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Sunday 15 April, 2012
नामवर सिंह और छायावाद
'आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां' नामवर सिंह की बहुचर्चित पुस्तक है ,और उनके आलोचनात्मक विवेक को जानने के लिए शायद सबसे महत्वपूर्ण भी ।यद्यपि उनके खाते में कई उच्च्ा कोटि के किताब हैं परंतु सबका रूख अलग-अलग है ।'हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में अपभ्रंश का योगदान 'उनके प्रखर छात्र जीवन की पुस्तक है ।समापवर्त्तन के योग्य दक्षिणा के रूप में और लेखक अपभ्रंश में हिंदी का मूल ही नहीं खोजता ,अपने आलोचनात्मक दृष्टि की गहरी नींव भी डालता है ।
सिद्ध-नाथ साहित्य को 'अनगढ़ नवीन ' के रूप में गले लगाने की जिद का परिणाम उस समय जितना दिखता है ,बाद में और भी ज्यादा ।'दूसरी परंपरा की खोज' एक योग्य शिष्य का संस्मरण है इतिहास और आलोचना की पारंपरिक हदों को तोड़ता हुआ । 'कविता के नए प्रतिमान' प्रतिमानों को खोज रहे एक कीर्तिजिगीषु विद्वान के तर्क हैं ।अत:' आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां 'उनके तर्कों ,विचारों ,आलोचना पद्धति को समझने का सर्वश्रेष्ठ मंच है ,वैसे भी उन्होंने छायावाद पर एक पूर्ण पुस्तक 1954-55 में ही लिख दिया था ।अत: छायावाद पर उनके विचारों में एक अद्वितीय परिपक्वता है ।
नामवर जी छायावाद के परिचय से प्रारंभ करते हैं ,तथा काल(1918-36) एवं प्रमुख कवियों का नामोल्लेख करते यह भी कहते हैं 'भावोच्छवास-प्रेरित स्वच्छन्द कल्पना-वैभव की वह स्वच्छन्द प्रवृत्ति' है जो देश-काल-गत वैशिष्ट्य के साथ संसार की सभी जातियों के विभिन्न उत्थानशील युगों की आशा-आकांक्षा में निरंतर व्यक्त होती रही है ।
अब 'छायावाद' संज्ञा पर विचार करते हुए मुकुटधर पांडेय तथा सुशील कुमार जैसे कम परिचित आलोचकों की कृतियों ,जिसमें लेखमाला एवं निबंध ही मुख्य है ,के द्वारा छायावाद के उदयकाल की उस वैचारिकता को तौला जाता है ,जो छायावाद से सबसे पहले परिचित होते हैं ।तत्कालीन आलोचकों जिसमें उपरोक्त दोनों विद्वानों के अलावा आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी भी हैं ,की शब्दावलियों पर नामवर गौर फरमाते हैं ,तथा 'मिस्टिसिज्म' ,'अध्यात्मवाद' ,'कोरे कागद की भॉति अस्पष्ट', 'निर्मल ब्रह्म की विशद छाया' ,'वाणी की नीरवता' ,'अनंत का विलास' जैसे वृत्ति को सामने लाते हैं ।अब नामवर जी 'छायावाद' को 'स्वच्छंदतावाद' एवं 'रहस्यवाद' से अलगाते हैं । इस सम्बन्ध में आचार्य रामचंनद्र शुक्ल के विचारों पर निर्णयात्मक रूप से कहते हैं
'शुक्ल जी के 'स्वच्छन्दतावाद' में छायावाद की रहस्यभावना के लिए कोई जगह न थी ।फलत:'स्वच्छन्दतावाद' अंग्रेजी के 'रोमैंटिसिज्म' का अनुवाद होते हुए भी छायावादी कविता का केवल एक अंग बनकर रह गया और धीरे-धीरे 'छायावाद' संपूर्ण 'रोमैंटिसिज्म' का वाचक बन गया ।'
अब नामवर सिंह छायावाद संबंधी परिभाषाओं और आलोचनाओं के आधार पर छायावादी रचना और कवियों में शुद्ध छायावादी रचना और कवि खोजने की प्रवृत्ति की खबर लेते हैं तथा छायावाद को किसी स्थिर या जड़ मानने की बजाय प्रवहमान काव्यधारा साबित करते हैं ।वे बीस वर्ष तक बहने वाली धारा के विभिन्न सोतों ,झरनों की पड़ताल करते हुए करते हैं ' छायावाद विविध यहॉ तक कि परस्पर-विरोधी-सी प्रतीत होने वाली काव्य-प्रवृत्तियों का सामूहिक नाम है और छानबीन करने पर इन प्रवृत्तियों के बीच आन्तरिक सम्बन्ध दिखाई पड़ता है ।स्पष्ट करने के लिए यदि भूमिति के उदाहरण लें तो यह कह सकते हैं कि यह एक केंद्र पर बने हुए विभिन्न वृत्तों का समुदाय है ।इसकी विविधता उस शतदल के समान है जिसमें एक ग्रन्थि से अनेक दल खुलते हैं ।'
अब नामवर सिंह छायावाद के केंद्रीय प्रवृत्ति की खोजबीन करते हैं तथा उनकी नजर बीसवीं सदी के प्रारंभ के हिंदी समाज में व्याप्त व्यक्तिवादिता पर जाती है ।वे प्रगीत को इसी का परिणाम मानते हुए छायावादी कवि के व्यक्तिगत जीवन और भक्ति काव्य की निर्वैयक्तिकता में स्पष्ट भेद करते हैं ।इस वैयक्तिकता का उत्स आधुनिक शिक्षा और प्राचीन कृषि व्यवस्था की अतिशय सामाजिकता के बीच के द्वन्द्व में देखते हैं । ' 'आत्मकथा 'उसका विषय हो गया और 'मैं' उसकी शैली ।प्रसाद ने तो स्पष्टत: अपनी आत्मकथा का स्पष्टीकरण ही लिख डाला और निराला ने सब की ओर से स्वीकार किया कि 'मैंने 'मैं' शैली अपनायी ।'
व्यक्तिवाद के कोमल पक्षों पर विचार करते हुए वे इसके परूष पक्ष पर भी विचार करते हैं तथा 'सरोज-स्मृति' और 'वनबेला' जैसी कविताओं को इसी आधार पर देखने की खास वजह बताते हैं ।अंत में व्यक्तिवादी धारा ने जिस ओर रूख किया उस पर नामवर जी विस्तार से कहते हैं ' आरम्भ में जिस व्यक्ति ने अपने व्यक्तित्व की खोज के लिए निर्जन प्रकृति में प्रवेश किया था , अंत में उसी ने समाज से भागकर प्रकृति के कल्पनालोक में शरण ली ।जिससे आरंभिक आत्मप्रसार में समाज के सामन्ती मूल्यों को चुनौती दी ,उसके अन्तिम अहंभाव में संपूर्ण समाज ,विशेषत: अपने ही मध्यवर्गीय समाज की व्यवसायिकता से घबड़ाहट का तीव्र असंतोष और निराशा है ।'
व्यक्तिवाद के एक महत्व परिणाम की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि इससे उनका संपूर्ण दृष्टिकोण व्यक्तिनिष्ठ हो गया ।संसार की सभी वस्तुओं को आत्मरंजित करके देखने के प्रयास मे 'छायावाद का ध्यान वस्तु के बाह्य आकार की अपेक्षा या तो उसमें निहित भाव की ओर गया या उसकी सूक्ष्म छाया की ओर ।प्रकृति-चित्रण में पहले के कवि जहॉ पेड़-पौधों का नाम गिनाकर अथवा प्राकृतिक दृश्यों के स्थूल आकार का वर्णन करके संतुष्ट हो लेते थे ,वहॉ छायावादी कवि ने प्रकृति के अन्त:स्पन्दन का सूक्ष्म अंकन किया ।'
व्यक्तिवाद से व्यक्तिनिष्ठ सौंदर्य की ओर बढ़ते हुए नामवर जी बहुत ही कंपैक्ट हैं ,आलेख में सुई के बराबर जमीन नहीं ,जो व्यर्थ ही जमीन घेर रहा हो ,फिर इसी सौंदर्य के रास्ते प्रकृति की ओर यात्रा ,और नामवर जी एक महत्वपूर्ण चीज बताते हैं ' छायावादी कवियों ने प्रकृति के छिपे हुए इतने सौंदर्य-स्तरों की खोज की ,वह आधुनिक मानव के भौतिक और मानसिक विकास का सूचक है ।इस सौन्दर्य-बोध का विकास प्रकृति और मानव के पारस्परिक सम्बन्धों का परिणाम है ।प्रकृति ने मनुष्य में सौंदर्यबोध जगाया और मनुष्य ने उदबुद्ध होकर प्रकृति में नवीन सौंदर्य की खोज की और इस तरह दोनों परस्पर वर्धमान हुए ।'सौंदर्य और सामाजिक विकास को सहचर बनाते हुए नामवर जी बिना किसी मार्क्सवादी सिद्धांतों की चर्चा करते हुए बड़ी बात कहते हैं ।
व्यक्तिबाद का तीसरा परिणाम भावुकता है और नामवर जी इस परिणाम का विश्लेषण भी एक खास दृष्टि से करते हैं ।सबसे पहले भावुकता के उत्स ,फिर उसके स्वरूप ,अंत में उसकी सीमा ।नामवर जी प्रत्येक प्रवृत्ति का ऐसे ही विश्लेषण करते हैं ।भावुकता की सीमा को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं 'कबीर ,सूर ,तुलसी के करूणा-विगलित आर्त आत्म-निवेदन में भी परिणत वय और धीर स्वभाव का संयम है ।किन्तु छायावादी कवि में उच्छल भावुकता का अबाध उद्गार है ,यहॉ तक कि भावुकता छायावाद का पर्याय हो गयी ।'
छायावाद और भक्तिकाव्य के दृष्टिगत भेद में निहित 'तुलना'औजार का उपयोग नामवर जी कई बार करते हैं ,तथा इस औजार को चरम ऊंचाई देते हैं ।तुलनात्मकता का हिंदी आलोचना में नामवर जी से सुंदर उपयोग शायद ही कोई करता हो !भावुकता को कल्पना से जोड़ते हुए वे कालिदास का पंत से तथा निराला का बिहारी से तुलना करते हैं 'कालिदास का 'मेघ' पंत के 'बादल' से अधिक वास्तविक और कम कल्पनाबाहुल है ।'मेघदूत' में मेघ के लिए जगह-जगह नि:सन्देह बड़ी ही मनोरम उपमाऍ लायी गयी है लेकिन अन्तत: उससे रामगिरि से लेकर कैलास तक की भारतभूमि की यात्रा करायी गयी है .......किसी वस्तु को देखकर यदि प्राचीन कवि को अधिक से अधिक उस वस्तु से मिलती-जुलती अथवा उसे संबद्ध दो-एक अन्य अप्रस्तुत वस्तुओं की ही याद आती थी ,तो छायावादी कवि के मन में सैकड़ों 'एसोसिएशन्स' अथवा स्मृति-चित्र जग जाते थे ।'यमुना' को देखकर यदि बिहारी ने इतना ही कहा था कि -सघन कुंज छाया सुखद.....तो निराला के मन में यमुना से सम्बन्धित सैकड़ों स्मृति-चित्र ऊभर आये और 'यमुना' के किनारे उन्होंने कल्पना की एक दूसरी ही सृष्टि खड़ी कर दी ।'
छायावाद की स्वानुभूति ,भावुकता ,कल्पना आदि के विशद विवेचन के बाद वे इस स्वभाव के माकूल शब्द-चयन ,वाक्यविन्यास ,प्रतीक योजना तथा छन्द-गठन की भी चर्चा करते हैं ।शब्दगठन के श्रोतों को खोजते हुए वे क्लासिक संस्कृत कवियों ,ब्रजभाषा काव्य और रवीन्द्र काव्य के साथ ही अंग्रेजी की रोमैंटिक कविता को भी याद करते हैं ,तथा उपयोग में लाए गए शब्दों की तुलना ऐसे करते हैं - 'पन्त के शब्द अपेक्षाकृत छोटे ,असंयुक्त वर्णवाले ,हल्के तथा वायवी हैं ।प्रसाद के शब्द अधिक प्रगाढ़ ,मधुमय और नादानुकृतिमय है ।महादेवी के शब्दों में रूपये की -सी स्प्ष्ट ठनक और खनक है और निराला में सन्धि-समास युक्त विविध जाति और ध्वनिवाले शब्दों में भी अनुप्रासमय व्यंजन-संगीत उत्पन्न करने की चेष्टा है । 'निबंध के अंत में वे इस आरोप को खारिज करते हैं कि छायावाद का संबंध तत्कालीन आन्दोलन से नहीं था ।ऐसा लगता है कि नामवर जी का हरेक प्रयास भ्रमों ,अफवाहों से आलोचना को बचाने का ही है ,तथा वे कट्टर दिखकर भी कविता को दुरभिसंधियों से वापस ले आते हैं ।अंत में वे छायावाद का गद्य पर पड़े प्रभाव की चर्चा करते हैं तथा तुलना करने और मूल्य देने के खतरों को स्वीकारते हैं ' काव्यशैली की भॉति गद्यशैली पर छायावाद का प्रभाव स्पष्ट है ।इस प्रभाव का सर्वोत्तम रूप प्रसाद और महादेवी के गद्य में मिलता है और निकृष्टतम रूप चंडीप्रसाद 'ह्रदयेश' की कहानियों में ।'
पूरे निबंध में नामवर जी आलोचकीय उद्धरणों से बचते हैं ,तथा एक -दो जगह रामचंद्र शुक्ल एक जगह नगेंद्र की छाया तथा इस बात का औचित्य कि छायावाद को 'स्थूल के विरूद्ध सूक्ष्म का विद्रोह 'क्यों कहते हैं तथा अंत में रामविलास शर्मा को उद्धृत करते हैं ।अतिशय सामाजिकता को स्पष्ट करता वर्डसवर्थ की एक पंक्ति अंग्रेजी में तथा सौंदर्य को स्पष्ट करता हुआ रवींद्रनाथ की कविता 'मानसी' को मूल बांग्ला में ।पूरा का पूरा संदर्भ छायावादी कवियों का ही ।सारा का सारा तर्क साहित्यिक ,एक जगह ज्यामिति का भी ,एक जगह मानवशास्त्र का भी ,परंतु कटने काटने की ललक कम लगभग सर्वसम्मति की ओर बढ़ती ........
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