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Wednesday 29 February, 2012

नागार्जुनी दशाध्‍यायी :आधुनिक महाभाष्‍यकार


इस बार की होली एक ऐसे व्‍यक्ति के साथ जो बीती सदी का सर्वाधिक रंगबिरंगा साहित्यिक है ।उसकी कविताओं का 'बैनीआहपिनाला' इतना सहज और प्राकृतिक है कि श्‍वेत प्रकाश की रंगीनियॉ इतनी आसानी से नहीं दिखती ।निश्चित रूपेण हिंदी आलोचना का भी जितना रंग -विस्‍तार उसकी कविताओं ने किया है ,संभवत: अन्‍य किसी ने नहीं ।यहॉ रामविलास शर्मा ,नामवर सिंह ,केदारनाथ सिंह ,विजय बहादुर सिंह जैसे प्रतिष्ठित आलोचकों के साथ ही कृष्‍ण मोहन झा ,अनामिका जैसे नये विचारकों के भी प्रयास हैं ,नागार्जुन की कविताओं के ऐतिहासिक गांठ को खोलते हुए ।पुस्‍तकों ,पत्रिकाओं के लिए हम सभी प्रकाशक एवं सम्‍पादक के आभारी हैं ।


रामविलास शर्मा
और कवियों में जहॉ छायावादी कल्‍पनाशीलता प्रबल हुई है ,नागार्जुन की छायावादी काव्‍य-शैली कभी की खत्‍म हो चुकी है ।अन्‍य कवियों में रहस्‍यवाद और यथार्थवाद को लेकर द्वन्‍द्व हुआ है ,नागार्जुन का व्‍यंग्‍य और पैना हुआ है ,क्रान्तिकारी आस्‍था और दृढ़ हुई है ,उनके यथार्थचित्रण में अधिक विविधता और प्रौढ़ता आयी है ।....उनकी कविताऍ लोक-संस्‍कृति के इतना नजदीक है कि उसी का एक विकसित रूप माजूम होती है ।किन्‍तु वे लोकगीतों से भिन्‍न हैा ,सबसे पहले अपने भाषा-खड़ीबोली के कारण ,उसके बाद अपनी प्रखर राजनीतिक चेतना के कारण ,और अन्‍त में बोलचाल की भाषा की गति और लय को आधार मानकर नये-नये प्रयोगों के कारण । हिन्‍दी भाषी....किसान और मजदूर जिस तरह की भाषा ...समझते और बोलते हैं ,उसका निखरा हुआ काव्‍यमय रूप नागार्जुन के यहॉ है ।





नामवर सिंह के अनुसार बाबा नागार्जुन


'लालू साहू',जिसमें 63 वर्षीय लालू 60 वर्षीया पत्‍नी की चिता में अपने को डालकर 'सती' हो गया ।इस अनहोनी घटना में ही शायद वह कवित्‍व है ,जिस पर नागार्जुन की दृष्टि गई ,वरना स्‍वयं उसके वर्णन में न कहीं भावुकता है ,न किसी तरह की कविताई ही ...........जो वस्‍तु औरों की संवेदना को अछूती छोड़ जाती है वही नागार्जुन के कवित्‍व की रचना भूमि है ।इस दृष्टि से काव्‍यात्‍मक साहस में नागार्जुन अप्रतिम हैं । ......इसी तरह 'कटहल' भी कविता का कोई विषय है लेकिन नागार्जुन है कि पके हुए कटहल को देख पिहक उठते हैं :
अह ,क्‍या खूब पका है यह कटहल
अह,कितना बड़ा है यह कटहल
यही कटहल उनकी एक अन्‍य कविता में अनूठे उपमान के रूप में इस तरह आया है :
दरिद्रता कटहल के छिलके जैसी जीभ से मेरा लहू चाटती आई
यह'कटहल के छिलके जैसी जीभ'नागार्जुन की ही बीहड़ कल्‍पना में आ सकती थी ।नागार्जुन की यही कल्‍पना रिक्‍शा खींचने वाले,फटी बिवाइयों वाले ,गुट्ठल घट्टों वाले ,कुलिश कठोर खुरदरे पैरों के चित्र भी ऑकती है और उसकी पीठ पर फटी बनियाइन के नीचे 'क्षार अम्‍ल ,विगलनकारी ,दाहक पसीने का गुण धर्म ' भी बतलाती है ।मनुष्‍य के ये वे रूप हैं जो नागार्जुन न होते तेा हिंदी कविता में शायद ही आ पाते ।
इसी तरह यथार्थ के वे रूप जिन्‍हें शिष्‍ट और सुरूचिपूर्ण कवि वीभत्‍स समझकर छोड़ देना ही उचित समझते हैं ,नागार्जुन की साहसिक कल्‍पना से काव्‍य का रूप प्राप्‍त करते हैं ।

केदार नाथ सिंह
नागार्जुन आमतौर पर अपनी कविता में चित्रण नहीं करते ।वे सिर्फ वर्णन करते हैं और वर्णन करने की जो ठेठ भारतीय क्‍लासिकी परम्‍परा है -पुरान काव्‍य,पुराकथाओं या लोक साहित्‍य में -उसका भरपूर इस्‍तेमाल करते हैा ।शिल्‍प के स्‍तर पर यह पहला बिन्‍दु है ,जहॉ वे नयी कविता या आधुनिकतावादी कविता या एक हद तक पूरी समकालीन कविता से अलग होते हैं ।वर्णन की इस प्रवृत्ति की ओर मुड़ना अकारण नहीं है ।इसका एक बहुत बड़ा कारण तो यह है कि यह पद्धति कला के यथार्थवादी उद्देश्‍यों के अधिक अनुकूल पड़ती है ।एक दूसरा कारण यह हो सकता है कि नागार्जुन और उनके सहधर्मा कवि त्रिलोचन अपने पूरे काव्‍य में जाने -अनजाने पश्चिम के सांस्‍कृतिक दबाव के विरूद्ध क्रियाशील रहे हैं ।.........तात्‍कालिक कविता से मेरा तात्‍पर्य उन कविताओं से है ,जो किसी सद्य:घटित घटना या किसी ताजा राजनीतिक प्रसंग से सम्‍बन्धित होती है ....इस तरह की कविताओं के प्रति तथाकथित गम्‍भीर पाठकों या आलोचकों की एक प्रतिक्रिया यह है कि इन्‍हें 'अगम्‍भीर काव्‍य' मानकर एक तरफ रख दिया जाये ।पर मुझे लगता है कि नागार्जुन के पूरे काव्‍य को उसकी सॅपूर्णता में देखा जाना चाहिए ।तात्‍कालिक कविताऍ ,उनके विशाल काव्‍य-व्‍यक्तित्‍व का एक महत्‍वपूर्ण हिस्‍सा है और उनके कृतित्‍व का मूल्‍यांकन करते समय यउन्‍हें काटकर अलग नहीं किया जा सकता । दरअसल ,आलोचना के प्रचलित मान-मूल्‍यों और अपने समय के पूरे सौंदर्यबोध को सबसे ज्‍यादा यही कविताऍ झकझोरती है ।
एक तथ्‍य जिसकी ओर सहसा ध्‍यान नहीं जाता ,यह है कि तात्‍कालिक विषय पर कविता लिखना एक खतरनाक काम है ।यह खतरा केवल सामाजिक या राजनीतिक स्‍तर पर ही नहीं होता ,बल्क्‍ि स्‍वयं कविता के स्‍तर पर भी होता है ।यह खतरा वहॉ मौजूद रहता है कि कविता कविता रह ही न जाये ।पर नागार्जुन एक रचनाकार की पूरी जिम्‍मेवारी के साथ इस खतरे का सामना करते हैं और इस दृष्टि से देखें तो उनमें ख़तरनाक ढ़ंग से कवि होने का अद्भुत साहस है ।.........उनकी कविता का एक दूसरा महत्‍वपूर्ण पक्ष है ,उसकी गहरी स्‍थानीयता ।नागार्जुन की हर कविता की जड़ें एक वृक्ष की तरह अपनी मिटृटी में दूर तक धँसी होती है ।यह स्‍थानीयता तात्‍कालिकता का ही दूसरा पहलू है ।एक ठेठ देसीपन या स्‍थानीयता त्रिलोचन में भी है और एक हद तक केदारनाथ अग्रवाल में भी । पर नागार्जुन की 'स्‍थानीयता' इन दोनों से अलग इस मानी में है कि जब वे अपने परिचित परिवेश या अंचल से बाहर होते हैं ,उस समय भी वे उतने ही 'स्‍थानीय' होते हैं ।उनकी स्‍थानीयता बहुत कुछ लोक-काव्‍य में पायी जानेवाली 'स्‍थानीयता' की तरह होती है ,जिसके दृश्‍य और रंग सम्‍प्रेष्‍य भाव को एक आकार और विश्‍वसनीयता देने के बाद चुपचाप तिरोहित हो जाते हैं ।जिस बात के चलते नागार्जुन की कविता अपने सर्वोत्‍तम रूप में सारी तात्‍कालिकता और स्‍थानीयता को अतिक्रान्‍त कर जाती है ,वह है उनकी विश्‍वदृष्टि जो उनके व्‍यक्तिगत अनुभव और जनता के सामान्‍य बोध से मिलकर बनी है और उनके निकट इन दोनों के बीच के अन्‍त:सूत्र को आलोकित करनेवाला तत्‍व है मार्क्‍सवाद ।सामान्‍य बोध पर निर्भर करने की यह प्रवृत्ति जितनी नागार्जुन में है ,उतनी और कहीं नहीं ।भक्तिकाव्‍य का एक बहुत बड़ा हिस्‍सा इसी सामान्‍य बोध से परिचालित होकर लिखा गया था ।समकालीन कविता के इतिहास में नागार्जुन का एक बहुत बड़ा अवदान यह माना जायेगा कि उन्‍होंने पुन: कविता की दिशा को विशिष्‍ट बोध से सामान्‍य बोध की तरफ मोड़ने का प्रयास किया ।इसी प्रयास के चलते उनकी कविता के उस क्रान्तिकारी चरित्र का निर्माण हुआ है ,जिसके हम इतने अभ्‍यस्‍त हो गये हैं ।('मेरे समय के शब्‍द')




निराला और नागार्जुन पर शिव कुमार मिश्र


निराला आजीवन अपने अहम, अपनी 'इगो' के प्रति सजग रहे ,जबकि नागार्जुन लगभग डीक्‍लास हो कर साधारण जनों के जीवन से एकात्‍म हो कर जिये ,अपने स्‍वाभिमान को दोनों ने अक्षत रखा ।निराला अपने रोमाण्टिक तेवरों को अंत तक बनाये रहे जब कि ,जैसा कहा ,नागार्जुन 'डीक्‍लास' हो कर जिस विचार दर्शन से जुड़े उसमें रोमाण्टिक आत्‍मकेंद्रण अथवा निजता की धुरी पर टिके रहने का कोई सवाल ही नहीं था । ........निराला के जीवन की त्रासदी वस्‍तुत: एक रोमाण्टिक की त्रासदी है ।सत्‍ता व्‍यवस्‍था और सामाजिक जीवन की विसंगतियों के खिलाफ ,साधारण जन के पक्ष में वे आजीवन लिखते रहे परन्‍तु अपने रोमानी मिजाज के चलते अपने भीतर सुलगती असहमति,विरोध और विद्रोह की आग को उस बड़ी आग में तब्‍दील कर सके जो सामाजिक बदलाव का कारण बनती या बना करती है । .........इसके विपरीत शरीर और जीवन के दूसरे सारे अपघातों को झेलते हुए भी ,दमा जैसे असाध्‍य रोग को छाती से लगाये हुए भी ,व़द्धावस्‍था से उपजी अशक्‍तता का प्रतिकार करते हुए ,सुविधा तथा साधनों के अभाव में यायावरी जीवन के सुख दुख भोगते हुए ,नागार्जुन जीवन की अन्तिम सॉस तक हत विश्‍वास ,हतभाव नहीं हुए ,लोक की बात क्‍या ,परलोक की भी किसी सत्‍ता के समक्ष कातर और दीन नहीं बने ।शरीर भले ही टूट गया हो ,मन उनका अक्षत रहा ,उसकी निष्‍ठाऍ अक्षत रही ।उन्‍हें किसी प्रभु से अरदास करने की जरूरत नहीं पड़ी ('अनहद'2)



राजेन्‍द्र कुमार
नागार्जुन की कविता आज की उस ठेठ आत्‍मा की खोज की कविता है ,जो साधारण जन में एकाकार होना चाहती है ,जिसे किसी प्रकार की विशिष्‍टता का आतंक छू नहीं सकता लेकिन जिसकी अपनी विशिष्‍टता का कोई दमन नहीं कर सकता ।कवियों के आत्‍मालाप को ही सच्‍ची कविता मानने वालों को शिकायत है कि नागाज्रफन का स्‍वर इतना आवाहनपरक है कि कविता उससे किनारा कर लेती है ।दरअसल जिसे आवाहनपरकता मान कर प्रश्‍नांकित किया जाता है ,उससे उसका सही नाम पूछा जाये ,तो वह 'आवाहनपरक' नहीं,'जनसंवादी' कहलाना अधिक पसन्‍द करेगी ..............वे कविता के पीछे इस तरह नहीं भागते कि प्रत्‍यक्ष अनुभव का कोई क्षण पीछे छूट जाये ।अनुभव के सत्‍य को किसी शाश्‍वतता में पकड़ने का मोह करने वालों में वे कभी नहीं रहे । ...............कुछ 'भद्रजन 'उनके भाषागत और विषयगत 'भदेसपन' से भी बिदकते रहे ।ऐसे 'भद्रों' को उन्‍होंने अपनी कविता से यह तमीज़ देने में कोताही नहीं बरती कि 'भद्र' और 'भद्दा' की सगोत्रता का कुछ अन्‍दाजा़ तो उन्‍हें हो ही सके ।(अनहद-2)



जवरीमल्‍ल पारीख
वैसे तो नागार्जुन के लिए 'सबकुछ कविता की परिधि में आता है लेकिन राष्‍ट्रीय और अन्‍तरराष्‍ट्रीय राजनीतिक घटनाक्रम की तरफ वे जल्‍दी आकृष्‍ट होते हैं ।वे अपनी जानकारी और राजनीतिक दृष्टिकोण के अनुसार उन घटनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करते हैं ।लेकिन ऐसा ककरते हुए वे सदैव कविता की रक्षा कर पाते हों यह जरूरी नहीं है ।कई बार महज वैचारिक प्रतिक्रिया होती है और कई बार वे अपनी इस सीमा का अतिक्रमण भी कर जाते हैं ...............व्‍यक्तियों ,दलों और आंदोलनों के प्रति वे अपना रूख बदलते रहे हैं ।इसका अर्थ यह नहीं है कि नागार्जुन राजनीतिक अवसरवाद के शिकार थे ।राजनीति उनके लिए लाभ लोभ या जीविकोपार्जन का साधन नहीं थी ।जिस वामपन्‍थी और जनवादी आंदोलन से उनका वास्‍ता था ,उसकी अलग अलग धाराओं और उसमें निहित अन्‍तर्विरोधों और भटकावों के वे शिकार होते रहे ।जनता के प्रति उनकी आस्‍था सदैव अडिग रही लेकिन जनता के पक्ष में राजनीति करने वालों के प्रति वे मोह और मोहभंग के शिकार होते रहे ।................नागार्जुन की सभी राजनीतिक कविताऍ सिर्फ तात्‍कालिकता से प्रेरित नहीं है ।उन्‍होंने ऐसी कविताऍ भी काफी लिखी हैं जो राजनीतिक यथार्थ को प्रतिक्रिया के रूप में नहीं पेश करती बल्कि उसे तात्‍कालिकता से मुक्‍त करते हुए और व्‍यापक सन्‍दर्भ से जोड़ते हुए पेश करते हैं ।यॉ कवि को अपनी बात कहने की जल्‍दबाजी नहीं है ।इसीलिए ऐसी कविताओं का कलाविधान भी अधिक मॅजा हुआ और गठा हुआ नजर आता है । (अनहद-2)



संस्‍कृत कविता पर कमलेश दत्‍त त्रिपाठी
नागार्जुन पूर्वतन कवियों के विशिष्‍ट पदप्रयोग ,उक्ति या पद सन्‍दर्भ को स्‍वीकार कर उसे नये सन्‍दर्भ में अत्‍यन्‍त रचनात्‍मक रूप में प्रयुक्‍त करते हैं और उनमें नवीन अर्थस्‍तरों को उद्घाटित करने का सामर्थ्‍य भर देते हैं ।अर्थों के ध्‍वनन की संस्‍कृत कवियों को परिज्ञात करने का सामर्थ्‍य भर देते हैं ।अर्थों के ध्‍वनन की संस्‍कृत कवियों को परिज्ञात यह पद्धति नागार्जुन की रचना में नये आयाम ग्रहण करती है । ..............नागार्जुन की संस्‍कृत रचना में 'कालसंवादित्‍व' का यह सामर्थ्‍य संस्‍कृत कविता के निरन्‍तर गतिशील रहने का एक प्रतिमान स्‍थापित करता है ।वे ऐसे अकेले कवि है ,जो वैश्‍व फलक पर युग को बदल देने वाले इस सन्‍दर्भ को शक्तिशाली अभिव्‍यक्ति देते हैं । ........... नागार्जुन संस्‍कृत के एक ऐसे समकालीन कवि हैं जिनमें परम्‍परा अपने सजीव स्‍पन्‍दन में विद्यमान रहते हुए विक्षोभ,द्वन्‍द्व और परिवर्तन के प्रबल रूप को मुख्‍य स्‍वर बना देती है । ...............यदि समकालीन संस्‍कृत कविता को किसी नये प्रतिमान और समीक्षाशास्‍त्र की आवश्‍यकता है ,तो उसे नागार्जुन जैसे कवियोंकी रचनाओं के समालोचन से उभरना होगा । ('अनहद'द्वितीय अंक)


बांग्‍ला कविता पर प्रफुल्‍ल कोलाख्‍यान
नागार्जुन छोड़ कर नहीं साथ ले कर ही आगे बढ़ते थे ।आगे बढ़ने के दौरान भले ही कुछ छूट जाये तो छूट जाये ।महत्‍व आगे बढ़ने का रहा ।इसलिए तत्‍काल को केन्‍द्र में रख कर लिखी गयी कविताऍ कालातीत हो जाती है ,स्‍थान को ले कर लिखी कविताऍ स्‍थान की सीमाओं को अतिक्रमित कर जाती है ,व्‍यक्ति को केन्‍द्र में रख कर लिखी गयी कविताऍ परा वैयक्तिक हो जाती है ,घटना के केन्‍द्र में रख कर लिखी गयी कविताऍ घटनातीत हो जाती है ।......... बांग्‍ला हो या मैथिली ,हिन्‍दी की तुलना में ये सांस्‍कृतिक भाषाऍ अधिक है और इनकी तुलना में हिन्‍दी राजनीतिक भाष्‍ज्ञा अधिक है ।नागार्जुन अपने मूल रूप में राजनीतिक कवि हैं ।नागार्जुन की बॉंग्‍ला कविताओं का महत्‍व तो कई दृष्टियों से है लेकिन मुख्‍य बात यह है कि नागार्जुन के रचनाशील मिजाज को समझने में इन से कुछ मदद मिल सकती है ।..... नागार्जुन की बॉग्‍ला कविताओं का अपना महत्‍व है ।बॉग्‍ला भाषा साहित्‍य में इसका क्‍या महत्‍व ऑका जाता है यह एक अलग विषय है ।परन्‍तु इतना निश्चित है कि नागार्जुन को समझने के लिए इन कविताओं का महत्‍व कमतर नहीं है ।(अनहद-2)



मैथिली कविता पर कृष्‍णमोहन झा
नागार्जुन नीरवता के नहीं मुखरता के उपासक हैं ।उनका जीवन और साहित्‍य उत्‍कट मुखरता का एक सुन्‍दर उदाहरण है ।इस मुखरता को बनाये रखने के आनन्‍द की कीमत एक ओर उन्‍होंने अपने जीवन को निर्ममता से धुन कर चुकायी तो दूसरी ओर साहित्‍य में कई भाषाओं में कविताऍ लिख कर और साहित्‍य के मठों और मठाधीशों के बनाये किलों को तोड़ कर ।........चित्रा की कविता संस्‍कृत और प्राचीन मैथिली कविता की शास्‍त्रीय परम्‍परा से छिटक कर जीवन की साधारणता में ,उसके मर्म को पहचानने और रेखांकित करने की कोशिश है ।दूसरे शब्‍दों में कहें तो वह एक ओर जीवन में धँसकर उसे अपनी शर्तों पर अर्जित करने का संकल्‍प था तो दूसरी ओर प्राचीन सामन्‍ती विचार -व्‍यवस्‍था को तार-तार करने का मजबूत इरादा ।इस संकलन के प्रकाशन से पहले सीताराम झा ,भुवनेश्‍वर सिंह 'भूवन' आदि की कविता मे विद्यापति ही नहीं ,मनबोध और चन्‍दा झा तक की कविता के प्रति विद्रोह उठ खड़ा हुआ था ,लेकिन उनकी अपनी सीमाऍ थी ।कवि यात्री ने उस विद्रोह को त्‍वरा ,दिशा और सघनता दी ।इस दिशा का नाम चौथे-पॉचवें दशक में मिथिलांचल में ठहरे हुए विडम्‍बनामूलक समाज में जीवन काट रहे सबसे निचली पंक्ति के लोगों के दुख की पहचान है ।(अनहद-2)


विचारधारा पर गजेन्‍द्र ठाकुर

लेखकक आइडियोलोजी पानिमे नून सन हेबाक चाही, पानिमे तेल सन नै आ ऐपर हम पहिनहियो लिखने छी। यात्री आ धूमकेतुकेँ कम्यूनिस्ट पार्टीक सोंगरक आवश्यकता पड़लन्हि कारण वामपंथ “नीक सेन्ट” आ “डिजाइनर वीयर”क भाँति हिनका सभ लेल फैशन छल, से बलचनमा कांग्रेस आ समाजवादी पार्टीसँ हटलाक बाद कम्यूनिस्ट आ लालझंडामे सभ समस्याक समाधान तकैए, ओकरा यात्रीजी सभ समाधान ओइमे दै छथिन्ह। धूमकेतुक पात्र लेल सेहो लाल झंडा लक्षमण बूटी अछि। मुदा ई लोकनि कम्यूनिस्ट मूवमेन्टसँ -फैशनक अतिरिक्त- जुड़ल नै छथि तेँ हिनकर साहित्यमे आइडियोलोजी तेल सन सहसह करैए।



शैलेन्‍द्र चौहान
असल में ,नागार्जुन की कविता ,आम पाठकों के लिए सहज है ,मगर विद्वान आलोचकों के लिए उलझन में डालने वाली है ।ये कविताऍ जिनको संबोधित है ,उनमें तो झट से समझ में आ जाती है ,पर कविता के स्‍वनिर्मित प्रतिमानों से लैस पूर्वग्रही आलोचकों को वे कविता ही नहीं लगती ।ऐसे आलोचक उनकी कविताओं को अपनी सुविधा के लिए तात्‍कालिक राजनीति संबंधी ,प्रकृति -संबंधी और सौंदर्य-बोध-संबंधी जैसे कई खॉचों में बॉट देते हैं और उनमें से कुछ को स्‍वीकार करके बाकी को खा़रिज कर देना चाहते हैं । (साभार 'वर्तमान साहित्‍य' मई 2011)


पंकज पराशर
एक भाषा में अर्जित काव्‍य-व्‍यक्तित्‍व का प्रभाव अक्‍सर दूसरी भाषाओं में रचित रचनाओं पर दिखायी देता है ,जिसके लाभ-हानि दोनों काव्‍य मूल्‍यांकन में बहुधा दिखायी देते हैं ।दुर्भाग्‍य से,नागार्जुन और 'यात्री' के काव्‍य-मूल्‍यांकन में इन आधारों और प्रभावों को देखा जा सकता है । मैथिली आलोचना ने जहॉ एक ओर उनसे हिंदी कविता जैसे औघड़पन ,बेलौस और निडर अभिव्‍यक्ति की ग़ैर-जरूरी अपेक्षा की वहीं हिंदी आलोचना ने चारों भाषाओं के काव्‍य व्‍यक्तित्‍व को मिलाकर बनने वाली नागार्जुन की विराट काव्‍य-छवि पर ध्‍यान नहीं दिया ।(साभार 'वर्तमान साहित्‍य'मई 2011)

'हरिजन गाथा 'पर कँवल भारती
निस्‍संदेह ,नागार्जुन की यह कविता हिन्‍दी कविता की विशिष्‍ट उपलब्धि है ,क्‍योंकि बेलछी जैसे नृशंसतम हत्‍याकांड पर ऐसी कविता अन्‍यत्र देखने को नहीं मिलती ।लेकिन ,इस कविता पर दलित-चिंतन की तीन आपत्तियॉ हैं ।पहली आपत्ति 'हरिजन' शब्‍द को लेकर है ,दूसरी आपत्ति 'मनु' ,'वराह'और ऋचा' शब्‍दों पर है तथा तीसरी आपत्ति नवजात शिशु के भाग्‍य को खुखरी ,भाला ,बम और तलवार से जोड़कर उसे अपराधी बनाने को लेकर है ।
(साभार 'वर्तमान साहित्‍य'मई ,2011)

अनामिका स्‍त्री पक्ष ,शिल्‍प एवं व्‍यंग्‍य पर

बिहार की ज्‍यादातर पत्नियॉ विस्‍थापित पतियों की पत्नियॉ रही हैं ।'सिंदुर तिलकित भाल' वहॉ हरदम ही चिंता की गहरी रेखाओं के पुंज रहे हैं ।रंगून ,कलकत्‍ता,आसाम,पंजाब और दिल्‍ली बिहारी मजदूरों ,छात्रों ,पत्रकारों ,लेखकों ,पार्टी कार्यकर्ताओं और फेरीवालों से आबाद रहे हैं हरदम ।भूमंडलीकरण के बाद भी तो स्थिति यह है कि मिथिला ,तिरहुत ,वैशाली ,सारण और चंपारण ,यानी गंगा-पार के बिहारी गॉव सर्वथा पुरूष विहीन हो चुके हैं ।....सारे पिया परदेसी पिया है वहॉ ।गॉव में बची हैं -वृद्धाओं ,परित्‍यक्‍ताओं और किशोरियॉ ,जिनकी तुरंत-तुरंत शादी हुई है या फिर हुई ही नहीं ....नागार्जुन की 'सिंदुर तिलकित भाल' ,'कालिदास' ...ऋृतुसंधि ,'गुलाबी चुडि़यॉ' आदि उसी अकेली छूटी बेटी ,पत्‍नी ,प्रिया के लिए उमड़ी अजब तरह की कसम की अमर कविताऍ हैं ।पुराना साहित्‍य कहीं बेटी के वियोग का जिक्र नहीं करता ।यह वियोग का एक नया प्रकार है ,जिसकी आहट भारतीय साहित्‍य में रवींद्रनाथ के 'काबुली वाला' के बाद बाबा की 'गुलाबी चुडि़यॉ' में ही खनकती है .........अभिधा की ताकत क्‍या होती है ,नाटकीय वैभव क्‍या होता है ,कविता में आख्‍यान या उपाख्‍यान कैसे अंतर्भुक्‍त करना चाहिए कि वह पैच-वर्क न लगे -यह कोई नागार्जुन से सीखे ।विजय बहादुर से अपनी किसी बातचीत में एक बार नागार्जुन ने कहा था कि छंद का सही स्‍थानापन्‍न नाटकीयता ही हो सकती है ।नियो मेटाफिजिकल परंपरा के सारे कवि और ब्रेख्‍़त इस कला में निष्‍णात थे ......सम्‍यक हँसी विवेक का मुहाना है ,हँसने से बुद्धि खुलती है और साहस जगता है ।मानवीय व्‍यवहार का सबसे नाटकीय क्षण है हँसी ।हँसी धुंधलके साफ करती है और भीतर के जाले भी ।देवी के अट्टहास से लेकर 'लाफ ऑफ द मेड्यूसा'तक ,गोपियों के हास-परिहास से लेकर गोमा की हँसी तक हँसी थेरेपी है ,उर्ध्‍वबाहु घोषणा ,चुनौती -सब एक साथ ।और ,इन सबसे अलग वह संवाद का द्वार भी है ।इस बात की समझ सब मैथिलों को होती है ,तभी सब इतने पुरमजाक होते हैं ।(उपरोक्‍त)


विजय बहादुर सिंह

नागार्जुन ने संकेतों में यह भी समझाया कि कोयल की आवाज़ का सौंदर्य और महत्‍व तो है ही ,पर तभी जब सभ्‍यता का वसंत -काल हो ।सभ्‍यता अगर लोगों को मूर्च्छित करने और उनका होश तक छीन लेने के काम में जुटी हो ,तब कोयल की आवाज़ से काम नहीं चल पाएगा ।तब ढ़ेर सारी ऐसी आवाजों की शरण में जाना पड़ेगा ,जो तुम्‍हारे उत्‍पीड़न और तुम्‍हारी वेदना की चीख़ बन सकें ।कहने वाले फिर भी कहते रहेंगे कि नहीं ये आवाजें कर्कश और बदरंग हैं ,इनमें कोमलता नहीं है, फिनिशिंग नहीं है ,ये खुरदरी आवाजें कविता की पारंपरिक सुरीली और चिकनी आवाज़ के अनुरूप नहीं है ।ऐसों से तब जरूर पूछना होगा कि 'रामायण' और 'महाभारत' में ऐसी जो सारी आवाजें बीच-बीच में हैं ,उनके बारे में तुम्‍हारा क्‍या ख्‍़याल है ? .......कविता की ख़ूबसूरती क्‍या सिर्फ उसकी अभिव्‍यंजना की ख़ूबसूरती में निवास करती है या फिर उस अनुभव -सत्‍य में ,जिससे लोक में कविता का मह‍त्‍व समझ में आता है ? क्‍या यह ख़ुरदुरापन और यह अनगझ़ता मुक्तिबोध में नहीं ? ज़रूरत के आपता अवसरों पर बेहद रूक्ष और अनगझ़ हो उठने वाले नागार्जुन की यह कोई विवशता नहीं थी ,न ही उनकी अक्षमता थी ।आधुनिक कवियों में भारतीय काव्‍य-परंपरा के अभिजात को जितना वे जानते थे ,उतना शायद निराला या प्रसाद जानते रहे हों ,अज्ञेय या त्रिलोचन आदि जानते रहे हों ,हो सकता है थोड़ा-बहुत भवानी मिज्ञ और मुक्तिबोध भी जानते रहे हों ,पर नागार्जुन तो उसी वातावरण में पले -पुसे और विकसित हुए थे ।न केवल विकसित हुए ,बल्कि दीक्षित भी । .......लोक और शास्‍त्र की ऐसी विशद और गहरी जानकारी समकालीन तमाम मूर्धन्‍यों में अगर किसी एक ही के पास थी ,तो वह केवल नागार्जुन थे ।.......शबर ,निषाद ,मादा सुअर ,बच्‍चा चिनार से लेकर नेवला तक की यात्रा कर चुकने वाली कविताओं के बाद यही कहना पड़ता है कि नागार्जुन अपने समकालीनों में -जिनमें अज्ञेय ,शमशेर ,मुक्तिबोध आदि आते हैं -सबसे ज्‍यादा भाव-प्रवण और भाव-प्रखर कवि थे ।(उपरोक्‍त)

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