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Monday 28 November, 2011

गालिब शताब्‍दी वर्ष 1969 में दिल्‍ली में एक प्रसिद्ध मुशायरा हुआ था ,जिसकी  जानकारी हमारे मित्र शहाब मोहिउद्दीन खान ,एडवोकेट ने दिया है ।उस मुशायरे में तत्‍कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी मौजूद थी ,तथा साहिर ने अपने एक नज्‍म में गालिब को याद करने के रस्‍म पर जबर्दस्‍त व्‍यंग्‍य किया ।इस नज्‍म को उपलब्‍ध कराने के लिए हम वकील साहब के आभारी हैं ।उन्‍होंने कई बार यह नज्‍म हमको सुनाया है ,तथा उनकी ऑंखों में हमने सभ्‍यता और संस्‍कृति से सियासत करने वालों के लिए अपार घृणा देखी है ।गालिब और साहिर को इस नज्‍म के बहाने फिर से याद कर रहे हैं ।


इक्‍कीस बरस गुजरे ,आजादी ए कामिल को
तब जाके कहीं हमको ,ग़ालिब का ख़याल आया ।
तुर्बत हैं कहॉ इसकी ,मदफ़न था कहॉ इसका
अब अपने सुख़न परवर ,जे़हनों में सवाल आया ।1।


सौ साल से ये तुरबत ,चादर को तरसती थी
अब उसमें अकीदत के ,फूलों की नुमाईश है ।
उर्दू के तअल्‍लुक से कुछ ,भेद नहीं खुलता
ये जश्‍न ये हंगामा ,खि़दमत है कि साजि़श है ।2।


जिन शहरों में गूंजी थी ,ग़ालिब की नवा बरसों
उन शहरों में अब उर्दू ,बे नामोनिशां ठहरी ।
आजादी ए कामिल का एलान ,हुआ जिस दिन
इस मुल्‍क की नज़रों में ,गद्दार ज़ुबां ठहरी ।3।


जिन अहले सियासत ने ,ये जि़न्‍दा जुबां कुचली
उन अहले सियासत को ,मरहूम का ग़म क्‍यूं हो ।
ग़ालिब जिसे कहते हैं  ,उर्दू ही का शायर था
उर्दू पे सितम ढ़ा के ,ग़ालिब पे करम क्‍यूं हो ।4।

ये जश्‍न ये हंगामा ,दिलचस्‍प खिलौने हैं
कुछ लोगों की कोशिश है ,कुछ लोग बहल जाएं ।
जो वादा ए फरदा पर, अब टल नही सकते हैं
मुमकिन हैं कि कुछ अर्सा,इस जश्‍न पे टल जाए ।5।

ये जश्‍न मुबारक हो ,पर ये भी सदाकत है
हमलोग हक़ीकत के अहसास से आरी हैं ।
गांधी हो कि गालिब हो ,इंसाफ की नजरों में
हम दोनों के क़ातिल हैं ,दोनों के पुजारी हैं ।6।










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