
भारतेंदु कालीन हिंदी आलोचना आलोचना के प्रारंभिक पर बुनियादी सवाल से जुझती रही ।इस काल के तीन मुख्य आलोचक हैं भारतेंदु हरिश्चन्द्र,बालकृष्ण भट्ट और प्रेमधन ।निश्चित रूपेण भारतेंदु मंडली संस्कृत आलोचना की बेगवती धारा से अछूती है ।इसके पास परंपरा ,आधुनिकता ,राष्ट्र व समाज के सीधे साधे प्रश्न हैं ।सुधार व जागरण के सामान्य प्रश्नों से ही यह मंडली साहित्य को देखती है ।यद्यपि सामंती छाया से मुक्ति दिलाने की महती प्रक्रिया को प्रारंभ करने का श्रेय इस मंडली को है ।विश्वनाथ त्रिपाठी भारतेंदु युग और रीतिकालीन साहित्य के अंतर को तीन बिंदु पर देखते हैं ।1 यथार्थ बोध 2 विषमता बोध 3 और इस विषमता से उबरने की छटपटाहट ।राम विलास शर्मा ने रीतिकालीन आलोचना और भारतेंदु आलोचना में निहित आधारभूत अंतर को दिखलाने के लिए बालकृष्ण भट्ट के एक निबंध के शीर्षक का उल्लेख किया है 'साहित्य जनसमूह के ह्रदय का विकास है ' ।
भारतेंदु का आलोचना संबंधी चिंतन मात्र नाटक तक सीमित है ,परंतु यही एक मात्र निबंध उनकी मौलिकता को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है ।उन्होंने हिंदी नाटक को संस्कृत ,यूरोपीय और पारसी नाटक के सिद्धांतों में बांटने की बजाय तत्कालीन आवश्यकता और राष्ट्रीयता को ध्यान में रखा ।उन्होंने प्राचीन नाटक के उद्देश्यों को आगे बढ़ाते हुए नाटक के पांच उद्देश्य बताए 1 श्रृंगार 2 हास्य 3 कौतुक 4 समाज संस्कार 5 देश वत्सलता ।उन्होंने स्पष्ट कहा कि ' अलौकिक विषय का आश्रय करके नाटकादि दृश्यकाव्य प्रणयन करना उचित नहीं है ।'
इस काल में आलोचना को सर्वाधिक गंभीरता से बालकृष्ण भट्ट ने लिया ।बच्चन सिंह उन्हें ही हिन्दी साहित्य का प्रथम आलोचक मानते हैं ।संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य से परिचित भट्ट जी ने मुख्यत: समसामयिक साहित्य पर अपने विचार व्यक्त किए ।उन्होंने 'रणधीर प्रेममोहिनी' को पहला ट्रेजेडी कहा तथा 'परीक्षा गुरू 'की भाषा और प्लाट को सराहनीय बताया ।'संयोगिता स्वयंवर ' को उन्होंने कथानक ,चरित्रचित्रण ,कथोपकथन, ,देशकाल व उद्देश्य की दृष्टि से देखा ।यहॉ पर उन्होंने आलोचना के मानक में युगांतार किया ।लाला भगवानदीन की असफलता के विषय में कहा गया कि ऐतिहासिक पुरावृत्त और ऐतिहासिक नाटक में जो अंतर होता है ,उसे भगवान दीन ने नहीं समझा ।चरित्रचित्रण की एकरसता तथा कथोपकथन की अस्वाभाविकता पर भी उन्होंने आक्षेप किए ।तथापि उनकी आलोचना में उपदेश बहुलता तथा अनावश्यक व्यंग्य व कटुता का बाहुल्य है ।
'संयोगिता स्वयंवर ' पर प्रेमधन ने भी लिखा है ,परंतु उनकी आलोचना पुराने किस्म की है ।उन्होंने रस और सन्धियों को मानक बनाकर ही लिखा है ।स्पष्ट है कि भारतेंदु युग साहित्य की अन्य विधाओं के साथ आलोचना को भी नवजागरणवादी दृष्टि से ही देखती है ।इस युग के उठाए प्रश्नों का सम्यक उत्तर परवर्ती युग में मिलता है ।हिंदी साहित्य को संस्कृत साहित्य की ही तरह वृहत्तर आधार पर खड़ा करने का न ही समय उनके पास था , न ही आवश्यक औजार ।
भारतेन्दु युग हमारी भाषा के आधुनिक साहित्य का ऊषाकाल ही है किन्तु ठोस संकल्पों और विराट बुनियादी भूमिकाओं की टहक धूप से भरा हुआ। और, हमारी भाषा के जनक भारतेन्दु बाबू तो सभी अर्थों में बेमिसाल। उन्होंने सभी विधाओं की गहरी और अजेय बुनियाद रखी। ... आपकी यह टिप्पणी संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित है, बधाई।
ReplyDeleteरबी जी आपका यह लेख संक्षिप्त है पर बहुत ही कुछ स्पष्ट होता है आप ऐसे ही अच्छे लेख हिंदी में बहुत ही आसान तरीके से शब्दनगरी पर भी लिख सकते हैं वहां पर भी आत्म-सुधार एवं आत्म-आलोचना !!!!!!!!!@@ जैसी रचनाएं पढ़ व लिख सकते हैं।
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