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Sunday 29 January, 2012
महात्मा गांधी पर फिराक गोरखपुरी की टिप्पणी
प्रसिद्ध कथाकार बलवंत सिंह ने फिराक से एक लंबी बातचित की थी ,यह उर्दू चैनल पर प्रसारित हुई थी ।प्रेम कुमार ने कथादेश के दिसम्बर 2011 अंक में इसे सविस्तार छापा है ।बातचित के अंत में बलवंत सिंह का प्रश्न था 'आजादी मिलने के बाद हम तहज़ीबी तरक़्की के कुछ मनाजि़ल तय कर सकते हैं या नहीं ?'।फिराक ने इस प्रश्न का अत्यंत ही सारगर्भित उत्तर दिया:
हुसूले आजादी हमको एक ऐसे आदमी की रहबरी से नसीब हुई जो कई लिहाज से बहुत बड़ा आदमी था ,और कई लिहाज से बहुत छोटा आदमी था ,यानी महात्मा गांधी .....उस शख़्स का शउर और उसका पूरा वजूद इस काबिल थे ही नहीं कि फन्ने -तामीर, फन्ने -मुसव्वरी ,फन्ने -रक्स ,फ़न्ने -मौसिकी ,फन्ने -अदब -उलूम और बुलंद तालीम व तर्बियताफ़्ता दिमाग के मफ़हूम को कुछ भी समझ सके ।महात्मा गांधी की अज़मत एक अलमिया थी ,जिसने हिन्दुस्तान को आजाद भी किया और मुस्तकि़ल तौर पर उन अज़मतों की कद्रशनाशी(मूल्यबोध)से हमें महरूम कर दिया जिनका जिक्र उपर आया है ।मार्क्स और लेनिन ऐसे सूरमाओं और दिलदादगाने अमल (कार्य के लिए समर्पित) के मुताल्लिक़ ऐसी ख़बरें हम तक पहुंची है कि सदहा(सैकड़ों) अदीबों और फ़नकारों के कारनाओं पर ये झूमे थे ।लेकिन हाय !हाय !एक थे महात्मा गांधी जो कई अल्फ़ाज जि़न्दगी में बोले लेकिन एंजेला ,शकुतला,खुसरो ,तानसेन ,जे0सी0बोस और आफ़ाकी तहज़ीब के दीगर पाईंदा और कारनामों के लिए अठहत्तर बरस की लम्बी चौड़ी जि़न्दगी में पांच सात लफ्ज भी नहीं बोल सके ।बल्कि सर जे0सी0बोस की शान में उन्होंने ये गुस्ताख़ी की कि एक पब्लिक जलसे में कह दिया कि दरियाफ्तों से अवाम को क्या फायदा ।वाह रे अवाम वाह रे फायदा ।बूझें तो लाल बूझक्कड़ और न बूझे को ये ।उस शख़्स की रूह महज अंग्रेजी हुकूमत से नहीं लड़ती ,बल्कि इल्म ओ अदब से भी लड़ती थी और तहज़ीब की बुलंद कदरों को समझने से बिल्कुल माज़र(असमर्थ)थी ।महात्मा गांधी उम्र भर अगर कभी मौजूपर कोई मजमून लिखना चाहते कि हिन्दुस्तान का रौशनतरीन दिमाग किन किन सलाहियतों का हासिल हो तो वह मज़मून निहायत सड़ा होता ।उस शख़्स ने सक़ाफ़ती और तहज़ीबी लिहाज़ से हमें भिखमंगा बना दिया ।यह सब आमतौर पर कह चुकने के बाद हम भी कहेंगे कि महात्मा गांधी की जय !!
जाहिल होते हुए भी यह शख़्स हमें बहुत कुछ दे गया है । जि़न्दगी की बहुत सी क़दरें ।जो इल्म ही नहीं ,बल्कि फ़नून ए लतीफा से भी बेनियाज़ है ।अदमे तशद्दुद(अहिंसा का पाठ) का सबक, जुरअत औ हिम्मत का सबक़, माद्दी (भौतिक)ताकत के आगे सर न झुकाने का सबक्,निहत्थों को आगे मुसल्लह कूवतों से लड़ने का सबक़, जिंदगी में एक शानदार तेवर पैदा करने का सबक़,दुनिया की सबसे चालाक और तजुर्बाकार क़ौम के तमाम हथकंडों को बेकार कर देने का सबक़ ,जो हमें महात्मा गांधी ने दिया वो हमें कोई नहीं दे सकता ।महात्मा गांधी और उनके असरात हमारी गुलामी के लिए कार आमद थे ,लेकिन हमारी आजादी के लिए गांधीयता या तो बिल्कुल बेकार चीज़ है या बहुत कम कार आमद है ।जंगे आज़ादी में हम विदेशी हुकूमत को मिटा देना ही अपना सब कुछ समझ बैठे थे ।आजादी हासिल होने के बाद हम क्या करें ,इस सवाल का जवाब देना महात्मा गांधी के बस का काम नहीं था ।इसीलिए यह ख़तरनाक और कार आमद आदमी ,ये बड़े काम का और निकम्मा आदमी हमेशा स्वराज के लिए लड़ता रहा और स्वराज के लावज़मात बताने से हमेशा दामन भी कतराता रहा ।एक बार ये हज़रत यानी महात्मा गांधी मैसूर सेंट्रल कॉलेज इलाहाबाद में तशरीफ लाए ।उन दिनों मैं पंडित अमरनाथ झा ,कपिल देव मालवीय और प्रकाश नारायण सप्रू सब मैसूर कॉलेज के तालिबे अल्म थे ।प्रकाश नारायण ने महात्मा गांधी से सवाल किया ।कम सेकम कितनी रकम या माली हैसियत रखने की इजाज़त आप किसी को देंग ?जिसका जवाब महात्मा गांधी ने ये दिया कि कुछ नहीं ऐसे ही मौके के लिए शेख़सादी ने लिखा था ' बरीं अक़्लो दानिश वबायद गिरीस्त ' (इस अक़्ल और बुद्धि पर रोना चाहिए )
(साभार बलवंत सिंह ,प्रेम कुमार ,उर्दू चैनल तथा 'कथादेश')
कथाकार सूरज प्रकाश को याद करते हुए
गोर्की टॉल्सटाय व दोस्तोवस्की
तुम्हें सूरजप्रकाश ने
बंद कर दिया है
मिथिला के एक गांव में
गांव के पुस्तकालय
व पुस्तकालय की आलमारियों से बाहर तुम लोग निकलोगे
केवल कविताओं में ।
यह उन तमाम देशनिकालाओं से अलग होगा
जो तुम्हारे नायकों ने झेले होंगे
साइबेरिया के अनाम गांवों में
रूस के समूचे बर्फ में
नहीं पाया होगा तूने
इतना सर्द पांडित्य ।
इतना छंदबद्ध जीवन
लोहे के वर्ण
कालदेव के यति गति
तूने न रूस के जारशाही में
न स्टालिन के यहां देखे होंगे ।
न ही देखा होगा ताण्डव धर्म का
देवताओं के नाम पर
यूरोप की अनंत युद्धलिप्सा के बावजूद ।
यह गंगा व गंडक की जमीन है
जहां विदेह माधव पहुचे थे
तीन सहस्र साल पहले
वनों को जलाकर बोया था
धान के बिरवे ।
उसी धान को बोते काटते
इस देश ने बूना उपनिषदों
ब्राह्मणेां स्मृतियों का महाजाल ।
यहां की मिट्टी
नूतन जलोढ़ नाम है खादर जिसका
महीन बारीक कोमल कणों से बने
हमारी चालाकी भी महीन
दोमट मिट्टी जानती है राज
हमारी सभ्यता की
नमी धारण करने का अपार सामर्थ्य
मुकुटों के षड्यंत्र की साक्षी
देखती रही हैं साम्राज्यों की विशाखाएं ।
तुम तो विशाल प्रेयरी के वासी
कुछ गलत तो नहीं कह रहा
बुरान की हड्डी गलाने वाली हवा
बहुत याद आएगी तुमको
पर यहां के भी किसान मजूर
प्रिय बनेंगे तेरे ।
मिथिला के किसानों के पसीने का गंध
भी शायद वही होगा
जो मास्को या लेनिनग्राद के भाईयों का ।
रात को पुस्तकालय की टूटी खिड़कियों से जरूर बाहर निकलना
घूमना मिथिला के खेत जंगल पोखर में
नाचना मैथिलजन के मिठास पर
सीखना उनसे मैथिली के कुछ भदेस शब्द मुहावरे गीत
हँसना हहा हहाकर ।
पूरा करना उन अधूरे उपन्यासों को
जो नहीं पूरा हो पाए वोल्गा किनारे ।
2 बोलो सूरज प्रकाश
क्यूं हटाए इन किताबों को अपने घर से
किताबों के काले अक्षर
या झक सफेद कागज परेशान करता था ।
या खोए रहते थे रातदिन
उन मित्रों को देखसोच
जिन्होंने अपनी लिखी किताब सौंपी थी
लिखावट उसकी
तारीख तब का
कितना परेशान करता था ?
या मगन थे किताबों में
-------------
व सुनते रहते थे अपनों की
..............
किताबों के पन्ने में
सूखे गुलाबों ने
कितना रूलाया ?
पन्नों पर मरे मच्छरों के अंश से ही हो गए विरक्त
या इस धार्मिक देश में दान की महिमा पर ही मर मिटे ?
अब तेरे किताब
सहेगी गंवई राजनीति
धूल ओस जाति अहम्मनीयता हजारों साल की ।
जेठ की नदी की तरह
क्या बची है केवल बालू की उपत्यकाएं
या गंभीर नदी की तरह बचाए हो थोड़ी सी किताब
तेरे ही किताबों को गांवों में रख
मैं तो हो गया जेठ का ठूंठ
पल्लवों की कोई आश नहीं
सच सच बोलना मित्र
अब कितने रिक्त हो
कितने पूर्ण ।
Thursday 5 January, 2012
नामवर और काशीनाथ :हिंदी के अबुलफजल और फैजी
साहित्यिक प्रतिभा भले ही व्यक्तिगत हो ,संस्कार बहुत कुछ सामाजिक ही होता है ।इसीलिए साहित्य की दुनिया में कई योग्य भाई हैं ।रीतिकाल में रत्नाकर त्रिपाठी के चार बेटों में से तीन चिंतामणि ,भूषण ,मतिराम तो उच्च कोटि के कवि थे ही ,द्विवेदी युग में मिश्रबंधु की प्रतिभा भी असंदिग्ध ही है ।आप तो यही न कहेंगे कि इनमें कोई विद्यापति ,तुलसी ,सूर या कबीर नहीं है ,परंतु अकबर कालीन फारसी कवि अबुल फ़जल और फ़ैजी को आप क्या कहेंगे ।ये दोनों भाई जितने बड़े कवि,इतिहासकार उतने ही बड़े अनुवादक भी थे ।
इस सूदूर अतीत में जाने की भी जरूरत नहीं है ।अपने नामवर और काशीनाथ को ही लीजिए ।दोनों अव्वल दर्जे के गद्यकार ।नामवर भले हीं काशीनाथ के पक्ष में खुल के न बोलें ,परंतु मात्र एक किताब 'काशी का अस्सी 'ही उनको लंबे समय तक हिंदी साहित्य संसार का प्रिय बनाए रखेगा ।वैसे काशीनाथ अपने अग्रज के विषय में इतना मौन नहीं रहते
'अपनी सारी जिन्दगी में मैंने ऐसा वक्ता नहीं देखा जिसने अपनी जबान से कलम का काम लिया हो ,जो अपनी वाणी से सुनने वालों के लिए दिमाग पर लिखता रहा हो ।एक ही विषय पर कई व्याख्यान और हर व्याख्यान में हर बार नये नुक्त ,नयी बात ,नयी जानकारियॉ ,जहॉ सभा कानों से नही नहीं ऑखों से भी सुन रही हो ।
पचासों हैं जिनमें कविता कहानी का विवेक नामवर को सुन आया ।
सैकड़ों हैं जिन्होंने कोई किताब इसीलिए खरीदी कि उसका जिक्र नामवर के व्याख्यान में आया था ।
हजारों हैं जिनकी साहित्य में दिलचस्पी नामवर को सुन कर हुई है ।
और ऐसी संख्या तो लाखों में हैं जिन्हें नामवर को सुनकर हिन्दी स्वादिष्ट लगी है ।
इसी को नामवर आलोचना की 'वाचिका परंपरा' कहते हैं ,और जब कहते है तो विद्वानों के चेहरे पर कभी व्यंग्य होता है ,कभी खिल्ली उड़ाने का भाव ।
यह सब सुनते रहते थे नामवर ,फिर भी नहीं लिखते '(साभार तद्भव )
काशीनाथ के इस संस्मरण में यदि आपको कविताई नजर नहीं आए ,तो भाई हम आपके लिए क्या करें
वैसे नामवर सिंह के एक और अनुज(असहोदर)डॉ0 रेवती रमण ने अपनी पुस्तक 'हिंदी आलोचना:बीसवीं शताब्दी'में नामवर पर लिखते हुए अबुलफज़ल के प्रसंग का याद दिलाया है ।अबुल फज़ल ने फैजी पर लिखते हुए कहा ' उसके बारे में कुछ भी बखान करने में मेरा भ्रातृत्व प्रेम बाधक है ।फिर भी ,मैं केवल इतना ही कहकार अपनी लेखनी को विराम देता हूं कि जो शब्द से शब्द को जोड़ता है ,गोया जिस्म से खून का एक कतरा कम करता है ।'
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