जिस प्रकार मुक्तिबोध ने पूरी जिंदगी एक
ही कविता लिखी ,उसी प्रकार रामचन्द्र शुक्ल ने भी पूरी जिंदगी में एक ही निबंध लिखा
,तथा पूरी जिंदगी उसकी झाड़ पोंछ करते रहे ।आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सरस्वती
पत्रिका (1909 ईस्वी)के लिए एक निबंध लिखा ‘कविता
क्या है’
,आगे का तीस साल भी उन्होंने इसी निबंध को लिखा ।मिटाते गए और फिर फिर लिखते रहे
।
साहित्य के इतिहास ,हिंदी शब्द सागर
,चिंतामणि और यहॉ तक कि उनकी कविता भी कविता के स्वरूप की ही चर्चा करती है
खलेगा ‘प्रकाशवाद’ जिनको हमारा यह
कहेंगे कुवाद वे जो लेंगे सह सारे हम ।(साभार‘
हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास’)
उनका अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन भी
कविता के रूप का ही अन्वेषण है ।न्यूमैन के ‘लिटरेचर’ का अनुवाद ‘साहित्य’ नाम से ,एडिसन के ‘प्लेजर ऑफ
इमैजिनेशन’
का कल्पना का आनंद’(1905)
तथा हैकेल के ‘रीडिल
आफ दी यूनीवर्स ‘
का अनुवाद (विश्वप्रपंच) नाम से किया ।इस विश्वप्रसिद्ध साहित्य के अध्ययन की
उनकी रूचियों ने हिंदी आलोचना को भी विश्वस्तरीय बनाने की जरूरत पैदा की ।
(साभार ‘आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास’ ,बच्चन सिंह )
आचार्य शुक्ल संस्कृत और अंग्रेजी
आलोचना से इतना ही ग्रहण करते हैं कि हिंदी भाषा और साहित्य तथा हिंदी आलोचना के
विकास के लिए माकूल जमीन बनी रहे ।इसीलिए तुलसी ,सूर या जायसी की आलोचना न ही संस्कृत
काव्यशास्त्र के बोझ से दबी है न ही अंग्रेजी आलोचना के तर्कों ,तथ्यों
,दृष्टियों से भ्रमित ।
उनका सबसे बड़ा प्रयास कविता और
साहित्य को विभिन्न अतिवादों के बीच सुरक्षित रखना था ।इसीलिए वे धर्म और अध्यात्म
,दर्शन और रहस्यवाद ,विज्ञान और राजनीति ,अभिव्यंजनावाद और उपयोगितावाद के चंगुल
से कविता को बचाना चाहते थे ।इन प्रयासों ने ही हिंदी साहित्य को उसका सबसे बड़ा
आलोचक दिया ।
परंतु कविता को धर्म और अध्यात्म से
बचाते समय उनके सामने आदिकालीन रचनाशीलता और कबीर आ जाते हैं ।दर्शन और रहस्यवाद
से कविता को बचाने के चक्कर में वे पूरी छायावाद को ही निशाना पर ले लेते हैं
,तथा ,मानक गढ़ने के चक्कर में इतने मगन हो जाते हैं कि अपने युग के सबसे बड़े
कवि निराला के नवोन्मेष पर ध्यान नहीं देते ।यद्यपि ‘नवोन्मेष’ शब्द की चर्चा वे
निराला के संदर्भ में ही करते हैं ।यही नहीं राजनीति से उनका परहेज इतनी ज्यादा है कि नये युग की
रचनाशीलता की उपेक्षा करते हैं ।
तुलसी उनके प्रिय कवि हैं ,तथा ,आलोचना एवं इतिहास की किताब तो छोड़ दीजिए निबंधों में भी तुलसी के प्रसंग आते हैं ,तथा आचार्य शुक्ल उन पर रीझते रहते हैं ।‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में बारह पृष्ठों में तुलसी की चर्चा है।पहले चार पृष्ठ में उनके जन्म ,काल ,स्थान का विवेचन ,और आगे तुलसी के कृतित्व का विवेचन ।
तुलसी उनके प्रिय कवि हैं ,तथा ,आलोचना एवं इतिहास की किताब तो छोड़ दीजिए निबंधों में भी तुलसी के प्रसंग आते हैं ,तथा आचार्य शुक्ल उन पर रीझते रहते हैं ।‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में बारह पृष्ठों में तुलसी की चर्चा है।पहले चार पृष्ठ में उनके जन्म ,काल ,स्थान का विवेचन ,और आगे तुलसी के कृतित्व का विवेचन ।
तुलसी का विवेचन
वे कई दृष्टि से करते हैं ।तुलसी के प्रति उनका राग निश्शब्द नहीं है ।वे भाषाओं
के चयन ,रचना शैलियों में निपुणता ,भक्ति की सर्वांगपूर्णता के आधार पर तुलसी को
सर्वोपरि मानते हैं ।
‘ इस प्रकार काव्यभाषा के दो रूप और रचना की
पॉंच मुख्य शैलियॉ साहित्य क्षेत्र में गोस्वामी जी को मिली ।तुलसीदासजी के
रचनाविधान की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा के बल से
सबके सौंदर्य की पराकाष्ठा अपनी दिव्य वाणी में दिखाकर साहित्य क्षेत्र में
प्रथमपद के अधिकारी हुए ।
भारतीय जनता का प्रतिनिधि कवि यदि किसी को कह सकते हैं तो इन्हीं महानुभाव को ।और कवि जीवन का कोई एक पक्ष लेकर चले हैं जैसे ,वीरकाल के कवि उत्साह को ,भक्तिकाल के दूसरे कवि प्रेम और ज्ञान को ,अलंकारकाल के कवि दांपत्य प्रणय या श्रृंगार को ।पर इनकी वाणी की पहुंच मनुष्य के सारे भावों और व्यवहारों तक है ।एक ओर तो वह व्यक्तिगत साधना के मार्ग में विरागपूर्ण शुद्ध भगवद्भक्ति का उपदेश करती है,दूसरी ओर लोकपक्ष में आकर पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों का सौंदर्य दिखाकर मुग्ध करती है ।
गोस्वामीजी की भक्तिपद्धति की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी सर्वांगपूर्णता ।जीवन के किसी पक्ष को सर्वथा छोड़कर वह नहीं चलती है ।सब पक्षों के साथ उसका समन्वय है ।न उसका कर्म या धर्म से विरोध है ,न ज्ञान से ।धर्म तो उसका नित्यलक्षण है ।तुलसी की भक्ति को धर्म और ज्ञान दोनों की रसानुभूति कह सकते हैं ।‘
भारतीय जनता का प्रतिनिधि कवि यदि किसी को कह सकते हैं तो इन्हीं महानुभाव को ।और कवि जीवन का कोई एक पक्ष लेकर चले हैं जैसे ,वीरकाल के कवि उत्साह को ,भक्तिकाल के दूसरे कवि प्रेम और ज्ञान को ,अलंकारकाल के कवि दांपत्य प्रणय या श्रृंगार को ।पर इनकी वाणी की पहुंच मनुष्य के सारे भावों और व्यवहारों तक है ।एक ओर तो वह व्यक्तिगत साधना के मार्ग में विरागपूर्ण शुद्ध भगवद्भक्ति का उपदेश करती है,दूसरी ओर लोकपक्ष में आकर पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों का सौंदर्य दिखाकर मुग्ध करती है ।
गोस्वामीजी की भक्तिपद्धति की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी सर्वांगपूर्णता ।जीवन के किसी पक्ष को सर्वथा छोड़कर वह नहीं चलती है ।सब पक्षों के साथ उसका समन्वय है ।न उसका कर्म या धर्म से विरोध है ,न ज्ञान से ।धर्म तो उसका नित्यलक्षण है ।तुलसी की भक्ति को धर्म और ज्ञान दोनों की रसानुभूति कह सकते हैं ।‘
‘रामचरितमानस’में उन्हें
रचनाकौशल ,प्रबंधपटुता ,सह्रदयता आदि गुणों का समाहार मिलता है ।वे चार बिंदु पर
मानस की प्रशंसा करते हैं
1 कथाकाव्य के सब अवयवों का उचित
समीकरण
2 कथा के मार्मिक स्थलों की पहचान
3
प्रसंगानुकूल भाषा
4
श्रृंगार की शिष्ट मर्यादा के भीतर बहुत ही व्यंजक वर्णन
तुलसी के प्रबंध कौशल व काव्यरूप के रूप में प्रबंध के चयन की वे प्रशंसा करते हैं
तुलसी के प्रबंध कौशल व काव्यरूप के रूप में प्रबंध के चयन की वे प्रशंसा करते हैं
यह निर्धारित करना कठिन है कि आचार्य
शुक्ल वर्णाश्रम धर्म के समर्थक होने के कारण तुलसी की प्रशंसा करते हैं या तुलसी
की रक्षा करते हुए वो वर्णाश्रमधर्म का बचाव करते हैं ,परंतु तुलसी के इस रूख का
वो प्राय: मजबूती से अपना पक्ष भी मानते हैं ।उन्होंने कहीं भी इसे तुलसी काव्य
में अंर्तविरोध के रूप में नहीं देखा है ,तथा यह आश्चर्य का विषय है कि बीसवीं
सदी के चौथे दशक तक जी रहा व्यक्ति तुलसी काव्य के इस कमजोर पक्ष्ा का मजबूत
बचाव करता है ।इसे आचार्य शुक्ल का वैचारिक विचलन ही माना जाना चाहिए ।मार्क्स
या लेनिन की बात छोड़ दीजिए ,समस्त दक्षिण भारतीय भाषाओं ने दलित आंदोलन की
गरमाहट को उसी समय महसूस किया था ,तथा भारतीय राजनीति एवं समाज में भी अंबेडकर के विचारों की धाख
मानी जाती थी ।ऐसे समय में आचार्य शुक्ल अपने प्रसिद्ध निबंध ‘लोकधर्म और
मर्यादावाद’
में कहते हैं
‘ ऐसे लोगों ने भक्ति
को बदनाम कर रखा था ।भक्ति के नाम पर ही वे वेदशास्त्रों की निंदा करते थे
,पंडितों को गालियॉं देते थे और आर्यधर्म के सामाजिक तत्व को न समझकर लोगों में
वर्णाश्रम धर्म के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न कर रहे थे ।यह उपेक्षा लोक के लिए कल्याणकर
नहीं ।जिस समाज में बड़ों का आदर ,विद्वानों का सम्मान ,अत्याचार का दलन करने
वाले शूरवीरों के प्रति श्रद्धा इत्यादि भाव उठ जायें ,वह कदापि ,फल फूल नहीं
सकता, उसमें अशान्ति सदा बनी रहेगी ।‘
इसी प्रसंग में वे आगे कहते हैं
‘
किसी समुदाय के मद ,मत्सर,ईर्ष्या ,द्वेष और अहंकार को काम में लाकर’अगुआ’ और ‘प्रवर्तक’ बनने का हौसला रखने
वाले समाज के शत्रु हैं ।यूरोप में जो सामाजिक अशान्ति चली आ रही है ,वह बहुत कुछ
ऐसे ही लोगों के कारण । पूर्वीय देशों की अपेक्षा संघनिर्माण में अधिक कुशल होने
के कारण वे अपने व्यवसाय में बहुत जल्दी सफलता प्राप्त कर लेते हैं । यूरोप में
जितने लोक विप्लव हुए हैं ,जितने राजहत्या ,नरहत्या हुई है ,सबमें जनता के वास्तनिक
दु:ख और क्ेश का भाग यदि 1/3 या तो विशेष जनसमुदाय की नीच प्रवृत्तियों का भाग
2/3 है ।
’ अब इस
शांति ,सुशासन ,व्यवस्था और सोशल डिसीप्लीन के क्या तर्क हैं और इसका क्या स्वरूप
हो सकता है ,इस पर चर्चा करने की कोई आवश्यकता ही नहीं बची है ।‘बड़ों’ के प्रति इस सम्मान
का क्या स्वरूप है ,तथा यह सम्मान कितना लोकतांत्रिक और मानवीय है ,इसे आचार्य
उसी निबंध में आगे स्पष्ट करते हैं
‘ परिवार में जिस
प्रकार उँची नीची श्रेणियॉ होती है ,उसी प्रकार शील,विद्या ,बुद्धि ,शक्ति आदि की
विचित्रता से समाज में भी उंची नीची श्रेणियॉ रहेंगी ।कोई आचार्य होगा ,कोई शिष्य
,कोई राजा होगा ,कोई प्रजा ,कोई अफसर होगा ,कोई मातहत ,कोई सिपाही होगा ,कोई
सेनापति ।यदि बड़े छोटों के प्रति दु:शील होकर हर समय दुर्वचन कहने लगें ,यदि छोटे
बड़ों का आदर सम्मान छोड़कर उन्हें ऑख दिखाकर डॉटने लगे तो समाज चल ही नहीं सकता
।इसी से शूद्रों का द्विजों का ऑंख दिखाकर डॉटना ,मूर्खों का विद्वानों का उपहास
करना गोस्वामीजी को समाज की धर्मशक्ति का ह्रास समझ पड़ा । ‘
ऐसा भी नहीं था कि अपने विचार के पुराने
और धूल भरे होने का अहसास उन्हें नहीं था ।इसी निबंध में वे शूद्र वाले मुद्दे पर
बार बार बोलते हैं ,परंतु जितना भी बोलते हैं ,सफाई पूरी नहीं होती और कुछ न कुछ
दाग रह ही जाता है
‘ अत: शूद्र शब्द को नीची श्रेणी के
मनुष्य का कुल ,शील ,विद्या ,शक्ति आदि सब में अत्यन्त न्यून का बोधक मानना
चाहिए ।इतनी न्यूनताओं को अलग अलग न लिखकर वर्णविभाग के आधार पर उन सबके लिए एक
शब्द का व्यवहार कर दिया है ।इस बात को मनुष्य जातियों का अनुसंधान करने वाले
आधुनिक लेखकों ने भी स्वीकार किया है कि वन्य और असभ्य जातियॉ उन्हीं का आदर
सम्मान करती हैं जो उनमें भय उत्पन्न कर सकते हैं ।यही दशा गँवारों की है इस
बात को गोस्वामी जी ने अपनी चौपाई में कहा है
ढ़ोल गँवार सूद्र पसु नारी ।ये सब ताड़न के अधिकारी ।।
जिससे कुछ लोग इतना चिढ़ते हैं ।चिढ़ने
का कारण है ‘ताड़न’ शब्द जो ढ़ोल शब्द
के योग में आलंकारिक चमत्कार उत्पन्न करने के लिए लाया गया है ।‘स्त्री’ का समावेश भी
सुरूचि विरूद्ध लगता है ,पर वैरागी समझकर उनकी बात का बुरा न मानना चाहिए ।‘
वन्य और तथाकथित असभ्य जातियों के प्रति जिन आधुनिक लेखकों की चर्चा शुक्ल
जी ने कहा है ,संभवत: वे उपनिवेशवादी रहे होंगे ,परंतु शुक्ल जी तो स्वाधीनता की
ओर अग्रसर एक लोकतांत्रिक देश के महत्वपूर्ण भाषा के प्रतिनिधि थे ।अत:उनका बचाव
संभव नहीं ।जहॉ तक चमत्कार उत्पन्न करने की बात है ,प्रत्येक गाली आलंकारिक
चमत्कार ही उत्पन्न करती है ।और वैरागी समझकर बुरा न मानने का तर्क कमजोर है
,क्योंकि तुलसी उतने वैरागी भी नहीं है ,तथा जो वास्तव में गृहस्थ होकर भी
वैरागी है ,उस कबीर के प्रति आचार्य शुक्ल अपेक्षित संवेदनशीलता नहीं दिखा पाते ।