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Wednesday 29 February, 2012

नागार्जुनी दशाध्‍यायी :आधुनिक महाभाष्‍यकार


इस बार की होली एक ऐसे व्‍यक्ति के साथ जो बीती सदी का सर्वाधिक रंगबिरंगा साहित्यिक है ।उसकी कविताओं का 'बैनीआहपिनाला' इतना सहज और प्राकृतिक है कि श्‍वेत प्रकाश की रंगीनियॉ इतनी आसानी से नहीं दिखती ।निश्चित रूपेण हिंदी आलोचना का भी जितना रंग -विस्‍तार उसकी कविताओं ने किया है ,संभवत: अन्‍य किसी ने नहीं ।यहॉ रामविलास शर्मा ,नामवर सिंह ,केदारनाथ सिंह ,विजय बहादुर सिंह जैसे प्रतिष्ठित आलोचकों के साथ ही कृष्‍ण मोहन झा ,अनामिका जैसे नये विचारकों के भी प्रयास हैं ,नागार्जुन की कविताओं के ऐतिहासिक गांठ को खोलते हुए ।पुस्‍तकों ,पत्रिकाओं के लिए हम सभी प्रकाशक एवं सम्‍पादक के आभारी हैं ।


रामविलास शर्मा
और कवियों में जहॉ छायावादी कल्‍पनाशीलता प्रबल हुई है ,नागार्जुन की छायावादी काव्‍य-शैली कभी की खत्‍म हो चुकी है ।अन्‍य कवियों में रहस्‍यवाद और यथार्थवाद को लेकर द्वन्‍द्व हुआ है ,नागार्जुन का व्‍यंग्‍य और पैना हुआ है ,क्रान्तिकारी आस्‍था और दृढ़ हुई है ,उनके यथार्थचित्रण में अधिक विविधता और प्रौढ़ता आयी है ।....उनकी कविताऍ लोक-संस्‍कृति के इतना नजदीक है कि उसी का एक विकसित रूप माजूम होती है ।किन्‍तु वे लोकगीतों से भिन्‍न हैा ,सबसे पहले अपने भाषा-खड़ीबोली के कारण ,उसके बाद अपनी प्रखर राजनीतिक चेतना के कारण ,और अन्‍त में बोलचाल की भाषा की गति और लय को आधार मानकर नये-नये प्रयोगों के कारण । हिन्‍दी भाषी....किसान और मजदूर जिस तरह की भाषा ...समझते और बोलते हैं ,उसका निखरा हुआ काव्‍यमय रूप नागार्जुन के यहॉ है ।





नामवर सिंह के अनुसार बाबा नागार्जुन


'लालू साहू',जिसमें 63 वर्षीय लालू 60 वर्षीया पत्‍नी की चिता में अपने को डालकर 'सती' हो गया ।इस अनहोनी घटना में ही शायद वह कवित्‍व है ,जिस पर नागार्जुन की दृष्टि गई ,वरना स्‍वयं उसके वर्णन में न कहीं भावुकता है ,न किसी तरह की कविताई ही ...........जो वस्‍तु औरों की संवेदना को अछूती छोड़ जाती है वही नागार्जुन के कवित्‍व की रचना भूमि है ।इस दृष्टि से काव्‍यात्‍मक साहस में नागार्जुन अप्रतिम हैं । ......इसी तरह 'कटहल' भी कविता का कोई विषय है लेकिन नागार्जुन है कि पके हुए कटहल को देख पिहक उठते हैं :
अह ,क्‍या खूब पका है यह कटहल
अह,कितना बड़ा है यह कटहल
यही कटहल उनकी एक अन्‍य कविता में अनूठे उपमान के रूप में इस तरह आया है :
दरिद्रता कटहल के छिलके जैसी जीभ से मेरा लहू चाटती आई
यह'कटहल के छिलके जैसी जीभ'नागार्जुन की ही बीहड़ कल्‍पना में आ सकती थी ।नागार्जुन की यही कल्‍पना रिक्‍शा खींचने वाले,फटी बिवाइयों वाले ,गुट्ठल घट्टों वाले ,कुलिश कठोर खुरदरे पैरों के चित्र भी ऑकती है और उसकी पीठ पर फटी बनियाइन के नीचे 'क्षार अम्‍ल ,विगलनकारी ,दाहक पसीने का गुण धर्म ' भी बतलाती है ।मनुष्‍य के ये वे रूप हैं जो नागार्जुन न होते तेा हिंदी कविता में शायद ही आ पाते ।
इसी तरह यथार्थ के वे रूप जिन्‍हें शिष्‍ट और सुरूचिपूर्ण कवि वीभत्‍स समझकर छोड़ देना ही उचित समझते हैं ,नागार्जुन की साहसिक कल्‍पना से काव्‍य का रूप प्राप्‍त करते हैं ।

केदार नाथ सिंह
नागार्जुन आमतौर पर अपनी कविता में चित्रण नहीं करते ।वे सिर्फ वर्णन करते हैं और वर्णन करने की जो ठेठ भारतीय क्‍लासिकी परम्‍परा है -पुरान काव्‍य,पुराकथाओं या लोक साहित्‍य में -उसका भरपूर इस्‍तेमाल करते हैा ।शिल्‍प के स्‍तर पर यह पहला बिन्‍दु है ,जहॉ वे नयी कविता या आधुनिकतावादी कविता या एक हद तक पूरी समकालीन कविता से अलग होते हैं ।वर्णन की इस प्रवृत्ति की ओर मुड़ना अकारण नहीं है ।इसका एक बहुत बड़ा कारण तो यह है कि यह पद्धति कला के यथार्थवादी उद्देश्‍यों के अधिक अनुकूल पड़ती है ।एक दूसरा कारण यह हो सकता है कि नागार्जुन और उनके सहधर्मा कवि त्रिलोचन अपने पूरे काव्‍य में जाने -अनजाने पश्चिम के सांस्‍कृतिक दबाव के विरूद्ध क्रियाशील रहे हैं ।.........तात्‍कालिक कविता से मेरा तात्‍पर्य उन कविताओं से है ,जो किसी सद्य:घटित घटना या किसी ताजा राजनीतिक प्रसंग से सम्‍बन्धित होती है ....इस तरह की कविताओं के प्रति तथाकथित गम्‍भीर पाठकों या आलोचकों की एक प्रतिक्रिया यह है कि इन्‍हें 'अगम्‍भीर काव्‍य' मानकर एक तरफ रख दिया जाये ।पर मुझे लगता है कि नागार्जुन के पूरे काव्‍य को उसकी सॅपूर्णता में देखा जाना चाहिए ।तात्‍कालिक कविताऍ ,उनके विशाल काव्‍य-व्‍यक्तित्‍व का एक महत्‍वपूर्ण हिस्‍सा है और उनके कृतित्‍व का मूल्‍यांकन करते समय यउन्‍हें काटकर अलग नहीं किया जा सकता । दरअसल ,आलोचना के प्रचलित मान-मूल्‍यों और अपने समय के पूरे सौंदर्यबोध को सबसे ज्‍यादा यही कविताऍ झकझोरती है ।
एक तथ्‍य जिसकी ओर सहसा ध्‍यान नहीं जाता ,यह है कि तात्‍कालिक विषय पर कविता लिखना एक खतरनाक काम है ।यह खतरा केवल सामाजिक या राजनीतिक स्‍तर पर ही नहीं होता ,बल्क्‍ि स्‍वयं कविता के स्‍तर पर भी होता है ।यह खतरा वहॉ मौजूद रहता है कि कविता कविता रह ही न जाये ।पर नागार्जुन एक रचनाकार की पूरी जिम्‍मेवारी के साथ इस खतरे का सामना करते हैं और इस दृष्टि से देखें तो उनमें ख़तरनाक ढ़ंग से कवि होने का अद्भुत साहस है ।.........उनकी कविता का एक दूसरा महत्‍वपूर्ण पक्ष है ,उसकी गहरी स्‍थानीयता ।नागार्जुन की हर कविता की जड़ें एक वृक्ष की तरह अपनी मिटृटी में दूर तक धँसी होती है ।यह स्‍थानीयता तात्‍कालिकता का ही दूसरा पहलू है ।एक ठेठ देसीपन या स्‍थानीयता त्रिलोचन में भी है और एक हद तक केदारनाथ अग्रवाल में भी । पर नागार्जुन की 'स्‍थानीयता' इन दोनों से अलग इस मानी में है कि जब वे अपने परिचित परिवेश या अंचल से बाहर होते हैं ,उस समय भी वे उतने ही 'स्‍थानीय' होते हैं ।उनकी स्‍थानीयता बहुत कुछ लोक-काव्‍य में पायी जानेवाली 'स्‍थानीयता' की तरह होती है ,जिसके दृश्‍य और रंग सम्‍प्रेष्‍य भाव को एक आकार और विश्‍वसनीयता देने के बाद चुपचाप तिरोहित हो जाते हैं ।जिस बात के चलते नागार्जुन की कविता अपने सर्वोत्‍तम रूप में सारी तात्‍कालिकता और स्‍थानीयता को अतिक्रान्‍त कर जाती है ,वह है उनकी विश्‍वदृष्टि जो उनके व्‍यक्तिगत अनुभव और जनता के सामान्‍य बोध से मिलकर बनी है और उनके निकट इन दोनों के बीच के अन्‍त:सूत्र को आलोकित करनेवाला तत्‍व है मार्क्‍सवाद ।सामान्‍य बोध पर निर्भर करने की यह प्रवृत्ति जितनी नागार्जुन में है ,उतनी और कहीं नहीं ।भक्तिकाव्‍य का एक बहुत बड़ा हिस्‍सा इसी सामान्‍य बोध से परिचालित होकर लिखा गया था ।समकालीन कविता के इतिहास में नागार्जुन का एक बहुत बड़ा अवदान यह माना जायेगा कि उन्‍होंने पुन: कविता की दिशा को विशिष्‍ट बोध से सामान्‍य बोध की तरफ मोड़ने का प्रयास किया ।इसी प्रयास के चलते उनकी कविता के उस क्रान्तिकारी चरित्र का निर्माण हुआ है ,जिसके हम इतने अभ्‍यस्‍त हो गये हैं ।('मेरे समय के शब्‍द')




निराला और नागार्जुन पर शिव कुमार मिश्र


निराला आजीवन अपने अहम, अपनी 'इगो' के प्रति सजग रहे ,जबकि नागार्जुन लगभग डीक्‍लास हो कर साधारण जनों के जीवन से एकात्‍म हो कर जिये ,अपने स्‍वाभिमान को दोनों ने अक्षत रखा ।निराला अपने रोमाण्टिक तेवरों को अंत तक बनाये रहे जब कि ,जैसा कहा ,नागार्जुन 'डीक्‍लास' हो कर जिस विचार दर्शन से जुड़े उसमें रोमाण्टिक आत्‍मकेंद्रण अथवा निजता की धुरी पर टिके रहने का कोई सवाल ही नहीं था । ........निराला के जीवन की त्रासदी वस्‍तुत: एक रोमाण्टिक की त्रासदी है ।सत्‍ता व्‍यवस्‍था और सामाजिक जीवन की विसंगतियों के खिलाफ ,साधारण जन के पक्ष में वे आजीवन लिखते रहे परन्‍तु अपने रोमानी मिजाज के चलते अपने भीतर सुलगती असहमति,विरोध और विद्रोह की आग को उस बड़ी आग में तब्‍दील कर सके जो सामाजिक बदलाव का कारण बनती या बना करती है । .........इसके विपरीत शरीर और जीवन के दूसरे सारे अपघातों को झेलते हुए भी ,दमा जैसे असाध्‍य रोग को छाती से लगाये हुए भी ,व़द्धावस्‍था से उपजी अशक्‍तता का प्रतिकार करते हुए ,सुविधा तथा साधनों के अभाव में यायावरी जीवन के सुख दुख भोगते हुए ,नागार्जुन जीवन की अन्तिम सॉस तक हत विश्‍वास ,हतभाव नहीं हुए ,लोक की बात क्‍या ,परलोक की भी किसी सत्‍ता के समक्ष कातर और दीन नहीं बने ।शरीर भले ही टूट गया हो ,मन उनका अक्षत रहा ,उसकी निष्‍ठाऍ अक्षत रही ।उन्‍हें किसी प्रभु से अरदास करने की जरूरत नहीं पड़ी ('अनहद'2)



राजेन्‍द्र कुमार
नागार्जुन की कविता आज की उस ठेठ आत्‍मा की खोज की कविता है ,जो साधारण जन में एकाकार होना चाहती है ,जिसे किसी प्रकार की विशिष्‍टता का आतंक छू नहीं सकता लेकिन जिसकी अपनी विशिष्‍टता का कोई दमन नहीं कर सकता ।कवियों के आत्‍मालाप को ही सच्‍ची कविता मानने वालों को शिकायत है कि नागाज्रफन का स्‍वर इतना आवाहनपरक है कि कविता उससे किनारा कर लेती है ।दरअसल जिसे आवाहनपरकता मान कर प्रश्‍नांकित किया जाता है ,उससे उसका सही नाम पूछा जाये ,तो वह 'आवाहनपरक' नहीं,'जनसंवादी' कहलाना अधिक पसन्‍द करेगी ..............वे कविता के पीछे इस तरह नहीं भागते कि प्रत्‍यक्ष अनुभव का कोई क्षण पीछे छूट जाये ।अनुभव के सत्‍य को किसी शाश्‍वतता में पकड़ने का मोह करने वालों में वे कभी नहीं रहे । ...............कुछ 'भद्रजन 'उनके भाषागत और विषयगत 'भदेसपन' से भी बिदकते रहे ।ऐसे 'भद्रों' को उन्‍होंने अपनी कविता से यह तमीज़ देने में कोताही नहीं बरती कि 'भद्र' और 'भद्दा' की सगोत्रता का कुछ अन्‍दाजा़ तो उन्‍हें हो ही सके ।(अनहद-2)



जवरीमल्‍ल पारीख
वैसे तो नागार्जुन के लिए 'सबकुछ कविता की परिधि में आता है लेकिन राष्‍ट्रीय और अन्‍तरराष्‍ट्रीय राजनीतिक घटनाक्रम की तरफ वे जल्‍दी आकृष्‍ट होते हैं ।वे अपनी जानकारी और राजनीतिक दृष्टिकोण के अनुसार उन घटनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करते हैं ।लेकिन ऐसा ककरते हुए वे सदैव कविता की रक्षा कर पाते हों यह जरूरी नहीं है ।कई बार महज वैचारिक प्रतिक्रिया होती है और कई बार वे अपनी इस सीमा का अतिक्रमण भी कर जाते हैं ...............व्‍यक्तियों ,दलों और आंदोलनों के प्रति वे अपना रूख बदलते रहे हैं ।इसका अर्थ यह नहीं है कि नागार्जुन राजनीतिक अवसरवाद के शिकार थे ।राजनीति उनके लिए लाभ लोभ या जीविकोपार्जन का साधन नहीं थी ।जिस वामपन्‍थी और जनवादी आंदोलन से उनका वास्‍ता था ,उसकी अलग अलग धाराओं और उसमें निहित अन्‍तर्विरोधों और भटकावों के वे शिकार होते रहे ।जनता के प्रति उनकी आस्‍था सदैव अडिग रही लेकिन जनता के पक्ष में राजनीति करने वालों के प्रति वे मोह और मोहभंग के शिकार होते रहे ।................नागार्जुन की सभी राजनीतिक कविताऍ सिर्फ तात्‍कालिकता से प्रेरित नहीं है ।उन्‍होंने ऐसी कविताऍ भी काफी लिखी हैं जो राजनीतिक यथार्थ को प्रतिक्रिया के रूप में नहीं पेश करती बल्कि उसे तात्‍कालिकता से मुक्‍त करते हुए और व्‍यापक सन्‍दर्भ से जोड़ते हुए पेश करते हैं ।यॉ कवि को अपनी बात कहने की जल्‍दबाजी नहीं है ।इसीलिए ऐसी कविताओं का कलाविधान भी अधिक मॅजा हुआ और गठा हुआ नजर आता है । (अनहद-2)



संस्‍कृत कविता पर कमलेश दत्‍त त्रिपाठी
नागार्जुन पूर्वतन कवियों के विशिष्‍ट पदप्रयोग ,उक्ति या पद सन्‍दर्भ को स्‍वीकार कर उसे नये सन्‍दर्भ में अत्‍यन्‍त रचनात्‍मक रूप में प्रयुक्‍त करते हैं और उनमें नवीन अर्थस्‍तरों को उद्घाटित करने का सामर्थ्‍य भर देते हैं ।अर्थों के ध्‍वनन की संस्‍कृत कवियों को परिज्ञात करने का सामर्थ्‍य भर देते हैं ।अर्थों के ध्‍वनन की संस्‍कृत कवियों को परिज्ञात यह पद्धति नागार्जुन की रचना में नये आयाम ग्रहण करती है । ..............नागार्जुन की संस्‍कृत रचना में 'कालसंवादित्‍व' का यह सामर्थ्‍य संस्‍कृत कविता के निरन्‍तर गतिशील रहने का एक प्रतिमान स्‍थापित करता है ।वे ऐसे अकेले कवि है ,जो वैश्‍व फलक पर युग को बदल देने वाले इस सन्‍दर्भ को शक्तिशाली अभिव्‍यक्ति देते हैं । ........... नागार्जुन संस्‍कृत के एक ऐसे समकालीन कवि हैं जिनमें परम्‍परा अपने सजीव स्‍पन्‍दन में विद्यमान रहते हुए विक्षोभ,द्वन्‍द्व और परिवर्तन के प्रबल रूप को मुख्‍य स्‍वर बना देती है । ...............यदि समकालीन संस्‍कृत कविता को किसी नये प्रतिमान और समीक्षाशास्‍त्र की आवश्‍यकता है ,तो उसे नागार्जुन जैसे कवियोंकी रचनाओं के समालोचन से उभरना होगा । ('अनहद'द्वितीय अंक)


बांग्‍ला कविता पर प्रफुल्‍ल कोलाख्‍यान
नागार्जुन छोड़ कर नहीं साथ ले कर ही आगे बढ़ते थे ।आगे बढ़ने के दौरान भले ही कुछ छूट जाये तो छूट जाये ।महत्‍व आगे बढ़ने का रहा ।इसलिए तत्‍काल को केन्‍द्र में रख कर लिखी गयी कविताऍ कालातीत हो जाती है ,स्‍थान को ले कर लिखी कविताऍ स्‍थान की सीमाओं को अतिक्रमित कर जाती है ,व्‍यक्ति को केन्‍द्र में रख कर लिखी गयी कविताऍ परा वैयक्तिक हो जाती है ,घटना के केन्‍द्र में रख कर लिखी गयी कविताऍ घटनातीत हो जाती है ।......... बांग्‍ला हो या मैथिली ,हिन्‍दी की तुलना में ये सांस्‍कृतिक भाषाऍ अधिक है और इनकी तुलना में हिन्‍दी राजनीतिक भाष्‍ज्ञा अधिक है ।नागार्जुन अपने मूल रूप में राजनीतिक कवि हैं ।नागार्जुन की बॉंग्‍ला कविताओं का महत्‍व तो कई दृष्टियों से है लेकिन मुख्‍य बात यह है कि नागार्जुन के रचनाशील मिजाज को समझने में इन से कुछ मदद मिल सकती है ।..... नागार्जुन की बॉग्‍ला कविताओं का अपना महत्‍व है ।बॉग्‍ला भाषा साहित्‍य में इसका क्‍या महत्‍व ऑका जाता है यह एक अलग विषय है ।परन्‍तु इतना निश्चित है कि नागार्जुन को समझने के लिए इन कविताओं का महत्‍व कमतर नहीं है ।(अनहद-2)



मैथिली कविता पर कृष्‍णमोहन झा
नागार्जुन नीरवता के नहीं मुखरता के उपासक हैं ।उनका जीवन और साहित्‍य उत्‍कट मुखरता का एक सुन्‍दर उदाहरण है ।इस मुखरता को बनाये रखने के आनन्‍द की कीमत एक ओर उन्‍होंने अपने जीवन को निर्ममता से धुन कर चुकायी तो दूसरी ओर साहित्‍य में कई भाषाओं में कविताऍ लिख कर और साहित्‍य के मठों और मठाधीशों के बनाये किलों को तोड़ कर ।........चित्रा की कविता संस्‍कृत और प्राचीन मैथिली कविता की शास्‍त्रीय परम्‍परा से छिटक कर जीवन की साधारणता में ,उसके मर्म को पहचानने और रेखांकित करने की कोशिश है ।दूसरे शब्‍दों में कहें तो वह एक ओर जीवन में धँसकर उसे अपनी शर्तों पर अर्जित करने का संकल्‍प था तो दूसरी ओर प्राचीन सामन्‍ती विचार -व्‍यवस्‍था को तार-तार करने का मजबूत इरादा ।इस संकलन के प्रकाशन से पहले सीताराम झा ,भुवनेश्‍वर सिंह 'भूवन' आदि की कविता मे विद्यापति ही नहीं ,मनबोध और चन्‍दा झा तक की कविता के प्रति विद्रोह उठ खड़ा हुआ था ,लेकिन उनकी अपनी सीमाऍ थी ।कवि यात्री ने उस विद्रोह को त्‍वरा ,दिशा और सघनता दी ।इस दिशा का नाम चौथे-पॉचवें दशक में मिथिलांचल में ठहरे हुए विडम्‍बनामूलक समाज में जीवन काट रहे सबसे निचली पंक्ति के लोगों के दुख की पहचान है ।(अनहद-2)


विचारधारा पर गजेन्‍द्र ठाकुर

लेखकक आइडियोलोजी पानिमे नून सन हेबाक चाही, पानिमे तेल सन नै आ ऐपर हम पहिनहियो लिखने छी। यात्री आ धूमकेतुकेँ कम्यूनिस्ट पार्टीक सोंगरक आवश्यकता पड़लन्हि कारण वामपंथ “नीक सेन्ट” आ “डिजाइनर वीयर”क भाँति हिनका सभ लेल फैशन छल, से बलचनमा कांग्रेस आ समाजवादी पार्टीसँ हटलाक बाद कम्यूनिस्ट आ लालझंडामे सभ समस्याक समाधान तकैए, ओकरा यात्रीजी सभ समाधान ओइमे दै छथिन्ह। धूमकेतुक पात्र लेल सेहो लाल झंडा लक्षमण बूटी अछि। मुदा ई लोकनि कम्यूनिस्ट मूवमेन्टसँ -फैशनक अतिरिक्त- जुड़ल नै छथि तेँ हिनकर साहित्यमे आइडियोलोजी तेल सन सहसह करैए।



शैलेन्‍द्र चौहान
असल में ,नागार्जुन की कविता ,आम पाठकों के लिए सहज है ,मगर विद्वान आलोचकों के लिए उलझन में डालने वाली है ।ये कविताऍ जिनको संबोधित है ,उनमें तो झट से समझ में आ जाती है ,पर कविता के स्‍वनिर्मित प्रतिमानों से लैस पूर्वग्रही आलोचकों को वे कविता ही नहीं लगती ।ऐसे आलोचक उनकी कविताओं को अपनी सुविधा के लिए तात्‍कालिक राजनीति संबंधी ,प्रकृति -संबंधी और सौंदर्य-बोध-संबंधी जैसे कई खॉचों में बॉट देते हैं और उनमें से कुछ को स्‍वीकार करके बाकी को खा़रिज कर देना चाहते हैं । (साभार 'वर्तमान साहित्‍य' मई 2011)


पंकज पराशर
एक भाषा में अर्जित काव्‍य-व्‍यक्तित्‍व का प्रभाव अक्‍सर दूसरी भाषाओं में रचित रचनाओं पर दिखायी देता है ,जिसके लाभ-हानि दोनों काव्‍य मूल्‍यांकन में बहुधा दिखायी देते हैं ।दुर्भाग्‍य से,नागार्जुन और 'यात्री' के काव्‍य-मूल्‍यांकन में इन आधारों और प्रभावों को देखा जा सकता है । मैथिली आलोचना ने जहॉ एक ओर उनसे हिंदी कविता जैसे औघड़पन ,बेलौस और निडर अभिव्‍यक्ति की ग़ैर-जरूरी अपेक्षा की वहीं हिंदी आलोचना ने चारों भाषाओं के काव्‍य व्‍यक्तित्‍व को मिलाकर बनने वाली नागार्जुन की विराट काव्‍य-छवि पर ध्‍यान नहीं दिया ।(साभार 'वर्तमान साहित्‍य'मई 2011)

'हरिजन गाथा 'पर कँवल भारती
निस्‍संदेह ,नागार्जुन की यह कविता हिन्‍दी कविता की विशिष्‍ट उपलब्धि है ,क्‍योंकि बेलछी जैसे नृशंसतम हत्‍याकांड पर ऐसी कविता अन्‍यत्र देखने को नहीं मिलती ।लेकिन ,इस कविता पर दलित-चिंतन की तीन आपत्तियॉ हैं ।पहली आपत्ति 'हरिजन' शब्‍द को लेकर है ,दूसरी आपत्ति 'मनु' ,'वराह'और ऋचा' शब्‍दों पर है तथा तीसरी आपत्ति नवजात शिशु के भाग्‍य को खुखरी ,भाला ,बम और तलवार से जोड़कर उसे अपराधी बनाने को लेकर है ।
(साभार 'वर्तमान साहित्‍य'मई ,2011)

अनामिका स्‍त्री पक्ष ,शिल्‍प एवं व्‍यंग्‍य पर

बिहार की ज्‍यादातर पत्नियॉ विस्‍थापित पतियों की पत्नियॉ रही हैं ।'सिंदुर तिलकित भाल' वहॉ हरदम ही चिंता की गहरी रेखाओं के पुंज रहे हैं ।रंगून ,कलकत्‍ता,आसाम,पंजाब और दिल्‍ली बिहारी मजदूरों ,छात्रों ,पत्रकारों ,लेखकों ,पार्टी कार्यकर्ताओं और फेरीवालों से आबाद रहे हैं हरदम ।भूमंडलीकरण के बाद भी तो स्थिति यह है कि मिथिला ,तिरहुत ,वैशाली ,सारण और चंपारण ,यानी गंगा-पार के बिहारी गॉव सर्वथा पुरूष विहीन हो चुके हैं ।....सारे पिया परदेसी पिया है वहॉ ।गॉव में बची हैं -वृद्धाओं ,परित्‍यक्‍ताओं और किशोरियॉ ,जिनकी तुरंत-तुरंत शादी हुई है या फिर हुई ही नहीं ....नागार्जुन की 'सिंदुर तिलकित भाल' ,'कालिदास' ...ऋृतुसंधि ,'गुलाबी चुडि़यॉ' आदि उसी अकेली छूटी बेटी ,पत्‍नी ,प्रिया के लिए उमड़ी अजब तरह की कसम की अमर कविताऍ हैं ।पुराना साहित्‍य कहीं बेटी के वियोग का जिक्र नहीं करता ।यह वियोग का एक नया प्रकार है ,जिसकी आहट भारतीय साहित्‍य में रवींद्रनाथ के 'काबुली वाला' के बाद बाबा की 'गुलाबी चुडि़यॉ' में ही खनकती है .........अभिधा की ताकत क्‍या होती है ,नाटकीय वैभव क्‍या होता है ,कविता में आख्‍यान या उपाख्‍यान कैसे अंतर्भुक्‍त करना चाहिए कि वह पैच-वर्क न लगे -यह कोई नागार्जुन से सीखे ।विजय बहादुर से अपनी किसी बातचीत में एक बार नागार्जुन ने कहा था कि छंद का सही स्‍थानापन्‍न नाटकीयता ही हो सकती है ।नियो मेटाफिजिकल परंपरा के सारे कवि और ब्रेख्‍़त इस कला में निष्‍णात थे ......सम्‍यक हँसी विवेक का मुहाना है ,हँसने से बुद्धि खुलती है और साहस जगता है ।मानवीय व्‍यवहार का सबसे नाटकीय क्षण है हँसी ।हँसी धुंधलके साफ करती है और भीतर के जाले भी ।देवी के अट्टहास से लेकर 'लाफ ऑफ द मेड्यूसा'तक ,गोपियों के हास-परिहास से लेकर गोमा की हँसी तक हँसी थेरेपी है ,उर्ध्‍वबाहु घोषणा ,चुनौती -सब एक साथ ।और ,इन सबसे अलग वह संवाद का द्वार भी है ।इस बात की समझ सब मैथिलों को होती है ,तभी सब इतने पुरमजाक होते हैं ।(उपरोक्‍त)


विजय बहादुर सिंह

नागार्जुन ने संकेतों में यह भी समझाया कि कोयल की आवाज़ का सौंदर्य और महत्‍व तो है ही ,पर तभी जब सभ्‍यता का वसंत -काल हो ।सभ्‍यता अगर लोगों को मूर्च्छित करने और उनका होश तक छीन लेने के काम में जुटी हो ,तब कोयल की आवाज़ से काम नहीं चल पाएगा ।तब ढ़ेर सारी ऐसी आवाजों की शरण में जाना पड़ेगा ,जो तुम्‍हारे उत्‍पीड़न और तुम्‍हारी वेदना की चीख़ बन सकें ।कहने वाले फिर भी कहते रहेंगे कि नहीं ये आवाजें कर्कश और बदरंग हैं ,इनमें कोमलता नहीं है, फिनिशिंग नहीं है ,ये खुरदरी आवाजें कविता की पारंपरिक सुरीली और चिकनी आवाज़ के अनुरूप नहीं है ।ऐसों से तब जरूर पूछना होगा कि 'रामायण' और 'महाभारत' में ऐसी जो सारी आवाजें बीच-बीच में हैं ,उनके बारे में तुम्‍हारा क्‍या ख्‍़याल है ? .......कविता की ख़ूबसूरती क्‍या सिर्फ उसकी अभिव्‍यंजना की ख़ूबसूरती में निवास करती है या फिर उस अनुभव -सत्‍य में ,जिससे लोक में कविता का मह‍त्‍व समझ में आता है ? क्‍या यह ख़ुरदुरापन और यह अनगझ़ता मुक्तिबोध में नहीं ? ज़रूरत के आपता अवसरों पर बेहद रूक्ष और अनगझ़ हो उठने वाले नागार्जुन की यह कोई विवशता नहीं थी ,न ही उनकी अक्षमता थी ।आधुनिक कवियों में भारतीय काव्‍य-परंपरा के अभिजात को जितना वे जानते थे ,उतना शायद निराला या प्रसाद जानते रहे हों ,अज्ञेय या त्रिलोचन आदि जानते रहे हों ,हो सकता है थोड़ा-बहुत भवानी मिज्ञ और मुक्तिबोध भी जानते रहे हों ,पर नागार्जुन तो उसी वातावरण में पले -पुसे और विकसित हुए थे ।न केवल विकसित हुए ,बल्कि दीक्षित भी । .......लोक और शास्‍त्र की ऐसी विशद और गहरी जानकारी समकालीन तमाम मूर्धन्‍यों में अगर किसी एक ही के पास थी ,तो वह केवल नागार्जुन थे ।.......शबर ,निषाद ,मादा सुअर ,बच्‍चा चिनार से लेकर नेवला तक की यात्रा कर चुकने वाली कविताओं के बाद यही कहना पड़ता है कि नागार्जुन अपने समकालीनों में -जिनमें अज्ञेय ,शमशेर ,मुक्तिबोध आदि आते हैं -सबसे ज्‍यादा भाव-प्रवण और भाव-प्रखर कवि थे ।(उपरोक्‍त)

Sunday 26 February, 2012

प्रेम बाड़ी ही उपजता है धूमकेतु जी



आज का दिन आपके लिए विशेष है धूमकंतु जी ।आपके मउ से वर्धा की यात्रा तथा एक छोटे से कस्‍बे से निरंतर 'अभिनव कदम ' जैसी पत्रिका का निकालना जितना महत्‍वपूर्ण है ,उससे कम महत्‍वपूर्ण नहीं परिवार में एक बंगाली एवं पंजाबी बहू का सस्‍नेह स्‍वागत करना ।जिस गांव और कस्‍बे में आपने जन्‍म लिया है ,वहां स्त्रियों की सबसे अच्‍छी श्रेणी आज भी 'असूर्यपश्‍या' है ।घूंघट और बुर्के से पसीना पसीना हो रहा यह हिंदी क्षेत्र स्त्रियों के लिए नीतिशास्‍त्र बनाने में ज्‍यादा श्रम करता है ।यहां प्रेम की परिणति आज भी भागने ,मरने ,मारने में ही होती है । प्रेम यहां आज भी जीवन से अभिन्‍न नहीं है ।यह छुपने ,छिपाने की चीज है ,जिसे शादी से पहले किया जाता है ,वैसे शादी से पहले या शादी के बाद हो ,दोनों दृष्टि से यह चरित्रहीनता के रूप में ही देखा जाता है !

अपने दोनों सुशिक्षित बच्‍चों को आपने इतना आत्‍मनिर्भर ,विवेकी बनाया कि वे प्रेम को पहचान सकें ,तथा प्रेम एवं जीवन के पहलूओं को एक सिक्‍का बना सकें ।मूल ,गोत्र ,खाप से लुहलूहान यह हमारा समाज प्रेम और विवेक को कितना पहचान रहा है ,यह तो हम देख ही रहे हैं ।इसी समाज में जाति ही नहीं देश के भी दो सुदूर हिस्‍से की युवतियों को अपने परिवार का हिस्‍सा बनाना रोमांचित करता है ।आपने कबीर पर एक मुहर तो मारी कि प्रेम हाट पर खरीदी जाने वाली चीज नहीं है ,परंतु आपने यह भी दिखाया कि यह अपने बाड़ी का ही हिस्‍सा है ,बोना ,उगाना ,काटना सब अपना ही काम है ।अंशुमान एवं वंदना को वैवाहिक जीवन की मंगलकामना देते हुए 'हिंदी साहित्‍य संसार 'आपको सलाम करता है ।

Wednesday 22 February, 2012

जिले में आपूर्ति अधिकारी

' आपूर्ति अधिकारी' यद्यपि दो शब्‍दों से मिलकर बना है ,परंतु इसकी तुलना आप चार या पांच शब्‍दों वाले पद से नहीं कर सकते ।आप गृहस्‍थ हों या संन्‍यासी इस पद को महत्‍व देना आपकी विवशता है ,क्‍योंकि आपके जिन्‍दगी का सारा मिठास ,सारा प्रकाश उसके नियंत्रण में है ।जिसने 'जिला आपूर्ति अधिकारी' के औदात्‍य को भोग लिया ,उसके समक्ष शेष सब गौण है ।उसे राजत्‍व नहीं लुभाता ,ब्रह्म और आत्‍मा के प्रश्‍न छोटे लगते हैं ,इतिहास के हजारों साल की यात्रा को वह गुड़ से विदेशी चीनी के विकास की तरह देखता है ।उसे पता है कि चंद्रगुप्‍त मौर्य और अलाउद्दीन खिलजी तक ने उसका महत्‍व समझा ।इसीलिए पृथक विभाग और ढ़ेरों अधिकारी नियुक्‍त किए गए ।पर 'सिकंदर ए शानी' का मंसूबा रखने वाले ये सम्राट और सुल्‍तान भी उसका कुछ नहीं उखाड़ पाए !

वह समदर्शी है ।आपके पास राशन कार्ड है या नहीं है ,आपको राशन मिलता है या नहीं मिलता है ,कम मिलता है ,कोटेदार गाली देकर भगा देता है ,कम तौलता है ,एक महीना की बजाय छह महीना पर देता है ,वह विचलित नहीं होता ।बल्कि आपके इन उतावले प्रश्‍नों को वह बाल सुलभ जिज्ञासा की तरह देखता है ,फिर वह इतिहास के मँजे हुए विद्वान की तरह मध्‍यपूर्व संकट पर बोलता है ,और आपका मुंह खुला का खुला रह जाता है ।कभी कभी वह आपके फैमिली डॉक्‍टर की तरह डायबिटीज पर गहन चर्चा करते हुए आपके चीनी की मांग को 'इंसुलिन' लगा देता है ।


वह नाटककार प्रसाद के निष्‍कर्षों को अपने जीवन में उतारा हुआ व्‍यक्ति है ,उसने शैव सिद्धांत के समरसतावाद का मनन कर अंगीकार कर लिया है ,इसीलिए वह छोटी मोटी समस्‍याओं से विचलित नहीं होता ,बल्कि वह कुछ कुछ छायावादी भी लगता है ।लोगों की समस्‍या से वह घबड़ाता नहीं है ।उसे पता है कि लोगों को राशन नहीं मिल रहे हैं ,कोटेदार सारा माल शहर से उठाकर वहीं के आटा मिल को बेच देता है ।शहर का गैस विक्रेता सारा सिलींडर ब्‍लैक कर लेता है ,परंतु वह मुस्‍कुराकर बात करता है ।वह तो दुख को भी सुख की तरह लेने की बात करता है ।कुल मिलाकर वह प्रसाद और महादेवी की गीतों को तरह दुख को सौंदर्यात्‍मक गरिमा देने में विश्‍वास करता है !


वह अत्‍यंत ही धार्मिक प्रवृत्ति का व्‍यक्ति है ।मंदिर के प्रसाद बनने में ,गुरूद्वारा के लंगर में ,ईद के सेवई के लिए मस्जिद की मांग पर तुरत ही सिलींडर उपलब्‍ध कराता है ।आप समझ गए होंगे कि वह धर्मनिरपेक्ष भी है ,कुल मिलाकर भगवान से लेकर गॉड तक सबको खरीदे हुए है ,यदि कोई गरीब मजार ,ब्रह्मस्‍थान या अन्‍य अर्द्धधार्मिक जगह दिख जाए तो वहां भी अपनी उदारता का प्रदर्शन करने से परहेज नहीं करता ।

वह साहित्यिक भी होता है ।छोटा या बड़ा कोई भी कार्यक्रम हो ,बस आला अधिकारी का रूख स्‍पष्‍ट हो ।बिना कहे सुने पंडाल से लेकर काजूबादाम तक सब हाजि़र ।आला अधिकारी मंच पर और वह मंच से बाहर कार्यक्रम पर नजर गड़ाए ।दारू ,बीड़ी ,गुटखा ,कॉफी ,कैमरा सब पर उसकी नजर है ।इतना ही नहीं कवि ,कलाकारों को एक छोटी सी थैली भी पकड़ाता है ,और यह भेंट इतना निष्‍काम कि लिफाफे पर अपना नाम नहीं आला अधिकारी का नाम रहता है !

वह जेनुइन अफसर है ,अत्‍यंत बौद्धिक ।ज्‍यादा रोने या हँसने में विश्‍वास नहीं करता ।हमारे श्‍याम भैया के कहे अनुसार बड़े हाकिमों के घर न रोते न हँसते पहुंचता है ।वह मुंह 'बओने' पहुंचता है ।यदि साहब हँसते हैं तो वह हँसता है और साहब उदास होते हैं तो वह उदास हो जाता है ।नकल करने में वह डार्विन के इस सिद्धांत को साबित करता है कि बंदर और मनुष्‍य का कुछ आनुवांशिक संबंध है !


उसकी विरक्ति का मत पूछिए ।वह छोटे शहर ,कस्‍बों में रहते हुए पत्‍नी और बच्‍चों को लखनउ ,दिल्‍ली में शिफ्ट करने के लिए लात ,गाली खाता है ।उसका बेटा दारू ,अफीम खाते हुए भी बाप का नाम रौशन करने के लिए संघर्ष करता है ।बाप जिले में गाली खाकर कोटेदारों को जूता मार ,सहयोगियों को फूसलाकर बेटे के लिए कैपिटेशन फी का जुगाड़ करता है ।फेल होने पर वह बेटे के लिए प्रिंसिपल के यहॉं गिफ्ट पहुंचाता है ,यदि बेटा बलात्‍कार का आरोपी हो तो ये प्रयास बहुगुणित ही नहीं 'मल्‍टीबैगी'भी हो जाता है ।अफसोस अनुपस्थित होने पर जिला समझता है कि वह शिमला में ऐश कर रहा है ,पर वह अपनी पत्‍नी को लेकर देश के सबसे बड़े अस्‍पताल का चक्‍कर काटता रहता है !

वह विद्वान आदमी है ।गरीबी ,भ्रष्‍टाचार ,असमानता पर उसके मौलिक विचार हैं ,कभी कभी दुहरायी गयी भी नये चमक के साथ ।जिले के ठसाठस भरे पंडाल में रेडियोचित आवाज में अपनी आंखे कड़ी कर ,विशाल बाहुओं को उुपर कर आसमान की ओर उंगली उठाए जब कहता है कि आखिर घूस का पैसा देश में ही रहता है न !,तो लोग भूल जाते हैं कि किसी पूर्वप्रधानमंत्री का भी यही विचार था ।जब वह आंखें मूंदकर ,हाथ् नीचे कर बताता है कि कौन नहीं चाहता कि असमानता हटे ,तो पंडाल निरूत्‍तर हो जाता है ,और अगले दिन कई बेकारों को दस बीस हजार में कोटेदारी का लाइसेंस बांट बेरोजगारी को कुछ कम करके ही सांस लेता है !

Wednesday 15 February, 2012

हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाएं :संपादकीय पता


आजकल
प्रकाशन विभाग
कमरा नं0 120 ,सूचना भवन,
सी0 जी0 ओ0 कॉम्‍पलेक्‍स ,लोदी रोड
नई दिल्‍ली
110003
फोन 24362915


अक्‍सर
बोधि प्रकाशन
एफ77 ,करतारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया
22 गोदाम ,जयपुर(राजस्‍थान)
मो0 98290 18087

अनहद
3/1 बी,
बी0 के0 बनर्जी मार्ग
नया कटरा
इलाहाबाद
उत्‍तर प्रदेश
211002

मो0 09450614857

अभिनव कदम
'प्रकाश निकुंज'
223, पावर हाउस रोड
निजामुद्दीन पुरा
मउनाथ भंजन ,मउ(उत्‍तर प्रदेश)
275101
मो0 09415246755,09415241755


आलोचना
मैत्री शांति भवन
फ्लैट नं0 4
बी0 एम0 दास रोड
पटना (बिहार)
800004
फोन 0612 2300240

कथादेश
सहयात्रा प्रकाशन प्रा0 लि0
सी 52 /जेड 3
दिलशाद गार्डन

दिल्‍ली
1100095
फोन 22570252

कथन
107, साक्षरा अपार्टमेंट्स
ए 3 ,पश्चिम विहार
नयी दिल्‍ली
110063
दूरभाष 011 25268341

कल के लिए
डॉ0 जय नारायण
अनुभूति
विकास भवन के पीछे
सिविल लाइंस
बहराइच
271801
मो0 09415036571








तद्भव
18/201
इंदिरा नगर,लखनउ(उत्‍तर प्रदेश)
226016
फोन 05222345301









नया ज्ञानोदय
भारतीय ज्ञानपीठ
18,इन्‍सटीट्यूशनल एरिया
लोदी रोड
पोस्‍ट बॉक्‍स नं0 3113
नई दिल्‍ली
110003
2462 6467,2465 4196, 2469 8417 ,2465 6201


पाखी
इंडिपेंडेंट मीडिया इनिशिएटिव सोसाइटी
बी 107 ,सेक्‍टर 63,नोएडा (उत्‍तर प्रदेश)
201303
फोन 0120 4070300 ,4070398 ,4070399

पाण्‍डुलिपि


पूर्वग्रह
भारत भवन न्‍यास
ज0 स्‍वामीनाथन मार्ग
शामला हिल्‍स
भोपाल
462002
फोन 2660239,2661398


पुस्‍तक वार्ता
प्रकाशन विभाग
क्षेत्रीय केंद्र(दूरस्‍थ शिक्षा)
महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय
ई 42/7 ,ओखला औद्योगिक क्षेत्र
फेज 2
नई दिल्‍ली
110020
011 26387365
011 4161 3871

बया
अंतिका प्रकाशन
सी 56/यूजीएफ4
शालीमार गार्डन एक्‍सटेंशन 2
गाजियाबाद(उत्‍तर प्रदेश)
201005
0120 2648212
मो0 09871856053

वाक्
वाणी प्रकाशन
21 ए ,दरियागंज
नयी दिल्‍ली
110002
फोन 011 23273167,23275710


वागर्थ
भारतीय भाषा परिषद
36 ए शेक्‍सपियर सरणी
कोलकाता
700017
फोन22879962
मो0 9339431576,9332428635,9883513927


वर्तमान साहित्‍य
28,एम आई जी,
अवन्तिका 1
रामघाट रोड
अलीगढ़(उत्‍तर प्रदेश)
202001


हंस
अक्षर प्रकाशन प्रा0 लि0
2/36 ,अंसारी रोड,
दरियागंज
नई दिल्‍ली
110002
फोन 011 41050047,23270377


शब्दिता
कमलेश राय
डी0सी0एस0के0पी0जी0कॉलेज
मउनाथभंजन(उत्‍तर प्रदेश)
275101
09450758766,09450753873,09721719736

सरयूधारा
हिंदी भवन
विश्‍व भारती
शान्ति निकेतन
731235(पश्चिम बंगाल)
मो09434142416


साहित्‍य अमृत
4/19 ,आसफ अली रोड
नई दिल्‍ली
110002
फोन 23289777

.साक्षात्कार
फोन/मो. 0755.2554782, सम्पर्क: साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद, संस्कृति भवन, वाण गंगा, म.प्र. भोपाल-03 mail sahityaacademy.bhopal@gmail.com

 मैसूर हिंदी प्रचार परिषद पत्रिका
फोन/मोबाईल : 080.23404892, सम्पर्क : 58, वेस्ट ऑफ कोर्ट रोड़, राजाजी नगर बेंगलूर
email brsmhpp@yahoo.co.in
 पाठ
फोन/मो. 07752.226086, सम्पर्क: गायत्री विहार, विनोबा नगर, बिलासपुर छ.ग.
 पुष्पक
फोन/मो. 040.23713249, सम्पर्क : 93/सी, राजसदन, वेंगलराव नगर, हैदराबाद आंध्र प्रदेश
email mishraahilya@yahoo.in
 अरावली उद्घोष
फोन/मो.: 0294.2431742, सम्पर्क: 449, टीचर्स कालोनी, अम्बामाता स्कीम, उदयपुर 313001 राजस्थान
 हिमप्रस्थ
सम्पर्क: हिमाचल प्रदेश प्रिटिंग पे्रस परिसर, घोड़ा चैकी, शिमला 5(हिमाचल प्रदेश)

 समावर्तन
फोन/मो. 0734.2524457, सम्पर्क: माधवी 129, दशहरा मैदान, उज्जैन म.प्र.
email samavartan@yahoo.com
 समकालीन अभिव्यक्ति
फोन/मो. 011.26645001, सम्पर्क: फ्लैट नं. 5, तृतीय तल, 984, वार्ड नं. 7, महरौली, नई दिल्ली 30
 शुभ तारिका
फोन/मो. 0171.2610483, सम्पर्क: कृष्णदीप, ए-47, शास्त्री कालोनी, अम्बाला छावनी 133001 हरियाणा
 सनद
फोन/मो. 9868018472, सम्पर्क: 4-बी, फ्रेन्डस अपार्टमेंट, मधु बिहार गुरूद्वारा के पास, पटपड़ गंज, दिल्ली 110092 mail manumallick@rediffmail.com
 व्यंग्य यात्रा
फोन/मो. 011.25264227, सम्पर्क: 73, साक्षर अपार्टमेंटस, ए-3, पश्चिम विहार, नई दिल्ली 110063
 साहित्य अमृत
फोन/मो. 011.23289777, सम्पर्क: 4/19, आसफ अली रोड़, नई दिल्ली 110002 mail info@sahityaamrit.in
 पाण्डुलिपि
फोन/मो. 94241.82664, सम्पर्क: एफ-3, छगमाशिमं आवासीय परिसर, पेंसनवाड़ा रायपुर 492001
mail pandulipatrika@gmail.com

Saturday 4 February, 2012

नि:शब्‍द :प्रतिमा राकेश की कविताऍं



प्रतिमा राकेश जीवन के हर पड़ाव पर कुछ देर रूकती हैं ,एक यात्री की तरह ,एक कवयित्री की तरह ।इस ठहराव की दृष्टि कभी बौद्धिक रही है ,कभी भावुकता से भरी ।पथ के सुनिर्मित अवरोध(ब्रेकर)कभी प्‍यारे लगते हैं ,तो कभी ‘कपड़ों की व्‍यर्थ शरम ‘ की तरह । कवयित्री शिल्‍प के उबड़ खाबड़ से चकित करती ,विषयों के चयन तथा दृष्टि से आश्‍वस्‍त करती है ।‘नि:शब्‍द’ में दो तरह की कविताएं हैं ,पहली तो वे कविताएं ,जिन्‍हें छायावादी दृष्टि या आत्‍मपरक दृष्टि से लिखी गई है ।यह आधुनिक हिंदी कविता के ही द्विवेदी या छायावादी युग का विस्‍तार लगता है
नन्‍हे नन्‍हे डगमग डगमग
जब कदम तुम्‍हारे उठते थे
सौ सौ स्‍वर्गों से देश मेरे
आंचल में आकर बसते थे ।(पुत्र मोह)
‘बिटिया’ तुम आई जीवन में
जुही पुष्‍प सी आंगन में
तत् तत् पप् पप् मम् मम् करती
मैं सारी भाषा समझ गई ।(‘बिटिया’)
प्रतिमा राकेश अपने वास्‍तविक कविताई की तरफ तब बढ़ती है ,जब वह बड़े कवियों और बड़ी कविताओं को भूल अपने व अपने समय को देखना चाहती है ,कभी प्रश्‍नों के सहारे ,कभी निर्मम स्‍वीका‍रोक्तियों के साथ । ’सफलता क्‍या है अच्‍छी डिवीजन/अच्‍छे प्रतिशत /अच्‍छी नौकरी/ और एक ‘ग्‍लोरियस डेथ’(शक्ति) यद्यपि यह बौद्धिकता निरंतर प्रवहमान नहीं है ,कभी कभी यह भावुकता के साथ घालमेल भी करती है
तुम शक्ति हो ,मैं स्‍नेह
इसलिए कि तुम पिता हो
और मैं
उसकी रग रग में बहने वाली मॉ ।
प्रतिमा राकेश प्रकृति और प्रेम को भी काव्‍यसत्‍य बनाती हैं ,परंतु रमती नहीं ।उनकी शक्ति है उनका सीधापन ।अभिधा की प्रचंड शक्ति के द्वारा ही वे हस्‍तक्षेप करती हैं ,वैसे उनकी लय छंद वाली कई कविताएं कई जगह गिरिजा कुमार माथुर के कविताओं की याद दिलाती है ।परंतु हिंदी कविता की परंपरा में उनकी वही कविता जगह बनाती है ,जहॉ वे दुनिया को स्‍त्री ,मॉ या एक उच्‍चाधिकारी की सहधर्मिनी के रूप में देखती है ।

प्रतिमा राकेश की कविताएं पुरूषप्रधान समाज की संरचना ,उसकी मनोवृत्तियों और शोषण की वृहत्‍तर स्‍वीकार्यता के विरूद्ध प्रश्‍न उठाती है ,तथा इस प्रश्‍नवाचकता में ही यह कविता की सीधी संरचना का परिहार करते हुए संश्लिष्‍ट बनती है ।पुरूषवादी समाज की यौनिकता पर व्‍यंग्‍य करते हुए कहती है
'रेड लाइट एरिया जैसा
मशीनी'सकर' चाहिए
जहॉ सुलभ शौचालय की भॉति
हल्‍का हो सके वह ।
और
बाहर निकल जाए,
साफ सुथरे कुर्ते पायजामें में,
तृप्‍त झकाझक सफेदी के साथ ।'
कविता की यह दिशा भले ही स्‍पष्‍ट हो ,परंतु वह इकहरी नहीं ।इसीलिए नारीवादी रूख के बावजूद वह नारीवादी आंदोलन की संरचना पर प्रहार करने से नहीं चूकती
'स्‍वतंत्र हो चुकी औरतें
वो बोटियॉ है
जिन्‍हें देखते ही
लील जाना चाहते हैं
विचारक/लिबरेशन के नाम पर '

'बोनसाई' नामक कविता में वह क‍हती हैं
'जमीन से जुड़ा
हवा के साथ झूमता
आकाश छूता बरगद
जानता है
बोनसाई ,पनपते क्‍यों नहीं ?


प्रतिमा राकेश के पास समाज और साहित्‍य के असली प्रश्‍न हैं ।इसीलिए उनको पता है कि ब्राह्मण ,ठाकुर और बनिया गाली नहीं होता ,परंतु 'चमार' होता है ,और 'वागर्थ प्रतिपत्‍तये 'की समझ ही उनको कामयाब बनाता है
'चमार कहीं के'
सिर्फ एक शब्‍द नहीं ।
गलगले नींबू जैसा
दर्द बिलबिला उठता है
और उठ जाती है गड़ासी
गर्दन के आर पार '

यहॉ प्रस्‍तुत है 'नि:शब्‍द' संग्रह की एक सौ पॉच कविताओं में से उन्‍नीस कविताएं ।





छ: इंच मॉस का लोथड़ा
मॉ .....
तुम्‍हारी बूढ़ी होती हड्डियों में
चेहरे की झुर्रियों में
हाथों की सलवटों में
ऑखों के मोतियों में
डूब जाना चाहती हूं ।
भर लेना चाहती हूं
अपने आगोश में
आखों के ऑसूओं को
चूम लेना चाहती हूं ।
किंतु मैं विवश हूं
नहीं है मेरे पास
छ: इंच लम्‍बा
मॉस का लोथड़ा
बेटा बना देता जो मुझे
और मैं वंश वृक्ष की /शाखों को
और बढ़ा पाती !
जानती हूं मैं
छ: इंच लम्‍बे
मांस के लोथड़े .....
बन जाते हैं बेटे
बढ़ाते हैं वह
वंश की बेल को
देख नहीं पाते लेकिन ...
फटते कलेजे को ....
पोर पोर बहते
आंखों के क्रन्‍दन को ।
मांगते हैं तुमसे जो
सीने पर चढ़कर
जमीन में हिस्‍सा
मकान का हिस्‍सा ।
जानते हैं वो कि...
एक अदद छ: इंची मांस ने
बना दिया है वारिस...
जमीन जायदाद का ।
बेटा पैदा होते ही
बन जाता है वारिस
और बड़ा होते ही करता प्रतीक्षा
बाप की मौत या हथियाने को
चुपचाप सारी जायदाद ।
मां ....
तुम्‍हारी गिरती हुई सेहत को
बढ़ते ब्‍लड प्रेशर को
चार सौ चालीस ब्‍लड शुगर को
थाम लेना चाहती हूं
चाहती हूं मैं ....
कि ,मेरे जीने तलक
जीते रहे मेरे मां बाप
नहीं चाहिए मुझे जायदाद
मांगती हूं दुआ सिर्फ ....
और सिर्फ सांसों की
लम्‍बी उम्र अपने मां बाप की।
हालांकि जानती हूं मैं
नहीं होगा ऐसा /क्‍योंकि
अकेला नहीं था औरंगजेब
’डी थ्रोन’ होते रहे हैं /
और भी जहांगीर /
आगे भी होते रहेंगे लेकिन
कैसे कहें व्‍यथा
अपनी औलाद की कथा ?
तड़पाए जाने की
त्रासद पिता की

वारिस जायदाद का /
पा लेना चाहता
शीघ्र से शीघ्र
मिल और मकान को ।
मर जाना चाहती है
इसीलिए मां बाप की मृत्‍यु से पहले
बेटों के आगे हाथ फैलाने से पहले


2 मम्‍मी

मां
तुम टी0 वी0 वाली मम्‍मी की तरह
’इलेगैन्‍टली’ क्‍यों नहीं रहती ?
बेटे का मासूम प्रश्‍न ।
क्‍यों नहीं तुम भी ‘वोर्नवीटा’ ‘हार्लिक्‍स’ पिलाती
खाना बनाते मिर्च मसाले दिखाती ?
सजी संवरी लकदक नहीं
ऐसी क्‍यों दिखती हो ?
बेटे का मासूम प्रश्‍न !
टी0वी0 वाली सास की तरह,
दादी क्‍यों नहीं हंसती
खुश खुश हों सास ससुर
चाचा भी ताउ भी
बेटे का मासूम प्रश्‍न !
मैले कपड़े ,बिखरे बर्तन
और तुम्‍हारी साड़ी भी
कितनी मैली कितने धब्‍बे ?
बेटे का मासूम प्रश्‍न !
इस घर में क्‍यों
हरदम चकचक ?
हरदम किल्‍लत ?
हरदम खिचखिच ?
बेटे का मासूम प्रश्‍न !
गोदी में आते ही तेरी
आती गंध पसीने की
साड़ी तेरी मुड़ी तुड़ी
कोई भी परफ्यूम नहीं ?
बेटे का मासूम प्रश्‍न !
’मम्‍मी ‘ बन जाओ न तुम भी
वह टी0वी0 वाली सी ‘मम्‍मी’ ।

3. वह बड़ा हो गया है

मरदों की भीड़ में,
शामिल हो गया है वह
जो -
नन्‍हीं बाहें फैलाए
तुतली बातें करते
मोह लेता था मन ।
देख रही हूं मैं ....
रोज ब रोज बढ़ता जा रहा है,
वह .....
मरदों की चालाकी सीखता
धूर्तता की खाल ओढ़ता
झूठ बोलता,
कपट भरी आंखों से,
रूपयों की ओर देखता ,
मेरे हाथ से,
छूटता जा रहा वह
रोज व रोज बढ्ता जा रहा वह ।
झुठ, छल, फरेब से चमकती,
उसकी ऑखें,
अब भी -
भुलाए रखना चाहती है,
मुझे...
उसी भोली दुनिया में
जिसे छोड्कर वह
बढ् गया है आगे
मरदों की आपा धापी में,
फिर भी
बनाए रखना चाहता है
अब भी
एक भ्रम ।
भ्रम यही
वह अब भी बच्‍चा है
उतना ही सच्‍चा है।
जबकि मै
रोज व रोज,
देख रही हूं,
वह,किसी धूर्त मदारी की तरह
झोक रहा है मेरी ऑख में धूल,
शायद वह बड़ा हो गया है ,
हॉ ! वह बड़ा हो गया है।


4 देवदास

उसकी ऑखों में
दर्द है
अब भी ,
अस्‍वीकृत कर दिए गए
प्रेमी का ...
ठुकराया हुआ दिल
देवदास का
उस किशोर को मर्द,
बनने से पहले ही
प्रैक्टिकल ,लड़की ने,
बता दिया प्‍यार ....
वादा ...
दोस्‍ती ...
निभाने नही उपर चढने के रास्‍ते है।
पांव रखो
उपर चढ़ो,
धकेलकर -
गिरा दो
गहरी खाई में दिल ।
भोली भाली दुनिया से
मर्द बनने तक
सोसाइटी के सोपान
चढ़ने तक
सुरक्षित कर लो अपनी जगह
इस पार
या उस पार
अब 'पारो' नहीं
बनती हैं लड़कियॉ
बनते हैं सिर्फ 'देवदास' ।
'देवदास' एक लड़की के लिए
मरने नहीं देगी तुम्‍हें,

तुम्‍हारी मॉ
जीना होगा तुम्‍हे/
मेरी खातिर ।
बाप,भाई ,बहनों की खातिर ।
एक खत्‍म हुआ रिश्‍ता
क्‍या मार जाता है
सारे रिश्‍तों को ?
नहीं मेरे 'देवदास' पुत्र
तुम्‍हें जीना होगा
इस भोली भाली दुनिया से
मर्द बनने तक
प्‍यार ...
वफा ...
दोस्‍ती ....
सारी सीढि़यॉ छलॉगते
मैं जानती हूं
जिंदा रहेगा वह
एक अविश्‍वास के साथ-
फिर भी चढ़ेगा ,
सफलता की सीढि़यॉ
अस्‍वीकृत कर दिया गया 'देवदास' ।



5 गान्‍धारी

मुझे दु:ख है, पलता रहा गन्‍दा खून
मेरी कोख में
सीचती रही अमृत
वह पिता रहा विष
मेरी अस्थियों से निकलती रही मज्‍जा
करती रही शरीर खोखला
मै गान्‍धारी, समझ नही पाई
नन्‍हा बच्‍चा खेलता रहा गोद में
पुलकाता रहा रोम रोम
नन्‍ही किलकारियों से
भरता रहा व्‍योम ।
मेरे दिल दिमाग में छा गये सपने
सपने मेरे आसमान हो गये ।
जिसे बनना था राम
मेरे मुल्‍यो की की धडकन
दुख है मुझे -
बंदरिया की तरह सीने से चिपकाये
घुमती रही मै
मेरा बैटा जिसे बनना था
श्रवण कुमार,कृष्‍ण या बलराम
सपनो का वह 'राज कुमार 'नही बना
वह ....
जिसकी आरती उतारती
माथे पर चंदन लगाती
बन गया आग समझ नही पाई मैं ,
कब बन गया आंतकवादी
और मैं गानधारी
दुख है मुझे जिस टुट कर पाला मैंने
मुझे सर से पाव तक तोडने लगा है वही।










6 जवान

बचपन की कैद से
मुक्‍त होने को
छटपटा रहा है वह
अंगो का तनाव से
कसमसा रहा है वह
वह !
वह,जो कल तक
मेरी गोद में सर रखे
लोरियॉ सुनता था
थाली के हर कौर को
लड्डू बना
ऑगन में गोल गोल
चक्‍कर लगा
दौर दौर खाता था । आज वह
एक ही छलांग में
बन जाना चाहता है जवान
वह -
जिसकी आखो में
तैरने लगे है सपने
परियो के नहीं सुन्‍दरीयों, के
चखना चाहता स्‍वाद
सुरा और सुंदरी का । वह। जो बदल रहा
या फिर शायद
बढ रहा तेजी से
कैसे आश्‍वस्‍त होउ में
कि सुरा हो या सुदरी
वह स्‍वाद लेकर ही
ठहर जायेगा
वह फिसलता ही
नही चला जायेगा
क्‍योंकि हर नशा
वह ढलान है।
जहॉ रुकना,ठहरना
सोचना और समझना । एक मुस्किल पडाव है।
वह नही जानता कभी.कभी
व‍ह पडाव आता ही नहीं और अचानक
जवान हुआ बच्‍चा
बुढा होने तक
लुढकता चला जाता है।
वह,
बचपन की कैद से
मुक्‍त होने को
छटपटा रहा है। अंगो के तनाव से
कसमसा रहा है।

7 तलाश जारी है


भोर होते ही ,
ऑखो में कीच
दांतो में मैल
सांसों में दुर्गध बसाए
निकल पड़ते हैं
बच्‍चे,बूढ़े औरतें
और जवान छातियॉ।
उस ओर ढ़ेर सारे सुअर
थूथन घुसेड़तें
कुछ कुछ मिचियाते
फैलाते सड़ांध।
बच्‍चे बूढ़े, औरतें
और जवान छातियॉ
सुअर कुत्‍ते,
और मुर्गियो के ढ़ेर में

गढ्ढ मढ्ढ हो जाते हैं।
चारा खोजते हुए लोग
जुठे टुकडे।
लोहा लक्‍कड,लाल भुझक्‍कड़
जैसे ढूंढते रहते हैं
शीशे,जस्‍ते या फिर पन्नियॉ।
कचडे के ढेर में
कुछ पाने को
कूड़ा खंगालते
बच्‍चे, बूढे ओरते आजाद हैं
आजाद भारत की संतान है।
आजाद हैं कुछ भी करने के लिए
गोबर मे गेहूं
कूड़े में कॉच
,राजधानी, से फेंका....
बासी अनाज .....;
कुछ भी हो सकता है
कचडे़ के ढ़ेर में
मानवीय गरिमा की
तलाश जारी है।
मंदिर का निर्माण जारी है
अम्‍बेडकर पार्क बनना जारी है।
यज्ञ हवन कुम्‍भ स्‍नान
सबकुछ यथावत है
कलश यात्रा ईश्‍वर प्राणिधान
उच्‍चता का
पवित्रता का
हर स्‍वांग जारी है।




8 डायना डोबरमैन

'डायना'.....
डोमरमैन बच्‍चो की वफादार
मालकिन की फटकार
सुनती कुकुआती....
छुप जाती बिस्‍तर के निचे
बच्‍चो के कदमो में
बस्‍ती है दुनिया
टेबुल के नीचे
आलमारी के पीछे
छुप जाती कुकुआती ।
दुनिया है उसकी
छुपकर बैठना
एक टक देखना
बच्‍चो की ओर
जो खरीद लाए हैं
डॉग ब्री‍डर की गंधुआती टप्‍पर से ।
दो गुणा तीन से
तीन गुणा चार की
टीन की टपरियो में ,
चार फुटे कुतों को
उन सबने रखा है
ब्रीडीगं का पेशा है।
यहां से वहां तक
पेशे से शौक तक
डायना का सफर
'नर्क' से 'स्‍वर्ग 'तक।
स्‍वर्ग क्‍या....
पुट्टे में घोपकर
7 इन वन
लगने न पाए अब
कोई इं‍फेक्‍शन।
सुंन्‍दर की टेक है
डॉकिंग का रेट है
काटकर छांट दी
चार इंच पूंछ बची
काटकर मातृत्‍व की
नाजुक नसें
रोक दिया जाता है
उसका प्रजजन।
पट्टा सीकड जाबा।
पानी भरा कटोरा
दूध सनी रोटी
पूंछ कटी छोटी
प्‍यार से डुलाने को
मक्‍खी उडाने को ।
पूंछ नही फिर भी वह खुश है।
तीन गुना चार की
कैद से आजाद है
र्स्‍वग हैं यही कहीं
बच्‍चो की गोद में ।

9 साहित्‍यकार

वह आता रहा
लगभग हर सप्‍ताह
सुनता रहा
मेरी कविताऍ,
मेरी आहें
देता रहा दाद, और
कभी वाह!वाह !
मैं
हर जख्‍म हर ख्‍वाब
पिरोती रही
कविता में कहानियों में ।
रुह में सुलगती रही आग।
आता रहा वह,
प्राय:
मेरा दर्द बांटने ।
पढ़ लेने को आतुर
डायरी के पन्‍ने ।
वह करता रहा ,
' एडिटिंग', और मै ?
मै और मैरी डायरी
जस की तस हैं ।
मैं
अब भी हूं वही ठहरी
और वह ?
दर्द से भींगे लम्‍हों का गवाह
बन चुका है
सफल कवि ।
'हाईली पेड' लेखक
छप चुके हैं उसके
तीन कविता – संग्रह
दो उपन्‍यास।
शब्‍दों के हेर फेर ने
लेखक बना दिया उसे
मेरे भोगे हुए लम्‍हो को
सदियों की कब्रगाह ,
दे गया वह ।
वह कवि बन गया
मेरी डायरी पढ़ते - पढते
रिसते हुए घावों को
सहलाती में
अपनी पीड़ा आप बॉटती
खडी हूं वहीं
जहॉ उसने मुझे छोड़ा था ।
फेरकर निगाहें चल दिया
दुसरी राह ।
उसने मुझे पाया था
साथी कहकर
सहलाते सहलाते
घावों को मेरे
बन गया जो सफल साहित्‍यकार ।
पुरुष
न लोमडी है न कुत्‍ता
वह मारता है झपट्टा
चील सा ले उड़ता है
आपका अस्तित्‍व ।
स्‍त्री ....
क्‍या तुम सिर्फ
घुल जाने के लिए हो
बार बार ,हर बार
पिघल जाने के लिए हो

10 मगरमच्‍छ 1


नदी गहरी है ....
मगरमच्‍छों की भरमार,
भले हो यूपी या बिहार ।
मबरमच्‍छ है बडे – बडे
उत्‍तरांचल ....
मध्‍य प्रदेश ......
छत्‍तीसगढ.
राजस्‍थान .....
पालती इनको हर सरकार ।
बात हजारों लाखों की
नहीं करोडों का है माल
इधर उधर करती है सरकार ।
पानी पीते हैं मुल्‍ला
खुदा भी नहीं जानता कब
इसी तर्ज पर विकास
यही करती सबकी सरकार ।
सरकारें जानती हैं
अफसर को पालती हैं
एफबीसीआई हो, चारा हो ,
स्‍टाम्‍प का घोटाला हो
पेट नही भरता
कभी सरकार का ।
चारा जो बोते हैं
काटते हैं और ,
पूरी की पूरी ग्रीन बेल्‍ट

शहर में बस्‍ती में
हो जाती तब्‍दील ।
नप जाता अफसर
हो जाता सस्‍पेंड,
शान से दौडती सरकार ।
बोरियां बोई जाती है
बोरियां लादी जाती है
टैम्‍पो और ट्रकों में लदकर
हो जाती सीमा पार /
मंत्री बनाम संत्री ,
आईएस बनाम पीसीएस
फाइलों पर फाइलें
पहुंचती जाती जज साहब के पास /
अयोध्‍या हो या हरिद्वार
नालंदा हो या नैनीताल
जज साहब की यात्रा
मुर्ग मुसल्‍लम सहित
पंहुच जाती पूरी सौगात /
संतरी का झब्‍बा
लंका हो नेपाल
न वीसा न पासपोर्ट /
मगरमच्‍छ की मोहर
झब्‍बरदार अर्दली , अपनी सरकार ,
मगरमच्‍छ के लम्‍बे हाथ ,
मछलियों की गर्दन पतली /
कहीं पकड़ा जाय घपला –
'मिश्राजी' ,सस्‍पेंड ,
तिवारी जेल -
लाला की इन्‍क्‍वारी /
ठाकुर की रीढ़ में पानी ,
मूछों पर देती ताव
यहॉ वहॉ जहॉ तहॉ
हर ओर सरकार ।
भ्रष्‍टो में भ्रष्‍‍ट की
होती खोज
गोलगप्‍पे की पोस्‍ट पर
बंधु का होल्‍ड
चीटीयों सी तन्‍मयता
मधुमक्खियों की धुन
चूसकर शहद उड जाती सरकार /
पत्‍थर मारकर देखो
घेर लेंगी चारो ओर
शहद की मक्खियॉ।
या हो मगरमच्‍छ से बैर
बनते हो इम्मानदार
ट्रांसफर.....ट्रासफर......ट्रांसफर.........
सरकार दर सरकार /






11 मगरमच्‍छ-2


चीफ साहब का आगमन है
तैयारी में व्‍यस्‍त है कलक्‍टर
एस0डी0एम0 साब की आवाज
तहसीलदार का पसीना
लेखपाल की गर्दन
ग्राम प्रधान की पॉकेट
विकास का धन .... ,
साब, साहिबा
साहिबा, मेमसाब ........
असली है नकली हैं कोई नही जानता /
खाने पीने ठहरने घूमने
बाजार से घर
घर से होटल
कोई बजट नहीं सेवा सत्‍कार का
फिर भी सरकार का ,'चीफ',
स्‍वागत में कमी न हो
वरना........
मधुमक्‍खयों के छत्‍ते में
फेंकना पत्‍थर
छिदो और तड़पो ।
मगरमच्‍छ ..
सरकारों ने पाले हैं
बडे और भयानक शिकारी
कर सकते हो तो करो
जल में रहकर मगर से बैर ।
मगरमच्‍छ का
कुछ नहीं बिगड़ता
शान से तैरता रहता वह ।
पागल मत बनो,
राह मत अड़ो
लड़ो- अपने आपसे लड़ो
व्‍यवस्‍था का हिस्‍सा बनो।
छोड़ दो अपने वसूल
तोड़ो धर्म
भूलो ईमान
लड़ो अपने आपसे ......
मगरमच्‍छ से नही ।
वरना पछताओगे
उनका अभिमान
तुम्‍हारा स्‍वभिमान
मगरमच्‍छ और मछली
दोस्‍ती नही दुश्‍मनी भी नहीं
एक ईमानदार दूरी /
अच्‍छी है.......
वरना ......
मगरमच्‍छ का कुछ नहीं बिगड़ता
वह शान से तैरता है
विदेश चला जाता है
और तुम ?
रेत से निकली मछली की तरह
तड़पते तड़पते ....
कर लेते समझौता
ईमान का कोई पैमाना .
नहीं होता
अपना – अपना पैमाना खुद तैयार करना
वरना ....
यूं ही तडपते तडपते
एक दिन रिटायार हो जाओगे/


12 पैमाना


ईमान ..........
तुम्‍हारा कोई पैमाना नही होता
जैसे हर आदमी सुतवॉ नाक
लम्‍बे कान और .....
बड़ी- बड़ी आखों वाला
गौतम नही होता ।
कोई रुपए की हवस में
बेचता है ईमान
कोई शरीर की हवस में
स्‍वाहा करता है ईमान ।
कहीं जमीन , कही जायजाद,
डोल जाता ईमान ।
कहीं किसी कंदरा में
कहीं किसी होटल में
कही किसी पार्टी में
मानव मन
तुम्‍हारा कोई पैमाना नहीं होता ।
प्‍यार .........ईमान ..........विश्‍वास....
कुछ भी ठहरा हुआ नहीं होता ।


13 घमासान जारी है।


एक एक पग
बढ़ते हुए,
लीलता रहा वह
और मैं ,
एक – एक रात
खोती रही नींद
फिसलन भरे रास्‍ते
नदी का बहाव
मगर से बैर ।
कुछ भी नही संभला
कब तक करती प्रतिरोध ?
डी0 एम0 साहब /
कमिश्‍नर साहब /एस0डी0एम0 साहब /
एस0पी0,डी0आई0जी0,साब,
या फिर अर्दली साब
एक श्रृखला
डेली वेजर से
चीफ मिनिस्‍टर तक
एक सीढ़ी।
जितना बड़ा साहब
उतना विशाल उत्‍कोच्‍छ !
जितनी बडी पार्टी
उतने हीरे, उतनी साडियॉ
उतने पन्‍ने,उतनी सैंडील
उतने जूते ,उतने कुत्‍ते
कुत्‍ते जैसे आदमी
आदमी जैसे कुत्‍ते
आदमियों की बची
कुत्‍ते जैसी जीभ
जैसी जीभ ,
वैसी एंट्री/जीभ लपलपाओ ,
'आउट स्‍टेंडिगं ', पाओ।
अटैची उठाओ,माल पकड़ाओ
माल कमाओ,माल उड़ाओ
और हॉ,नही सीख सकते
यह सब तो / ,'आउट' हो जाओ।
सोचती रहती हूं मैं सारी सारी रात
खोती रहती हूं अपनी नींद ।
नींद - वापस लाने के लिए छोड़ना होगा
शीशे का घरोंदा
आना होगा-
सडक पर ,ओस में ,
शीत में ,पार्क में,
सुख भरी
नींद पाने के लिए।
पार्क की बेंच पर -
होगी सुबह ।
औरत को सरेआम
गांव में ,ट्रेन में
नोंच लेते हैं सब
कोई कुछ नही बोलता ।
सोचती रहती हूं मैं सारी-सारी रात
खोती रहती हूं मैं अपनी नींद
रात की थकान, तारी है
अभी घमासान जारी है।



14 तुम्‍हारी पंसद

तुम्‍हे पसंद नही हैं-
कोई तुम्‍हारी 'चीज' को छुए,
किसी के पहने हुए कपडें ।
किसी की उतरी हुई चप्‍पल /
कोई तौलिया,कोई बिस्‍तर /
किसी दुसरे द्वारा प्रयुक्‍त हो।
तुम्‍हें पसंद नही हैं।
होटलों में जाते ही –
5 स्‍टार कल्‍वर,
तुम्‍हारे पूरे वजूद को
मोम कर देता है,
और
तुम धुली चादर ,
धुली तौलिया
धुली-धुली क्रॉकरी ,
करीने से लगी कटल‍री ,
वही –वही गिलासें,
जिसमें जाने कितने लोगों ने
कभी जाम कभी पानी ,
कभी चाय,कभी शरबत ,
पिया था -
होंठों से लगा लेते हो चुप चाप।
तुम, जिसे बिल्‍कुल पंसद नहीं है
कोई तुम्‍हारी ,चीज,को छुए,
तुम किसी की जूठन,
किसी की उतरन
किसी की सौगात पंसद नही आती -
नई – नई औरतो के साथ
बिताते हो रात,
उस समय तुम्‍हें भी अपनी
सनक लगती है वाहियात ।
मै .......
तुम्‍हारी पत्‍नी
किसी की ओर
भरपूर नजरो से देखूं
नजरे जूठीं हो जाती है/
कोई मुझसे हाथ मिलाए
हाथ मैले हो जाते हैं।
किसी से अगर हो जाए प्‍यार
चरित्र मैला हो जाता है-
हो जाती हूं मै अपवित्र ।
किसी के साथ सपने में भी
मैं बिताउं रात ..........
तो वैश्‍या हो जाती हूं ।
तुम - कितने हो साफ शफ्फाक ।
हर दिन नया जाम ,
हर दिन नई माशूका -
बदलते हो बार –बार ।
फिर भी तुम्‍हारा अंग मैला नही होता है।
क्‍योंकि तुम पति हो
और पति ......
परमेश्‍वर होता है
वह कभी मैला नही होता है।
उसका चरित्र
दो ,चार या दस बीस
औरतों के साथ सोने से घिसता नही है,
क्‍योंकि वह पति है और पति परमेश्‍वर है,
सदा पवित्र है।



15 रेशमी कैद

तुमने
मुझे छुआ भी नहीं
ओर मैं
छुई मुई की तरह
लुंज पुंज हो गई ।
तुमने हाथ लहराया
हवा में
और में
लहूलुहान हो गई ।
तुमने प्रणय निवेदन किए
और मैं
सर से पाव तक
प्‍यार ही प्‍यार हो गई।
मैं कुछ भी नही जानती
ऐसी क्‍यों हूं ?
तुम्‍हारे आगे-पीछे
रेशम के कीड़े की तरह
घर की चाभियॉ लटकाये
जिम्‍मेदारिया , जनते,
मैं खुद ही इस रेशमी गिरफ्त की शिकार हो गई।
तुम उबालते हो मुझे
मैं और नर्म होती हूं
रेशम के कीडे़ सी
कुछ भी नही जानती मैं ऐसी क्‍यों हूं ?
क्‍यो नहीं हूं मै उन रेशमी कीड़ों की तरह
जो अपने ही इर्द-गिर्द
रेशम तो बुनते हैं
काटकर उसे आजाद हो जाते हैं।
काट नही पाती मैं
गृहस्‍थी के जाल को
सांस नहीं लेती क्‍यों
खुले आसमान में ।
ओ रेशम के कीड़े
क्‍या कम हैं
चंद ही सही तुम
कुछ सांसें तो लेते हो
अपनी कैद भी बुनते हो
आजादी भी लेते हो ।
मैंनें अपनी ....
कैद गढी है खुद ही ,
छीन नहीं पाती आजादी
रेशमी गिरफत में घुता है दम क्‍यों
मै कुछ भी नही जानती ।


16 पच्‍चीस बरस

'फायर बाल '

कभी यह था मेरा उपनाम
और मैं..
धधकती आग की तरह
कभी440 बोल्‍ट की तरह
(यह भी उप नाम था)
तोडती रही रोटीयॉ पच्‍चीस बरस ।
हमारी मांद में तुम शिकार लाते रहे
मै पालती रही शावक ।
सोचती थी मैं कभी तो मुक्‍त होगी
मांद से........
बाहर हरे - भरे पेड़
बर्फ की बौछार में
सिहरते हुए करते रहे प्रतीक्षा मेरे आने की /
बाहे फैलाए खडा रहा देवदार ।
आएगी प्रियतमा रोपती हुई धूप।
सींचती रही जो,बचपन में जड़ें मेरी ।
मेरे बच्‍चे .........
ढूंढने लगे थे शिकार
और मैं
भूल चुकी थी शिकार करना ।
कुदं हो चली दॉतों की धार
भोथरे हो गये नाखून
'फायरबॉल' ....
राख में तब्‍दील हो गई
रह गई झुर्रियॉ -
बची हुई राख की तरह
पच्‍चीस बरस कम नहीं होते
आग को राख में बदले के लिए।

17 तलाश

उन्‍हें तलाश है
एक-,लवेबल, चेहरे की ।
औरत- जो बिस्‍तर में,
एक अदद गहरा कुऑ और दो पहाड़ हो।
आखों से हिरन हो,
बोली से कोयल ।
वह चाहें,तो प्‍यार करें
चाहें अपमान करें /
शिकवा न करें औरत ।
औरत ,जो जिन्‍दा तो हो
मगर लाश की तरह ।
प्‍यार,जलन,गुस्‍सा
कोई एहसास न हो
मान हो,अपमान हो
वह तो योगस्‍थ हो।
उन्‍हें तलाश है,
एक- ,लवेबल,चेहरे की ।
एक ,'ओबीडिएंट' मातहत की
जो बिना बोले
चुपचाप करता रहे हर काम
सीना भी ,पिरोना भी
खाना भी,पकाना भी,
धोना भी,धुलाना भी,
और हर रात बिस्‍तर पर ,
मनाए चुपचाप सुहागरात।

18 सत्‍ताईस बरस

27 बरस तक
वह फेंकता रहा रोटियॉ
मै बटोरती रही .......
वह बरसाता रहा नोट
मैं गिनती रही
फिर भी.....
तवायफ नही हूं मैं
मेरी मांग में है सिन्‍दूंर।
आज अचानक
27 बरस की साधना पाप बन गई
दिए गए पैसों का हिसाब बन गई ।
आज अचानक –
सिदूंर की तुलना में
साफ शफ्फाक नजर आई
वह तवायफ ।
शरीर दिया धन लिया
हिसाब बराबर ।
कोई किसी से किसी का,
हिसाब नही मांगता ।
तवायफ पत्‍नी नही है,
न मैनेजर घर की ,
इसीलिए देना है उसे
दिए गए पैसो का हिसाब ।
तवायफ पत्‍नी नहीं है,
फिर भी निठल्‍ली नहीं है-
अपनी नजर में,
अपनी ही मालकिन है।
मांग का सिंदूर
आत्‍मा की सीकड नहीं।
तवायफ पत्‍नी नहीं /
जब चाहे तोडकर जंजीर
दो हाथों से भर सकती है एक पेट ।
वह तवायफ है
इसीलिए मर सकती है आत्‍मा सम्‍मान की मौत-
और वह मरती है मान सम्‍मान से
क्‍योंकि वह किसी की गुलाम न‍हीं।


19 आकर्षण
मेरे शरीर का आकर्षण
तुम्‍हे खीचता है अपनी ओर ।
मैं,बिंधी चली आती हूं
लिपट-लिपट जाती हूं
कोमल लता सी गठे हुए गात से।
तुम्‍हारा आकर्षण
खींच ले जाता है,
चुंबक की तरह
मैं खिंची चली आती हूं
घन-घन बरसात में।
यौवन की वासना है,
प्‍यार है, समर्पण है,
कुछ भी न जानती
मैं क्‍यों चली आती हूं
चिचिल चिचिल धूप में।
जानती हूं मैं
शातिर प्रेमी
कुछ भी नहीं छोडता
न स्‍वप्‍न न सम्‍मान
न प्‍यार न विश्‍वास
सिर्फ बहा ले जाता है
बाढ़ में साथ में
उखड़ जाते जड़
बडे़-बड़े पेड़ ज्‍यों
बाढ़ के विनाश में
बहे चले जाते
जल जाते
हरे भरे पेड़
जंगल की आग में।
शातिर प्रेमी
शरीर का मन का
कुछ भी न छोडता
स्‍वप्‍न न सम्‍मान
न प्‍यार न विश्‍वास
फिर भी मैं विवश हूं
प्‍यार के बहाव में।


(साभार अरू पब्लिकेशन्‍स प्रा0 लि0)
सरस्‍ती हाउस समूह