यहॉ इतिहास का अंत नही है ,बल्कि नैतिकता का अंत है ।यह अंत कोई दुर्घटना का परिणाम नहीं ,सुनियोजित भी नही ,बल्कि हमारे युग के ही एक क्षण की परछाई है(प्रतिबिम्ब नही) ।यह चुलबुल पांडे नामक पुलिस इंस्पेक्टर की कहानी है ।ऐसा मनबढ् इंस्पेक्टर जो रिश्वतखोरी को दबंगई से अपनाता है ।रिश्वत के प्रति उसके मन में कोई दुविधा नही है ,वह घूसखोरी के रकम को अपने पराक्रम से इकट्ठा करता है व अपने पूजनीया माता के पास जमा करता है ।यह पैसा जब उसका भाई मार लेता है ,तो पहली बार क्रोध ,क्षोभ उसके चेहरे पर दिखता है ।वह भी अपने छोटे भाई के मंडप पर अपनी शादी कर हिसाब बराबर कर लेता है ।यह इंस्पेक्टर एक निम्न वर्ग की लडकी पर रीझता है ,तथा अपनी पुलिसिया हरकतों से उसे प्राप्त करता है । यह ईसवी सन2011 का प्रेम है ,यह खालिस भारतीय मानकों का प्रेम नही है ।चुलबुल पांडे की प्रेमिका भी ऐसा ही वरण करती है ,वह अपने पिता को पत्थर से बेहोश कर प्रेमी के संघर्ष को देखना पसंद करती है ।चुलबुल के भाई का प्रेम भी तात्विक रूप से वही है ।साथ साथ घूमने,सिनेमा देखने ,चिपक के बैठने का प्रेम ।वह इस क्षण को विवाह के रूप में स्थायी बनाना चाहता है । यह फिल्म भारतीय पारिवारिक संबंधों के विघटन का बयान करती है ।इंस्पेक्टर अपने माता के दूसरे पति को कहने के बावजूद प्रणाम नही करता है ।उसकी प्रेमिका पिता के मरने के कूछ ही घंटे बाद प्रेमी के साथ सामान्य हो जाती है ।एक दारोगा कस्तूरी लाल अपने होने वाले दामाद के राजनीतिक फायदे के लिए आपराधिक साजिश में शामिल होता है ।छेदी सिंह नामका गुंडा उसका आदर्श दामाद है ।भावी दामाद चुलबुल पांडे अपने ससुर को थाना में बन्द कर देता है ,तथा बाद में आत्महत्या के लिए उकसाता है ।उसे एक गरीब वर्ग की लडकी को हासिल करने के लिए दरोगपनी करने में शर्म नही आती है ।कहानी का ये आयाम हास्य नही उत्पन्न करती ,बल्कि गंभीरता से कुछ लोगों के हरकत को सामने लाती है ।नैतिकता व ईमानदारी से मुक्त चुलबुल पांडे की ये कहानी इन्हीं अर्थों में उत्तरआधुनिक है । पचास व साठ के भारतीय फिल्मों के नायक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम व भारतीय आदर्शो को ढोते थे ,सत्तर व अस्सी के दशक में भारतीय महानता व भारतीय आदर्शवाद का मिथक सभी क्षेत्रों में टूटा ।अमिताभ भारतीय निराशा के एक सफल प्रतिनिधि बने ,उनके क्रोध ,प्रतिशोध में युवामन की झांकी देखी गयी ,ईसवी सन 2011 के सलमान नए नायक हैं ,अपने प्रतिनायक की ही तरह ।उनके यहां सत्य व असत्य का परदा और झीना हो गया है ।दिलीप कुमार को आप फिल्मों में मॉ के लिए सब कुछ करता देख सकते थे,अमिताभ ने फिल्मों में बिना मॉ के जीना सीखा ,इस सलमान को मॉ शब्द सुन के 'तेरी मॉ का ' याद आता है ।
फिल्मों का यह वैचारिक युगान्तर फिल्म में किसी लेखक या निर्देशक का सुनियोजित कार्यक्रम नही है ,क्योंकि फिल्म के शेष भाग,गाना,लटके झटके ,हीरो विलेन ,मॉ बाप ,भाई भाई ,प्रेमी प्रेमिका के वही घिसे पिटे तरीके अपनाए गए हैं ।फिल्म में पुलिस डकैत,तस्कर,खूनी के पीछे नहीं पडी है ,वह घूस का पैसा खाते ,गाना गाते ,नाचते हुए अपने दारोगा के लिए लडकी पटाते हुए मस्त मस्त है ।यह पुलिस पैसों के लिए डकैतों को जाने देती है तथा प्रोमोशन के लिए अपने ही हाथ में गोली मारती है ।ऐसे ही सिपाही की पत्नी का उस तथाकथित वीरता का पुरस्कार व पैसा ले कर चहकना वीभत्स रस पैदा करती है ।यह कई मायनों में विचित्र फिल्म है यहां प्रेम से श्रंगार रस पैदा नहीं होता ,मौत से करूण व पूजा से भक्ति भाव का दूर दूर तक कोई रिश्ता नही है ।
जाहिर है कि हमारे जीवन में भी तो नायक बदल चुके हैं ।गांधी ,भगत,सुभाष के बाद जेपी ,लोहिया और अब तो इंदिरा व ज्योति बसु का भी जमाना बीत गया है ।अब हमारे खास तरह व भंगिमा वाले नेता हैं ।वो ईसीलिए ईमानदार हैं कि अदालत ने उन्हें दोषी नही ठहराया है ,ठहरा दिया तो अदालती अपील की लंबी चेन उन्हें राहत पहुंचाती है ।हमारा नायक चुलबुल पांडे भी वीर सांघवी की तरह टाटा व राडिया के लिए ही जीता है ।उसकी सारी क्षुद्रता व औदात्य उसी महान वर्ग को समर्पित है
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Saturday 19 February, 2011
फिल्म दबंग का उत्तर आधुनिक संदर्भ
Tuesday 15 February, 2011
देश एक नदी का नाम है
दांत,पंजे व विषैले पूंछो वाले
बहते हैं जहां जानवर व भाषा एक साथ
चीखचित्कार पर चकित होने की मनाही है भाई
सौ वरस पहले की बात है
प्रकट हुई खडीबोली
इतिहास के दांत
राज के पंजों के साथ
दबोची गई थी अवधी,ब्रजभाषा जैसी कई
चित्कार पर प्रसन्न थे
भाषाविद,समाजशास्त्री व देशप्रेमी
किसी ने भी पूछी नही
अवधी की ईच्छा
सब प्रसन्न हो
देख रहे थे खडी बोली के नाखून
अभी भी तो नजर है
मैथिली,राजस्थानी पर
नदी के साथ ही
मेरा भी एक मैला आंचल है
बाप जिन्दा हैं
बिज्जावई भाषा के साथ
देवभाषा उनकी मंत्रों में ही जिंदा है
वे सस्नेह सुन रहे हैं
पोते का ईटिंग सुगर नो पापा
पत्नी मेरी बैठी है
विशाल डैने के साथ
बच्चा अब पढेगा
ट्विंकल ट्विंकल लिटल स्टार
Friday 11 February, 2011
हिंदी पेंगुइन
पेंगुइन हिंदी का मतलब ये तो नही है मित्र
क्या पेंगुइन हिंदी जानती है
या हिंदी के लिए कोई पेंगुइन है
पेंगुइन और हिंदी गुत्थम गुत्था कोई चीज है
फेसबुक पर पेंगुइन हिंदी नाम का कोई मेरा मित्र है
जो दिल्ली से है व अभी भी दिल्ली में है
मतलब कि पेंगुइन हिंदी व दिल्ली की है
व अभी अभी झूठ बोलना सीखा है
इस नवसिखुए झूठक्कर को
इस दुनिया में मुझसे ज्यादा मित्र हैं
माफ करना भाइयों
जबकि दुनिया में उल्लू,बाज व गिद्ध की मॉग है
हमने चयन किया है
पेंगुइन की
यह चिरश्रांत आ रहा है
धीरे धीरे धीरे
हिंदी ,भोजपुरी ,मगही
ब्रज ,मैथिली, पंजाबी की तरफ
उसका चलना उडना
व तैरना बात एक ही है
व हिंदी का होना
व नही होना भी बरोबर है
Thursday 3 February, 2011
मम्मट के शहर में शक्ति कपूर
अनिवार्य भदरोये से ज्यादा नही हो मित्र
साहित्य,कला,फिल्म के मेरे नवोदित साथी
वो उतना ही ताकतवर व खतरनाक है
जितना कि प्रौढ जांघों के बीच की मुद्राएं
जबकि यह साबित हो चुका है
कि शमशेर ज्यादा काबिल थे
बेबकूफी मेरी मिलाती है मुझे
धुमिल व राजकमल से
जांघ व जीभ के चालू मुहावरे दिखते हैं मोहक
मुझ असभ्य को
जबकि कविता मांगती है तमीज
व मैं उतना ही झुकता चला जा रहा हूं जांघ की तरफ
आचार्य जगन्नाथ ने किया ही क्या है
अब तो शक्ति कपूर भी बस गए हैं
मम्मट के शहर में
व सिखा रहे नवोदिताओं को साधारणीकरण
फिल्म,रस व नाडा में अंतर ही कितना है
दिल्ली व पटना के उस्ताद
जब बोलेंगे कविता के संकट पर
उनका ध्यान क्या नही जाएगा उन थीसिस पर
जो उनके चौथेपन में भी बना
पुरूषार्थ का साधन
आखिर मैं कहना क्या चाहता हूं
शिलाजीत की शक्ति अमोघ है
व कविता छनभंगुर है
कविता का तनाव,गुरूत्व ,प्रत्यास्थता
व सुघटयता भौतिकी का विषय नही