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Sunday 15 April, 2012
नामवर सिंह और छायावाद
'आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां' नामवर सिंह की बहुचर्चित पुस्तक है ,और उनके आलोचनात्मक विवेक को जानने के लिए शायद सबसे महत्वपूर्ण भी ।यद्यपि उनके खाते में कई उच्च्ा कोटि के किताब हैं परंतु सबका रूख अलग-अलग है ।'हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में अपभ्रंश का योगदान 'उनके प्रखर छात्र जीवन की पुस्तक है ।समापवर्त्तन के योग्य दक्षिणा के रूप में और लेखक अपभ्रंश में हिंदी का मूल ही नहीं खोजता ,अपने आलोचनात्मक दृष्टि की गहरी नींव भी डालता है ।
सिद्ध-नाथ साहित्य को 'अनगढ़ नवीन ' के रूप में गले लगाने की जिद का परिणाम उस समय जितना दिखता है ,बाद में और भी ज्यादा ।'दूसरी परंपरा की खोज' एक योग्य शिष्य का संस्मरण है इतिहास और आलोचना की पारंपरिक हदों को तोड़ता हुआ । 'कविता के नए प्रतिमान' प्रतिमानों को खोज रहे एक कीर्तिजिगीषु विद्वान के तर्क हैं ।अत:' आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां 'उनके तर्कों ,विचारों ,आलोचना पद्धति को समझने का सर्वश्रेष्ठ मंच है ,वैसे भी उन्होंने छायावाद पर एक पूर्ण पुस्तक 1954-55 में ही लिख दिया था ।अत: छायावाद पर उनके विचारों में एक अद्वितीय परिपक्वता है ।
नामवर जी छायावाद के परिचय से प्रारंभ करते हैं ,तथा काल(1918-36) एवं प्रमुख कवियों का नामोल्लेख करते यह भी कहते हैं 'भावोच्छवास-प्रेरित स्वच्छन्द कल्पना-वैभव की वह स्वच्छन्द प्रवृत्ति' है जो देश-काल-गत वैशिष्ट्य के साथ संसार की सभी जातियों के विभिन्न उत्थानशील युगों की आशा-आकांक्षा में निरंतर व्यक्त होती रही है ।
अब 'छायावाद' संज्ञा पर विचार करते हुए मुकुटधर पांडेय तथा सुशील कुमार जैसे कम परिचित आलोचकों की कृतियों ,जिसमें लेखमाला एवं निबंध ही मुख्य है ,के द्वारा छायावाद के उदयकाल की उस वैचारिकता को तौला जाता है ,जो छायावाद से सबसे पहले परिचित होते हैं ।तत्कालीन आलोचकों जिसमें उपरोक्त दोनों विद्वानों के अलावा आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी भी हैं ,की शब्दावलियों पर नामवर गौर फरमाते हैं ,तथा 'मिस्टिसिज्म' ,'अध्यात्मवाद' ,'कोरे कागद की भॉति अस्पष्ट', 'निर्मल ब्रह्म की विशद छाया' ,'वाणी की नीरवता' ,'अनंत का विलास' जैसे वृत्ति को सामने लाते हैं ।अब नामवर जी 'छायावाद' को 'स्वच्छंदतावाद' एवं 'रहस्यवाद' से अलगाते हैं । इस सम्बन्ध में आचार्य रामचंनद्र शुक्ल के विचारों पर निर्णयात्मक रूप से कहते हैं
'शुक्ल जी के 'स्वच्छन्दतावाद' में छायावाद की रहस्यभावना के लिए कोई जगह न थी ।फलत:'स्वच्छन्दतावाद' अंग्रेजी के 'रोमैंटिसिज्म' का अनुवाद होते हुए भी छायावादी कविता का केवल एक अंग बनकर रह गया और धीरे-धीरे 'छायावाद' संपूर्ण 'रोमैंटिसिज्म' का वाचक बन गया ।'
अब नामवर सिंह छायावाद संबंधी परिभाषाओं और आलोचनाओं के आधार पर छायावादी रचना और कवियों में शुद्ध छायावादी रचना और कवि खोजने की प्रवृत्ति की खबर लेते हैं तथा छायावाद को किसी स्थिर या जड़ मानने की बजाय प्रवहमान काव्यधारा साबित करते हैं ।वे बीस वर्ष तक बहने वाली धारा के विभिन्न सोतों ,झरनों की पड़ताल करते हुए करते हैं ' छायावाद विविध यहॉ तक कि परस्पर-विरोधी-सी प्रतीत होने वाली काव्य-प्रवृत्तियों का सामूहिक नाम है और छानबीन करने पर इन प्रवृत्तियों के बीच आन्तरिक सम्बन्ध दिखाई पड़ता है ।स्पष्ट करने के लिए यदि भूमिति के उदाहरण लें तो यह कह सकते हैं कि यह एक केंद्र पर बने हुए विभिन्न वृत्तों का समुदाय है ।इसकी विविधता उस शतदल के समान है जिसमें एक ग्रन्थि से अनेक दल खुलते हैं ।'
अब नामवर सिंह छायावाद के केंद्रीय प्रवृत्ति की खोजबीन करते हैं तथा उनकी नजर बीसवीं सदी के प्रारंभ के हिंदी समाज में व्याप्त व्यक्तिवादिता पर जाती है ।वे प्रगीत को इसी का परिणाम मानते हुए छायावादी कवि के व्यक्तिगत जीवन और भक्ति काव्य की निर्वैयक्तिकता में स्पष्ट भेद करते हैं ।इस वैयक्तिकता का उत्स आधुनिक शिक्षा और प्राचीन कृषि व्यवस्था की अतिशय सामाजिकता के बीच के द्वन्द्व में देखते हैं । ' 'आत्मकथा 'उसका विषय हो गया और 'मैं' उसकी शैली ।प्रसाद ने तो स्पष्टत: अपनी आत्मकथा का स्पष्टीकरण ही लिख डाला और निराला ने सब की ओर से स्वीकार किया कि 'मैंने 'मैं' शैली अपनायी ।'
व्यक्तिवाद के कोमल पक्षों पर विचार करते हुए वे इसके परूष पक्ष पर भी विचार करते हैं तथा 'सरोज-स्मृति' और 'वनबेला' जैसी कविताओं को इसी आधार पर देखने की खास वजह बताते हैं ।अंत में व्यक्तिवादी धारा ने जिस ओर रूख किया उस पर नामवर जी विस्तार से कहते हैं ' आरम्भ में जिस व्यक्ति ने अपने व्यक्तित्व की खोज के लिए निर्जन प्रकृति में प्रवेश किया था , अंत में उसी ने समाज से भागकर प्रकृति के कल्पनालोक में शरण ली ।जिससे आरंभिक आत्मप्रसार में समाज के सामन्ती मूल्यों को चुनौती दी ,उसके अन्तिम अहंभाव में संपूर्ण समाज ,विशेषत: अपने ही मध्यवर्गीय समाज की व्यवसायिकता से घबड़ाहट का तीव्र असंतोष और निराशा है ।'
व्यक्तिवाद के एक महत्व परिणाम की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि इससे उनका संपूर्ण दृष्टिकोण व्यक्तिनिष्ठ हो गया ।संसार की सभी वस्तुओं को आत्मरंजित करके देखने के प्रयास मे 'छायावाद का ध्यान वस्तु के बाह्य आकार की अपेक्षा या तो उसमें निहित भाव की ओर गया या उसकी सूक्ष्म छाया की ओर ।प्रकृति-चित्रण में पहले के कवि जहॉ पेड़-पौधों का नाम गिनाकर अथवा प्राकृतिक दृश्यों के स्थूल आकार का वर्णन करके संतुष्ट हो लेते थे ,वहॉ छायावादी कवि ने प्रकृति के अन्त:स्पन्दन का सूक्ष्म अंकन किया ।'
व्यक्तिवाद से व्यक्तिनिष्ठ सौंदर्य की ओर बढ़ते हुए नामवर जी बहुत ही कंपैक्ट हैं ,आलेख में सुई के बराबर जमीन नहीं ,जो व्यर्थ ही जमीन घेर रहा हो ,फिर इसी सौंदर्य के रास्ते प्रकृति की ओर यात्रा ,और नामवर जी एक महत्वपूर्ण चीज बताते हैं ' छायावादी कवियों ने प्रकृति के छिपे हुए इतने सौंदर्य-स्तरों की खोज की ,वह आधुनिक मानव के भौतिक और मानसिक विकास का सूचक है ।इस सौन्दर्य-बोध का विकास प्रकृति और मानव के पारस्परिक सम्बन्धों का परिणाम है ।प्रकृति ने मनुष्य में सौंदर्यबोध जगाया और मनुष्य ने उदबुद्ध होकर प्रकृति में नवीन सौंदर्य की खोज की और इस तरह दोनों परस्पर वर्धमान हुए ।'सौंदर्य और सामाजिक विकास को सहचर बनाते हुए नामवर जी बिना किसी मार्क्सवादी सिद्धांतों की चर्चा करते हुए बड़ी बात कहते हैं ।
व्यक्तिबाद का तीसरा परिणाम भावुकता है और नामवर जी इस परिणाम का विश्लेषण भी एक खास दृष्टि से करते हैं ।सबसे पहले भावुकता के उत्स ,फिर उसके स्वरूप ,अंत में उसकी सीमा ।नामवर जी प्रत्येक प्रवृत्ति का ऐसे ही विश्लेषण करते हैं ।भावुकता की सीमा को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं 'कबीर ,सूर ,तुलसी के करूणा-विगलित आर्त आत्म-निवेदन में भी परिणत वय और धीर स्वभाव का संयम है ।किन्तु छायावादी कवि में उच्छल भावुकता का अबाध उद्गार है ,यहॉ तक कि भावुकता छायावाद का पर्याय हो गयी ।'
छायावाद और भक्तिकाव्य के दृष्टिगत भेद में निहित 'तुलना'औजार का उपयोग नामवर जी कई बार करते हैं ,तथा इस औजार को चरम ऊंचाई देते हैं ।तुलनात्मकता का हिंदी आलोचना में नामवर जी से सुंदर उपयोग शायद ही कोई करता हो !भावुकता को कल्पना से जोड़ते हुए वे कालिदास का पंत से तथा निराला का बिहारी से तुलना करते हैं 'कालिदास का 'मेघ' पंत के 'बादल' से अधिक वास्तविक और कम कल्पनाबाहुल है ।'मेघदूत' में मेघ के लिए जगह-जगह नि:सन्देह बड़ी ही मनोरम उपमाऍ लायी गयी है लेकिन अन्तत: उससे रामगिरि से लेकर कैलास तक की भारतभूमि की यात्रा करायी गयी है .......किसी वस्तु को देखकर यदि प्राचीन कवि को अधिक से अधिक उस वस्तु से मिलती-जुलती अथवा उसे संबद्ध दो-एक अन्य अप्रस्तुत वस्तुओं की ही याद आती थी ,तो छायावादी कवि के मन में सैकड़ों 'एसोसिएशन्स' अथवा स्मृति-चित्र जग जाते थे ।'यमुना' को देखकर यदि बिहारी ने इतना ही कहा था कि -सघन कुंज छाया सुखद.....तो निराला के मन में यमुना से सम्बन्धित सैकड़ों स्मृति-चित्र ऊभर आये और 'यमुना' के किनारे उन्होंने कल्पना की एक दूसरी ही सृष्टि खड़ी कर दी ।'
छायावाद की स्वानुभूति ,भावुकता ,कल्पना आदि के विशद विवेचन के बाद वे इस स्वभाव के माकूल शब्द-चयन ,वाक्यविन्यास ,प्रतीक योजना तथा छन्द-गठन की भी चर्चा करते हैं ।शब्दगठन के श्रोतों को खोजते हुए वे क्लासिक संस्कृत कवियों ,ब्रजभाषा काव्य और रवीन्द्र काव्य के साथ ही अंग्रेजी की रोमैंटिक कविता को भी याद करते हैं ,तथा उपयोग में लाए गए शब्दों की तुलना ऐसे करते हैं - 'पन्त के शब्द अपेक्षाकृत छोटे ,असंयुक्त वर्णवाले ,हल्के तथा वायवी हैं ।प्रसाद के शब्द अधिक प्रगाढ़ ,मधुमय और नादानुकृतिमय है ।महादेवी के शब्दों में रूपये की -सी स्प्ष्ट ठनक और खनक है और निराला में सन्धि-समास युक्त विविध जाति और ध्वनिवाले शब्दों में भी अनुप्रासमय व्यंजन-संगीत उत्पन्न करने की चेष्टा है । 'निबंध के अंत में वे इस आरोप को खारिज करते हैं कि छायावाद का संबंध तत्कालीन आन्दोलन से नहीं था ।ऐसा लगता है कि नामवर जी का हरेक प्रयास भ्रमों ,अफवाहों से आलोचना को बचाने का ही है ,तथा वे कट्टर दिखकर भी कविता को दुरभिसंधियों से वापस ले आते हैं ।अंत में वे छायावाद का गद्य पर पड़े प्रभाव की चर्चा करते हैं तथा तुलना करने और मूल्य देने के खतरों को स्वीकारते हैं ' काव्यशैली की भॉति गद्यशैली पर छायावाद का प्रभाव स्पष्ट है ।इस प्रभाव का सर्वोत्तम रूप प्रसाद और महादेवी के गद्य में मिलता है और निकृष्टतम रूप चंडीप्रसाद 'ह्रदयेश' की कहानियों में ।'
पूरे निबंध में नामवर जी आलोचकीय उद्धरणों से बचते हैं ,तथा एक -दो जगह रामचंद्र शुक्ल एक जगह नगेंद्र की छाया तथा इस बात का औचित्य कि छायावाद को 'स्थूल के विरूद्ध सूक्ष्म का विद्रोह 'क्यों कहते हैं तथा अंत में रामविलास शर्मा को उद्धृत करते हैं ।अतिशय सामाजिकता को स्पष्ट करता वर्डसवर्थ की एक पंक्ति अंग्रेजी में तथा सौंदर्य को स्पष्ट करता हुआ रवींद्रनाथ की कविता 'मानसी' को मूल बांग्ला में ।पूरा का पूरा संदर्भ छायावादी कवियों का ही ।सारा का सारा तर्क साहित्यिक ,एक जगह ज्यामिति का भी ,एक जगह मानवशास्त्र का भी ,परंतु कटने काटने की ललक कम लगभग सर्वसम्मति की ओर बढ़ती ........
Saturday 14 April, 2012
जय गंगे
बिसूखी गाय इस आशा से किसान को जिलाती कि
बस नौ-दस महीने की ही तो बात है
पर जब नदी बिसूखती है तो
झुलसा शहर पचास सौ किलोमीटर आगे-पीछे हो जाता है
मेरा विश्वास नहीं होगा आपको तो थार के नीचे की जमीन खोद डालिए
सरस्वती आज भी गुमनाम बहती वहां
इस इंतजार के साथ कि कोई न कोई भगीरथ तो होगा उसके भी नसीब में
2 जब तुम्हें सूखना ही था गंगा
तो क्यों की हजार किलोमीटर की जद्दोजहद
लाखों वर्षों की वह यात्रा
जो गोमुख से बंगाल तक में पूरी होती
क्या इतने दिन में तुम समर्थ हुई सबको पवित्र करने में
सभ्यताओं का कचड़ा ढ़ोने में निहित संवेग तब मिला
या वैसे ही बढ़ती रही समुद्र से मिलने
कहीं उन बोलियों से मिलने तो नहीं बढ़ती रही
जो सुवासित थे प्रयाग ,काशी ,पटना ,सिमरिया ,हावड़ा के घाटों पर
या देखने चली थी राजवंशों का इतिहास
उनके सनक करतब उनके
कभी हँसी या नहीं मगध के पतन पर
3 विद्यापति की वह कविता है मेरे पास
जिसमें तुम्हारे घाटों पर वह अंतिम समय बिताते हैं
और जगन्नाथ की 'गंगा लहरी ' भी
जिसे लिखते लिखते आचार्य तुम्हारी लहरों में समा गए
अब बोल गंगे
तुम्हारी अंतिम ईच्छा क्या है
तुम्हें कैसी मौत पसंद है
जूता उद्योग वस्त्र उद्योग
कागज उद्योग या शहरी सीवर
या सरकारी परियोजनाओं के फाईलों पर सर रखकर
4 जैसे बसंतबहार फिल्म में भीमसेन जोशी को हारना ही था मन्नाडे के सामने
उसी तरह वैजुबावरा में उस्ताद आमिरखान हारे
फिल्मों में प्राण ,अमजद खान ,अमरीश पुरी रेगुलरली हार रहे हैं
क्यों क्यों क्यों
क्योंकि ये स्क्रिप्ट में लिखा है
और गंगा तेरी मौत भी स्क्रिप्ट का ही हिस्सा है
बस बरसात के कुछ दिन तू अपनी कर
फिर स्क्रिप्ट में समा जा माते.........
5 होना तो बस एक ही है
या तो तुम हमें बर्बाद कर दोगी
या हम तुम्हें नाथ देंगे
तुम्हारे लहरों को गिन
तुम्हारे वेग को बांध
कल-कल ध्वनि को टेप कर
तमाम दृश्यों की क्लोनिंग कर
तुम्हें छोड़ देंगे
या फिर तुम हमें हमारे शहरों को
धर्म सभ्यता को
कालदेव की गति से मिल
अखंड अनुरणन से नष्ट कर दोगी
Saturday 7 April, 2012
राम लोचन ठाकुर की दो मैथिली कविताएं
कविता और कविता और कविता
बन्धु !
ऐसा होता है
ऐसा होता है कभी काल
भादो का 'सतहिया'
माघ की शीतलहरी
कोई नयी बात नहीं
जब दिन पर दिन
सूर्य का अस्तित्व
रहा करता अगोचर
तो मान लेना सूर्यास्त
आलोक पर अन्धकार का वर्चस्व
कौन सी बुद्धिमानी है
सामयिक सत्य होकर भी
शाश्वत नहीं होता अन्धकार
और आगे
जब पूंजीवादी विस्तार लिप्सा का
जारज संतान वैश्वीकरण
संपूर्ण विश्व को बाजार बना देने के लिए
हो रहा उद्धत अपस्यांत
आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है
'प्रतिकार'शब्द साधक के लिए
कविता मार्ग से विचारना-बतियाना
विचारना-बतियाना कविता मार्ग से
हो जाता अनिवार्य
शब्द संस्कृति की रक्षा के लिए
जो सबसे पहले हाता आक्रांत
बाजार-संस्कृति के द्वारा
बाजार संस्कृति
भाट और भड़ुए के बल पर
रूप विस्तार करती
विकृत और विकार युक्त
बाजार-संस्कृति
आदमी से आदमियत
शब्द से संवेदना तक को
वस्तु में बदल देने के लिए रच रहा षड्यंत्र
शब्द का अपहरण
शब्दार्थ के संग बलात्कार
तब कविता ही खड़ी हो पाती एकमात्र
अपनी संपूर्ण ऊर्जा व आक्रामकता के संग
बना अभेद्य ढ़ाल
एकमात्र कविता ।
एक मात्र कविता
हां बन्धु
मैं कविता की बात करता हूं
शब्द-समाहार का नहीं
शब्द जादूगर द्वारा सृजित-संयोजित इन्द्रजाल
साहित्य की अन्यान्य विधाएं
अनुगमन करती कविता की
पर आगे तो कविता ही रहता
वही करता नेतृत्व
मुक्ति के नाम पर
पददलित होता कोई देश कोई जाति
जनतंत्र के नाम पर दलाल-तंत्र
प्रतिष्ठा का प्रयास
सुरक्षा को मुखौटा बना
लुंठित होता सम्पत्ति -सम्मान
सभ्यता का धरोहर
स्वस्तिक खजाना संस्कृति का
काबुल से कर्बला तक रक्तरंजित
जाति-सम्प्रदाय-पूंजीवाद का त्रिशूल व ताण्डव
तब कविता और एक मात्र कविता ही
उठाए हुए मशाल
विध्वंस के विरूद्ध सृष्टि के संग
दानवता के विरूद्ध मानवता की
शोषण के विरूद्ध मुक्ति की
आशा-विश्वास का प्रतीक बन
अपनी संपूर्ण अर्थवत्ता
उपयोगिता-उपादेयता के संग
जातीयता के मध्य अंतर्राष्ट्रीयता का
व्यष्टि के मध्य समष्टिगत चिंतन चेतना के संग
दीपित रहती कविता
मेरी कविता
आपकी कविता
आशा की कविता
भाषा की कविता
कविता...
और कविता...
और कविता.....
2 एक फॉक अन्हार:एक फॉक इजोत
संध्या होते ही
अंधकार की गर्त में
खो जाता गांव
एक आशंका
एक आतंक
फैल जाता
सब जगह
गांव
जहां भारत की आत्मा रहती है !
संध्या होते ही
शहर बन जाता
लिलोत्तमा
नित नूतन आभूषण
नए-नए साज
रंग-बिरंगा आलोक का संसार
एक आकांक्षा
एक उन्माद
शहर
जहां भारत-भाग्य-विधाता रहते हैं !
Sunday 1 April, 2012
नामवर सिंह और आनंद मोहन
पिछले सप्ताह मैं दिल्ली गया था ,तो सोचा कि अपने नामवर दादा यहीं रहते हैं ,तो क्यों न उनसे भी मिल लिया जाए ! सो एक अनूठे उत्साह से ,जो प्राय:बिहार ओर पूर्वांचल के पाठकों में होता है ,मैं ऑटो वाले को अलकनंदा अपार्टमेंट चलने के लिए कह दिया । और लगभग एक घंटे में ही मैं उनके यहां पहुंच गया .....समय था लगभग छह बजे भोर का । समय का चुनाव मेरे इस तर्क पर आधारित था कि अभी तो कोई कवि ,पत्रकार वहां होगा नहीं ,मैं बचपन से ही सुनता आ रहा था कि दिल्ली में सुबह दस बजे हुआ करती है ।वहां की मेमें तो तब जगती हैं ,जब सूर्य भगवान दो -तीन घंटे से उनकी दरवाजों -खिड़कियों पे मिहनत कर चुके होते हैं .....अफसोस ! ये सब किताबी बातें ही साबित हुई ।अलकनंदा अपार्टमेंट के विशाल मैदान में औरतें जॉगिंग कर रही थी ,और अपने शरीर की वसाओं को वैसे ही कम कर रही थी ,जैसे नामवर जी कविता में से अलंकार को कम करने के लिए कहते हैं । फिर भी मैं डरते-डरते उनके पास पहुंचा कि कहीं वही उनके कमरे के विषय में बता दे ,और उस महिला ने कहा कि 'गुड नामवर को कौन नहीं जानता ।गो अहेड... देन टर्न लेफ्ट ..ग्रेट मेन लिब्स देयर विद ए लॉट ऑफ चेला ,चेलाइन ,जर्नलिस्ट एंड .......'
और उस महिला के बताए नक्शे के ही हिसाब से मैं वहां पहुंचा ,कमरा नंबर कई कई बार चेक किया ,फिर दरवाजे पर खड़े दो राईफलधारी से विनम्रतापूर्वक कहा कि जाईये और बता दीजिए कि महिषी ग्राम से आपका एक प्रशंसक आया है ।राईफलधारी ने अपने मन से ही पूछा 'क्या काम है '
मैंने पुन:विनम्रता पूर्वक कहा कि बस नामवर जी का दर्शन करना है
दूसरे राईफलधारी ने तुरत कहा कि 'परंतु दर्शन के लिए तो साहब ने शाम का समय रखा है '
मैंने तुरत अपने को काबिल ,महान ,प्रगतिशील होने का मुखमंडल बनाया और एक मोटी किताब से अपने मुंह पर हवा करते हुए कहा कि बस आप एक बार बता तो दीजिए ......
सो यह पत्ता काम कर गया और बंदे ने अंदर जाने की आज्ञा दे दी ।
अंदर का कमरा बहुत बड़ा था ,और एक व्यक्ति मेज पर ही लेटा हुआ था ।कई व्यक्ति सूटेड बूटेउ और लुंगी धोती में भी ,उस आदमी के मॉलिश में लगे थे ।कोई तेल ,कोई बिना तेल ही ,कोई कविता कहानी की अंर्तकथाओं के साथ कोई चुपचाप अपने काम में लगा हुआ था ।इन व्यक्तियों में कई मेरे परिचित थे ,कई बनारस ,पटना ,भोपाल के थे ,तथा बहुतों को अखबारों से ,पत्रिकाओं से और फेसबुक से जानता था ।
जल्दी ही पता चल गया था कि लेटा हुआ व्यक्ति ही नामवर सिंह हैं ,तथा उनको कोई बीमारी नहीं थी तथा उपस्थित व्यक्ति भी रूटीन में लगे थे ।मैंने भी नामवर जी को प्रणाम किया और बताया कि सर मैं महिषी ग्राम से आया हूं आपसे मिलने ।
'परंतु मैं तो कभी महिषी गया नहीं '
हां पर वह गांव भी प्रसिद्ध है सर
'तो क्या उस गांव में भैंसे ज्यादा मिलती है ,अर्थात ग्राम की प्रसिद्धि भैंसबहुलता के कारण है या भैंस पर चढ़ने वाली कोई माता ,कोई तांत्रिक सम्प्रदाय ?'
नहीं सर ,वह मंडन का गांव है न
'कौन मंडन ,कोई विधायक हैं क्या ? '
मैंने कहा नहीं सर ,मंडन मिश्र प्रसिद्ध दार्शनिक हैं न वहीं ,अरे वही भारती के पति ....जिसने शंकराचार्य को भी परिचित कर दिया था
'अच्छा तो आप उनके गांव से आए हैं ,बताइए क्या हाल चाल हैं आपके .....'
तभी आनंद मोहन जी भी आ गए ।आनंद मोहन सिंह हमारे विधायक रहे हैं तथा एक अधिकारी की हत्या के जूर्म में सजा काट रहे हैं ।आनंद मोहन जी मुझे देख मुस्कुराए पर नामवर जी तुरत खड़े हो गए ।उन्होंने धोती ,कुरता धारण किया ,पान को पनबट्टी में से निकाला ,पान को अंगुलियों मे फंसाया ,तथा मुंह के अंदर रख लिया ।पानग्रहण (पाणिग्रहण नहीं) की बाकायदा तस्वीरें ली गई ,तथा नामवर जी आनंद मोहन सिंह की पुस्तकों को उलटापुलटाकर देखने लगे ।नामवर जी के चेहरे पर गर्व और संतोष का भाव था ।कुछ ऐसा ही भाव जैसा अपभ्रंश पर लिखते ,छायावाद पर लिखते ,आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां लिखते और नए प्रतिमानों की बात करते हुए रहा करता है ।फिर कमरे से मुझको और कुछ अन्य लोगों को निकालने की तैयारी होने लगी ।
हम लोग कमरे में से बाहर आ गए तथा लॉन में एक वृक्ष के छाये में आ गए ।पता नहीं कब नींद आ गयी और एक बड़े दृश्य को मैं देखने लगा ।सपने में नामवर की एक विराट मूर्ति दिखी और आनंद मोहन सिंह विनीत भाव से उनके सामने बैठे थे ।नामवर जी कह रहे थे
'हम दोनों महान राम के वंशज हैं ,तथा उनका ही काम बढ़ाते हैं ।हम दोनों संहार करते हैं ।यह न ही कवियों का न ही व्यक्तियों का संहार है यह तो प्रवृत्तियों का संहार है ।किए हुए काम के प्रति पश्चाताप का भाव व्यर्थ है । उनके लिए तर्क का खोजा जाना जरूरी है ,तर्क ही सृजन कराता है ,और तुममें वह बीज है ।बाल्मीकि जब वह कर सकते हैं ,तो तुम तो इक्कीसवीं सदी के पढ़े लिखे ठाकुर हो ....तुम क्यूं नहीं ?'
नामवर जी के यह बोलते ही आनंदमोहन का भ्रम जाता रहा । 'आत्म तत्व विवेक ' से वे परिचित हो चुके थे ।शब्द ,स्फोट ,जगत् ही उनके लिए भ्रम नहीं गोली और गन भी माया प्रतीत हो रहा था ।इस हेत्वाभास पर आप जल्द ही नयी कविता का दर्शन करेंगे ।प्रकाशक होंगे राजकमल ,वाणी या कोई और जिनको प्रसिद्धि भी चाहिए और पुरस्कार भी ।नामवर जी ने प्रकाशकों को पूरी गारंटी दिया है कि मुनाफा 'सरबा' कहां जाएगा !
महाराज दिलीप ,भरत और भगवान राम के वंशज दोनों ठाकुर पैदल ही राजपथ पर टहल रहे थे ।कभी अंबानी ,कभी लालू ,कभी सहारा के सुब्रत राय ,हजारी प्रसाद द्विवेदी ,रामविलास शर्मा ,आदि कई लोग उनको चलते देख आनंद आनंद हो रहे थे ।
इस दृश्य को देखकर यद्यपि पुष्पवर्षा नहीं हुई थी ,परंतु एक चालू आलोचक जो जाति का ब्राह्मण ,स्वभाव से मसखरा और वेतन बिल के हिसाब से प्रोफेसर था तुरत डायरी में लिखने लगा :
तुलनात्मक आलोचना - आनंद मोहन की तुलना में नामवर जी ज्यादा मारक हैं ,क्योंकि उनका मारा पानी नहीं मांगता ।जबकि आनंद मोहन का मारा कई आदमी जिंदा है । यद्यपि दोनों भगवान राम के वंशज हैं ,दोनों में क्रोध और उत्साह ज्यादा है ,परंतु आनंद मोहन उत्तर आधुनिकता की ओर प्रस्थान करते हैं ।उन्होंने सोचने समझने की केंद्रीय धारा को चुनौती दी है ।दोनों प्रगतिशील हैं तथा रस की बजाय संघर्ष पर बल देते हैं ।
नयी आलोचना - यह चर्चा इस बात पर बल देती है कि कवि की बजाय कविता महत्वपूर्ण है ।अत:कौन ,कहां ,कैसे मारा ,मरा ,मराया यह महत्वपूर्ण नहीं है ।सबसे महत्वपूर्ण है उजले कागज पर कवि का लिखा हुआ वह काला वह काला ........... ।
निष्कर्ष :आनंद मोहन की तुलना में नामवर ज्यादा मारक हैं ,क्योंकि उनका मारा पानी भी नहीं मांग पाता ,जबकि आनंद मोहन की शूटिंग कला में कई खामियां हैं ,उनका मारा कई जगह मिल जाएगा ,एक हाथ ,एक पैर ,एक आंख के साथ ......जी0 कृष्णैया तो अभागा था बस ।नामवर जी किसी को पूरी कला ,साजसज्जा के साथ मारते हैं ।पहले आधा घंटा बोलेंगे ,फिर पानी पियेंगे ,फिर उसके मरने की ऐतिहासिक अनिवार्यता पर बात करेंगे ,अंत में गोली मारेंगे ।फिर गरदन हिलायेंगे कि मरा कि नहीं .....इस कलात्मकता का आनंद मोहन में अभाव है ।
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