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Saturday 27 August, 2011

प्रगतिशील वसुधा





प्रगतिशील वसुधा का श्रद्धांजलि अंक और मेरी कुछ कविताएं ।

Sunday 21 August, 2011

राम शरण शर्मा (ram sharan sharma )



राम शरण शर्मा (26 नवंबर 1919 से 21 अगस्‍त 2011) की बरौनी से प्रारंभ यात्रा जिस निष्‍पत्ति तक पहुंची वह आश्‍चर्यजनक है ।मिथिलांचल के एक सामान्‍य से कस्‍बे में जन्‍मे प्रोफेसर शर्मा ने प्राचीन इतिहास लेखन को गंभीड मोड दिया ।पटना ,दिल्‍ली व टोरंटो के विश्‍वविद्यालय उनकी अकादमिक प्रतिभा के साक्षी बने तथा अपने गुरूओं ए एल बाशम के सांस्‍कृतिक इतिहास लेखन व डी डी कोशांबी के नीरस भौतिकवाद से आगे जाते हुए उन्‍होंने द्वन्‍द्वात्‍मक भौतिकवादी इतिहास लेखन को ठोस आधार पर स्‍थापित किया ।उनका इतिहास लेखन भूगर्भ में छिपे अवशेषों के साथ ही साहित्‍य के सूत्रों ,शैलियों को समेटते हुए व लोकोक्तियों ,कहावतों का रस ग्रहण करते हुए आगे बढी ।
अपने सहयोगियों इरफान हबीव ,रोमिला थापर जैसे विद्वानों के साथ उन्‍होंने इतिहास लेखन को साम्‍प्रदायिकता व राजनीति से अलग करने में लगाया ।उन्‍होंने इतिहास को अनुमान व भाषणबाजी से आगे ठोस तथ्‍य पर आधारित किया ।यह गंभीर सामाजिक शास्‍त्र के रूप में भारत में जानी गयी ।उन्‍होंने इतिहास को भौगोलिक उत्‍खनन ,समाजशास्‍त्र ,भाषाशास्‍त्र एवं नृविज्ञान के सिद्धांतों के बीच स्‍थापित किया । अब इतिहास 'एक था राजा ' नहीं रहा । भारत में जिन विद्वानों ने इतिहास को राजा महाराजाओं से आगे जनता के संघर्षों ,उसके बदलते जीवन व कष्‍टों के संदर्भ में देखा ,उसमें राम शरण शर्मा अग्रगण्‍य हैं । निम्‍नलिखित कुछ महत्‍वपूर्ण ग्रंथों की सहायता से यह जाना जा सकता है कि लेखक की रूचि किन तथ्‍यों ,विचारों की ओर रही है
Select bibliography of works in English
Aspects of Political Ideas and Institutions in Ancient India, (Motilal Banarsidass, Fifth Revised Edition, Delhi, 2005), ISBN 8120808983. Translated into Hindi and Tamil.
Sudras in Ancient India: A Social History of the Lower Order Down to Circa A D 600(Motilal Banarsidass, Third Revised Edition, Delhi, 1990; Reprint, Delhi, 2002). Translated into Bengali, Hindi, Telugu, Kannada, Urdu and Marathi (two volumes).
Perspectives in Social and Economic History of Early India, paperback edn., (Munshiram Manoharlal, Delhi, 2003). Translated into Hindi, Russian and Bengali. Gujrati, Kannada, Malayalam, Marathi, Tamil and Telugu translations projected.
Material Culture and Social Formations in Ancient India, (Macmillan Publishers, Delhi, 1985). Translated into Hindi, Russian and Bengali. Gujrati, Kannada, Malayalam, Marathi, Tamil and Telugu translations projected.
Urban Decay in India (c.300-1000), (Munshiram Manoharlal, Delhi, 1987). Translated into Hindi and Bengali.
Advent of the Aryans in India (Manohar Publishers, Delhi, 2003)
Early Medieval Indian Society: A Study in Feudalisation (Orient Longman Publishers Pvt. Ltd., Delhi, 2003)
Higher Education, ISBN 8171693202.
Looking for the Aryans, (Orient Longman, Madras, 1995, ISBN 8125006311).
India's Ancient Past, (Oxford University Press, 2005, ISBN 978-0195687859).
Indian Feudalism (Macmillan Publishers India Ltd., 3rd Revised Edition, Delhi, 2005).
The State and Varna Formations in the Mid-Ganga Plains: An Ethnoarchaeological View (New Delhi, Manohar, 1996).
Origin of the State in India (Dept. of History, University of Bombay, 1989)
Land Revenue in India: Historical Studies, Motilal Banarsidass, Delhi, 1971.
Light on Early Indian Society and Economy, Manaktala, Bombay, 1966.
Survey of Research in Economic and Social History of India: a project sponsored by Indian Council of Social Science Research, Ajanta Publishers, 1986.
Communal History and Rama's Ayodhya, People's Publishing House (PPH), 2nd Revised Edition, September, 1999, Delhi. Translated into Bengali, Hindi, Kannada, Tamil, Telugu and Urdu. Two versions in Bengali.
Social Changes in Early Medieval India (Circa A.D.500-1200), People's Publishing House, Delhi.
In Defence of "Ancient India", People's Publishing House, Delhi.
Rahul Sankrityayan and Social Change, Indian History Congress, 1993.
Indo-European languages and historical problems (Symposia papers), Indian History Congress, 1994.
Some economic aspects of the caste system in ancient India, Patna, 1952.
Ancient India, a Textbook for Class XI, National Council of Educational Research and Training, 1980. Translated into Bengali, Hindi, Japanese, Korean, Kannada, Tamil, Telugu and Urdu. Italian and German translations projected. Revised and enlarged book as India's Ancient Past, (Oxford University Press, 2005, ISBN 978-0195687859).
Transition from antiquity to the Middle Ages in India (K. P. Jayaswal memorial lecture series), Kashi Prasad Jayaswal Research Institute, Patna, 1992.
A Comprehensive History of India: Volume Four, Part I: the Colas, Calukyas and Rajputs (Ad 985-1206), sponsored by Indian History Congress, People's Publishing House, 1992, Delhi.

Books to be released
Rethinking India's Past, (Oxford University Press, 2009, ISBN 978-0195697872).

Select bibliography of works in Hindi
Vishva Itihaas ki Bhumika, Patna, 1951-52.
Bharatiya Samantvaad, Rajkamal Prakashan, Delhi.
Prachin Bharat Mein Rajnitik Vichar Evam Sansthayen, Rajkamal Prakashan, Delhi.
Prachin Bharat Mein Bhautik Pragati Evam Samajik Sanrachnayen, Rajkamal Prakashan, Delhi.
Shudron Ka Prachin Itihaas, Rajkamal Prakashan, Delhi.
Bharat Ke prachin Nagaron Ka Patan, Rajkamal Prakashan, Delhi.
Purva Madhyakalin Bharat ka Samanti Samaj aur Sanskriti, Rajkamal Prakashan, Delhi.
Prarambhik Bharat ka Parichay, Orient Blackswan, Delhi, 2004, ISBN 978-81-250-2651-8.
उनकी पुस्‍तकों को भारत व यूरोप के प्रमुख भाषाओं में अनुवाद किया गया ।यद्यपि हिंदी में लेखन को उन्‍होंने वरीयता नहीं दी ,तथापि उनके हिंदी के अनुदित पुस्‍तकों में उनके द्वारा हिंदी में मौलिक रूप से अलग अध्‍याय लिखा गया तथा अनुवाद का भी गंभीरता से पर्यवेक्षण किया गया ।इस तरह हिंदी के भी वे निर्विवाद रूप से सर्वश्रेष्‍ठ इतिहास लेखक हैं ।हिंदी में मौलिक रूप से राम विलास शर्मा ने ऋग्‍वेद एवं आर्यों पर लिखने का प्रयास किया ,पर उनके लेखन की गंभीर सीमा है ।
हिंदी साहित्‍य संसार की ओर से महान इतिहासकार को श्रद्धांजलि ।

Thursday 18 August, 2011

भ्रष्‍टाचार के विभिन्‍न मॉडल

भ्रष्‍टाचार के विभिन्‍न मॉडल
ब्राहमणवादी- राजा ,ब्राहमण,गुरू के पास खाली नहीं आते ।
ठाकुरवादी-तलवार ,सिंह,मुरेठा ,जिससे भी डरना हो डरो व जेब खाली करो ।
वणिकवादी जानते हैं बूंद और समुद्र की पारस्‍परिकता
कायस्‍थों ने कलम की नोंक से जमीन मुकुट जनमाया है
दोगे या लेंगे यादव
दलित मॉडल कहता है कि सबको दिये तो अच्‍छा था
अब मुझको देते क्‍या फट रही तुम्‍हारी ।

Wednesday 17 August, 2011

जन आंदोलन की रणनीति :गांधी और अन्‍ना

गांधीवादी रणनीति आमतौर पर नरम राष्‍ट्रवादी दौर में विकसित रणनीति ही थी ।परोक्ष या अपरोक्ष जैसे भी हो इसमें ग्राम्शियन तकनीकों का ही उपयोग किया गया था ।इसमें जनता और नेता का सुविचारित कार्यभाग था ।ग्राम्‍शी ने नेतृत्‍व को मुख्‍यालय या निर्देशक केन्‍द्र कहा ।अर्थात नेताओं को जनता की चेतना ,उसकी सामाजिक स्थिति के प्रति सजग रहना पडता है ।इसके साथ ही नेताओं को जगाना एवं शिक्षित भी करना पडता है ।इस प्रकार नेता एवं जनता की एक द्वन्‍द्वात्‍मक भूमिका विकसित होती है ।गांधी ने भारत जैसे बहुसांस्‍कृतिक एवं पिछडे देश में मुख्‍यालय की भूमिका को सही तरह से समझा ।मुख्‍यालय की प्रभावी भूमिका के बिना जनअसंतोष को सही रूप नहीं दिया जा सकता है ।
मुख्‍यालय की इस प्रभावी भूमिका के साथ ही गांधी जी को इस तथ्‍य का पता था कि बिना राष्‍ट्रीय आकांक्षा के कोई आंदोलन सफल नहीं हो सकता है ।अत: उन्‍होंने जनता की संधर्षशीलता ,उसकी निर्भयता ,आत्‍मत्‍याग की भावना ,साहस तथा नैतिक शक्ति का रणनीतिक दोहन किया ।उन्‍होंने इस चीज पर सर्वाधिक बल दिया कि जनता कब आंदोलन के लिए तैयार है और कब नहीं ।वे जनता के आंदोलन करने व संधर्ष करने की असीम शक्ति में विश्‍वास नहीं करते थे ,उनका स्‍पष्‍ट मानना था कि जनता में संघर्ष करने की असीमित शक्ति नहीं होती ।अत:आंदोलन के प्रारंभ करने के साथ ही समाप्‍त करने के लिए भी सही समय का चयन किया जाना चाहिए ।गांधी का 'संधर्ष विराम संधर्ष'सूत्र इन्‍हीं अचूक तर्कों पर आधारित था ।अत: उन्‍होंने 1920 एवं 1930 में प्रारंभ आंदोलन को आलोचना की चिंता किए बगैर अपने ढंग से व अपने समय से समाप्‍त किया ।
अन्‍ना का भी आंदोलन संभवत: सुविचारित है ।15 अगस्‍त के एक दिन बाद का समय वैसे भी राष्‍ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत होता है ।मीडिया ,बुद्धिजीवियों तथा सिविल सोसाइटी की ईमानदारी के रास्‍ते से अन्‍ना लोगों के बीच ही नहीं हैं वे लोगों की भावनाओं से भी अवगत हैं ।केजरीवाल ,किरण बेदी ,प्रशांत भूषण जैसे विलक्षण मस्तिष्‍क इस आंदोलन को नई दिशा दे रहे हैं ।गांधीवादी रणनीति का आधार इस आंदोलन के फैलने और सफल होने का सूचक है ।






















































































Sunday 14 August, 2011

शम्‍मीकपूर से मेरी भेंट


शम्‍मीकपूर से मेरी भेंट अगस्‍त 1989 में किसी दिन पटना के अशोक सिनेमा हॉल में हुई ।मेरे पिता व भाई मुझे डॉक्‍टर बनाना चाहते थे व कोचिंग के लिए पटना लाए थे ।एक कोचिंग संस्‍थान में मेरा एडमिशन कराने के बाद उन्‍होंने नजदीक के ही एक गंदे से कमरे में मुझे ठहराया व समस्‍तीपुर के लिए निकल गए ।घर उसी दिन पहुंचने की धुन में उन्‍होंने जल्‍दी जल्‍दी आर्शीवाद व रूपए दिए व बस स्‍टैंड की तरफ लौट गए ।उनके घर से निकलते ही मैं गांधी मैदान की तरफ लौटा व फिल्‍मों का पोस्‍टर देखने लगा ।मैंने सोचना नहीं चाहा कि मैं यहां पढने आया हूं तथा इस अंदेशे पर भी विचार नहीं किया कि कहीं पिता न लौट जाएं ।एक ठेले वाले ने बताया कि अशोक सिनेमा स्‍टेशन के पास है व मैं तुरत रिक्‍शे पर बैठ निकल गया 'कश्‍मीर की कली'देखने ।घर के पारंपरिक अनुशासन व संस्‍कार का यह बहुत ही सहज अतिक्रमण था ।उन दिनों मैं मारपीट व हिंसा वाले फिल्‍मों में रूचि लेता था ,परंतु उस दिन हमें एक नए नायक से भेंट हुई ।प्रेम व साहस से लवरेज ।परंपरा के प्रति लापरवाह व आधुनिकता के प्रति उन्‍मुख ।उचक्‍का ,लोफर ,प्रेमी ,आवारापन का हिप्‍पी भारतीय प्रतिनिधि ।उसकी अदाओं व शोखिओं ने हिंदी फिल्‍म को एक नया मोड दिया ।ऐसा मोड जिससे आज भी प्रत्‍येक अभिनेता गुजरना चाहता है ।मुहम्‍मद रफी उनकी आवाज बन गए तो रफी को भी उन्‍होंने एक हंसमुख मुखौटा दिया ।मुहम्‍मद रफी इसी चेहरे की बदौलत किशोर युग के चिल्‍लाहट व शोखियों में भी प्रासंगिेक बने रहे ।
इस वजनदार अभिनेता को हिंदी साहित्‍य संसार की विनम्र श्रद्धांजलि ।

Monday 1 August, 2011


श्‍याम बिहारी श्‍यामल हमारी पीढी के महत्‍वपूर्ण उपन्‍यासकार हैं ।धपेल ,अगिनपुरूष जैसे उपन्‍यास तथा चनाचबेना गंगाजल जैसे कहानियों के द्वारा वे हमारे दिल में हैं ।अभी वे कथा नामक उपन्‍यास को पूरा कर रहे हैं ।कथानक है छायावाद के अमर कवि जयशंकर प्रसाद ।प्रसाद जी के साथ ही उनका युग ,उनका व्‍यक्तिगत संघर्ष हमारे सामने है ।प्रसाद के साथ निराला,प्रेमचंद,केशवप्रसाद मिश्र जैसे समकालीनों का संबंध का सम्‍यक निर्वाह करना कथा की सर्जनात्‍मक चुनौती है ।श्‍यामल जी यदि मोहन राकेश की तरह कालिदास या हजारी प्रसाद द्विवेदी की तरह वाणभटट पर लिखते तो उपन्‍यास या नाटक की समस्‍या कुछ और होती ,क्‍योंकि ये प्रसंग हमारे सुदूर अतीत के है।उस समय का इतिहास ,गल्‍प और मिथक अफवाहों के रास्‍ते सच और झूठ से इतना मिल चुका है कि लेखक अपनी विश्‍वसनीयता को बनाए रखकर जो चाहे लिख ले ।इसीलिए मोहन राकेश या द्विवेदी जी को इतिहास से कोई चुनौती नहीं मिलती है ।श्‍याम बिहारी श्‍यामल के लिए रास्‍ता इतना सरल नही है वह उस अतीत के बारे में लिख रहे हैं जिसकी परछाई अभी भी हमारे अनुभव व संस्‍कारों पर है ।छायावाद के संस्‍कार अभी भी हिंदी साहित्‍य से पूरी तरह नहीं मिटा है तथा उसके कवियों एवं तत्‍कालीन आलोचकों के बारे में भी काफी जानकारी हमारी पीढी को है ।अतएव श्‍यामल जी को इस सच से आगे जाते हुए गल्‍प की मर्यादा का भी निर्वाह करना है ।सच को लिखना सरल है लालित्‍य को लाना काफी कठिन ।वह लालित्‍य जो प्रसाद का ही नहीं हम तक भी संप्रेषणीय हो ।अत: कथा को सर्वाधिक चुनौती भाषा के स्‍तर पर ही है ।नयी कहानी के युग से ही हिंदी गद्य ने छायावाद के भावुकता को त्‍यागते हुए नयी भाषा गढी ।सत्‍तरोत्‍तरी में भाषा ने उत्‍तर आधुनिकता का चोला धारण किया और इस स्‍तर पर साहित्यिक भाषा व समाज में प्रयुक्‍त भाषा का द्वैध मिट गया ।इसी शक्ति के आधार पर काशीनाथ सिंह काशी के अस्‍सी में 'भोंसडी के 'का शंखनाद करते हैं ।श्‍यामल जी भी कथा की भाषा में छायावाद और आज की भाषा में समन्‍वय के लिए यदि कोई शिल्‍प लाते हैं तो यह हमारे समय की उपलब्धि होगी ।
श्‍यामबिहारी श्‍यामल लिखित 'कथा' का एक अंश

रायकृष्‍ण दास लम्बी अनुपस्थिति के बाद मसूरी से काशी लौटे। शाम में नारियल बाजार आये तो जयश्‍ांकर प्रसाद खिल उठे। दोनों गले मिले। दास उन्हें एकटक ताकते रहे। प्रसाद मुस्कुराये, ‘‘ मित्र, तुम तो ऐसे गायब हो गये थे जैसे पिछले दिनों मेरे जीवन से सुख-शांति और चैन! इस दौरान मैं कितने-कितने झंझावातों से गुजरा, कितनी त्रासदियों का शिकार बना, यह सब मैं ही जानता हूं... इधर मेरी दैनंदिनी जब पटरी पर लौट गयी तभी तुम प्रकट हो रहे हो... क्या तुम केवल सुख के साथी हो ? ’’
दास कुछ बोलते इससे पहले पीछे से आचार्य केशव प्रसाद मिश्र की वाणी हवा पर तैरने लगी, ‘‘प्रसाद जी, आपका दृष्टिकोण ऐसा प्रकट होगा तब तो बहुत अनिष्‍ट हो जायेगा... क्या आप भी अब अंधविश्‍वास का शिकार होने लगे? ...दास जी आपके सुख ही नहीं दुःखों के भी विरल सहभागी हैं, आखिर यह आपके सखा जो हैं... अनन्य ! ’’
प्रसाद पीछे मुड़े। दास भी सामने ताकने लगे। अभिवादनी मुस्कान के साथ हाथ जोड़े हुए आचार्य मिश्र समीप आ गये, ‘‘ ऐसा भी तो हो सकता है कि यह आपके लिए सुख-शांति और चैन की ही प्रतीक-प्रतिमा हों... जब तक वह काशी में रहते हैं आपका भला ही भला होता चलता है लेकिन ज्योंही कहीं खिसके आपकी परेशानी शुरू...’’
दास खिल उठे। प्रसाद हंसे, ‘‘ पण्डित जी, आप तो सब जानते हैं! यहां हुआ तो ऐसी ही कुछ है... वैसे मैंने अभी यों ही कुछ कह दिया... इसे मैं मानूंगा संयोग ही...’’
आचार्य मिश्र निकट आ गये, ‘‘ मैं भी सब समझता हुआ यों ही आदतन बीच में टपक पड़ा हूं... आपलोग क्षमा करें.. मुझे अंदाजा है, दास जी आपके हृदय-तंत्र हैं, उनके पास होने भर से आपका सब कुछ जीवंत रहता है... मन भी और अनुभूति-स्रोत भी.. ’’
प्रसाद ने लपककर उनके दोनों हाथों को ससम्मान थाम लिया। आचार्य मिश्र अब दास की ओर उन्मुख हुए, ‘‘ कृष्‍ण जी, सचमुच आपकी कमी यहां हम सबको अखरती रही... आपके होने मात्र से प्रसाद जी को बहुत मानसिक बल मिलता रहता है... अभी जब लगातार कई महीने आप काशी से बाहर रहे, प्रसाद जी को अपने जीवन के एक ऐसे त्रासद दौर से गुजरना पड़ा जिसे देखकर हमलोगों का कलेजा तक दहल कर रह गया... पत्नी सरस्वती देवी का प्रसूति-रोग से निधन और इसके कुछ ही देर बाद नवजात पुत्र भी चल बसा... इसके बाद तो इनका जैसे जीवन से ही नेह-मोह टूट गया... आप तो समझ ही रहे हैं, दो साल के भीतर दूसरी बार इन पर पत्नी-शोक का यह आघात हुआ था... इनका धैर्य-संतुलन पूरी तरह डगमगा गया ...इन्होंने घर-बार छोड़ दिया और चुपचाप निकल पड़े, संन्यासी हो गये... एकदम लापता... लेकिन प्रणम्य हैं भाभीश्री लखरानी देवी... उनका साहस-बल अद्भुत साबित हुआ... उनकी स्नेह-शक्ति ने लगभग असम्भव को सर्वथा सम्भव बना दिया... उन्होंने प्रसाद जी जैसे हिमालय को ढह-बिखर और विलीन हो चुकने के बाद कण-कण बीनकर दुबारा पूर्व-रूप में खड़ा कर दिया! इन्होंने दूसरी पत्नी व नवजात के निधन के बाद कहां गृहस्थ-जीवन को ही नकार दिया था किंतु भाभीश्री ने अन्तर्धान हो चुके इन महाशय को संसार खंगालकर खोज निकाला... इन्हें अष्‍टभुजी पर्वत से वापस बुलवाया... बड़ी कुशलता से न केवल इनका जटिल संन्यास-हठ भंग करवाया बल्कि इनकी इच्छा के विरुद्ध तीसरी शादी भी रचवा डाली! इस दौरान इनकी क्या दशा होती रही, इसका अनुमान आप लगा सकते हैं... ऐसे में इन्हें आपकी कैसी प्रबल आवश्‍यकता महसूस होती रही होगी, यह हमलोग भी भली-भांति समझ रहे हैं... यह सच है कि इन्हें आपसे जो मानसिक सम्बल मिल सकता है, वह किसी भी दूसरे व्यक्ति से सम्भव ही नहीं...’’
सिर नीचे किये प्रसाद भाव-मग्न। अपने दारुण व्यतीत से उलझते-सुलझते रहे। दास गम्भीर मुख-मुद्रा के साथ आचार्य मिश्र की ओर ताकते रहे। वे कहते चले जा रहे हैं, ‘‘...सौभाग्यवश आप इनके अनन्य मित्र हैं... सम्बन्धों के समग्र संजाल-संसार में सच्ची मित्रता ही एक ऐसा ठौर है जहां किसी भी स्वार्थ के लिए कोई स्थान नहीं होता... हृदय से सम्बद्ध सच्चा मित्र सिर्फ और सिर्फ शुभाकांक्षी होता है! भाई के न रहने पर तो दूसरे भाइयों का हिस्सा बढ़ जाता है, तमाम परिजन तक लाभ और हानि का हिसाब लगाने बैठ जाते हैं जबकि ऐसे क्षण में मित्र को सिर्फ और सिर्फ क्षति उठानी पड़ती है...’’
दास बीते कुछ महीनों के दौरान की अपनी भाग-दौड़ का पूरा विवरण देने लगे। उन्होंने इस क्रम में यह भी जता दिया कि वे प्रसाद पर टूटे विपत्ति के पहाड़ से सूत्र रूप में अवगत हो चुके हैं। तीनों देर तक बैठे सुख-दुःख बतियाते रहे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल टहलते हुए आये तो सबने स्वागत किया। सभी चुप। पहले से चल रही चर्चा बंद। माहौल अचानक बदल-सा गया। बैठते हुए आचार्य शुक्ल ने टोंका, ‘‘ क्यों भई, मेरे आते ही आप सभी चुप हो गये! बात क्या है ? आपलोग पहले से ऐसे ही मूर्ति बने बैठे हैं या मुझे देखकर अचानक काठ हो गये?’’
सभी आसपास जम गये। आचार्य मिश्र हंसे, ‘‘ कहीं आपको ऐसा तो नहीं लग रहा कि आपके आने से पहले यहां आपकी ही कोई अप्रिय चर्चा चल रही थी ? ’’
‘‘ मुझ पर ऐसा सोचने का संदेह ही किया जाना नितांत अप्रिय व्यवहार है...’’
‘‘ ऐसा संदेह कर कि हमलोग यहां आपकी निंदा-भर्त्सना भी कर रहे हो सकते हैं, अप्रिय व्यवहार तो आप कर रहे हैं महाशय! ...’’ आचार्य मिश्र हंसे, ‘‘ यों भी आप कोई कल्पना- अल्पना गढ़ने-सजाने वाले कोई सामान्य साहित्यकार तो हैं नहीं! आप तो हैं साहित्य के इतिहासकार! कहना न होगा कि इतिहासकार का काम संदेह नहीं बल्कि अनुसंधान करना है! ’’
आचार्य शुक्ल की चुटकी भर मूंछों के नीचे नुकीली मुस्कान चमकी, ‘‘ चलिये, अब इस अनौपचारिक टीका-टिप्पणी का मंथन रोक दें... अन्यथा... ’’
‘‘ अन्यथा ? आचार्यप्रवर, हमें आप धमकी दे रहे हैं क्या?... कहीं ऐसा तो नहीं कि कुद्ध होकर आप हमें इतिहास के गलियारे से धकेलकर बाहर भी फेंक दे सकते हैं?’’ पूरी गम्भीरता से की जा रही चुहल में भी हास्य-भाव मिठास की तरह घुला-मिला हुआ।
आचार्य शुक्ल हंसने लगे। उठे, ‘‘ ऐसा है मिश्र जी, मैं अभी घाट की ओर निकलना चाह रहा हूं... घूमने का मन है... ’’
प्रसाद ने स्मरण कराया, ‘‘ अब से कुछ ही अंतराल बाद तुलसीघाट पर नाग नथय्या का कार्यक्रम प्रस्तावित है... यह तो देखने लायक आयोजन होता है... ’’
‘‘...तो क्यों न, हम सभी उठकर वहीं चले चलें...’’ आचार्य मिश्र के स्वर में आग्रह।
‘‘...हां.. हां...! चलना चाहिए...’’ प्रसाद सहमति जताते उठ खड़े हुए। उनका संकेत पा दुकान में काम में जुटा जीतन लपककर पास आ गया। उन्होंने हाथ हिला-हिलाकर धीमे-धीमे उसे कुछ समझाया। निर्देश प्राप्तकर वह यथास्थान लौट गया। प्रसाद पीछे मुड़े तो आचार्यद्वय आगे बढ़ने लगे। बतियाते हुए तीनों बाहर आ गये। आचार्य शुक्ल ने प्रसाद की ओर देखा, ‘‘ आपने तो मेरा सारा कार्यक्रम ही उलट दिया! मैं तो अभी टहलना चाह रहा था... पर, चलिये नागनथय्या ही देखा जाये...’’
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नारियल बाजार की गली से निकलकर तीनों चौक की मुख्य सड़क पर आ गये हैं। समुद्र की लहरों की तरह उमड़ रही भीड़ बुना नाला-बांस फाटक होते गोदौलिया की ओर बढ़ रही है। आचार्य मिश्र ने टोंका, ‘‘...क्यों, आचार्यप्रवर! यहां से गोदौलिया होते हुए घाट तक आना-जाना क्या टहलने में शामिल नहीं हो सकता! ’’
‘‘ यह उमड़ता हुआ जनसैलाब देख रहे हैं न! अभी जब घाट पर पहुंचेंगे तो बात समझ में आ जायेगी... वहां तो तिल धरने की भी जगह नहीं मिलेगी... तो ऐसी भीड़ में धक्का खाते या धकियाते हुए चलना वस्तुतः ‘टकराने जैसा कुछ’ भले मान लिया जाये, इसे मैं ‘टहलना’ कदापि नहीं मानूंगा! ’’ चश्‍मे के गोल शीशे के पीछे आचार्य शुक्ल की फैली हुई आंखों का व्यंग्य तेज चमका। बिचके होठों के ऊपर अधकट गुच्छ की खास हरकत से भी ऐसे ही भाव। स्वर में निर्णायक दृढ़ता, ‘‘...भई, ऐसा है कि मैं टहलना उसे ही मानता हूं जिसमें शरीर के साथ ही मन और बुद्धि को भी भरपूर उड़ान-सुख मिले व स्वतंत्रता का स्वाद भी... यह क्या कि धक्का खाते-खिलाते कराहते हुए यहां से वहां और वहां से यहां उधियाते फिरते रह जायें... ’’
आचार्य मिश्र ने चुटकी ली, ‘‘ असल में वृति से प्रवृति बनती है और प्रवृति से कृति को आकार मिलता है... उसी तरह कभी-कभी यह क्रम उलटकर भी साकार हो सकता है...’’ सड़क पर बहती भीड़ की उफनती धारा। तीनों जैसे तैर रहे हों! उन्होंने अपनी बात जारी रखी, ‘‘ मैं आज यह अनुभूत कर रहा हूं कि आपकी दृष्टि में इतिहास-वृति बहुत गहरे धंसती चली जा रही है! जिस तरह इतिहास की गाथा में सामान्य पात्रों के प्रति न कोई जिज्ञासा होती है और न ही लगाव का कोई भाव, उसी तरह आपकी जीवन-दृष्टि भी एकांगी होती चली जा रही है... भीड़ और कोलाहल के प्रति आवश्‍यकता से अधिक दुराव! ’’
आचार्य शुक्ल ने हंसकर ताका। आचार्य मिश्र बोलते रहे, ‘‘ पंडित जी, समूह और भीड़ से छिनगा-छिनगाकर इतिहास-पुरुष तो तलाशे-तराशे जा सकते हैं, किंतु इस तरह जीवन से सांगोपांग नहीं हुआ जा सकता! सहज-समरस और बहुरंग-बहुरूप जीवन का आकार ऐसे भला कैसे आकार पा सकता है! समाज है तो उसका अपना रूप-स्वरूप भी है-- जन-बहुल, भाव- बहुल और परिस्थिति संकुल... उसके अपने भिन्न-अभिन्न रंग-ढंग हैं... शीत-ताप-जल का विपर्यय-समन्वय न हो तो ऋतुओं का अस्तित्व स्थापित होना असम्भव हो जाये... धूप-छाया और प्रकाश-अंधकार के विरोधाभास-विनिमय से ही तो दिन-रात के चक्र आकार ले पाते हैं... कम से कम अपनी इस काशी नगरी में तो ऐसे क्षण अक्सर सामने प्रस्तुत होते रहते हैं जब एक ओर से ‘ राम-नाम सत्य है ’ बोलती आ रही शव-यात्रा और दूसरी तरफ से धूम-धड़ाका मचाते जाती कोई बारात एकदम पास से गुजरने लगती है... उसी तरह अक्सर दारुण दुःख में डूबे किसी घर के पड़ोस में ही सर्वथा विपरीत स्थितियां भी दिख जाती हैं... ऐन विलाप-संताप की छाया के निकट ही उत्सव के उमंग-उल्लास का खिला हुआ रंग... जाने-अनजाने सब पर सबकी दृश्टि भी जाना तय है... मैं मानता हूं कि दृष्टि-संस्पर्श भी एक सम्पूर्ण सम्बन्ध-निर्मिति है और एक हद तक उसमें ‘सम्मिलिति’ भी... क्योंकि दृष्टि-सम्पर्क मात्र से पल भर में मानसिक ही नहीं हार्दिक और आत्मिक भाव-विनिमय भी पूर्णतः घटित हो चुका होता है... लेकिन क्या कोई लाख चाहकर भी अपनी तात्कालिक मनोदशा के मद्देनजर पड़ोस के उस ‘प्रतिकूल’ को अपने मानस पटल या सामने से अनुपस्थित कर सकता है ?... कदापि नहीं!... इसलिए जो अनिवार्य विवशताएं हैं उनके प्रति ऐसा आक्रामक दुराव कोई बुद्धिमानी की बात कदापि नहीं... इसे विराट जीवन-जगत के समग्र रंग के रूप में ही ग्रहण किया जाना चाहिए... इसलिए ऐसी भीड़, ऐसे समूह और कोलाहलों से घृणा तो कदापि नहीं की जा सकती... ’’ बात पूरी कर उन्होंने ध्यान से ताका। आचार्य शुक्ल कुछ यों मुस्कुराये, गोया वे कही गयी बात से तो सहमत हों किंतु अपने दृष्टिकोण को गलत समझ लिये जाने से आहत भी कम नहीं।
तीनों भीड़ की लहरों पर जैसे तैरते हुए बढ़ते रहे। स्त्री-बच्चों समेत परिवारों के गुच्छ के गुच्छ। गांव-कस्बों के असंख्य छोटे-बड़े दोस्ताना-याराना से लेकर उस्तादाना- शागिर्दाना अंदाजों वाले गोल-समूह। रेंगता हुआ रेला। अगनित चमकती आंखों से छलकती अबाध रंग-बिरंगी जिज्ञासा और विभोर कर देने वाला अथाह उत्सवी उत्साह। आपस में बोलते-बतियाते, हंसते-मुस्कुराते और कहकहे लगाते बढ़ते हुए लोग।
ज्ञानवापी के पास से गुजरते हुए भीड़ की सघनता बढ़ती हुई लगी। प्रसाद ने धीमे टिप्पणी की, ‘‘ काशी के लोग कितने उत्सवधर्मी और कैसे अखण्ड जिज्ञासु हैं, यह ऐसे हर आयोजन-प्रयोजन पर मैं बहुत गहराई से अनुभूत करता हूं... वह चाहे चेतगंज की विख्यात ‘नक्कटैया’ हो या नाटी इमली का प्रसिद्ध ‘भरत-मिलाप’, रामनगर की विश्रुत ‘भोर की आरती’ अथवा यह नामी ‘नागनथय्या’... काशी के इन चार सालाना लक्खिया मेला-अवसरों के अलावा अन्य किसी छोटे-मोटे पर्व-त्योहार के मौकों पर भी यहां की सड़कों पर उमड़ने वाली भीड़ देखने लायक होती है... हर बार नयी जिज्ञासा और ताजे उत्साह से भरी हुई!... इससे हर बार यही अनुभव होता है कि सचमुच यह नगर असाधारण है!...’’
आचार्य शुक्ल ने सहमति जतायी, ‘‘ ठीक कहते हैं आप! काशी-वासियों का हृदय तो वस्तुतः जिज्ञासा और उत्साह का ही अजस्र स्रोत है! हर बार ताजा-ताजा उत्साह और कोमल-कोमल जिज्ञासा शुद्ध-शीतल जल की तरह धाराप्रवाह फूटते रहते हैं! इन्हें देखकर मन सर्वथा नवीकृत हो उठता है... ’’
आचार्य मिश्र की वाणी मिठास से भर गयी, ‘‘ काषी की गंगा ही वस्तुतः काशी-वासियों के मन में भी प्रवाहित होती रहती हैं इसलिए उनमें आने वाला प्रत्येक मनोभाव प्रायः शुद्ध-प्रबुद्ध और नया-नया-सा होता है... ’’
घाट पर गंगा के समानांतर जैसे जनसमुद्र ठाठें मार रहा हो। सीढ़ियों पर पांव बढ़ाते ही बगल से तेज पुकार कान में घुसी, ‘‘ भाई प्रसाद जी...!!... प्रसाद जी...!!! ’’
रुककर इधर-उधर ताका प्रसाद ने। कुछ कदम पीछे आचार्यद्वय भी रुक गये। हांक का सुराग लेने लगे।
हांक फिर गूंजी, ‘‘ ...मैं इधर हूं मित्र! इधर... ’’
प्रसाद ने बायीं ओर भीड़ में दृष्टि गड़ायी। दिख गये- हाथ उठाये प्रेमचन्द। भीड़ में फंसे-से किंतु चुटकी-भर मूंछों में मंद-मंद मुस्कान सहेजे-समेटे हुए। धीरे-धीरे सरकते आते हुए, ‘‘ आपको मेरी आवाज पहचान में नहीं आयी क्या ? ’’ उनके पीछे-पीछे कृष्‍णदेव प्रसाद गौड़ भी। प्रसाद मुस्कुराये, ‘‘ ठहाके तो आपने खूब सुनाये हैं किंतु इतनी तेज आवाज में हंकाते हुए पहले कहां कभी आपको सुन सका था! ...ऐसा सोचा भी नहीं था कि आपको कभी ऐसे पुकारते हुए सुनूंगा... इसलिए... ’’ पीछे से आचार्यद्वय भी आ गये। चारों ओर से भीड़ की आती-टकराती तरंगों के बीच आपस में अभिवादन-विनिमय। आचार्य शुक्ल ने साभिप्राय मुस्कुराकर प्रेमचन्द की ओर ताका, ‘‘...आवाज तो मैं भी आपकी नहीं पहचान सका... आपकी हांक भी इस शोर-कोलाहल का ही अंग बनी हुई थी न! यही तो बात है कि बनारस के चेहरों में आपका चेहरा या शोर में आपकी आवाज सर्वथा समूह-विलीन हैं... कोई निजी अलगपन नहीं! ’’
आचार्य मिश्र एकदम तटस्थ, ‘‘ आपने यहां भी अपना काम शुरू कर दिया क्या ? ’’
आचार्य शुक्ल अचकचाये, ‘‘ तात्पर्य ? ’’ ।
‘‘ वही जो आपका इकलौता व्यसन भी है... रचना का मूल्यांकन और रचनाकार की इतिहासी-तराश! ’’ आचार्य मिश्र ने देर नहीं की।
गौड़ ने संजीदगी से टिप्पणी की, ‘‘ अरे, ई रामचन्दर सुकुल हउवन... हमेशा गर्दने तक चारा टनले रहऽलन... कुछ अइसन कि नींद में रहें तबो जुगाली करत मिल जइहन!‘‘ सभी हंसने लगे। आचार्य शुक्ल भी।
प्रसाद ने सिर को गोल-गोल हिलाना शुरू किया ‘‘ मिश्र जी! आप आचार्यप्रवर पर हमेशा बाण न चलाते रहिये... ’’ आचार्य शुक्ल हंसते जा रहे हैं। प्रसाद ने खास अंदाज में आगे चेताया, ‘‘ आचार्यप्रवर लड़ने नहीं, लड़ाने वाले योद्धा हैं... कहीं ऐसा न हो कि आपको इसका भारी मूल्य चुकाना पड़ जाये... यों भी इतिहासकार से देह नहीं रगड़ते रहना चाहिए... इतिहासकार का प्रतिशोध भी ऐतिहासिक हो सकता है...’’
‘‘ इतना कुछ वही सोचे जिसे इतिहास-पुरुष बनना हो या जिसे स्वयं के भीतर ऐसी कोई सम्भावना दिख रही हो... मैं तो स्वयं को स्थायी रूप से हाशिये का घासिया मानता हूं... कोई इतिहासकार बहुत चाहकर भी जैसे मेरा कुछ भला नहीं कर सकता वैसे ही लाख गुस्साकर भी मेरा क्या बिगाड़ सकता है! ’’ आचार्य मिश्र ने हाथ जोड़ लिये।
आचार्य शुक्ल हंसते हुए प्रसाद की ओर मुखातिब हुए, ‘‘ आपलोग मेरे प्रति इतना बैर भाव क्यों पाले बैठे हैं, मैं समझ नहीं पा रहा! ...आपलोगों को क्या सचमुच मैं इतिहास को तोप की तरह ताने फिरने वाला कोई खूंखार इतिहासकार दिखता हूं ? मनमानी के सारे अवसर तो आप लेखकों के पास हैं... जिसे जब चाहें नहला-धुलाकर नायकत्व दे डालें और जिस पर रंज हों उसे दबोचकर पल भर में खलनायक बना दें... इसके विपरीत इतिहासकार तो बहुत विवश प्राणी है... उपलब्ध साक्ष्य और प्रामाणिक तथ्यों की लक्ष्मण-रेखा से सदा-सदा के लिए घिरा-बंधा हुआ... मनमाना चित्रण कोई इतिहासकार भला कभी कैसे कर सकता है! ’’
‘‘ लक्ष्मण-रेखा कहकर भ्रम न फैलाया जाये कृप्या...’’ गौड़ की संजीदगी देखने लायक, ‘‘ आचार्यप्रवर, आप लक्ष्मण-रेखा के भीतर वाली कोई सजल-सलज विवशता- निश्‍छलता तो कदापि नहीं, बल्कि बाहर वाला अभिनय-दक्ष प्रकाण्ड मुच्छड़ पाण्डित्य अवश्‍य हैं! ’’ सभी हंसने लगे। पास ही खड़े प्रेमचन्द इस समूचे वाणी युद्ध से मुक्त। उनका सारा ध्यान उमड़ते जनसमुदाय पर। प्रसाद ने सबको स्मरण कराया, ‘‘ अब यहां भी हमलोग बतकुच्चन में न फंसे रह जायें... चलिये नीचे उतरा जाये... घाट की ओर बढ़ें हमलोग... ’’
गौड़ टुभके, ‘‘ हमलोग जीव ही ऐसे हैं... अरे, ई तो काशी भर है... स्वर्ग में भी यदि घुसपैठ कर जायें तो वहां भी नरक मचाकर रख दें! ’’
सभी मुस्कुराते हुए सीढ़ियां उतरने लगे। प्रेमचन्द जहां के तहां खोये-खोये से खड़े रहे। आगे बढ़ चुके आचार्य शुक्ल रूककर पीछे मुड़े, ‘‘ मुंशी जी, आइये... आइये... कहां खोये हैं!’’
प्रसाद पीछे लौटे और हाथ पकड़कर प्रेमचन्द को झकझोरा, ‘‘ आइये... भाई साहब! चलेंगे न घाट की ओर... ’’
प्रेमचन्द की तन्द्रा टूट गयी, ‘‘ हां! हां! क्यों नहीं... इसी के लिए तो आया हूं...’’ वे जल्दी-जल्दी डग बढ़ाने लगे। गंगा की ओर से रह-रहकर आते शीतल झोंके कोलाहल व थकान को हर सुवासित ताजगी से भर दे रहे थे किंतु दूसरे ही पल फिर- फिर वही आपस में टकराती हजारों-हजार सांसों से उत्पन्न दमघोंटू कश्‍मकश। भीड़ दोनों ओर से कंधों को जैसे बसुले की तरह छट्-छट् छील रही थी। उनके शब्दों की धार चमकने लगी, ‘‘ मैं सोच रहा हूं कि हमारे आम जीवन में धार्मिक मिथक कितने गहरे धंसे हुए हैं... इतने अधिक कि जनता एकदम जैसे फंतासी में ही तैर रही हो! ’’
सभी साथ-साथ झुण्ड में सीढ़ियां उतरने लगे। आचार्य शुक्ल ने प्रेमचन्द की ओर जवाबी मुस्तैदी से ताका, ‘‘ यह धर्ममग्न समाज है... यही तो इसकी पहचान है... ’’
‘‘ हां! ...बल्कि धर्ममग्न से भी एक कदम आगे कर्मभग्न या भ्रमनग्न समाज कह लीजिये! ’’ सभी चौंक-से गये। प्रेमचंद दृढ़तापूर्वक बोलते चले गये, ‘‘...फंतासी भीषण हमला यही करती है कि हमें अपने समय-सच से तुरंत काटकर रख देती है... आंखों पर पर्दा पड़ जाता है... इसके बाद तो एकदम सामने खड़ी चुनौतियों भी नहीं दिखतीं... जो चीज साफ दिखनी-चुभनी चाहिए वह भाले की तरह सामने तनी होने के बावजूद नहीं सूझती और नंगे भ्रम सुन्दर किंतु सर्वांग झूठे परिधान में सजे मन को फांसने लगते हैं! मुझे तो लगता है कि यही वह स्थिति है जिस कारण आज के उपस्थित बड़े सवाल और संत्रास के हालात भी आम जन को छू तक नहीं पा रहे... अब यही हमारे लिए एक बड़ी चुनौती है कि हम कैसे आम जन को अपने समय और सवाल से जोड़ें! ’’ उनकी संजीदगी ने सबको करीब से छू लिया।
आचार्य मिश्र की धारदार मुस्कान कौंधी, ‘‘ भाई मुंशी जी! धर्म के प्रति आपका यह दृष्टिकोण आयातित है और क्रूर भी... आप यह नहीं भूलें कि वह धर्म ही है जो हारे व हताश जन में आशा और विश्‍वास की दुर्लभ जीवनी-शक्ति का संचार करता है... ’’
प्रेमचन्द की बारीक हंसी का रंग गहरा हो गया, ‘‘ धर्म जहां तक आशा-विश्‍वास जगाये वहां तक तो यह स्वागतेय है किंतु इसके साथ एक यह खतरा गहरे जुड़ा है कि जरा-सी असावधानी पर भी यह भ्रम और अंधविश्‍वास के जहर का उग्र और सर्वग्रासी समुद्र फैला देता है... फिर तो इसमें विलीन हो जाने से बचना सर्वथा असम्भव हो जाता है... नागनथय्या का हर साल उन्मत्त आनन्द लूटने वाला हमारा समाज कहां आज के नागों से मोर्चा लेने को प्रस्तुत हो पा रहा है ? ’’
आचार्य शुक्‍ल कसमसाये, ‘‘ इस पर जमकर बहस हो सकती है, किंतु अभी उचित अवसर और स्थान नहीं है... ’’
‘‘ सही सवालों से टकराने के लिए कोई भी समय और स्थान अनुपयुक्त नहीं है... बशर्ते कि इससे बचने का गैर जिम्मेदाराना रवैया न अपनाया जाये... ’’ प्रेमचन्द का स्वर धीमा किंतु ठोस।
प्रसाद ने निर्णायक दृढ़ता दर्शायी, ‘‘ धर्म का मन में धीमे-धीमे बलना और प्रकाश फैलाना हानिप्रद नहीं किंतु जब यह धधकने लगे और बहुत कुछ स्वाहा करने पर उतारु हो जाये तो सतर्क हो जाना चाहिए... अन्यथा इसके कितने भीषण परिणाम हो सकते हैं, इसे हम एक वाक्य के इस उदाहरण से समझ सकते हैं- अपने यहां बौद्ध धर्म की अहिंसा ने इस राष्‍ट्र के व्यापक हित का कैसा भीषण कत्लेआम किया... देखते ही देखते वीरों की यह भूमि विदेशी आक्रमणकारियों का आसान ग्रास बनकर परतंत्रता के उदरस्त हो गयी! उसी तरह हम दशहरा और दीपावली जैसे अन्याय पर न्याय की पराक्रम से भरी विजय के पर्व-त्योहार तो हर वर्ष मना रहे हैं किंतु समकालीन जीवन में अन्याय के आगे झुके हुए हैं और अपने आनुवांशिक पराक्रम का स्वयं दमन करते चल रहे हैं... ’’
आचार्यद्वय बहुत ध्यान से सुनते और मनन करते रहे। प्रेमचन्द मुस्कुराकर रह गये। वैचारिक संघर्षण ने जैसे भीड़ की धक्का-मुक्की और शोर-कोलाहल को अमान्य कर दिया। पूरी मण्डली के मन में वैचारिक चिनगारियां छिटकती रहीं। आचार्य मिश्र ने जैसे स्वयं को संशोधित किया, ‘‘ हां! यह तो है कि धर्म का अन्तर्मन के स्तर से धार्य होना ही स्वीकार्य होना चाहिए... किंतु यह ज्योंही सार्वजनिक जीवन और समाज को धरने -दबोचने लगे इस पर पुनर्विचार होना चाहिए... ’’
आचार्य शुक्ल मुस्कुराये तो लगा जैसे तीव्र असहमति कौंध गयी हो। प्रसाद ने इसे ताड़ लिया। उन्हें पल भर ध्यान से देखा किंतु कुछ बोले नहीं। प्रेमचन्द ने आचार्य शुक्ल को देखते हुए तेज-तेज सिर हिलाया, ‘‘ गुरु, तोहार हर विचार हिमालये जइसन होला... येके हिलावे के ताकत कौनो भूकंपे या प्रलय में होई तऽ होई... ’’
प्रसाद ने सबको आगे बढ़ने का संकेत दिया। भीड़ से रगड़ खाते सभी हिलने- खिसकने लगे। गौड़ ने आचार्य मिश्र की ओर भौंहें उचकाकर प्रेमचन्द की ओर ताका, ‘‘ अरे गुरु के सब कुछ ऐतिहासिके हौ! भूकम्प या प्रलय, ई जब जे चहियन पैदा कर दीअन! इनकर नाम भले रामचन्द्र हौ... हकीकत में ई धनुषधारी या तिलकधारी नाहीं, गदाधारी और पूंछधारी देवता हउवन! ’’
सहमतिजन्य फिसफिसी सामूहिक हंसी। आचार्य शुक्ल ने दहला मारा, ‘‘ हां! यह ठीक किया... आप सभी ने मिलकर इस बहस पर मजाक से विराम लगा दिया... इसके बाद अब मुझे इस पर कुछ नहीं कहना... ’’
‘‘ असल में आपको किसी भी प्रकार के शुद्ध तर्क से तो हिलाया नहीं जा सकता न! इसकी वजह भी तो है... वह यह कि आपकी असली दवा ही है- मजाक! ‘‘ गौड़ ने सूखा वाक्य कहा और सिर हिलाया।
‘‘ हां... हां...! आपका तात्पर्य मैं ठीक से समझ रहा हूं... आप मेरा मजाक उड़ा रहे हैं...व्यंग्यकार का यही काम ही रह गया है अब...’’ आचार्य शुक्ल ने तीखी दृष्टि घुमायी।
सामने एक चौड़ी पत्थर की चौकी पर ढेर सारे लोग लदे हुए हैं। इसी के किनारे कुछ और लोगों का टेक लेकर बैठना मुमकिन। आचार्य मिश्र ने रुककर यह सम्भावना आंकते हुए सिर हिलाकर ऐसा कुछ संकेत दिया।
प्रेमचन्द ने फौरन इनकार में सिर हिलाया, ‘‘...यहां आसन जमाने की भला क्या आवश्‍यकता! घूमते रहा जाये तो अधिक आनन्द आयेगा...’’ तत्काल अन्य साथियों का ख्याल आते ही उन्होंने अपनी राय में हल्का संशोधन किया, ‘‘...या आपलोग चाहें तो यहीं बैठें... मैं यहीं आसपास ही चहलकदमी करता हूं... ’’
भीड़ में जिज्ञासुओं, दर्शनार्थियों और देशी-विदेशी पर्यटकों का अंतर साफ-साफ समझ में आ रहा है। घाट की पूजन-सामग्री से लेकर भूने हुए बादाम-चना-लाई और सोंधाई छोड़ते समोसे-आलूचाप आदि जैसी खाद्य-सामग्री बेचने वाले तरह-तरह के खोमचेधारी भीड़ को चीरते- धकियाते इधर से उधर दौड़ रहे हैं। रह-रहकर मल्लाहों के झुण्ड आ-आकर नाव पर चलने और नजदीक से नागनथय्या देखने का निमंत्रण दे रहे हैं। ऐसा ही एक मल्लाह पास आ गया। वह बगैर पूछे ही नाव-यात्रा की दर घटा-घटाकर बताने लगा। प्रेमचन्द उसे बहुत ध्यान से देख रहे हैं। आचार्य शुक्ल कभी उन्हें तो कभी मल्लाह को देखते रहे। प्रसाद के डील-डौल को बारीकी से तजबीजते हुए मल्लाह उन्हीं से मुखातिब हो गया, ‘‘ बाऊस्साब! चलाऽ... आवाऽ...! ...तूं सबलोग साथे हउवा नऽ...! ...चल चलाऽ पांच रुपया में पूरा बजड़ा ले चलब! ...खूब आराम से नजदीक से नाग नथय्या देख लऽ... ’’
आचार्य मिश्र ने बगल से उसे लक्ष्य किया, ‘‘...तूं लोग हमन्‍ने के बाहरी आदमी बुझत हउवा काऽ ? हम्मनो बनरसिये हई... ’’ उसने संजीदा प्रतिवाद किया, ‘‘...हम कहां कहत हई कि तूंलोग बनारसी नइखाऽ भइया! ...ई सुंघनी साव हउवन, हम इनहीं के नइखी पहचानत ? ...बनारस में सब कोई त बनरसिये हौ... ’’
प्रसाद हंसे, ‘‘ ठीक हौ! ठीक हौ!... तूं जा दोसर आदमी के देखाऽ... हम सब के इहैं रहेके हौ... बजड़ा से सैर करेके विचार ना हौ... ’’ वह ज्यों ही वहां से खिसका ठीक उसी जगह एक स्त्री-वेशधारी अधेड़ आ गया। सांवला, पतला-दुबला। बदरंग-सी पतली लाल साड़ी कुछ यों पहने गोया बांस में कपड़ा लिपटा-उलझा पड़ा हो। कान में पुराना-सा काला पड़ा बड़ा झुमका। होंठ रंगे हुए और पीले रीबन से गूंथे खिचड़ी बाल। आचार्य शुक्ल उसे बहुत ध्यान से ताके जा रहे थे। उसने आते ही सुर में गाना षुरू कर दिया, ‘‘ जय-जय राधे... राधे-राधे... जय-जय राधे... राधे-राधे...’’
‘‘ श्रीकृष्‍ण को छोड़ काहे जप रहे हो राधे-राधे... काहे भैया काहे-काहे आधे-आधे...? ’’ प्रेमचन्द ने तुरंत उसके गायन में एक वाक्य जोड़ दिया। सभी हंसने लगे। वह अचकचाकर चुप हो गया। आचार्य मिश्र ने बताया, ‘‘ यह हैं रमय्या उर्फ राममूरत जी... श्रीकृष्‍ण-प्रिया राधे जी के अनन्य भक्त! ...साउथ के हैं, बीस-बाइस साल पहले आये थे काशी... दर्शन तो किया बाबा विश्‍वनाथ का किंतु पता नहीं कैसे-क्या हो गया कि राधे जी के भक्त हो गये... तब से राधा-भाव में ही रहते हैं...’’
रमय्या उर्फ राममूरत जी चल रही चर्चा को बाधा से बचाने के लिए बहुत धीमे स्वर में ‘राधे-राधे’ गाते रहे। मुखमण्डल पर स्थिर इत्मीनान किंतु आंखों में थकान की रेखाएं। आचार्य शुक्ल ने टोका, ‘‘ यह सज्जन यदि राधा-भाव में रहते हैं और राधे-राधे जपते हैं तब तो इसका अर्थ यही निकला कि ये भक्त होंगे अंततः श्रीकृष्‍ण के ही... राधे- राधे जपने से श्रीकृष्‍ण ही तो प्रसन्न होंगें... कहा भी गया है कि राधे-राधे बोलो चले आयेंगे बिहारी...’’ रमय्या उर्फ राममूरत जी अब ताली बजा-बजाकर राधे-राधे गाने लगे।
‘‘ श्रीकृष्‍ण ही क्यों, प्रसन्न तो आप भी हो रहे हैं... ’’ गौड़ ने सिर हिलाया। आचार्य शुक्ल झेंप गये। गहरी मुस्कान सबके चेहरों पर रंग गयी। आचार्य मिश्र चुप। थोड़ी ही देर में रमय्या उर्फ राममूरत जी आगे बढ़ गये।
प्रेमचन्द ने संयमित स्‍वर मेंही किंतु ठोस दृढ़ता से टिप्पणी की, ‘‘ यही है फंतासी का हमला... मस्तिष्‍क पर जब ऐसा हमला होने लगता है तो आदमी इसी तरह की हरकत करने लग जाता है... बताइये जरा, क्या इनकी जैसी राधा को देखकर सचमुच स्वर्ग में आज श्रीकृष्‍ण को कोई आनन्द का अनुभव हो रहा होगा ? ’’
सबके चेहरों पर हंसी कौंधी। उनकी गति अबाध बनी रही, ‘‘ ऐसी राधा रानी यदि सचमुच श्रीकृष्‍ण को दिख जायें तो वे कितने क्रुद्ध होंगे, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है... यह भी हो सकता है कि गुस्से में वे पृथ्वी की ओर हमेशा-हमेशा के लिए पीठ ही कर लें!’’

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काशी का तुलसी घाट। बरसात और बाढ़ से उबरी निथरी-निखरी हुई गंगा। नयी-नयी- सी। जल पर नये पत्तों-सी कोमल चमक। तरंगों में नये कण्ठों के आलाप जैसी सुरीली ताजगी। लोगों से भरे सजे-धजे बजड़े और छोटी-मंझोली दर्जनाधिक नावें धाराओं पर गुलजार। सर्वाधिक साज-सज्जा और रंगीन छतरी देखकर यह साफ पता चल जा रहा है कि यही है काशी नरेश का बजड़ा ! तभी एक डेंगी को कुछ लोगों ने आहिस्ते घाट से ठेलकर आगे बढ़ाना शुरू किया। कुछ दूर आगे जाकर यह रोक दी गयी। इससे पानी में कूदकर कुछ नाविकों ने व्यवस्था बनानी शुरू की। देखते ही देखते पांच फणों वाला काला नाग जल के तल से कई हाथ ऊपर झूमने लगा।
‘वृन्दावन बिहारी लाल’ और ‘भगवान कृष्‍ण’ की जय-जयकार ऐसी शुरू हुई कि दिशाकाश गूंज उठा। इस बीच कब छपाक् से एक गेन्द उछली और कैसे शीश पर मुकुट-मोरपंख वाला बालक बांसुरी-वादन मुद्रा में पंचफण पर खड़ा कर दिया गया, यह अधिकतर लोग समझ नहीं पाये। ढोल-नगाड़ों की गड़गड़ाहटों और भीड़ के समवेत जय-जयकार से हवा का कण-कण झंकृत हो उठा। आचार्य शुक्ल, प्रेमचन्द, प्रसाद और आचार्य मिश्र सभी मगन। अपने-अपने ढंग से नागनथय्या देखने में मशगूल। सुसज्जित बजड़ा नाग के फण पर बांसुरीवादन मुद्रा में खड़े श्रीकृष्‍ण-स्वरुप की ओर सरकने लगा। उस पर छतरी के नीचे खड़े हैं महाराज आदित्य नारायण सिंह, हाथ जोड़े। भावमग्न और श्रद्धा-दृष्‍ट‍ि से श्रीकृष्‍ण- स्वरुप को विषेश राग-भाव से निहारते हुए। बजड़ा एकदम ‘नाग’ के निकट आ गया। महाराज ने हाथ जोड़े-जोड़े शीश नवाया और झुककर श्रीकृष्‍ण-स्वरुप को प्रणाम अर्पित किया। जय-जयकार की जैसे आंधी मचलने लगी हो। महाराज ने दायें मुड़कर अपने निकट खड़े एक विशेष पोशाक वाले कर्मी की ओर देखा। उसने अपने हाथ की चमचमाती थाल अदब के साथ आगे बढ़ायी। उन्होंने दोनों हाथ बढ़ाकर थाल से मोती की माला उठा ली। सामने श्रीकृष्‍ण-स्वरुप की ओर उन्‍मुख हुए और पहना दी। ढोल- नगाड़ों का गगनभेदी मंगल-घोष और जय-जयकार। महाराज ने फिर मुड़कर थाल से एक मंझौला चमचमाता भरा हुआ तश्‍तरी जैसा पात्र उठाया और श्रीकृष्‍ण-स्वरुप के समक्ष अर्चना-मुद्रा में अर्पित करने लगे। निकट ही एक छोटी नाव के निचले हिस्से को पकड़े जल में स्थिर आयोजकों में से एक ने सम्मानपूर्वक शीश नवाकर पात्र पकड़ लिया। महाराज ने फिर दोनों हाथ जोड़ आंखें मूंदकर शीश झुकाया। अब सुसज्जित बजड़े को खेते हुए थोड़ा तिरछा काट आगे बढ़ा दिया गया। जय-जयकार और वाद्य-यंत्रों की ध्वनि गूंजती रही।
घाटों पर दूर-दूर तक केवल सिर ही सिर। तमाम भवनों के लदे हुए छत-बारजे मधुमक्खियों के छत्‍तों जैसे। भीड़ में जगह-जगह गुच्छ के गुच्छ चहकते विदेषी स्त्री-पुरुष भी। भीड़ अब ताली बजा-बजाकर भजन गाने में मशगूल। शोर सुरीले समवेत गान में ढल गया। आचार्य शुक्ल ने प्रेमचन्द को लक्ष्य किया, ‘‘ मुंशी जी, देखिये ऐसा केवल काशी में सम्भव है कि सिर्फ कुछ मिनटों की लीला देखने के लिए ऐसी भीड़ यहां हर वर्ष जुटती है... सब कुछ पूर्वज्ञात होने के बावजूद अपार जिज्ञासा- उफान के साथ... सर्वथा नये जोश-उत्साह से भरी हुई ... और यह भी यहीं मुमकिन है कि स्वयं राजा उपस्थित होकर ईश्‍वर के प्रतीक-स्वरुप के समक्ष शीश नवाते हैं और विधिवत् अर्चना करते हैं... ’’
प्रसाद ने मुड़कर दोनों की ओर ताका। प्रेमचन्द हल्के मुस्कुराये। आचार्य मिश्र ने जोड़ा, ‘‘...'रामचरित मानस' का तो व्यापक मंथन हो चुका है और तुलसीदास जी की काव्य-साधना पर भी व्यापक विचार-विमर्श... लेकिन अब मेरा यह मानना है कि नाटक विधा के प्रति उनके इस महान योगदान को भी रेखांकित किया जाना चाहिए... जिस तरह उन्होंने प्रत्येक वर्ष मंचित होने वाली लीला के हर दृष्य के लिए नगर का अलग-अलग स्थान नियत किया और इस तरह सम्पूर्ण काशीनगरी को ही लीला-मंच का रूप दे डाला, उनकी यह संकल्पना अद्भुत रही और यह बहुत सार्थक ढंग से साकार हुई... आज समग्र काशी-भूमि और प्रत्येक काशी-वासी लीला-मग्न हैं! इसे ही कहेंगे संस्कृति और साहित्य का जन-प्रवेश या जन-सामान्यीकरण! ...सबसे बड़ी बात यह कि गोस्वामी जी की यह अवधारणा काशी के लोगों ने आज तक उसी तरह प्रज्ज्वलित बनाये रखी है...’’
‘‘ ...बहुत अच्छी बात! बहुत अच्छी! बहुत सही कहा आपने! ’’ आचार्य षुक्ल गदगद।
‘‘...और यह देखिये... सामने का दृश्‍य कितना आनन्ददायक है... कालिय नाग के पंचमुखी फण पर नृत्य करते बंशीधर बालकृष्‍ण की अलौकिक छवि सामने है, साक्षात!’’
‘‘ सर्वथा मुग्धकारी! ’’ सबने चौंककर देखा, पता नहीं कब से निकट ही आकर खड़े हैं बलदेव प्रसाद मिश्र।
प्रेमचन्द ने मुस्कुराकर धीमे स्वर में टिप्पणी की, ‘‘ सिर्फ मुग्धकारी? या रोमांचकारी भी? ’’
बलदेव ने प्रश्‍नवाचक दृष्टि उठायी। आचार्यद्वय बिना हंसे-मुस्कुराये गम्भीरता से कभी प्रेमचन्द, कभी प्रसाद तो कभी बलदेव की ओर ताके जा रहे हैं। प्रेमचन्द ने बात पूरी की, ‘‘ ...आप यह नहीं देख रहे कि बालकृष्‍ण-स्वरुप में तो खैर एक बालक अभिनय कर ही रहा है, लोहे का यह पांच फणों वाला नाग कितना अधिक वास्तविक लग रहा है! ताजा रंगा इसका काला रंग तो असली कालिय नाग से भी कहीं अधिक डरावना दिख रहा है! एकदम ऐसा कि स्वर्ग यदि सचमुच कहीं हो और वहां से द्वापर-कालीन यह जीव झांक रहा हो तो इसे देख स्वयं वह भी कांप रहा होगा! आखिर इस लौह कालिय नाग का पंचफण असली कालिय नाग के फणों से अधिक ठोस और मजबूत भी तो है... इसकी आंखें ताजा रंगी होने के कारण कितनी अधिक भयावह लग रही है... और यह भी तो है कि द्वापर के नागनथय्या में असली कालिय नाग को चाहे जो कष्‍ट उठाना पड़ा हो, काशी के इस नागनथय्या में लौह कालिय नाग को तो जरा भी कष्‍ट नहीं उठाना पड़ा... इस आधुनिक नागनथय्या में फण पर नृत्य करते हुए बालकृष्‍ण-स्वरुप भी गदगद और लौह-काया की बदौलत किसी भी दर्द व कष्‍ट से मुक्त यह कालिय नाग भी प्रसन्न... ’’
प्रसाद मुस्कुरा रहे हैं। बलदेव तुनक गये, ‘‘ ओऽ... अब समझा! यानी कि मुंशी जी, आप इस पूरे आयोजन-प्रयोजन का मजाक उड़ा रहे हैं! ’’
प्रेमचन्द चुप। प्रसाद ने हस्तक्षेप किया, ‘‘ ऐसा क्या है भला! इसमें कोई मजाक तो नहीं है बलदेव भाई... मुंशी जी जो कुछ कह रहे हैं एक सच यह भी तो है ही...’’ सभी ताकने लगे। बलदेव सजग-संजीदा। वे बोलते चले गये, ‘‘ ऐसा है बलदेव भाई, असली और नकली में गूण-सूत्रों का यह अंतर गहन अर्थगर्भी है... फर्क सिर्फ यही कि इसे कौन किस दृष्टि से ग्रहण कर रहा है... अब जैसे फूलों का एक उदाहरण मैं यहां देता हूं... प्रयोग के तौर पर आप एक पुष्‍प डाल से तोड़ लाइये और एक फूल कागज का ले लीजिये... दोनों को एक साथ कहीं रख दीजिये... दूसरे दिन दोनों का एक साथ निरीक्षण कर लीजिये... असली वाला गल-मुरझाकर मुर्द्रा हो चुका होगा जबकि कागज वाला यानी नकली फूल जस का तस खिला-खिला-सा बिहंस रहा होगा... यानी असली की हिली हुई मिलेगी पसली और गढ़िया अर्थात् नकली ही दिखेगा बढ़िया! ...तो अब इसी का आप चाहे जैसा गहरा-उथला या जितना गुरु-गम्भीर अर्थ निकाल लें... चाहें तो इससे यह निर्णय बना लें कि असली नहीं, नकली ही अच्छा! अन्यथा, इससे आप असली-नकली के भेद का संकेत-लाभ भी अर्जित कर सकते हैं... यथा जीवन्त वही जिसकी दशा-दिशा गतिमान हो अर्थात् जो खिसकते समय के साथ डग भरता हुआ गतिपूर्वक बढ़ता-ढलता चले... उसी तरह जिसकी वस्तु-दशा स्थिरप्राय हो जाये वह मृत! ...आप इससे सर्वथा अलग एक यह निर्णय या धारणा भी स्थापित कर सकते हैं कि ईश्‍वर ने मनुष्‍य के ‘रचनाकार’ रूप को अधिकतम प्रतिष्‍ठा देने के लिए ही कला-प्रकल्पों को प्रकृति की तुलना में भरसक अधिक सम्भावनापूर्ण और सुविधायुक्‍त बनाया है ताकि कला-कौशल और मानव-श्रम-शक्ति हमेशा सम्मान पाते रहें... यथा संध्या के बाद सूर्य का अस्त तय है, जिसके बाद रात की नियत अवधि के बीच इसे उगाने की प्रकृति को कोई छूट नहीं है.... किंतु इसके समानांतर मनुष्‍य को यह पूरी स्वतंत्रता है कि वह अपने दक्षता-कौशल और शक्ति-श्रम के बल पर कभी भी और कैसा भी प्रबल प्रकाश-पुंज उत्पन्न कर ले और इसे अपने बूते मनचाहे समय तक जलाये-जिलाये भी रख सके... ’’
बलदेव की चुप्पी सुलझी हुई है। आचार्यद्वय तटस्थ। प्रेमचन्द हल्के मुस्कुराये, ‘‘ वाह भई प्रसाद जी! आपको तो आज मैं मान गया... थिंकर तो आप पक्के हैं... बहुत ऊंचे... सचमुच! बात ही बात में आपने यह जो थॉट बिना किसी बौद्धिक भूमिका के दे डाली, यह दुर्लभ है... आपने मुझे मेरी ही बातों का ऐसा अनोखा अर्थ-वैभव दिखा दिया... आज मैं अभी यहां यह बात बहुत सिद्दत के साथ महसूस कर रहा हूं कि जीवन-जगत के प्रति आपके दृष्टिकोण सचमुच मौलिक हैं... जितने ही तार्किक, उससे अधिक ताथ्यिक! ...मैंने तो भैये सचमुच आज आपका लोहा मान लिया... ’’
प्रसाद संकोच से भर गये। गौड़ एक कदम आगे आये, ‘‘ प्रेमचन्द जी, आप तो जानते ही हैं कि प्रसाद जी वस्तुतः सुंघनी साहू हैं, इसलिए आपको इनका लोहा नहीं, बल्कि तम्बाखू मानना चाहिए...’’
सभी ठठा पड़े। आरती पूरी होने को आयी। भीड़ तेजी से बिखरने लगी। प्रेमचन्द मुस्कुराते हुए आचार्य मिश्र की ओर मुड़े, ‘‘ पंडित जी, अब क्या कार्यक्रम है ? ’’
आचार्य शुक्ल ने चुटकी ली, ‘‘ आप ही जैसा तय करें... कहें तो यहीं बैठकर हम सभी कुछ और साहित्यिक या असाहित्यिक चर्चाएं करें... ’’
प्रेमचन्द ने समझाया, ‘‘...मुझे तो अभी प्रेस लौटना होगा ...आप तो जानते हैं कि मैं प्रथमतः और अंततः एक मजदूर हूं ...जल्दी लौट जाऊंगा तो कुछ काम कर लूंगा ...कोरी चर्चाओं से मेरा कोई काम तो होने से रहा... ’’
प्रसाद ने आगाह किया, ‘‘ बहुत मुश्किल से तो इतनी देर तक हमलोगों की लगभग ठीक-ठाक निभ गयी ...विवाद सुलगते-सुलगते रह गये... आपसी सौहार्द्र बाल- बाल बच गया... अब मैं आगे खतरा मोल लेने की सलाह नहीं दूंगा... ’’
ठहाका। आचार्य मिश्र हंसते हुए प्रेमचन्द से मुखातिब हुए, ‘‘ मुंशी जी, मेरा तो विचार है कि अब कहीं बैठकर हमलोग बूटी छानें और इसी दौरान कुछ रोचक चर्चाएं हों तो हों... विचार-घर्षण से बचना कोई बौद्धिक कार्रवाई तो है नहीं... चर्चाएं-बहसें तो कभी रुकनी नहीं चाहिए... अन्यथा नये विचारों का आगमन बाधित होकर रह जायेगा...यह स्थिति बहुत खतरनाक होगी... ’’ सभी सीढ़ियां चढ़ने लगे।

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बैठकखाना। सामने बैठे हैं दास। प्रसाद की वाणी में हाहाकार है! व्यतीत दुःख-प्रसंग सामने जैसे दृश्‍यमान हो रहे हों: मित्र, इस दौरान मुझे कुछ ऐसे अनुभव हुए हैं जिन्होंने मेरी जीवन-दृष्टि को झकझोरते हुए उलट-पलटकर कर रख दिया है। मैंने यह अनुभूत किया है कि जीवन में किसी भी तरह का अनुशासन-भंग भविष्‍य की भूमि को निश्चित तौर पर क्षति पहुंचाता है। तुमसे भला क्या छुपा है! अपने मचलते मन को निर्बन्ध छोड़ रंगीन आंधियों पर सवार हो-होकर मैंने कोई कम उड़ान नहीं भरी है! एक पूरा दौर जहरीली रंगीन-रेखाओं पर भटकते हुए बर्बाद कर दिया... इसी संदर्भ में तुम्हें आज मैं यह बता दूं कि मुझे अपने ऐसे तमाम विचलनों का पूरा मूल्य चुकाना पड़ गया। एकदम पाई-पाई। मैंने यह सिद्ध होते देखा है कि हर क्रिया के बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया वाला वैज्ञानिक नियम जीवन-जगत में दैनिक और नैतिक धरातल पर भी सर्वथा अक्षरश: लागू होता है। देखो, मैंने स्वयं को दुर्बल रेखाओं पर विचरने की जरा- सी छूट दी थी, मुझे इसका मूल्य लगातार दो बार अपनी अर्द्धांगनियों की चिता सजा- सजाकर चुकाना पड़ा। मैं उस रात की अपनी अनुभूति की दग्धता का वर्णन करने में स्वयं को आज असमर्थ पा रहा हूं जिस रात अर्द्धांगिनी विन्ध्यवासिनी मुझे अधूरा कर सदा के लिए संसार से विदा हुई। मैनें उसे बिस्तर पर जिस बेचैनी में देखा, इससे मन विह्वल हो उठा। भाभीश्री तो मेरी मातृसमा ही ठहरीं। उनके सजल नेत्रों से मेरे आहत मनोभाव और मेरी टूटती हिम्मत छुपे नहीं रह सके। मुझे पुत्रवत् सम्भाल लिया। पकड़े-पकड़े लेकर बाहर आ गयीं। उन्होंने मुझे यहीं इसी बैठकखाने में चौकी पर बिठा दिया और मुझे ढांढ़स देने लगीं कि बहू की हालत उतनी खराब नहीं जितनी मैं समझ रहा हूं! मुझे धैर्य धारण करने को कहा और भीतर स्थिति सम्भालने चली गयीं। मुझे लग गया था कि उसकी बीमारी नियंत्रण की सीमाओं का अतिक्रमण कर चुकी है!...
...मन में डरावनी आशंकाएं फण निकाले ऐंठ रही थीं। कभी भी सबसे अप्रिय समाचार सामने आ सकता था। वह रात कितनी काली थी! वह कालापन कैसा भयावह था! वह भयावहता कैसी श्‍मशानी थी! वह श्‍मशानपन कितना शोक-दग्ध था! वह शोक-दग्धता कैसे सरसराहट और फुंफकार से भरी हुई थी! ...और वह सरसराहट और फुंफकार ...जैसे रोम-रोम पर दंश चुभो रहे थे! तभी एक सांकेतिक घटना-सी हुई। पता नहीं किधर से एक भेंड़ा आया और आंखें तरेरता हुआ सामने से इस कमरे में आंधी- बतास की तरह घुस गया। उसकी डभकती-सी आंखें डरावनी थीं। दोनों सींगों से लेकर ललाट तक सिन्दूर टीके हुए थे। सींगों व ललाट की नुकीली लाली दहक रही थी। उसकी खौलती-सी आंखों से ताप फूट रहा था। यह दहक और ताप जैसे मुझे ही अंगार-स्पर्श दे रहे थे। उसे देखते ही मेरे रोंगटे खड़े हो गये। वह जिस तरह दरवाजे को हुरपेटता हुआ तिलमिलाता-सा आया था उसी तरह छटपट-छटपट करता दीवार- दरवाजे से टकराता-रगड़ता दूसरे ही पल स्वमेव वापस भी चला गया। मैं सिहरकर रह गया। उसी क्षण भीतर से आकर चेखुरा ने रुंधे गले से यह संवाद दिया था कि ' मलकिन ' यानी विन्ध्यवासिनी नहीं रहीं! दुर्भाग्यवश मेरी आशंका सही सिद्ध हुई थी।...
...गंगा भी मेरे मन की तरह भर आयी थी। पानी गोदौलिया तक आ गया था। चौराहे पर ही पिण्डदान तक का तृप्ति-कर्म हुआ। मैं पिण्डदान कर रहा था और चिरगांव से आकर मैथिलीशरण सामने खड़े थे। आंखें उन्हें देख तो पा रही थी किंतु चित इतना चंचल था कि मुझे यह ध्यान ही नहीं रहा कि यह कोई आस-पड़ोस का व्यक्ति नहीं बल्कि भाई मैथिलीशरण गुप्त हैं! वह पास आये। अपनी डबडबायी दृष्टि मेरी ओर उठायी और मुंह से कुछ शब्द निकाले तब मैं उन्हें गौर से देख और पहचान सका था! तुम सोचो, एक बार दाम्पत्य उजड़ा उसके बाद मुझे दुबारा घर बसाने का दबाव स्वीकार करना पड़ा। उसके बाद फिर वही वज्रपात! प्रसूति-रोग से सरस्वती भी चल बसीं। यानी यह भी विन्ध्यवासिनी के पास चली गयी! कुछ ही घंटे बाद नवजात ने भी आंखें मूंद ली। सरस्वती चिता पर लिटायी ही गयी थीं कि पीछे से नन्हे का भी शव श्‍मशान पर आ गया! बताओ, क्या मैं केवल दुःख झेलने और कंधों से अपनों का शव ढोने के लिए ही बना हूं! घर में हर पल लगता कि दोनों दिवंगता गृह-स्वामिनियां कभी इधर तो कभी उधर से झांक रही हैं! तुम्हें सच-सच बताऊं, मुझे जीवन से ही डर लगने लगा। घर में अपने जिस एकांत को मैं नये-नये छंदों से रागमय बनाता था वह जैसे जबड़े खोले बड़े -बड़े दांत चमकाता दहाड़ मचाता काटने दौड़ने लगा।...
...विडम्बना यह कि भाभीश्री जब कभी सामने आतीं, मेरे दुःखों को सीधे-सीधे जैसे अमान्य करतीं आगे की तरह-तरह की योजनाओं की ही बातें करतीं। यह सब मेरे लिए असह्य होने लगा। वह परिवार की दशा आदि का चित्रण करतीं और फिर घूमा-फिराकर तीसरे विवाह के लिए मेरा मन टोने-टटोलने लगतीं। यह स्थिति मेरे लिए दुःखदायी थी कि उन जैसा मेरा अभिभावक मेरे ही मन के घावों को जानबूझकर अनदेखा कर रहा था! मैं भला अपनी आत्मा पर कितने प्रहार सहन करता! एक दिन घर-बार छोड़ निकल पड़ा। ठीक वैसे ही जैसे मेरे मन से धैर्य हवा हो गया था। आत्मा में जैसी निर्जन वीरानी चुभी हुई थी, मन वैसे ही वातावरण को तलाश रहा था। अटकता-भटकता जाकर गुम हो गया मीरजापुर के अष्‍टभुजा वन-प्रदेश में। तुम्हें मैं कैसे बताऊं कि उस वन-प्रांतर में जहां पहचान-मुक्त और मुक्त-मन भटकता हुआ मैं केवल छाया-भर रह गया था, मुझे कितनी शांति मिल रही थी! यह गहराई से अनुभूत होने लगा कि विधि मुझे जैसा अकेला और निहत्था करना चाह रहा हो! बिल्कुल वैसी ही दशा में आ गया हूं और यह स्थिति उसके लिए भी सफलता-बोधक और मेरे लिए भी मुक्तिदायी! सुख का एक टुकड़ा भी पास नहीं, इसलिए दुःख के किसी एक कण के भी पास फटकने का कोई भय नहीं। अनुभूत हुआ कि सुख को शून्य कर दो तो दुःख स्वयं अप्रासंगिक और अस्तित्व-हीन हो जाता है! दुःख कुछ और नहीं, सुख की ही तो परछाईं है! जैसे ही किसी एक सुख को पास बुलाओ, वह अपने साथ स्वयं से भी बड़ी परछाईं समेटे प्रवेश कर जाता है। यानी सुख के ही साथ दबे पांव घुस आता है उससे बड़ा दुःख! यह तयप्राय है कि सुख जहां कहीं भी रहेगा, उसकी काली परछाईं डोलती हुई लम्बी होने के अवसर तलाशती ही रहेगी। हर पल, हर जुगत-जुगाड़ के साथ। इसलिए सुख को पास से हटा दो तो दुःख स्वमेव दूर हो जाता है। सर्वाधिक विचित्र अनुभव यह कि जब सुख और दुःख से मुक्ति पा लो तो चारों ओर एक अद्भुत वातवरण बन जाता है। कुछ ऐसा जैसे आनन्द अखण्ड और घना होकर दिशाकाश से चटक चांदनी बनकर बरसने लगा हो! यह चांदनी ऐसी जो सिर्फ और सिर्फ तृप्ति से भिंगोती चली जाती है! भींगना ऐसा जैसे पूरा अस्तित्व घुलता हुआ विलीन होने लगा हो। विलीनता कुछ ऐसी जैसे तृप्ति धीरे-धीरे जाग रहे आनन्द-सागर से एकसार होने लगी हो। ...और, यह तृप्ति इतनी चमत्कारी कि जिसका न कोई ओर न कोई छोर। आदि भी नहीं और अन्त भी नहीं! ...लेकिन मेरे ललाट पर आनन्द की यह लकीर लम्बी नहीं थी। भाभीश्री के स्नेहिल हाथों ने मुझे टटोलकर खोज ही निकाला। बचनू सूंघते हुए जंगल में आ गया और भाभीश्री को अस्वस्थ बता मुझे माया-मोह के जाल में बांधकर बनारस वापस ले आया। यहां आने के बाद भाभीश्री से मिलकर मेरे मन को संतोष हुआ। मैंने फिर जंगल लौटने की इच्छा जतायी तो उन्होंने बहुत पैंतरे के साथ कुछ दिन रुक जाने और पितृ-तर्पण भर करा देने की बात कही। मेरे लिए दुहरा बंधन हो गया। एक तो भाभीश्री का आदेश यों ही मेरे लिए अलंघ्य, दूसरी ओर पितरों की तृप्ति के अनुष्‍ठान की बात, इसके बाद मैं भला अचानक कैसे पलायन कर जाता! मैंने रुककर यह कार्य सम्पन्न करा देने का निर्णय लिया। खैर, सारा अनुष्‍ठान ठीक-ठाक सम्पन्न हो गया। अंत में ज्योंही मैंने भाभीश्री के चरणों का स्पर्श किया, उन्होंने आशीर्वचन में कह दिया ‘ जिआऽ जागाऽ और वंश के विस्तार कराऽ ’! मैं अवाक्! उन्होंने यह अकाट्य तर्क दिया कि मैं यदि सचमुच चाहता हूं कि पितरों की तृप्ति हो तो मुझे इस वंश के विस्तार का दायित्व निभाना ही होगा! इसके बाद मेरा कोई तर्क नहीं चला। इस तरह मेरे संन्यास का सत्यानाश हो गया! तुम लापता रहे और इस दौरान मेरी तीसरी शादी भी हो गयी! अब आगे देखो, क्या-क्या देखना पड़ेगा...
मूर्तिवत् बैठे दास हल्के हिले, ‘‘ मित्र, दुःख का सागर तो तुम पराक्रमपूर्वक जीत आये हो!...अब तुम्हें कुछ अप्रिय नहीं देखना-सहना है, बल्कि दुनिया ही तुम्हें देखेगी! ’’ 00000

अमन के राग की खोज में


साल हजारों पहले

आर्कमिडीज ने हाथ भर की लाठी से

सरकाया था धरती को

तब यूं ही नजर पड गयी उसकी

सिंधु के बहुरंगी घाटों पर

वह किताबों गानों बोलियो मूर्तियों में खोने लगा

उन रंगों पर कई दावे थे

बोलियों में था जनपद का स्‍नेह

मूर्तियों के साथ इतिहास बोलता था

केवल प्रसिद्धि का गुरूत्‍व ही नही

धन्‍यवाद का ज्‍वार भी था

सिन्‍धु बांट रही थी

हडप्‍पा,गालिब फैज को
लोग डूब रहे थे कालिदास के श्‍लोकों में

बॉट रहे थे घर उनका

महाकवि कभी कश्‍मीर कभी मालवा मिथिला मे जनम ले रहा

विद्यापति के पास मैथिल बंगाली असमी

खुसरो के पास जनम रही थी हिंदी उर्दू जुडवा बहनें

कमजोर था पैमाना विभाजन का

जातियां स्‍नेह से सराबोर थी

शक हो तो पूछिए कामिल बुल्‍के से

वह मानस पर लिखेगा

या फिर काफिर मुहम्‍मद रफी से

जिसके भजन सबसे मशहूर हैं

वैसे भी ईद के अच्‍छे गाने तो लता ने ही गाए हैं

अमन का यह राग कई बार गाया गया

कभी शमशेर ने

किसी यतीन्‍द्र मिश्र ने भी
राग जारी है
कभी द्रुत कभी विलम्बित