ऐसा तंत्र विकसित किया जाए कि किसी प्रकाशक को अच्‍छी किताब लेखक का नाम देखे बिना छापने में संकोच ना हो। क्‍या हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि किसी ि‍कताब की चार से पांच सौ प्रतियां विक्रय हो सकें, ऐसा कर पाएं तो यह नए रचनाकारों और प्रकाशन जगत सबके लिए हितकारी होगा।

Wednesday 29 February, 2012

नागार्जुनी दशाध्‍यायी :आधुनिक महाभाष्‍यकार


इस बार की होली एक ऐसे व्‍यक्ति के साथ जो बीती सदी का सर्वाधिक रंगबिरंगा साहित्यिक है ।उसकी कविताओं का 'बैनीआहपिनाला' इतना सहज और प्राकृतिक है कि श्‍वेत प्रकाश की रंगीनियॉ इतनी आसानी से नहीं दिखती ।निश्चित रूपेण हिंदी आलोचना का भी जितना रंग -विस्‍तार उसकी कविताओं ने किया है ,संभवत: अन्‍य किसी ने नहीं ।यहॉ रामविलास शर्मा ,नामवर सिंह ,केदारनाथ सिंह ,विजय बहादुर सिंह जैसे प्रतिष्ठित आलोचकों के साथ ही कृष्‍ण मोहन झा ,अनामिका जैसे नये विचारकों के भी प्रयास हैं ,नागार्जुन की कविताओं के ऐतिहासिक गांठ को खोलते हुए ।पुस्‍तकों ,पत्रिकाओं के लिए हम सभी प्रकाशक एवं सम्‍पादक के आभारी हैं ।


रामविलास शर्मा
और कवियों में जहॉ छायावादी कल्‍पनाशीलता प्रबल हुई है ,नागार्जुन की छायावादी काव्‍य-शैली कभी की खत्‍म हो चुकी है ।अन्‍य कवियों में रहस्‍यवाद और यथार्थवाद को लेकर द्वन्‍द्व हुआ है ,नागार्जुन का व्‍यंग्‍य और पैना हुआ है ,क्रान्तिकारी आस्‍था और दृढ़ हुई है ,उनके यथार्थचित्रण में अधिक विविधता और प्रौढ़ता आयी है ।....उनकी कविताऍ लोक-संस्‍कृति के इतना नजदीक है कि उसी का एक विकसित रूप माजूम होती है ।किन्‍तु वे लोकगीतों से भिन्‍न हैा ,सबसे पहले अपने भाषा-खड़ीबोली के कारण ,उसके बाद अपनी प्रखर राजनीतिक चेतना के कारण ,और अन्‍त में बोलचाल की भाषा की गति और लय को आधार मानकर नये-नये प्रयोगों के कारण । हिन्‍दी भाषी....किसान और मजदूर जिस तरह की भाषा ...समझते और बोलते हैं ,उसका निखरा हुआ काव्‍यमय रूप नागार्जुन के यहॉ है ।





नामवर सिंह के अनुसार बाबा नागार्जुन


'लालू साहू',जिसमें 63 वर्षीय लालू 60 वर्षीया पत्‍नी की चिता में अपने को डालकर 'सती' हो गया ।इस अनहोनी घटना में ही शायद वह कवित्‍व है ,जिस पर नागार्जुन की दृष्टि गई ,वरना स्‍वयं उसके वर्णन में न कहीं भावुकता है ,न किसी तरह की कविताई ही ...........जो वस्‍तु औरों की संवेदना को अछूती छोड़ जाती है वही नागार्जुन के कवित्‍व की रचना भूमि है ।इस दृष्टि से काव्‍यात्‍मक साहस में नागार्जुन अप्रतिम हैं । ......इसी तरह 'कटहल' भी कविता का कोई विषय है लेकिन नागार्जुन है कि पके हुए कटहल को देख पिहक उठते हैं :
अह ,क्‍या खूब पका है यह कटहल
अह,कितना बड़ा है यह कटहल
यही कटहल उनकी एक अन्‍य कविता में अनूठे उपमान के रूप में इस तरह आया है :
दरिद्रता कटहल के छिलके जैसी जीभ से मेरा लहू चाटती आई
यह'कटहल के छिलके जैसी जीभ'नागार्जुन की ही बीहड़ कल्‍पना में आ सकती थी ।नागार्जुन की यही कल्‍पना रिक्‍शा खींचने वाले,फटी बिवाइयों वाले ,गुट्ठल घट्टों वाले ,कुलिश कठोर खुरदरे पैरों के चित्र भी ऑकती है और उसकी पीठ पर फटी बनियाइन के नीचे 'क्षार अम्‍ल ,विगलनकारी ,दाहक पसीने का गुण धर्म ' भी बतलाती है ।मनुष्‍य के ये वे रूप हैं जो नागार्जुन न होते तेा हिंदी कविता में शायद ही आ पाते ।
इसी तरह यथार्थ के वे रूप जिन्‍हें शिष्‍ट और सुरूचिपूर्ण कवि वीभत्‍स समझकर छोड़ देना ही उचित समझते हैं ,नागार्जुन की साहसिक कल्‍पना से काव्‍य का रूप प्राप्‍त करते हैं ।

केदार नाथ सिंह
नागार्जुन आमतौर पर अपनी कविता में चित्रण नहीं करते ।वे सिर्फ वर्णन करते हैं और वर्णन करने की जो ठेठ भारतीय क्‍लासिकी परम्‍परा है -पुरान काव्‍य,पुराकथाओं या लोक साहित्‍य में -उसका भरपूर इस्‍तेमाल करते हैा ।शिल्‍प के स्‍तर पर यह पहला बिन्‍दु है ,जहॉ वे नयी कविता या आधुनिकतावादी कविता या एक हद तक पूरी समकालीन कविता से अलग होते हैं ।वर्णन की इस प्रवृत्ति की ओर मुड़ना अकारण नहीं है ।इसका एक बहुत बड़ा कारण तो यह है कि यह पद्धति कला के यथार्थवादी उद्देश्‍यों के अधिक अनुकूल पड़ती है ।एक दूसरा कारण यह हो सकता है कि नागार्जुन और उनके सहधर्मा कवि त्रिलोचन अपने पूरे काव्‍य में जाने -अनजाने पश्चिम के सांस्‍कृतिक दबाव के विरूद्ध क्रियाशील रहे हैं ।.........तात्‍कालिक कविता से मेरा तात्‍पर्य उन कविताओं से है ,जो किसी सद्य:घटित घटना या किसी ताजा राजनीतिक प्रसंग से सम्‍बन्धित होती है ....इस तरह की कविताओं के प्रति तथाकथित गम्‍भीर पाठकों या आलोचकों की एक प्रतिक्रिया यह है कि इन्‍हें 'अगम्‍भीर काव्‍य' मानकर एक तरफ रख दिया जाये ।पर मुझे लगता है कि नागार्जुन के पूरे काव्‍य को उसकी सॅपूर्णता में देखा जाना चाहिए ।तात्‍कालिक कविताऍ ,उनके विशाल काव्‍य-व्‍यक्तित्‍व का एक महत्‍वपूर्ण हिस्‍सा है और उनके कृतित्‍व का मूल्‍यांकन करते समय यउन्‍हें काटकर अलग नहीं किया जा सकता । दरअसल ,आलोचना के प्रचलित मान-मूल्‍यों और अपने समय के पूरे सौंदर्यबोध को सबसे ज्‍यादा यही कविताऍ झकझोरती है ।
एक तथ्‍य जिसकी ओर सहसा ध्‍यान नहीं जाता ,यह है कि तात्‍कालिक विषय पर कविता लिखना एक खतरनाक काम है ।यह खतरा केवल सामाजिक या राजनीतिक स्‍तर पर ही नहीं होता ,बल्क्‍ि स्‍वयं कविता के स्‍तर पर भी होता है ।यह खतरा वहॉ मौजूद रहता है कि कविता कविता रह ही न जाये ।पर नागार्जुन एक रचनाकार की पूरी जिम्‍मेवारी के साथ इस खतरे का सामना करते हैं और इस दृष्टि से देखें तो उनमें ख़तरनाक ढ़ंग से कवि होने का अद्भुत साहस है ।.........उनकी कविता का एक दूसरा महत्‍वपूर्ण पक्ष है ,उसकी गहरी स्‍थानीयता ।नागार्जुन की हर कविता की जड़ें एक वृक्ष की तरह अपनी मिटृटी में दूर तक धँसी होती है ।यह स्‍थानीयता तात्‍कालिकता का ही दूसरा पहलू है ।एक ठेठ देसीपन या स्‍थानीयता त्रिलोचन में भी है और एक हद तक केदारनाथ अग्रवाल में भी । पर नागार्जुन की 'स्‍थानीयता' इन दोनों से अलग इस मानी में है कि जब वे अपने परिचित परिवेश या अंचल से बाहर होते हैं ,उस समय भी वे उतने ही 'स्‍थानीय' होते हैं ।उनकी स्‍थानीयता बहुत कुछ लोक-काव्‍य में पायी जानेवाली 'स्‍थानीयता' की तरह होती है ,जिसके दृश्‍य और रंग सम्‍प्रेष्‍य भाव को एक आकार और विश्‍वसनीयता देने के बाद चुपचाप तिरोहित हो जाते हैं ।जिस बात के चलते नागार्जुन की कविता अपने सर्वोत्‍तम रूप में सारी तात्‍कालिकता और स्‍थानीयता को अतिक्रान्‍त कर जाती है ,वह है उनकी विश्‍वदृष्टि जो उनके व्‍यक्तिगत अनुभव और जनता के सामान्‍य बोध से मिलकर बनी है और उनके निकट इन दोनों के बीच के अन्‍त:सूत्र को आलोकित करनेवाला तत्‍व है मार्क्‍सवाद ।सामान्‍य बोध पर निर्भर करने की यह प्रवृत्ति जितनी नागार्जुन में है ,उतनी और कहीं नहीं ।भक्तिकाव्‍य का एक बहुत बड़ा हिस्‍सा इसी सामान्‍य बोध से परिचालित होकर लिखा गया था ।समकालीन कविता के इतिहास में नागार्जुन का एक बहुत बड़ा अवदान यह माना जायेगा कि उन्‍होंने पुन: कविता की दिशा को विशिष्‍ट बोध से सामान्‍य बोध की तरफ मोड़ने का प्रयास किया ।इसी प्रयास के चलते उनकी कविता के उस क्रान्तिकारी चरित्र का निर्माण हुआ है ,जिसके हम इतने अभ्‍यस्‍त हो गये हैं ।('मेरे समय के शब्‍द')




निराला और नागार्जुन पर शिव कुमार मिश्र


निराला आजीवन अपने अहम, अपनी 'इगो' के प्रति सजग रहे ,जबकि नागार्जुन लगभग डीक्‍लास हो कर साधारण जनों के जीवन से एकात्‍म हो कर जिये ,अपने स्‍वाभिमान को दोनों ने अक्षत रखा ।निराला अपने रोमाण्टिक तेवरों को अंत तक बनाये रहे जब कि ,जैसा कहा ,नागार्जुन 'डीक्‍लास' हो कर जिस विचार दर्शन से जुड़े उसमें रोमाण्टिक आत्‍मकेंद्रण अथवा निजता की धुरी पर टिके रहने का कोई सवाल ही नहीं था । ........निराला के जीवन की त्रासदी वस्‍तुत: एक रोमाण्टिक की त्रासदी है ।सत्‍ता व्‍यवस्‍था और सामाजिक जीवन की विसंगतियों के खिलाफ ,साधारण जन के पक्ष में वे आजीवन लिखते रहे परन्‍तु अपने रोमानी मिजाज के चलते अपने भीतर सुलगती असहमति,विरोध और विद्रोह की आग को उस बड़ी आग में तब्‍दील कर सके जो सामाजिक बदलाव का कारण बनती या बना करती है । .........इसके विपरीत शरीर और जीवन के दूसरे सारे अपघातों को झेलते हुए भी ,दमा जैसे असाध्‍य रोग को छाती से लगाये हुए भी ,व़द्धावस्‍था से उपजी अशक्‍तता का प्रतिकार करते हुए ,सुविधा तथा साधनों के अभाव में यायावरी जीवन के सुख दुख भोगते हुए ,नागार्जुन जीवन की अन्तिम सॉस तक हत विश्‍वास ,हतभाव नहीं हुए ,लोक की बात क्‍या ,परलोक की भी किसी सत्‍ता के समक्ष कातर और दीन नहीं बने ।शरीर भले ही टूट गया हो ,मन उनका अक्षत रहा ,उसकी निष्‍ठाऍ अक्षत रही ।उन्‍हें किसी प्रभु से अरदास करने की जरूरत नहीं पड़ी ('अनहद'2)



राजेन्‍द्र कुमार
नागार्जुन की कविता आज की उस ठेठ आत्‍मा की खोज की कविता है ,जो साधारण जन में एकाकार होना चाहती है ,जिसे किसी प्रकार की विशिष्‍टता का आतंक छू नहीं सकता लेकिन जिसकी अपनी विशिष्‍टता का कोई दमन नहीं कर सकता ।कवियों के आत्‍मालाप को ही सच्‍ची कविता मानने वालों को शिकायत है कि नागाज्रफन का स्‍वर इतना आवाहनपरक है कि कविता उससे किनारा कर लेती है ।दरअसल जिसे आवाहनपरकता मान कर प्रश्‍नांकित किया जाता है ,उससे उसका सही नाम पूछा जाये ,तो वह 'आवाहनपरक' नहीं,'जनसंवादी' कहलाना अधिक पसन्‍द करेगी ..............वे कविता के पीछे इस तरह नहीं भागते कि प्रत्‍यक्ष अनुभव का कोई क्षण पीछे छूट जाये ।अनुभव के सत्‍य को किसी शाश्‍वतता में पकड़ने का मोह करने वालों में वे कभी नहीं रहे । ...............कुछ 'भद्रजन 'उनके भाषागत और विषयगत 'भदेसपन' से भी बिदकते रहे ।ऐसे 'भद्रों' को उन्‍होंने अपनी कविता से यह तमीज़ देने में कोताही नहीं बरती कि 'भद्र' और 'भद्दा' की सगोत्रता का कुछ अन्‍दाजा़ तो उन्‍हें हो ही सके ।(अनहद-2)



जवरीमल्‍ल पारीख
वैसे तो नागार्जुन के लिए 'सबकुछ कविता की परिधि में आता है लेकिन राष्‍ट्रीय और अन्‍तरराष्‍ट्रीय राजनीतिक घटनाक्रम की तरफ वे जल्‍दी आकृष्‍ट होते हैं ।वे अपनी जानकारी और राजनीतिक दृष्टिकोण के अनुसार उन घटनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करते हैं ।लेकिन ऐसा ककरते हुए वे सदैव कविता की रक्षा कर पाते हों यह जरूरी नहीं है ।कई बार महज वैचारिक प्रतिक्रिया होती है और कई बार वे अपनी इस सीमा का अतिक्रमण भी कर जाते हैं ...............व्‍यक्तियों ,दलों और आंदोलनों के प्रति वे अपना रूख बदलते रहे हैं ।इसका अर्थ यह नहीं है कि नागार्जुन राजनीतिक अवसरवाद के शिकार थे ।राजनीति उनके लिए लाभ लोभ या जीविकोपार्जन का साधन नहीं थी ।जिस वामपन्‍थी और जनवादी आंदोलन से उनका वास्‍ता था ,उसकी अलग अलग धाराओं और उसमें निहित अन्‍तर्विरोधों और भटकावों के वे शिकार होते रहे ।जनता के प्रति उनकी आस्‍था सदैव अडिग रही लेकिन जनता के पक्ष में राजनीति करने वालों के प्रति वे मोह और मोहभंग के शिकार होते रहे ।................नागार्जुन की सभी राजनीतिक कविताऍ सिर्फ तात्‍कालिकता से प्रेरित नहीं है ।उन्‍होंने ऐसी कविताऍ भी काफी लिखी हैं जो राजनीतिक यथार्थ को प्रतिक्रिया के रूप में नहीं पेश करती बल्कि उसे तात्‍कालिकता से मुक्‍त करते हुए और व्‍यापक सन्‍दर्भ से जोड़ते हुए पेश करते हैं ।यॉ कवि को अपनी बात कहने की जल्‍दबाजी नहीं है ।इसीलिए ऐसी कविताओं का कलाविधान भी अधिक मॅजा हुआ और गठा हुआ नजर आता है । (अनहद-2)



संस्‍कृत कविता पर कमलेश दत्‍त त्रिपाठी
नागार्जुन पूर्वतन कवियों के विशिष्‍ट पदप्रयोग ,उक्ति या पद सन्‍दर्भ को स्‍वीकार कर उसे नये सन्‍दर्भ में अत्‍यन्‍त रचनात्‍मक रूप में प्रयुक्‍त करते हैं और उनमें नवीन अर्थस्‍तरों को उद्घाटित करने का सामर्थ्‍य भर देते हैं ।अर्थों के ध्‍वनन की संस्‍कृत कवियों को परिज्ञात करने का सामर्थ्‍य भर देते हैं ।अर्थों के ध्‍वनन की संस्‍कृत कवियों को परिज्ञात यह पद्धति नागार्जुन की रचना में नये आयाम ग्रहण करती है । ..............नागार्जुन की संस्‍कृत रचना में 'कालसंवादित्‍व' का यह सामर्थ्‍य संस्‍कृत कविता के निरन्‍तर गतिशील रहने का एक प्रतिमान स्‍थापित करता है ।वे ऐसे अकेले कवि है ,जो वैश्‍व फलक पर युग को बदल देने वाले इस सन्‍दर्भ को शक्तिशाली अभिव्‍यक्ति देते हैं । ........... नागार्जुन संस्‍कृत के एक ऐसे समकालीन कवि हैं जिनमें परम्‍परा अपने सजीव स्‍पन्‍दन में विद्यमान रहते हुए विक्षोभ,द्वन्‍द्व और परिवर्तन के प्रबल रूप को मुख्‍य स्‍वर बना देती है । ...............यदि समकालीन संस्‍कृत कविता को किसी नये प्रतिमान और समीक्षाशास्‍त्र की आवश्‍यकता है ,तो उसे नागार्जुन जैसे कवियोंकी रचनाओं के समालोचन से उभरना होगा । ('अनहद'द्वितीय अंक)


बांग्‍ला कविता पर प्रफुल्‍ल कोलाख्‍यान
नागार्जुन छोड़ कर नहीं साथ ले कर ही आगे बढ़ते थे ।आगे बढ़ने के दौरान भले ही कुछ छूट जाये तो छूट जाये ।महत्‍व आगे बढ़ने का रहा ।इसलिए तत्‍काल को केन्‍द्र में रख कर लिखी गयी कविताऍ कालातीत हो जाती है ,स्‍थान को ले कर लिखी कविताऍ स्‍थान की सीमाओं को अतिक्रमित कर जाती है ,व्‍यक्ति को केन्‍द्र में रख कर लिखी गयी कविताऍ परा वैयक्तिक हो जाती है ,घटना के केन्‍द्र में रख कर लिखी गयी कविताऍ घटनातीत हो जाती है ।......... बांग्‍ला हो या मैथिली ,हिन्‍दी की तुलना में ये सांस्‍कृतिक भाषाऍ अधिक है और इनकी तुलना में हिन्‍दी राजनीतिक भाष्‍ज्ञा अधिक है ।नागार्जुन अपने मूल रूप में राजनीतिक कवि हैं ।नागार्जुन की बॉंग्‍ला कविताओं का महत्‍व तो कई दृष्टियों से है लेकिन मुख्‍य बात यह है कि नागार्जुन के रचनाशील मिजाज को समझने में इन से कुछ मदद मिल सकती है ।..... नागार्जुन की बॉग्‍ला कविताओं का अपना महत्‍व है ।बॉग्‍ला भाषा साहित्‍य में इसका क्‍या महत्‍व ऑका जाता है यह एक अलग विषय है ।परन्‍तु इतना निश्चित है कि नागार्जुन को समझने के लिए इन कविताओं का महत्‍व कमतर नहीं है ।(अनहद-2)



मैथिली कविता पर कृष्‍णमोहन झा
नागार्जुन नीरवता के नहीं मुखरता के उपासक हैं ।उनका जीवन और साहित्‍य उत्‍कट मुखरता का एक सुन्‍दर उदाहरण है ।इस मुखरता को बनाये रखने के आनन्‍द की कीमत एक ओर उन्‍होंने अपने जीवन को निर्ममता से धुन कर चुकायी तो दूसरी ओर साहित्‍य में कई भाषाओं में कविताऍ लिख कर और साहित्‍य के मठों और मठाधीशों के बनाये किलों को तोड़ कर ।........चित्रा की कविता संस्‍कृत और प्राचीन मैथिली कविता की शास्‍त्रीय परम्‍परा से छिटक कर जीवन की साधारणता में ,उसके मर्म को पहचानने और रेखांकित करने की कोशिश है ।दूसरे शब्‍दों में कहें तो वह एक ओर जीवन में धँसकर उसे अपनी शर्तों पर अर्जित करने का संकल्‍प था तो दूसरी ओर प्राचीन सामन्‍ती विचार -व्‍यवस्‍था को तार-तार करने का मजबूत इरादा ।इस संकलन के प्रकाशन से पहले सीताराम झा ,भुवनेश्‍वर सिंह 'भूवन' आदि की कविता मे विद्यापति ही नहीं ,मनबोध और चन्‍दा झा तक की कविता के प्रति विद्रोह उठ खड़ा हुआ था ,लेकिन उनकी अपनी सीमाऍ थी ।कवि यात्री ने उस विद्रोह को त्‍वरा ,दिशा और सघनता दी ।इस दिशा का नाम चौथे-पॉचवें दशक में मिथिलांचल में ठहरे हुए विडम्‍बनामूलक समाज में जीवन काट रहे सबसे निचली पंक्ति के लोगों के दुख की पहचान है ।(अनहद-2)


विचारधारा पर गजेन्‍द्र ठाकुर

लेखकक आइडियोलोजी पानिमे नून सन हेबाक चाही, पानिमे तेल सन नै आ ऐपर हम पहिनहियो लिखने छी। यात्री आ धूमकेतुकेँ कम्यूनिस्ट पार्टीक सोंगरक आवश्यकता पड़लन्हि कारण वामपंथ “नीक सेन्ट” आ “डिजाइनर वीयर”क भाँति हिनका सभ लेल फैशन छल, से बलचनमा कांग्रेस आ समाजवादी पार्टीसँ हटलाक बाद कम्यूनिस्ट आ लालझंडामे सभ समस्याक समाधान तकैए, ओकरा यात्रीजी सभ समाधान ओइमे दै छथिन्ह। धूमकेतुक पात्र लेल सेहो लाल झंडा लक्षमण बूटी अछि। मुदा ई लोकनि कम्यूनिस्ट मूवमेन्टसँ -फैशनक अतिरिक्त- जुड़ल नै छथि तेँ हिनकर साहित्यमे आइडियोलोजी तेल सन सहसह करैए।



शैलेन्‍द्र चौहान
असल में ,नागार्जुन की कविता ,आम पाठकों के लिए सहज है ,मगर विद्वान आलोचकों के लिए उलझन में डालने वाली है ।ये कविताऍ जिनको संबोधित है ,उनमें तो झट से समझ में आ जाती है ,पर कविता के स्‍वनिर्मित प्रतिमानों से लैस पूर्वग्रही आलोचकों को वे कविता ही नहीं लगती ।ऐसे आलोचक उनकी कविताओं को अपनी सुविधा के लिए तात्‍कालिक राजनीति संबंधी ,प्रकृति -संबंधी और सौंदर्य-बोध-संबंधी जैसे कई खॉचों में बॉट देते हैं और उनमें से कुछ को स्‍वीकार करके बाकी को खा़रिज कर देना चाहते हैं । (साभार 'वर्तमान साहित्‍य' मई 2011)


पंकज पराशर
एक भाषा में अर्जित काव्‍य-व्‍यक्तित्‍व का प्रभाव अक्‍सर दूसरी भाषाओं में रचित रचनाओं पर दिखायी देता है ,जिसके लाभ-हानि दोनों काव्‍य मूल्‍यांकन में बहुधा दिखायी देते हैं ।दुर्भाग्‍य से,नागार्जुन और 'यात्री' के काव्‍य-मूल्‍यांकन में इन आधारों और प्रभावों को देखा जा सकता है । मैथिली आलोचना ने जहॉ एक ओर उनसे हिंदी कविता जैसे औघड़पन ,बेलौस और निडर अभिव्‍यक्ति की ग़ैर-जरूरी अपेक्षा की वहीं हिंदी आलोचना ने चारों भाषाओं के काव्‍य व्‍यक्तित्‍व को मिलाकर बनने वाली नागार्जुन की विराट काव्‍य-छवि पर ध्‍यान नहीं दिया ।(साभार 'वर्तमान साहित्‍य'मई 2011)

'हरिजन गाथा 'पर कँवल भारती
निस्‍संदेह ,नागार्जुन की यह कविता हिन्‍दी कविता की विशिष्‍ट उपलब्धि है ,क्‍योंकि बेलछी जैसे नृशंसतम हत्‍याकांड पर ऐसी कविता अन्‍यत्र देखने को नहीं मिलती ।लेकिन ,इस कविता पर दलित-चिंतन की तीन आपत्तियॉ हैं ।पहली आपत्ति 'हरिजन' शब्‍द को लेकर है ,दूसरी आपत्ति 'मनु' ,'वराह'और ऋचा' शब्‍दों पर है तथा तीसरी आपत्ति नवजात शिशु के भाग्‍य को खुखरी ,भाला ,बम और तलवार से जोड़कर उसे अपराधी बनाने को लेकर है ।
(साभार 'वर्तमान साहित्‍य'मई ,2011)

अनामिका स्‍त्री पक्ष ,शिल्‍प एवं व्‍यंग्‍य पर

बिहार की ज्‍यादातर पत्नियॉ विस्‍थापित पतियों की पत्नियॉ रही हैं ।'सिंदुर तिलकित भाल' वहॉ हरदम ही चिंता की गहरी रेखाओं के पुंज रहे हैं ।रंगून ,कलकत्‍ता,आसाम,पंजाब और दिल्‍ली बिहारी मजदूरों ,छात्रों ,पत्रकारों ,लेखकों ,पार्टी कार्यकर्ताओं और फेरीवालों से आबाद रहे हैं हरदम ।भूमंडलीकरण के बाद भी तो स्थिति यह है कि मिथिला ,तिरहुत ,वैशाली ,सारण और चंपारण ,यानी गंगा-पार के बिहारी गॉव सर्वथा पुरूष विहीन हो चुके हैं ।....सारे पिया परदेसी पिया है वहॉ ।गॉव में बची हैं -वृद्धाओं ,परित्‍यक्‍ताओं और किशोरियॉ ,जिनकी तुरंत-तुरंत शादी हुई है या फिर हुई ही नहीं ....नागार्जुन की 'सिंदुर तिलकित भाल' ,'कालिदास' ...ऋृतुसंधि ,'गुलाबी चुडि़यॉ' आदि उसी अकेली छूटी बेटी ,पत्‍नी ,प्रिया के लिए उमड़ी अजब तरह की कसम की अमर कविताऍ हैं ।पुराना साहित्‍य कहीं बेटी के वियोग का जिक्र नहीं करता ।यह वियोग का एक नया प्रकार है ,जिसकी आहट भारतीय साहित्‍य में रवींद्रनाथ के 'काबुली वाला' के बाद बाबा की 'गुलाबी चुडि़यॉ' में ही खनकती है .........अभिधा की ताकत क्‍या होती है ,नाटकीय वैभव क्‍या होता है ,कविता में आख्‍यान या उपाख्‍यान कैसे अंतर्भुक्‍त करना चाहिए कि वह पैच-वर्क न लगे -यह कोई नागार्जुन से सीखे ।विजय बहादुर से अपनी किसी बातचीत में एक बार नागार्जुन ने कहा था कि छंद का सही स्‍थानापन्‍न नाटकीयता ही हो सकती है ।नियो मेटाफिजिकल परंपरा के सारे कवि और ब्रेख्‍़त इस कला में निष्‍णात थे ......सम्‍यक हँसी विवेक का मुहाना है ,हँसने से बुद्धि खुलती है और साहस जगता है ।मानवीय व्‍यवहार का सबसे नाटकीय क्षण है हँसी ।हँसी धुंधलके साफ करती है और भीतर के जाले भी ।देवी के अट्टहास से लेकर 'लाफ ऑफ द मेड्यूसा'तक ,गोपियों के हास-परिहास से लेकर गोमा की हँसी तक हँसी थेरेपी है ,उर्ध्‍वबाहु घोषणा ,चुनौती -सब एक साथ ।और ,इन सबसे अलग वह संवाद का द्वार भी है ।इस बात की समझ सब मैथिलों को होती है ,तभी सब इतने पुरमजाक होते हैं ।(उपरोक्‍त)


विजय बहादुर सिंह

नागार्जुन ने संकेतों में यह भी समझाया कि कोयल की आवाज़ का सौंदर्य और महत्‍व तो है ही ,पर तभी जब सभ्‍यता का वसंत -काल हो ।सभ्‍यता अगर लोगों को मूर्च्छित करने और उनका होश तक छीन लेने के काम में जुटी हो ,तब कोयल की आवाज़ से काम नहीं चल पाएगा ।तब ढ़ेर सारी ऐसी आवाजों की शरण में जाना पड़ेगा ,जो तुम्‍हारे उत्‍पीड़न और तुम्‍हारी वेदना की चीख़ बन सकें ।कहने वाले फिर भी कहते रहेंगे कि नहीं ये आवाजें कर्कश और बदरंग हैं ,इनमें कोमलता नहीं है, फिनिशिंग नहीं है ,ये खुरदरी आवाजें कविता की पारंपरिक सुरीली और चिकनी आवाज़ के अनुरूप नहीं है ।ऐसों से तब जरूर पूछना होगा कि 'रामायण' और 'महाभारत' में ऐसी जो सारी आवाजें बीच-बीच में हैं ,उनके बारे में तुम्‍हारा क्‍या ख्‍़याल है ? .......कविता की ख़ूबसूरती क्‍या सिर्फ उसकी अभिव्‍यंजना की ख़ूबसूरती में निवास करती है या फिर उस अनुभव -सत्‍य में ,जिससे लोक में कविता का मह‍त्‍व समझ में आता है ? क्‍या यह ख़ुरदुरापन और यह अनगझ़ता मुक्तिबोध में नहीं ? ज़रूरत के आपता अवसरों पर बेहद रूक्ष और अनगझ़ हो उठने वाले नागार्जुन की यह कोई विवशता नहीं थी ,न ही उनकी अक्षमता थी ।आधुनिक कवियों में भारतीय काव्‍य-परंपरा के अभिजात को जितना वे जानते थे ,उतना शायद निराला या प्रसाद जानते रहे हों ,अज्ञेय या त्रिलोचन आदि जानते रहे हों ,हो सकता है थोड़ा-बहुत भवानी मिज्ञ और मुक्तिबोध भी जानते रहे हों ,पर नागार्जुन तो उसी वातावरण में पले -पुसे और विकसित हुए थे ।न केवल विकसित हुए ,बल्कि दीक्षित भी । .......लोक और शास्‍त्र की ऐसी विशद और गहरी जानकारी समकालीन तमाम मूर्धन्‍यों में अगर किसी एक ही के पास थी ,तो वह केवल नागार्जुन थे ।.......शबर ,निषाद ,मादा सुअर ,बच्‍चा चिनार से लेकर नेवला तक की यात्रा कर चुकने वाली कविताओं के बाद यही कहना पड़ता है कि नागार्जुन अपने समकालीनों में -जिनमें अज्ञेय ,शमशेर ,मुक्तिबोध आदि आते हैं -सबसे ज्‍यादा भाव-प्रवण और भाव-प्रखर कवि थे ।(उपरोक्‍त)