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Wednesday 28 March, 2012
पश्चिमी घाट का राजा
पश्चिमी घाट का राजा
भूमंडलीकरण के पक्ष मे भाषण देता अलसुबह
नाश्ता नसीहत के साथ जिसमें
देश मुक्त था सीमाओं से करों से
डिनर विश्वग्राम के दरोगाओं मसखरों के साथ
लंच में परोसता गरम गालियां उन मजदूरों को जो सुदूर पूरब से आए
गिने-चुने शब्दों मुहावरों सेकाम चलाता हमारा नायक
शब्दकोष पढ़ना तौहीन मानता वह
हल्की-हल्की दाढ़ी बहुत फबती उस पर
बाखूब जाहिल पर हिट है वह
क्योंकि बड़ी-बड़ी आंखे उसकी
छुपाए हैं फरेबी सपनों को
देखते ही वमन करते नौजवान
पश्चिमी घाट पर विधर्मियों के गोश्त
मिर्गियों में घूमते त्रिशुल के साथ ।
बहुत विद्वान हैं भैया वे लोग
बकवास मानते कि एक त्रिशूलधारी ने ही
हलाहल को पी डाला
दिखाते नए नए पुराण
सँपोला भी वही बोलता
जमाना तैयार बैठा कि कुछ नया सुने
पर मेंडल जिंदाबाद है गुरू
गुलाब ही न गुलाब पैदा करेगा
वैसे बहुत क्रिएटिव हैं साहब
साहब ही नहीं पूरा खानदान जनाब
बहू कार्टून फिल्में बनाती
एक फिल्म मे राम के सौ सिर को
रावण ने त्रिशूल से काट डाला
पोता आर्थिक चिंतक है
नाथूराम गोडसे को चूतिया कहता है
यह काम तो त्रिशूल से भी संभव था
नाहक तीन गोली खर्च करता था
छोटा बेटा इतिहास पढ़ाता
उसने साबित किया कि सबसे पहला आदमी इसी जगह जन्मा
फिर कभी डार्विन कभी नित्से
कभी कभी हिटलर को भी उद्धृत करते हुए
साबित करने की विराट धुन
पहले आदमी की भाषा
उसका देश -प्रदेश
अदब- मज़हब
समझाने के लिए उसके पास कर्इ चीजें हैं
उसकी दाढ़ी ,उसकी आंखें
उसका कलम ,उसके गण
हाफपैंट धारण किए हुए पश्चिमी घाट पर त्रिशूल के साथ
आप चाहें जैसे समझे
Sunday 25 March, 2012
एन0एच0 पे भगवान
दिन जुमा हो या मंगल का
रस्ता रोके खुदा का बीच सड़क पर
सन्2013 की राजधानी
हो रहा नमाज मंगलगान
बना रहे घूसखोर
दान-दक्षिणा ले रहे भगवान
मस्त भी व्यस्त भी
खुदा हो रहा आग
हो रहा पानी-पानी
2 रस्ता जाम कर हो रहा ईबादत
ओ भैये ,गुरू ,दादा ,अन्ना
कौन सा मौलिक अधिकार है तेरा
पढ़ाई-लिखाई ,अस्पताल दुकान
क्या खुदा के कहने से करता हलकान
भगवान केा उंचा सुनने की बीमारी नहीं है प्यारे
तो मैं कबीर का प्रवचन बंद करू न !
ठीक है तो आ रहा थानेदार गंडा सिंह
उसे ही पकड़ाता हूं पांच सौ का नोट
मारेगा डंडा घूमा घूमा के आगे-पीछे
तब बताना उसको मानवाधिकार का सेक्शन नं0 फलां
रस्ता रोके खुदा का बीच सड़क पर
सन्2013 की राजधानी
हो रहा नमाज मंगलगान
बना रहे घूसखोर
दान-दक्षिणा ले रहे भगवान
मस्त भी व्यस्त भी
खुदा हो रहा आग
हो रहा पानी-पानी
2 रस्ता जाम कर हो रहा ईबादत
ओ भैये ,गुरू ,दादा ,अन्ना
कौन सा मौलिक अधिकार है तेरा
पढ़ाई-लिखाई ,अस्पताल दुकान
क्या खुदा के कहने से करता हलकान
भगवान केा उंचा सुनने की बीमारी नहीं है प्यारे
तो मैं कबीर का प्रवचन बंद करू न !
ठीक है तो आ रहा थानेदार गंडा सिंह
उसे ही पकड़ाता हूं पांच सौ का नोट
मारेगा डंडा घूमा घूमा के आगे-पीछे
तब बताना उसको मानवाधिकार का सेक्शन नं0 फलां
Friday 23 March, 2012
देश ,इतिहास और रामदेव
विश्व इतिहास में बहुत सारे बैद्य आए ,नाम ,अर्थ ,यश कमाया ,राजाओं की चिड़ौड़ी की ,राजबैद्य कहलाए ,चले गए ।यहां तक कि हेप्पोक्रेट्स ,चरक और सुश्रूत राजदरबार में रहकर भी इतना प्रभावी नहीं हुए कि उनकी हनक चिकित्सा से भिन्न क्षेत्र में भी दिखाई दे ।अरस्तू की विद्वता ,प्रतिभा ,विषय और क्षेत्र की सीमाओं को भेदने वाली दृष्टि अन्य को नहीं मिली ।कृष्णदेव राय ,बरनी ,अमीर खुसरो बड़े ही विद्वान मंत्री थे ,परंतु कोई भी इतनी प्रसिद्धि और शक्ति अर्जित नहीं कर सका कि राजनीति का एक अन्य केंद्र बन सके ।यद्यपि इतिहास ऐसे षड्यंत्रों से भरा परा है जिसमें मंत्रियों ने राजा को सत्ताच्युत कर दिया हो ,पर मैं कुछ दूसरी बात कहना चाह रहा हूं बाबा रामदेव जी ।
मैं यह कहना चाह रहा हूं कि चिकित्सा पद्धतियों के प्रणेताओं ,आचार्यों ने भी इतना अर्थ और यश नहीं अर्जित किया होगा कि जितना आपको मिला ,परंतु यह कहना कठिन है कि आपने अपने लिए इस देश के लिए उसका महत्तम उपयोग किया ।आयुर्वेद और योग को लोकप्रिय बनाने के आपके प्रयासों की प्रशंसा हुई है ,परंतु आपने इस वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति को ग्रामीण भारत में फैलाने तथा भारत के ग्रामीण एवं गरीब जनता को सरल एवं सुगम चिकित्सा उपलब्ध कराने का प्रयास किया हो ,ऐसा कहना कठिन है ।शोध और अनुसंधान के क्षेत्र में भी डाबर और हिमालया जैसी कंपनी की उपलब्धि आपसे बेहतर है ।गुणवत्ता और मूल्य की दृष्टि से भी उक्त कंपनियां बेहतर रही है ।
राजनीति एवं संस्कृति के प्रति आपकी अभिरूचि सम्मानजनक होते हुए भी दिशाहीन है ।भारतीय राजनीति के किस पहलू की तरफ आपका झुकाव है ,तथा किन तत्वों पर आपको बल देना है ,यह अभी तक आपने सुनिश्चित किया है ।आप कभी संघी राजनीति तथा कभी प्राचीन भारतीयतावाद के घोषित पॉपुलिज्म की और लगाव दिखाते हैं ,परंतु खुलकर स्वीकार नहीं करते ।आपके विचार की यह दिशाहीनता आपकी राजनीति में भी है ,आप यह सुनिश्चित नहीं कर पा रहे हैं कि आपको वैद्य ,आचार्य बनना है या कौटिल्य जैसा राजनिर्माता ।आप खुलकर संसदीय राजनीति में भी घुस नहीं रहे हैं ।वैचारिक एवं राजनीतिक स्तर पर यह घाल-मेल आपके लिए जितना भी सुविधाजनक है ,देश के लिए थकाने वाला । देश वैसे भी राजनीतिक नौटंकियों से घबड़ा गया है ।यद्यपि देश इन नौटंकियों में समय-समय पर भाग लेता है ,तथापि अभिनय की भूमि मंच ही है , गंगा-सिंधु की विशाल भूमि नहीं ।आपका भगवा विंध्याचल से दक्षिण भी बेअसर रहा है ,तथा अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों में अपने प्रति गलतफहमी पाले रहने का निरंतर मौका दिया है ।यदि आपको राजनीति में रहना है गुरू तो साफ करो कि वे बातें गलतफहमी ही है या सही है ।
आपके अब तक की राजनीति एवं वैद्याचार्यत्व से स्पष्ट है कि आपको प्रो-हिंदू ,प्रो-अर्बन ,घालमेली राजनीति प्रिय है ।आम गरीब जनता को वैचारिक एवं चिकित्सकीय स्तर पर उद्वेलित करने का एक शानदार मौका आपने खो दिया है ।देश ने अभी भी आपको नकारा नहीं है , पर देश नए एवं स्वच्छ परिधान में ही आपको गले लगाएगा ।
Saturday 17 March, 2012
गुरूदेव अब शांति निकेतन में नहीं रहेंगे
शांतिनिकेतन के प्रशासक अब चहार दीवारी को किला बनाने पर तुले हैं
परिंदा भी पर न मारे का ठसक लिए हुए
गुरूदेव ठेकेदारी में दलाली से परेशान नहीं दिखे
यद्यपि उन्होंने यह तो नहीं कहा कि सब चलता है
ऐसा भी नहीं लगा कि वो लिखना पढ़ना बोलना भूल गए हैं
गुरूदेव ने कहा यही तो दिक्कत है यार
मेरे कंठ को ,आंख को ,कान को भीलकवे ने नहीं मारा है
और मुझे सब कुछ दिख सुन रहा है
वी0सी0 रजिस्ट्रार मास्टर से उन्हें कोई शिकायत नहीं
सब फूल माला पहनाते ही थे
पर चाहते थे कि रवींद्र नाथ बुत बने रहे
अपने किताबों के साथ आलमारी में बंद रहें
इन मास्टरों की श्रद्धा भी गुरूदेव को लुभाती है
पर इनकी लिस्ट देख लजा जाते हैं
हर कोई पचीस पचास लाख कमाकर
दिल्ली लंदन में बच्चों को पढ़ाकर
एक दो किताब लिखकर अमर हो जाना चाहता था ।
ऐसा भी नहीं कि उन्हें कोई शिकायत ही नहीं
अब हर कोई अपने जिला जवार
देश प्रदेश का मानचित्र अपने कमीज के नीचे छिपाए हुए है
शांति निकेतन में सैकड़ो बंगाल ,बिहार ,उत्तर प्रदेश
प्रशासकों ,शिक्षकों ,छात्रों की ये देशीयताये
कौन सा आंचलिक आंदोलन है प्रिय
ये ध्रुवों परिधियों के लिए प्रेम समेटे उत्तर आधुनिकता तो नहीं
उस दिन गुरूदेव रह गए अवाक्
सूर्यदेव के अस्ताचल होने सेलाभान्वित प्रेमी युगल को
छुपकर देख रहे दो शिक्षकबतिया रहे
'इस स्साली को यही मिला है क्या '
और दोनों शिक्षक युवती के संग अपने
भोग की कुटिल कल्पना से हँसते रहे हो - हो -हो
फिर युवती ,उसकी जाति ,माता-पिताके लिए खर्च करते रहे अपनी सारी योग्यता ।
रवींद्र नाथ ने निश्चय कर लिया है
वे चले जायेंगे शरतचंद्र के गांव
या फिर परमहंस के गांव
इससे पहले कि कोई व्योमकेश दरवेश
शांति निकेतन के द्वार पर धकियाया जाए
व मांगा जाए उससे सर्टिफिकेट
वे छोड़ देंगे शांति निकेतन
फिलहाल बंगाल में ही कहीं रहेंगे ।
अनिल त्रिपाठी की कविता :खटारा जीप की टंकी
मैं जो कहना चाहता था.....
वे सब समझ रहे थे
वे जानते थे मेरा कष्ट
मैं ज्यादे क्या कहूं .....
सर ,खुद ही समझदार हैं
इतनी अच्छी आपसी समझ-बूझ के
बावजूद
मेरा मधुमेह और उच्च रक्तचाप
बढ़ ही रहा है ।
स्वप्न में दिखाई देती खटारा जीप
और उसकी विशाल होती टंकी
पसीने से तरबतर हो जाती थी शरीर
जब बताया जाता था मुझे ,
कल माननीय फलॉ
अतिथिगृह में पधार रहे हैं
इस व्यवस्था में रससिक्त विज्ञ जन
उपदेश देते
इतना एडजस्ट करना ही पड़ता है
फिर
असंख्य उदाहरण ,एडजस्ट करने के
मन ही मन अपने अबोध बच्चों
की निर्मल आकांक्षाओं को दबाते हुए
अपने को तैयार करने लगता हूं
अगले एडजस्टमेंट के लिए
............
(अनिल कुमार त्रिपाठी)
Sunday 11 March, 2012
मायामृग :लेखन और प्रकाशन का सच
आप मित्रों की सार्थक चर्चा के बीच कुछ कहने का साहस कर रहा हूं जो संभवत: अप्रिय लग सकता है पर हमें प्रकाशन और लेखक के बीच के संबंध और बाजार के साथ उसके त्रिकोण को नए सिरे से समझने की जरुरत जान पड़ती है। कुछ बातें यहां उल्लेखनीय हैं-
1. यह सही है कि प्रकाशकों ने ऐसा वातावरण बना दिया है कि लगने लगा है वहां सब गलत ही गलत है, सही कुछ हो नहीं सकता।
2. कविताओं की पुस्तकें सर्वाधिक लिखी और प्रकाशित की जा रही हैं उनमें से बहुत कम ही प्रभाव छोड़ पाती हैं और बिक्री के मामले में तो यह आंकड़ा और कम रह जाता है।
3. एक महत्वपूर्ण सवाल बिक्री का-
निवेदन यह कि हिन्दी पुस्तकों का बाजार दो जगह है
एक हिन्दी पुस्तकालय, सरकारी या गैर सरकारी खरीद के जरिये
दूसरा सीधे पाठकों को बिक्री
पुस्तकालयों में खरीद की पूरी प्रक्रिया अपारदर्शी और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाली है। अधिकांश राज्यों में सरकारी खरीद के लिए पहले खुद सरकार तीस से पैंतीस प्रतिशत छूट मांगती हैं और राज्य के विभिन्न पुस्तकालयों में वितरण के लिए वितरण व्यय के नाम पर पांच प्रतिशत अलग से राशि पहले प्रकाशक से ले ली जाती है।
यानी सौ रुपये की किताब 135 रुपये की तो यहीं हो गई। इसमें प्रकाशक के ट्रांसपोटेशन, पैकेजिंग आदि के व्यय जोड़ दें तो यह 140 रुपये हो जाती है। इसके बाद खरीद का तंत्र जिस तरह काम करता है वह मुझे नहीं लगता किसी प्रकाशक या लेखक से छिपा हुआ है। ऐसे में प्रकाशक अगर इस किताब की कीमत 200 से ऊपर ना करे तो उसके पास लागत भी लौटना मुश्किल हो जाए। यानी किसी भी किताब की कीमत यहां दुगुनी स्वाभाविक रुप से हो जाती है।
कविताओं की पुस्तकें अघोषित तौर पर आमतौर पर सरकारी खरीद में दोयम मानी जाती हैं। यथासंभव गद्य विधाओं की खरीद को प्राथमिकता दी जाती है।
दूसरा तरीका है सीधे पाठकों को विक्रय। जिन मित्रों ने पुस्तक मेले में कविताओं की पुस्तकें बिकती हुई देखी हैं उनसे जानना रुचिकर होगा कि किसी काव्य पुस्तक की कितनी प्रतियां उनके अनुसार विक्रय होती होंगी...। बेहतरीन कविताओं की पुस्तक की 100 प्रतियां अगर पूरे मेले के दौरान बिक जाएं तो यह बड़ी से भी बड़ी उपलब्धि मानी जानी चाहिए। यहां जरुर ध्यान रहे कि पुस्तक मेले में स्टॉल और उसे चलाए रखने का व्यय जोड़ा जाना चाहिए। यह बिक्री केवल तभी संभव है जब पुस्तक का मूल्य 50 रुपये से कम हो। इससे अधिक होते ही कविता पुस्तक की बिक्री नगण्य हो जाती है। हम अपने ही लेखक मित्रों से जान सकते हैं कि उन्होंने इस शानदार मेले में कविताओं की कितनी पुस्तकें खरीदी....किस दाम की...;।
अब रही बात नए लेखकों की तो एक साधारण सा प्रश्न है कि कोई प्रकाशक हमारी किताब अपने पूरे व्यय पर क्यों छापे...एक 100 पेज की पुस्तक मोटे तौर पर 20 हजार के लगभग व्यय पर छपती है, अनेक तरह की छीजत, मुफ्त भेंट, समीक्षा आदि के लिए भेजे जाने के व्यय इसमें जोड़ लें। तो लगभग 22 से 25 हजार रुपये में स्तरीय मुद्रण प्रकाशन संभव हो पाएगा। अब इसकी बिक्री की गति और दर तय करें। एक पुस्तक की बिक्री में दी जानी वाली छूट, विक्रय प्रतिनिधि के व्यय, ट्रांसपोटेशन, डेमेज आदि भी गिन लिए जाएं। एक साल में यदि उस पुस्तक की 100 से 150 प्रतियां बिक्री हों तो आप अनुमान लगा सकते हैं कि इस पुस्तक की लागत कितने समय में लौटेगी और प्रकाशक जो कि व्यवसायी भी है, उसका लाभांश कितने समय बाद और कितना आएगा....आएगा भी कि नहीं..;। यह खतरा कोई प्रकाशक कब उठाना चाहेगा, और किसके लिए यह विचारणीय सवाल है।
प्रकाशक के पास नित्य प्रकाशनार्थ आने वाली पांडुलिपियों की संख्या जान लें तो पता लगेगा कि यदि रोजाना तीन किताब छापें तो भी किसी किताब का नंबर साल भर से पहले नहीं आएगा...वह भी तब जबकि पांच में से एक पांडुलिपि ही छपे...शेष चार लौटा दी जाएं। इस गति से छापने के लिए प्रकाशक को हर माह लाखों रुपये की जरुरत होगी। यह ऐसा इनवेस्टमेंट होगा जिसके लाभ की कोई गारंटी नहीं, मूल लौटने का भी तय नहीं। ऐसे में उसे पहली खरीद की प्रक्रिया की तरफ आकर्षित होने से रोकना मुश्किल ही होगा। और ऐसे में प्रकाशक केवल भरोसे के नाम ही छापना पसंद करेगा, जिनकी बिक्री की संभावना नए लेखकों की तुलना में काफी अधिक है। आज भी मुंशी प्रेमचंद की किताब छापना किसी नए कहानीकार की िकताब की तुलना में कहीं अधिक बिकती है। ऐसे में क्या किया जाए। क्या नए लेखकों की किताब छापना बंद हो जाए...या सौं में से एकाध ही छापी जाए। पिफर आने वाली नई पीढ़ी कहां से आएगी...। नए रचनाकार कितने भी प्रतिभाशाली हों, उन्हें सामने लाने का काम कैसे हो....।
क्या ऐसा संभव है कि प्रकाशकों को दोष देने की बजाए सीधे पाठक तक बिक्री का ऐसा तंत्र विकसित किया जाए कि किसी प्रकाशक को अच्छी किताब लेखक का नाम देखे बिना छापने में संकोच ना हो। क्या हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि किसी िकताब की चार से पांच सौ प्रतियां विक्रय हो सकें, ऐसा कर पाएं तो यह नए रचनाकारों और प्रकाशन जगत सबके लिए हितकारी होगा।
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