आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जिस महत्तर चिंता के साथ हिंदी साहित्य संसार में अवतरित हुए ,उसमें मात्र भाषा की उच्छश्रृंखलता व खड़ी बोली व ब्रजभाषा की द्वैधता ही शामिल नहीं थी ।आलोचना व कविता भी उनकी चिंताओं में शामिल है ।आलोचनाकर्म भले ही आचार्य शुक्ल की तुलना में उनका कम हो ,परंतु कविता की समझ उनकी निस्संदेह बीस थी ।रीतिकालीन अवशेषों से जूझते द्विवेदी जी शुद्धतावाद और उपयोगितावाद की तरफ झुकते हैं ,परंतु कविता व आलोचना की कसौटी को विश्वसनीय बनाते हैं ।कविता के लोकप्रिय शिल्प की तुलना में वैकल्पिक आग्रहों को उन्होंने जितनी जल्दी स्वीकारा ,यह आश्चर्य उत्पन्न करती है ।नए शिल्प के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण एक लंबे समय तक हिंदी आलोचना से लुप्त रही और यह कहने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए कि यह स्वीकार्यता एक लंबे अंतराल के बाद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और नामवर सिंह में प्रकट हुई । अपनी कविता में अभिनवशिल्प के कारण ही निराला और मुक्तिबोध बहुत दिनों तक आलोचकों के एक वर्ग के द्वारा निशाना बनते रहे तथा रामचन्द्र शुक्ल और राम विलास शर्मा अपनी तमाम प्रगतिशीलता के बावजूद इस एकांगिता का अंग बने रहे ।
शिल्प विषयक उनकी प्रगतिशीलता को रेखांकित करने के लिए उनका एक उद्धरण प्रस्तुत करना चाहूंगा '' आजकल लोगों ने कविता और पद्य को एक ही चीज समझ रखा है ।यह भ्रम है ।कविता और पद्य में वही अन्तर है ,जो अंग्रेजी पोयट्री और वर्स में है ।किसी प्रभावोत्पादक और मनोरंजक लेख ,बात या वक्तृता का नाम कविता है ,नियमानुसार तुली हुई सतरों का नाम पद्य है । जिस पद्य के पढ़ने या सुनने से चित्त पर असर नहीं होता ,वह कविता नहीं ।वह नपी तुली शब्द ,स्थापना मात्र है ।गद्य और पद्य दोनों में कविता हो सकती है ।''
यही विचार निराला भी व्यक्त करते हैं '' तुले हुए शब्दों में कविता करने और तुक अनुप्रास आदि ढ़ूढ़ने से कवियों के विचार स्वातंत्र्य में बड़ी बाधा आती है ।पद्य के नियम कवि के लिए एक प्रकार की बेडि़यां हैं ।उनसे जकड़ जाने से कवियों को अपनी स्वाभाविक उड़ान में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ।''
आचार्य द्विवेदी अपने समझ को एक व्यापक जमीन पर विकसित करते हैं ।संस्कृत के कई प्रतिष्ठित लेखकों पर उन्होंने गंभीरतापूर्वक लिखा तथा उनकी कमियों को साहसपूर्वक दिखाया ।संस्कृत ही नहीं बांग्ला ,अंग्रेजी ,मराठी और उर्दू साहित्य को मनन करते हुए उन्होंने हिंदी में गंभीर पाठक वर्ग को पैदा किया ।उर्दू साहित्य की प्रशंसा उन्होंने जिस मनोयोग से किया ,वह उनकी निष्पक्ष दृष्टि और हिंदी के सेकुलर भविष्य की ओर संकेत करती है '' उर्दू का साहित्य समूह हिन्दी से बढ़ा चढ़ा है ।इस बात को कबूल करना चाहिए ।''''''' उर्दू लेखकों में शम्स उलमा हाली ,आजाद जकाउल्ला ,नजीर अहमाद आदि की बराबरी करने वाला हिन्दी में शायद ही कोई हो ''
उन्होंने प्राचीन साहित्यिक परंपरा के क्षयमान तत्वों का खुलकर विरोध किया ।उन्होंने स्पष्ट कहा कि नायिका भेद जैसे ग्रन्थों के न होने से न केवल युवा वर्ग बल्कि सबका कल्याण है ।उन्होने कविता मे सरल और जनसाधारण की भाषा को ही उपयुक्त माना ।आलंकारिकता के विरूद्ध सहजता का उन्होंने खुलकर समर्थन किया ।
नन्ददुलारे वाजपेयी ने आचार्य द्विवेदी को साहित्य में कपास की खेती करने वाला कहा है ,बहुत सारे लोगों ने उन्हें नीरस और उपयोगितावादी बताया है ,परंतु इसे उस युग के परिपेक्ष्य में ही देखा जाना चाहिए ।राष्ट्रप्रेमी द्विवेदी जी हर तरह से सामंतवाद और रीतिवाद को पराजित करना चाहते थे ,इसीलिए उन्होंने अपने लिए एक कठोर नीरस और रूक्ष विद्वान की भूमिका का वरण किया ।कूड़ा करकट हटा के ही उन्होंने वह जमीन बनायी ,जिस पर आचार्य राम चन्द्र शुक्ल खड़े हुए ।
maine dwivedi ji ke baare mein bahut khoj ki lekin mujhe khi kuch nhi mila .main hindi sahitya sansar ka bahut abhari hun.
ReplyDeletethan;) B-:)
ReplyDeleteDhanyawad
ReplyDeleteबहुत ही सहज़ तरीके से आपने समझाया 🙏 बहुत बहुत आभार आपका 🙏
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