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Tuesday 6 December, 2016

डॉ0 नगेन्‍द्र

डॉ0 नगेन्‍द्र
वाजपेयी जी के साथ ये भी समन्‍वयकारी आलोचक माने जाते हैं ।सौंदर्यमूलक स्‍वच्‍छन्‍दतावादी और रसवादी आलोचक ।सैद्धांतिक मनोविज्ञान के साथ ही युगीय मनोविज्ञान का सहारा । राम स्‍वरूप चतुर्वेदी के शब्‍दों में वे क्रमश: काव्‍य से शास्‍त्र की ओर उन्‍मुख होते गए हैं ।


साहित्‍य ,रस और आनन्‍द
1 साहित्‍य आत्‍मीय अभिव्‍यक्ति है ।
2 साहित्‍य का मूल्‍य साहित्‍यकार के आत्‍म की महत्‍ता और अभिव्‍यक्ति की पूर्णता और सच्‍चाई पर आधारित है ।
3 जीवन के अन्‍य अभिव्‍यक्तियों की तरह इसका भी एक विशेष स्‍वरूप ,शैली ।इसको ग्रहण करने के लिए विशेष संस्‍कार की आवश्‍यकता ।इसके अधिकारी इस कला के विशेषज्ञ ही हो सकते हैं ,सामान्‍य जन नहीं ।ये केवल उसका रस ग्रहण कर सकते हैं ।
4साहित्‍य वैयक्तिक चेतना है ,सामूहिक नहीं ।
5रस ही साहित्‍य का चरम मान ।अन्‍य मान एकांगी या असाहित्यिक ।
6 रस आनंद का पर्याय ,प्‍लेजर ,लज्‍जत या विनोद का नहीं ।आनंद और कल्‍याण परस्‍पर विरोधी नहीं ,परंतु सापेक्षत: आनंद का ही मूल्‍य ज्‍यादा ।
7 कवियों की अ‍नुभूति का ही साधारणीकरण होता है ,उसी के पास वह क्षमता कि अपनी अनुभूति को सामान्‍य की अनुभूति बना सके ।
8 नई कविता एवं व्‍यंग्‍य में भी रस की स्थिति होती है ।
9 काव्‍य का प्रयोजन आनन्‍द ही है ।समष्ठिगत लोककल्‍याण और व्‍यष्टिगत चेतना का परिष्‍कार उसके ही रूप ।
10 अलंकार अभिव्‍यक्ति के अभिन्‍न अंग ,परंतु साधन ही ,साध्‍य नहीं ।इनकी स्‍वतंत्र सत्‍ता नहीं ।ये अंग से अंगी होकर अराजक बनते हैं ।
11 भाषा और कला का अभिन्‍न संबंध ।भाषा की समृद्धि जीवन से ।भाषा का वैयक्तिक प्रयोग साधारणीकरण में बाधक ।
12 छंद को कविता का अनिवार्य और आंतरिक अंग माना ।
13साहित्‍य को विशुद्ध रागात्‍मक माना ,बुद्धिवादी या नीतिवादी नहीं ।आलोचक का स्‍वधर्म निश्‍छल आत्‍माभिव्‍यक्ति है ।आलोचना को अपनी आलोचना दृष्टि आलोच्‍य से ही प्राप्‍त करना चाहिए ।
13 शैली वैज्ञानिक आलोचना में मात्र भाषिक विज्ञान के विश्‍लेषण को आलोचना नहीं माना ।शैली की व्‍याप्ति साहित्‍य से सभी रूप तक नहीं ।यह कला का पर्याय नहीं ।
14 उन्‍होंने रमणीयार्थ को ही काव्‍य का साध्‍य माना ,तथा मूल्‍यों की चिंता किए बिना कहा कि काव्‍यानंद में ही मूल्‍य पर्यवसित हो जाते हैं ।
सैद्धांतिक योगदान----

1शुक्‍ल जी के साधारणीकरण संबंधी सिद्धांत का खंडन ।शुक्‍ल जी आलंबनत्‍व धर्म का साधारणीकरण मानते हैं ,उनके हिसाब से पाठक का तादात्‍म्‍य आश्रय के भावों से ।शुक्‍ल जी रस की मध्‍यकोटि स्‍वीकार करते हैं ।शुक्‍ल जी का रस का एकाधिक कोटि मानना दोषपूर्ण । आलंबनत्‍व धर्म में अनुभाव आदि का अंर्तभाव नहीं हो पाता ।संस्‍कृत आचार्य ने स्‍थायी भाव ,आश्रय आदि सबका साधारणीकरण माना है ।
2 रीति संप्रदाय पर विचार करते हुए वामन का विरोध करते हैं तथा आंशिक रूप से काव्‍य-शैली के भौगोलिक आधार को मानते हैं ।रीति-शैली में बहुत अंतर नहीं मानते ।
3कुंतक की तरह वक्रता-व्‍यापार को काव्‍य के मूल में अनिवार्य मानते हैं ।उन्‍हीं की तरह कवि-व्‍यापार को महत्‍व देते हैं ।


योगदान---
1 छायावाद की उत्‍पत्ति एवं स्‍वरूप की लौकिक एवं मनोवैज्ञानिक व्‍याख्‍या ।

2 काव्‍यशास्‍त्र के विभिन्‍न आयामों का तुलनात्‍मक गहन अध्‍ययन ।इससे व्‍यावहारिक आलोचना में गहराई ।
3
सुमित्रानंदन पंत , साकेत :एक अध्‍ययन , देव और उनकी कविता , आधुनिक हिंदी नाटक में व्‍यावहारिक आलोचना के विभिन्‍न आयाम ।
4 सौंदर्यानुभूति को लेखक की जीवनी से जोड़ा ।जीवन-यात्रा के विभिन्‍न मोड़ों ,बॉंधों को मनोवैज्ञानिक आयाम दिया तथा साहित्‍य से संबंध स्‍थापित किया ।इस दृष्टि से पंत ,मैथिलीशरण ,देव ,दिनकर एवं सियारामशरण गुप्‍त पर लेखन महत्‍वपूर्ण है ।जीवनी के प्रयोग ने आलोचना को समृद्ध किया ।
5 एक ही तरह की वस्‍तुओं के सूक्ष्‍मातिसूक्ष्‍म पार्थक्‍य को पकड़ लेने की अचूक दृष्टि । रूपानुभूति के भिन्‍न-भिन्‍न शेड्स का सूक्ष्‍मता से विश्‍लेषण ।

6
नयी समीक्षा:नये संदर्भ में पश्चिम में विकसित समीक्षा की नवीन प्रवृत्तियों का अध्‍ययन ।चिंतन के विभिन्‍न सूत्रों को पहचानने का प्रयास ।नयी समीक्षा के केंद्र में इलियट और रिचर्डस को रखा ।



सीमा--
1विभिन्‍न परिभाषाओं के आधार भिन्‍न। अत: सिद्धांतों में एकता नहीं असंगति ।
2 प्रयोगवाद को अनगढ़ और भदेस के अनावश्‍यक आग्रह का दोषी माना ,इसके आधार और स्‍वरूप को स्‍पष्‍ट नहीं कर सके ।

3 शेखर एक जीवनी और त्‍यागपत्र का विश्‍लेषण व्‍यक्तित्‍व और कर्तृत्‍व में सामंजस्‍य के आधार पर  ,अपनी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अज्ञेय पर पैनी नजर रखते हैं,परंतु प्रसाद के नाटकों का सफल मूल्‍यांकन नहीं कर सके ।
4छायावादोत्‍तर हिंदी कविता में
नयी कविता की तुलना में राष्‍ट्रीय सांस्‍कृतिक कविता तथा उत्‍तर छायावादी कविता को अधिक महत्‍व दिया ,परंतु उसे स्‍थापित नहीं कर सके ।

(रवि भूषण पाठक)

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