हे नए कवि सबको साधे रहो
क्या प्रगति क्या प्रयोग
बस आलोचक को नाथे रहो
लिख कम बोल कम
गुरूजन सिर माथे रहो
छपो दिखो गुणो बंधु
बस संपादक को बांधे रहो
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Friday 20 May, 2011
Tuesday 17 May, 2011
स्थगित था कविता लेखन
(जानकी वल्लभ शास्त्री के साहित्यिक अवदान पर प्रेम भारद्वाज के द्वारा की गयी अविवेकपूर्ण टिप्पणी को समर्पित)
स्थगित था कविता लेखन
भ्रष्टमंडल खेल भी
उठबा न सका लेखनी
ए राजा भी नहीं
न ही मनमोहिनी चुप्पी
भट़टा परसौल की घटना को
समझ कर मायावी राजनीतिक हथकंडा
खामोश रही लेखनी
कि
अचानक महाप्रयाण पर चले गए
जानकी वल्लभ जी
आचार्य जी
शास्त्रीजी
अचानक नामवर आलोचक के अनुचरों को
याद आ गए लीद ,कूडा जैसे शब्द
महान गुरूओं से परंपरा स्वरूप
लिए गए हैं ये शब्द
क्रितघ्नता इतनी कि गुरूओं को
क्रितज्ञता ज्ञापन तक नहीं
नाम कमाना चाहते हैं ये
नाथूराम गोडसे की तरह
पर अफसोस
कायर इतने कि
सामने से फायर झोंकने की जगह
उचित समझते हैं
सज्जन पुरूष के दरवाजे पर
लीद फेंकना
और आज का तथाकथित
मेरे जैसा समाज सुधारक
उठा लेता है
झाडू की जगह कलम ।
Sunday 15 May, 2011
संपादकीय विवेक:संदर्भ पाखी मासिक मई 2011
एक संपादक की चिंता बहुत कुछ आलोचकीय चिंता है ,पर यह उन मायनों में अलग है कि उसको निष्कर्ष नहीं देना है ,बस सामने रख देना है ।बहुत कुछ होटल के बैरों की तरह जो बस पूरी स्वच्छता के साथ खाना पडोस देता है ।आपने खाना दिया भी नही और गाहक की संतुष्टि व बिल की चिंता आपको सताने लगे तब तो आप होटल मालिक खूब बने ।पाखी के संपादक मई 2011 के संपादकीय में काफी जल्दी में हैं ।उनको एक साथ ही जानकी बल्लभ शास्त्री,गोपाल सिंह नेपाली और आरसी प्रसाद सिंह पर निष्कर्ष देना है ।
( मगर जब मैंने उनको पढा तो निराशा हुयी ।जानकी वल्लभ शास्त्री का लिखा ज्यादातर एक अर्थ में कूडा ही है ।शास्त्री जी छायावाद से निकल नहीं पाए जबकि वहां उनकी जगह नहीं थी ।यही हाल गोपाल सिंह नेपाली और आरसी प्रसाद सिंह का भी है जिनके साहित्य में हमें कुछ खास मिलता नहीं है ।अनुकरण बहुत आगे तक नहीं ले जाती है, न ही वो आपको आपका स्थान दिलाती है। परिवर्तन ही रचनाकार को सही पहचान दिलाता है ।इतिहास में दर्ज भी कराता है ।)
इससे पूर्व वाराणसी में पाखी के ही एक समारोह में नामवर सिंह ने पंत जी के लेखन में से अधिकांश को कूडा कहा ।लगता है कि प्रेम भारद्वाज ने अपने गुरू से संपादकीय क्षमता में मात्र कूडा शब्द ही जोडा है ।नामवर सिंह के उक्त बयान से भी काफी बवाल मचा पर पाखी की टी आर पी बढ चुकी थी ।लेकिन मात्र उत्तेजक बयानों से कब तक साहित्य की गाडी बढेगी ।
इतिहास में नाम दर्ज कराने के लिए व्याकुल इस संपादक से मैं केवल यह कहना चाहता हूं कि केवल सडक और खेत ही नही होती ,बल्कि सडक और खेत के बीच में भी कुछ जमीन होती है ,उस जमीन को सरकार अपना कहती है और किसान अपना ।जाहिर है कि साहित्य और समाज में भी यह उभयनिष्ठ चिंताएं एवं पहचान होती है ।जब हम लंबाई मापक यंत्रों की सहायता से विभाजन करने व निष्कर्ष निकालने पहुंचते हैं तो हमें प्राय: निराशा होती है ,परंतु दोष तो मेरे उपागम का है ।
छायावाद में केवल चार व प्रगतिवाद में केवल तीन कवि ही नहीं हैं न ही उत्तर छायावाद का मतलब केवल दिनकर और बच्चन से है।ये महान धाराएं थी तथा इसमें सैकडों कवि योग दे रहे थे ।अत: दो या तीन को स्वीकार कर शेष को नकारना किस प्रकार की काबिलियत है ।साहित्य में कूछ खास खोजने के लिए टार्च भी खास होना चाहिए ।बने बनाए सांचे से एक ही तरह की मूर्ति निकलती है ।नई मूर्ति चाहिए तो सांचे को तो परिवर्तित करिए ।
साहित्य में संहार शैली का कोई स्थान नहीं है ।भले ही महान आलोचकों ने अपने अप्रिय साहित्यकारों को खारिज करने के लिए इसका उपयोग किया हो ।राम विलास शर्मा के द्वारा जानकी वल्लभ शास्त्री व नामवर सिंह के द्वारा नकेनवादियों ,राम स्वरूप चर्तुवेदी के द्वारा प्रगतिवादियों के नकार ने साहित्य का कहीं से भी भला नहीं किया ।प्रेम भारद्वाज जी पुरखों को सम्मान देना सीखिए ।
( मगर जब मैंने उनको पढा तो निराशा हुयी ।जानकी वल्लभ शास्त्री का लिखा ज्यादातर एक अर्थ में कूडा ही है ।शास्त्री जी छायावाद से निकल नहीं पाए जबकि वहां उनकी जगह नहीं थी ।यही हाल गोपाल सिंह नेपाली और आरसी प्रसाद सिंह का भी है जिनके साहित्य में हमें कुछ खास मिलता नहीं है ।अनुकरण बहुत आगे तक नहीं ले जाती है, न ही वो आपको आपका स्थान दिलाती है। परिवर्तन ही रचनाकार को सही पहचान दिलाता है ।इतिहास में दर्ज भी कराता है ।)
इससे पूर्व वाराणसी में पाखी के ही एक समारोह में नामवर सिंह ने पंत जी के लेखन में से अधिकांश को कूडा कहा ।लगता है कि प्रेम भारद्वाज ने अपने गुरू से संपादकीय क्षमता में मात्र कूडा शब्द ही जोडा है ।नामवर सिंह के उक्त बयान से भी काफी बवाल मचा पर पाखी की टी आर पी बढ चुकी थी ।लेकिन मात्र उत्तेजक बयानों से कब तक साहित्य की गाडी बढेगी ।
इतिहास में नाम दर्ज कराने के लिए व्याकुल इस संपादक से मैं केवल यह कहना चाहता हूं कि केवल सडक और खेत ही नही होती ,बल्कि सडक और खेत के बीच में भी कुछ जमीन होती है ,उस जमीन को सरकार अपना कहती है और किसान अपना ।जाहिर है कि साहित्य और समाज में भी यह उभयनिष्ठ चिंताएं एवं पहचान होती है ।जब हम लंबाई मापक यंत्रों की सहायता से विभाजन करने व निष्कर्ष निकालने पहुंचते हैं तो हमें प्राय: निराशा होती है ,परंतु दोष तो मेरे उपागम का है ।
छायावाद में केवल चार व प्रगतिवाद में केवल तीन कवि ही नहीं हैं न ही उत्तर छायावाद का मतलब केवल दिनकर और बच्चन से है।ये महान धाराएं थी तथा इसमें सैकडों कवि योग दे रहे थे ।अत: दो या तीन को स्वीकार कर शेष को नकारना किस प्रकार की काबिलियत है ।साहित्य में कूछ खास खोजने के लिए टार्च भी खास होना चाहिए ।बने बनाए सांचे से एक ही तरह की मूर्ति निकलती है ।नई मूर्ति चाहिए तो सांचे को तो परिवर्तित करिए ।
साहित्य में संहार शैली का कोई स्थान नहीं है ।भले ही महान आलोचकों ने अपने अप्रिय साहित्यकारों को खारिज करने के लिए इसका उपयोग किया हो ।राम विलास शर्मा के द्वारा जानकी वल्लभ शास्त्री व नामवर सिंह के द्वारा नकेनवादियों ,राम स्वरूप चर्तुवेदी के द्वारा प्रगतिवादियों के नकार ने साहित्य का कहीं से भी भला नहीं किया ।प्रेम भारद्वाज जी पुरखों को सम्मान देना सीखिए ।
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