Labels

Followers

Monday 17 September, 2012

कुमार विश्‍वास: मँहगे कवि की सस्‍ती कविता

कुमार विश्‍वास क्‍या आप मैथिली शरण गुप्‍त के बाद के किसी कवि को जानते हैं ,यदि हां तो आपने उनसे क्‍या सीखा ,और नहीं तो जान लीजिए गुप्‍त युग के बाद छायावाद ,प्रगतिवाद ,प्रयोगवाद ,नई कविता ,समकालीन कविता के रास्‍ते हिंदी कविता नई सदी में प्रविष्‍ट हुई है ।इस लंबे रास्‍ते में हिंदी कविता ने बहुत सारे गहनों को छोड़ा है , ढ़ेर सारा नयापन आया है ।आजहिंदी कविता निराला ,नागार्जुन ,अज्ञेय ,शमशेर ,मुक्तिबोध ,धुमिल के प्रयोग को स्‍वीकार करती है ।आप गुप्‍त युग के ही किसी अदने कवि के सौवें फोटोस्‍टेट की तरह आवारा बादल बरसा रहे हैं ,पर यदि वो वारिश ही सही है ,तो फिर अज्ञेय का क्‍या होगा :

अगर मैं तुमको ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका
या शरद के भोर की नीहार न्‍हाई कुंई
टटकी कली चम्‍पे की
वगैरह अब नहीं कहता ।
तो नहीं कारण कि मेरा ह्रदय
उथला या कि सूना है ।
देवता अब इन प्रतीकों के कर गए हैं कूंच
कभी वासन अधिक घिसने से मुलम्‍मा छूट जाता है ।

परंतु आप उन भगोड़े देवताओं को कहते हैं 'इहा गच्‍छ इहा तिष्‍ठ ' ।कहे हुए बातों को दुहराने तिहराने से कविता नहीं बनती ,ये आपसे कौन कहे ,क्‍योंकि आपको हरेक सुझाव दाता आपको ईर्ष्‍यालु नजर आता होगा ,जो आपके स्‍टाईल ,आपकी लोकप्रियता ,मिलने वाली धनराशि से जलता होगा ।मैंने आपका दर्शन तो नहीं किया कभी ,परंतु एक मित्र ने मुझे फोन करके कहा कि आप हिंदी के सबसे बड़े कवि हैं मतलब सबसे मंहगे कवि ,आपके एक रात का खर्चा चार-पांच लाख है ,और आप महीनों महीनों पहले से ही 'बुक' रहते हैं ।अब गुरू आपने तो साहित्‍य अकादमी और ज्ञानपीठ की ऐसी तैसी कर दी ।ससुर साहित्‍यकार लोग आजन्‍म लिखकर भी ज्ञानपीठ नहीं पाते ,जिसकी पुरस्‍कार राशि पांच लाख है ,और आप तो अमिताभ बच्‍चन की तरह आते हैं ,और दो घंटे में ही पांच लाख ले लेते हैं ,वैसे धनराशि मजेदार और ईर्ष्‍योत्‍पादक जरूर है ,परंतु मिहनत जरा कविता पर भी कर लीजिए ।एक और अदने कवि शमशेर की कुछ पंक्तियां आपको भेज रहा हूं :

हिन्‍दी का कोई भी नया कवि अधिक-से अधिक ऊपर उठने का महत्‍वाकांक्षी होगा तो उसे और सबों से अधिक तीन विषयों में अपना विकास एक साथ करना होगा
1 उसे आज की कम-से-कम अपने देश की सारी सामाजिक,राजनैतिक और दार्शनिक गतिविधियों को समझना होगा ,अर्थात वह जीवन के आधुनिक विकास का अध्‍येता होगा  ।साथ ही विज्ञान में गहरी और जीवंत रूचि होगी ।
हो सकता है इसका असर ये हो कि वो कविताएं कम लिखे मगर जो भी लिखेगा व्‍यर्थ न होगा ।

2 संस्‍कृत ,उर्दू ,फ़ारसी ,अर‍बी ,बंगला ,अंग्रेजी और फ्रेंच भाषाऍं और उनके साहित्‍य से गहरा परिचय उसके लिए अनिवार्य है ।(हो सकता है कि उसका असर ये हो कि बहुत वर्षों तक वह केवल अनुवाद करे और कविताऍं बहुत कम लिखे जो नकल-सी होंगी ,व्‍यर्थ सिवाय मश्‍क के लिखने को या कविताऍं लिखना वो बेकार समझ) इस दिशा में अगर वह गद्य भी कुछ लिखेगा तो वह भी मूल्‍यवान हो सकता है ।

3 तुलसी ,सूर ,कबीर ,जायसी ,मतिराम ,देव ,रत्‍नाकर और विद्यापति के साथ ही नज़ीर ,दाग़ ,इक़बाल ,जौ़क और फ़ैज के चुने हुए कलाम और उर्दू के क्‍लासिकी गद्य को अपने साहित्‍यगत और भाषागत संस्‍कारों में पूरी-पूरी तरह बसा लेना इसके लिए आवश्‍यक होगा ।

अब फिर से एक पाठक की घटिया दलील ।दलील ये कि पांच लाख प्रति घंटा देने वाला चूतिया नहीं है न ,टोपियां ,गमछा ,आंगी उछालने वाले हजारों युवा बेवकुफ़ नहीं है न  ।अब गुरू ये सोचो कि राजू श्रीवास्‍तव तुमसे कम तो नहीं लेता है ,तुमसे ज्‍यादा ही लोकप्रिय है ,और उसके हूनर में भी कविता की गंध है ,तो क्‍यों न उसके कॉमेडी को भी कविता ही कहा जाए ।

और इस अदने पाठक की दूसरी और अंतिम दलील (दलील नहीं अनुरोध)कि लिखने के लिए पढ़ना भी जरूरी ही है ।हरेक आंदोलन  को ठोस बुनियाद चाहिए ,कविता को भी ।और कविता का गोत्र तो निश्चित ही अलग होना चाहिए ।आपकी कविता आपकी ही कविता दिखनी चाहिए ,और आपकी सब कविता अपनी ही कविता से अलग भी ।कमाने और उड़ाने का तर्क अलग है ,अच्‍छी कविता का अलग ।











Thursday 13 September, 2012

'कान्‍यकुब्‍ज कुल कुलांगार' का प्रयोग केवल कान्‍यकुब्‍जों के लिए नहीं था ।इस शब्‍द के द्वारा निराला ने एक व्‍यापक क्षेत्र में परिवर्तनविरोधी हठधर्मिता को पहचाना ।खाकर के पत्‍तल में छेद करने वालों की स्थिति मज़बूत ही हुई है ।हिंदी दिवस के अवसर पर हिंदी भाषा और हिंदी कविता के सबसे बड़े साधक का याद आना स्‍वाभाविक है ।इस अवसर पर निराला की कविता 'हिन्‍दी के सुमनों के प्रति पत्र ' :
'हिन्‍दी के सुमनों के प्रति पत्र '

मैं जीर्ण-साज बहु छिद्र आज,

तुम सुदल सुरंग सुबास सुमन
मैं हूं केवल पदतल-आसन

तुम सहज विराजे महाराज ।

ईर्ष्‍या कुछ नहीं मुझे ,यद्यपि
मैं ही वसन्‍त का अग्रदूत,
ब्राह्मण -समाज में ज्‍यों अछूत
मैं रहा आज यदि पार्श्‍वच्‍छवि ।


तुम मध्‍य भाग के महाभाग
तरू के उर के गौरव प्रशस्‍त
मैं पढ़ा जा चुका पत्र, न्‍यस्‍त
तुम अलि के नव रस-रंग-राग ।

देखो,पर,क्‍या पाते तुम फल

देगा जो भिन्‍न स्‍वाद रस भर
कर पार तुम्‍हारा भी अंतर
निकलेगा जो तरू का सम्‍बल ।

फल सर्वश्रेष्‍ठ नायाब चीज
या तुमा बांध कर रँगा धागा
फल के भी उर का कटु त्‍यागा,
मेरा आलोचक एक बीज ।


















 

Wednesday 12 September, 2012

अनिल की जुबान से

अनिल त्रिपाठी ने स्‍वतंत्रता सेनानी रामबचन सिंह का चौमहला मकान  देखते हुए कहा कि
बाबा पर भूत सवार था कि देश ही परिवार है

और आजादी के बाद वे ग्राम स्‍वराज का मूर्दा सपना देखते रहे
जवाहिर लाल और कमलापति त्रिपाठी के भेजे चिट्ठियों के गट्ठर को याद करते भाई अनिल ने कहा कि
यदि बाबा एक बार भी कमलापति को संकेत करते
तो मुमकिन था कि पिता अच्‍छी जगह पर रहते
परंतु पिता ऐसे  वकील थे कि
आई0पी0सी0 से ज्‍यादा रामचरितमानस का पन्‍ना उलटाते थे
जमते कचहरी से ज्‍यादा गोष्ठियों ,सेमिनारों,चौराहों पर
खरे खर्रुश लंठ थे
मुंहफट थे चंठ थे
 दुश्‍मनी का कम मौका छोड़ते थे
फिर भी कुछ शुभचिंतक थे
जिन्‍हें चिंता थी कि पांच बेटा को वीरेंद्र कैसे पोसेगा
और उन्‍होंने आटाचक्‍की -स्‍पेलर लगाने की सलाह दी
आटा मसल्‍ला तेल की समस्‍या भी खतम
और पांचों बेटे खप भी जाएंगे
और पिता परेशान कि दुनिया का कौन सा धंधा शुरू करें
कि इज्‍जत ,पुस्‍तैनी जमीन और जान बचे
महीनों की मथचटनी के बाद पिता ले आए एक प्रेस
और यह बाजार की दूसरी प्रेस थी
पिता सोचे कि ससुर लोग पढ़ाई लिखाई में ही तो लगे रहेंगे
हम लोग असूर्यपश्‍या हो गए
दिन रात लगे रहते कंपोजिंग ,टाईपिंग में
दादी कहती कि ई वीरेंद्र मार देगा बच्‍चों को
और तभी पिता बन गए प्रकाशक-मुद्रक-संपादक 'अचिरावती ' के
उन दिनों हम पांचों भाई मगन हो कम्‍पोज करते थे
उन पत्रों की कंपोजिंग करते हम बहुत खुश होते थे
जिसमें 'अच्‍छा प्रयास' ,अद्भुत ,' प्रशंसनीय' ,'अतुलनीय' लिखा होता था
बेतिया बिहार के सुधीर ओझा का ललित निबंध कंपोज करने के लिए हम भाईयों में बहस हो जाती थी
और एक बार तो बाकायदा पिता ने इन्‍हें सम्‍मानित करने की घोषणा कर दी
और ओझा जी एक साल तक पत्र भेजते रहे कि जनाब सम्‍मान में क्‍या है
कितनी राशि ,कब दोगे ,आदि आदि
और एक बार तो उन्‍होंने क्रोध में भी पत्र लिख दिया
अब तक भाई अनिल और हम कलेक्‍ट्रेट तक आ गए थे
और कलेक्‍ट्रेट के मीनार पर लगे घड़ी को देखते हुए उन्‍होंने कहा कि
ओझा जी का एक सौ इक्‍याबन अभी भी बकाया है
कभी कभी प्रभा खेतान और विवेकी राय की कविताएं भी आ जाती थी
एक बार तो अमृत राय की रचना भी आई
जब अजय भैया ने अग्निशिखा खोल के लिखा कि
केवल बड़ी पत्रिका को ही आप लोग रचना देंगे क्‍या
बात इतनी ही नही थी पाठक जी
अचिरावती का संपादन महीने के गेहूं ,चावल ,दाल के कोटे को घटाकर भी किया गया
वे भी कठिन दिन थे
और हमें भी अपना गाम याद आया
और गरीबी के वे अन्‍न मड़ुआ ,जौ ,सामा ,कोदो
करमी ,बथुआ का स्‍वर्गिक साथ
जॉगिंग करते हुए अनिल ने बताया कि
अब भी पत्रिका नाम बदलकर चलती है
अच्‍छे अच्‍छे लेखक और साफ सूतरे पन्‍नों के साथ
चमकदार कवर और रंग के साथ
परंतु उन दिनों की 'अचिरावती' अलग थी
उस रोशनाई में हमारे खानदान का पसीना मिला था











































Friday 7 September, 2012

मनोज कुमार झा की कविताएं

नई सदी की कविता ,पुरानी-नई दुखों में नया अर्थ भरने का प्रयास करते हुए ।यह नागार्जुन के भूमि की कविता है ।भूख ,मृत्‍यु ,प्रेत ,प्रवास ,अपमान ,संताप के असंख्‍य चित्रों के साथ ,परंतु भंगिमा उत्‍तर नागार्जुनी है ।मनोज नागार्जुन की तरह सीधे प्रहार करने में विश्‍वास नहीं करते ।व्‍यंग्‍य की भी नागार्जुनी अदा यहां अनुपस्थित है ।मनोज की जो शैली बन पड़ी है ,उस पर समकालीन पश्चिमी कविता का प्रभाव कम नहीं है ,परंतु प्रसंग खांटी भारतीय है ,और मनोज के पास कहने के लिए बहुत कुछ है ,भंगिमा भी स्‍टीरियोटाईप नहीं......।मनोज कहने की इस परंपरा में विश्‍वास करते हैं कि 'शेष ही कहा जाए' अर्थात जो कहा जा चुका है ,उससे बचते हुए अपनी बात कही जाए ।
मनोज इक्‍कीसवीं सदी के उत्‍तरपूंजीवादी जीवन में सामंती गर्भ का अल्‍ट्रासाउंड करते हैं
मैं जहां रहता हूं वह महामसान है
चौदह लड़कियां मारी गयी पेट में फोटो खिंचाकर
और तीन मरी गर्भाशय के घाव से

.......................
मृतक इतने हैं और इतने करीब कि लड़कियां साग खोंटने जाती है
तो मृत बहने भी साग डालती जाती हैं उनके खोइंछे में
कहते हैं फगुनिया का मरा भाई भी काटता है उसके साथ धान
वरना कैसे काट लेती है इतनी तेजी सेऔर



जिंदगी और मौत का यह बहनापा विरल है ,और यही बात मनोज को विशिष्‍ट बनाती है ,तथापि वे जीवन के कवि हैं ,और  जीवन विरोधी तथ्‍यों के प्रति  उनका तर्क मुखर है
इतनी कम ताकत से बहस नहीं हो सकती
अर्जी पर दस्‍तखत नहीं हो सकते
इतनी कम ताकत से तो प्रार्थना भी नहीं हो सकती
इन भग्‍न पात्रों से तो प्रभुओं के पांव नहीं धुल सकते
फिर भी घास थामती है रात का सिर और दिन के लिए लोढ़ती है ओस

यहां घास और ओस के साथ रात और दिन का प्रयोग विशिष्‍ट है ,और इस चीज को साबित करने के लिए पर्याप्‍त है कि मनोज काव्‍योपकरण के स्‍तर पर भी दुहराव से बचते हैं ।
'वागर्थे प्रतिपत्‍तये ' की तमाम संभावनाओं पर दृष्टि रखते हुए :
इस तरह न खोलें हमारा अर्थ
कि जैसे मौसम खोलता है विवाई
जिद है तो खोले ऐसे
कि जैसे भोर खोलता है कंवल की पंखुडि़यां


मनोज की कविताएं 'तथापि कविता ' नही है ।जीवन के विभिन्‍न रंगों से नहाया यह काव्‍य-संसार सभी कसौटियों पर उच्‍च कोटि की कविता है

मलिन मन उतरा जल में कि फाल्‍गुन बीता विवर्ण
लाल-लाल हो उठता है अंग-अंग अकस्‍मात
कौन रख चला गया सोए में केशों के बीच रंग का चूर ।

मनोज कुमार झा को जन्‍मदिन की मंगलकामना ।