नाटककार लक्ष्मी नारायण मिश्र (1903 -1987)
मिश्र जी की 110 वीं जयंती पर 11 जनवरी 2013 को उनके गृहजनपद मऊ में एक छोटा सा कार्यक्रम आयोजित हुआ ,जिसमें कोई भी प्रसिद्ध साहित्यकार शामिल नहीं हुआ ।देश के दूसरे भागों में भी किसी महत्वपूर्ण कार्यक्रम के समाचार से हम अवगत नहीं हैं ।उनके अवदान पर एक महत्वपूर्ण लेख डॉ0 बच्चन सिंह का :-
लक्ष्मी नारायण मिश्र डी0 एल0 राय और प्रसाद की स्वच्छन्दतावादिता का विरोध करते हुए नाटक के क्षेत्र में आये ।प्रसाद तथा अन्य रोमैंटिक साहित्यकारों ने बुद्धिवाद का विरोध किया था तो मिश्र जी ने अपने को स्पष्ट कहते हुए कहा कि मैं बुद्धिवादी क्यों हूं ? ' इस काल में लिखे प्राय: सभी नाटकों में रोमैंटिक प्रेम के विरोध में भारतीय विवाह संस्कारों का समर्थन किया गया है ।इस समस्या से संबद्ध नाटक हैं -संन्यासी ,राक्षस का मंदिर ,मुक्ति का रहस्य ,राजयोग ,सिन्दूर की होली और आधी रात ।
बुद्धिवाद का दावा करने के बावजूद मिश्र जी शॉ और इब्सन के अर्थ में बुद्धिवादी नहीं है ।शॉ रूढि़ विध्वंसक नाटककार हैं ।उनकी प्रसिद्धि इसलिए हुई कि उसने जनता को नैतिकता पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य किया किन्तु रोमैंटिक प्रेम का विरोध करने पर भी मिश्र जी नैतिता के संबंध में पुनर्विचार करने के लिए बाध्य नहीं करते ।बल्कि वे रूढि़यों के समर्थन पर उतर आते हैं ।
इब्सन ने एक स्थान पर कहा है कि यदि तुम विवाह करना चाहते हो तो प्रेम में मत पड़ो और यदि प्रेम करते हो तो प्रिय से अलग हो जाओ ।मिश्र जी के 'संन्यासी' नाटक की मालती कहती है -' और फिर विश्वकान्त प्रेम करने की चीज है ...विवाह करने की नहीं ।प्रेम किसी दिन की ......किसी महीने की ,किसी साल की घड़ी भर के लिए ,जो चाहे जितना दु:ख-सुख दे .....उसमें जितनी बेचैनी हो ....जितनी मस्ती हो ....लेकिन वह ठहरता नहीं ।' एक दूसरे स्थान पर रोमैंटिक प्रेम की व्याख्या करती हुई वह पुन: कहती है -'जिसे प्रेम करे उसके सामने झुक जाना -बिल्कुल मर जाना-उसकी एक-एक बात पर अपने को न्योछावर कर देना रोमैंटिक प्रेम होता है ।हम लोग प्रेम नहीं करेंगे ।' 'राक्षस का मंदिर ' की ललिता का स्वर भी उससे भिन्न नहीं है ।'मुक्ति का रहस्य' की आशादेवी अंत में रोमांसविरोधी रूख अपनाती है ।'सिन्दूर की होली' की मनोरमा आद्यान्त रोमांस-विरोधी बनी रहती है ।
'सिन्दूर की होली' के दो पात्र मनोरमा और चन्द्रकान्ता एक-दूसरे के विरोधी हैं ।मनोरमा वैधव्य का समर्थन करती है और चन्द्रकान्ता रोमैंटिक प्रेम का ।मनोरमा का विधवा-विवाह का विरोध स्वयं बुद्धिवाद का विरोध करने लगता है और रोमैंटिक चन्द्रकान्ता का तर्क बुद्धिवाद हो जाता है ।
रोमैंटिक भावुकता और यथार्थवादी बुद्धिवाद की टकराहट मिश्र जी के नाटकों में इस ढ़ंग से चित्रित हुई है कि मिश्र जी भावुकता से मुक्त नहीं हो पाते ।प्राय: सभी पात्रों में भावुकता लिपटी हुई है ।मिश्र जी के व्यक्तित्व में ये दोनों तत्व पाये जाते हैं ।वे भीतर से भावुक और बाहर से बुद्धिवादी हैं ।भारतीयता के प्रति उनकी आस्था में भी विचित्र भावुकता का सन्निवेश हो गया है ।
बुद्धिवादी रूख अपनाने के कारण मिश्रजी की भाषा प्रसाद की भाषा से भिन्न है ।उसमें तर्क करने की अद्भुत क्षमता है । 'मुक्ति का रहस्य' में उन्होंने लिखा है -'शेक्सपियर के नाटकों के साथा जब प्रसाद के नाटक रखे जायेंगे तब स्वगत का वही अतिरंजना ,वही संवादों की काव्यमयी कृत्रिमता ,मनोविज्ञान या लोकवृत्ति के अनुभव का वही अभाव ,संघर्ष और द्वंद्व की वही आंधी ......'कहना न होगा कि मिश्रजी ने उनसे बचने का प्रयास किया है ।संवादों में स्फूर्ति ,लघुता और तीव्रता का विशेष ध्यान रखा गया है ।वाग्वैदग्ध्य ,हाजिरजबाबी ,तर्कपूर्ण उत्तर-प्रत्युत्तर आदि समस्या नाटकों की विशेषताएं हैं ।इसमें संदेह नहीं कि अपनी त्रुटियों के बावजूद मिश्र जी ने हिन्दी नाटकों को रूमानियत से बाहर निकालने का प्रयास किया है ।
समस्या नाटकों के अतिरिक्त मिश्र जी ने कई ऐतिहासिक नाटकों की रचना भी की है ।गरूड़ध्वज ,नारद की वीणा ,वत्सराज ,दशाश्वमेघ ,वितस्ता की लहरें ,जगद्गुरू ,मृत्युंजय ,सरजू की धार आदि ऐतिहासिक नाटक हैं ।
(डॉ0 बच्चन सिंह 'आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास' में )
साभार 'लोक भारती प्रकाशन'
मिश्र जी की 110 वीं जयंती पर 11 जनवरी 2013 को उनके गृहजनपद मऊ में एक छोटा सा कार्यक्रम आयोजित हुआ ,जिसमें कोई भी प्रसिद्ध साहित्यकार शामिल नहीं हुआ ।देश के दूसरे भागों में भी किसी महत्वपूर्ण कार्यक्रम के समाचार से हम अवगत नहीं हैं ।उनके अवदान पर एक महत्वपूर्ण लेख डॉ0 बच्चन सिंह का :-
लक्ष्मी नारायण मिश्र डी0 एल0 राय और प्रसाद की स्वच्छन्दतावादिता का विरोध करते हुए नाटक के क्षेत्र में आये ।प्रसाद तथा अन्य रोमैंटिक साहित्यकारों ने बुद्धिवाद का विरोध किया था तो मिश्र जी ने अपने को स्पष्ट कहते हुए कहा कि मैं बुद्धिवादी क्यों हूं ? ' इस काल में लिखे प्राय: सभी नाटकों में रोमैंटिक प्रेम के विरोध में भारतीय विवाह संस्कारों का समर्थन किया गया है ।इस समस्या से संबद्ध नाटक हैं -संन्यासी ,राक्षस का मंदिर ,मुक्ति का रहस्य ,राजयोग ,सिन्दूर की होली और आधी रात ।
बुद्धिवाद का दावा करने के बावजूद मिश्र जी शॉ और इब्सन के अर्थ में बुद्धिवादी नहीं है ।शॉ रूढि़ विध्वंसक नाटककार हैं ।उनकी प्रसिद्धि इसलिए हुई कि उसने जनता को नैतिकता पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य किया किन्तु रोमैंटिक प्रेम का विरोध करने पर भी मिश्र जी नैतिता के संबंध में पुनर्विचार करने के लिए बाध्य नहीं करते ।बल्कि वे रूढि़यों के समर्थन पर उतर आते हैं ।
इब्सन ने एक स्थान पर कहा है कि यदि तुम विवाह करना चाहते हो तो प्रेम में मत पड़ो और यदि प्रेम करते हो तो प्रिय से अलग हो जाओ ।मिश्र जी के 'संन्यासी' नाटक की मालती कहती है -' और फिर विश्वकान्त प्रेम करने की चीज है ...विवाह करने की नहीं ।प्रेम किसी दिन की ......किसी महीने की ,किसी साल की घड़ी भर के लिए ,जो चाहे जितना दु:ख-सुख दे .....उसमें जितनी बेचैनी हो ....जितनी मस्ती हो ....लेकिन वह ठहरता नहीं ।' एक दूसरे स्थान पर रोमैंटिक प्रेम की व्याख्या करती हुई वह पुन: कहती है -'जिसे प्रेम करे उसके सामने झुक जाना -बिल्कुल मर जाना-उसकी एक-एक बात पर अपने को न्योछावर कर देना रोमैंटिक प्रेम होता है ।हम लोग प्रेम नहीं करेंगे ।' 'राक्षस का मंदिर ' की ललिता का स्वर भी उससे भिन्न नहीं है ।'मुक्ति का रहस्य' की आशादेवी अंत में रोमांसविरोधी रूख अपनाती है ।'सिन्दूर की होली' की मनोरमा आद्यान्त रोमांस-विरोधी बनी रहती है ।
'सिन्दूर की होली' के दो पात्र मनोरमा और चन्द्रकान्ता एक-दूसरे के विरोधी हैं ।मनोरमा वैधव्य का समर्थन करती है और चन्द्रकान्ता रोमैंटिक प्रेम का ।मनोरमा का विधवा-विवाह का विरोध स्वयं बुद्धिवाद का विरोध करने लगता है और रोमैंटिक चन्द्रकान्ता का तर्क बुद्धिवाद हो जाता है ।
रोमैंटिक भावुकता और यथार्थवादी बुद्धिवाद की टकराहट मिश्र जी के नाटकों में इस ढ़ंग से चित्रित हुई है कि मिश्र जी भावुकता से मुक्त नहीं हो पाते ।प्राय: सभी पात्रों में भावुकता लिपटी हुई है ।मिश्र जी के व्यक्तित्व में ये दोनों तत्व पाये जाते हैं ।वे भीतर से भावुक और बाहर से बुद्धिवादी हैं ।भारतीयता के प्रति उनकी आस्था में भी विचित्र भावुकता का सन्निवेश हो गया है ।
बुद्धिवादी रूख अपनाने के कारण मिश्रजी की भाषा प्रसाद की भाषा से भिन्न है ।उसमें तर्क करने की अद्भुत क्षमता है । 'मुक्ति का रहस्य' में उन्होंने लिखा है -'शेक्सपियर के नाटकों के साथा जब प्रसाद के नाटक रखे जायेंगे तब स्वगत का वही अतिरंजना ,वही संवादों की काव्यमयी कृत्रिमता ,मनोविज्ञान या लोकवृत्ति के अनुभव का वही अभाव ,संघर्ष और द्वंद्व की वही आंधी ......'कहना न होगा कि मिश्रजी ने उनसे बचने का प्रयास किया है ।संवादों में स्फूर्ति ,लघुता और तीव्रता का विशेष ध्यान रखा गया है ।वाग्वैदग्ध्य ,हाजिरजबाबी ,तर्कपूर्ण उत्तर-प्रत्युत्तर आदि समस्या नाटकों की विशेषताएं हैं ।इसमें संदेह नहीं कि अपनी त्रुटियों के बावजूद मिश्र जी ने हिन्दी नाटकों को रूमानियत से बाहर निकालने का प्रयास किया है ।
समस्या नाटकों के अतिरिक्त मिश्र जी ने कई ऐतिहासिक नाटकों की रचना भी की है ।गरूड़ध्वज ,नारद की वीणा ,वत्सराज ,दशाश्वमेघ ,वितस्ता की लहरें ,जगद्गुरू ,मृत्युंजय ,सरजू की धार आदि ऐतिहासिक नाटक हैं ।
(डॉ0 बच्चन सिंह 'आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास' में )
साभार 'लोक भारती प्रकाशन'
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