द्विवेदी कालीन आलोचकों में मिश्रबंधु का काम कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है । भक्तिकाल और रीतिकाल की उनकी परोसी हुई सामग्री को आचार्य शुक्ल भी अपने इतिहास में स्वीकार करते हैं । तीन भाईयों गणेश बिहारी मिश्र , श्याम बिहारी मिश्र तथा शुकदेव बिहारी मिश्र के साहित्यिक अवदान को हम लोग सामूहिक रूप से मिश्रबंधु के ही नाम से जानते हैं तथा इतिहास के इस अनोखे पहलू को इसी रूप में स्वीकार करते हैं ।
द्विवेदी कालीन विद्वान आलोचना का कार्य कलम की बजाय गुलाब और तलवार से करते हैं ।वे अपने प्रिय कवियों को गुलाब देते हैं तथा अन्य पर तलवार से प्रहार करते हैं ।मिश्रबंधु लिखित ' हिंदी नवरत्न' का नाम भी रीतिकालीन अवशेष का सूचक है ।नवरत्न साहित्य और कला का प्रसिद्ध और चालू मानक रहा है और लेखकों ने इसका प्रयोगकर अपने उद्देश्य को स्पष्ट कर दिया है ।इनकी आलोचना की पद्धति है छन्दों का मुकाबला ,मानो कविता की बात नहीं घुड़दौड़ का आयोजन हो ।
''पहले हम मतिराम को भूषण से बहुत अच्छा कवि समझते थे ,पर पीछे से इस विचार में शंका होने लगी ।उस समय हमने भूषण और मतिराम के एक एक छन्द का मुकाबला किया ।तब जान पड़ा कि मतिराम के प्राय: 10 या 12 कवित्त तो ऐसे रूचिर हैं कि उनका सामना भूषण का कोई कवित्त नहीं कर सकता और उनके सामने देव के सिवा और किसी के भी कवित्त ठहर नहीं सकते , पर मतिराम के शेष पद्य भूषण के अनेक पद्यों के सामने ठहर नहीं सकें ।''
ये उदाहरण आलोचना के उस विभ्रम का है जो द्विवेदीयुगीन आलोचना झेल रही थी ।मिश्रबंधुओं ने कविताओं का मिलान किया ,स्तर के हिसाब से वर्गीकरण किया ,फिर उसे नंबर दिए ,परंतु इस प्रक्रिया में उस सिद्धांत का उल्लेख नहीं है ,जिसके आधार पर उन्हें नंबर दिया गया ।स्पष्ट है कि अपनी रूचि और काव्यगत संस्कार ही आलोचना का सबसे बड़ा मानक था ।
आचार्य शुक्ल की भाषा में मिश्रबंधु कविवृत्तकार ज्यादा थे इतिहासकार कम ,यद्यपि उनका वृत्त हिंदी इतिहास की आलोचना का एक अनिवार्य सोपान रहा है तथा स्वयं शुक्ल जी भी 'मिश्रबन्धु विनोद' के ऋणी रहे हैं ।वे रीतिकालीन काव्यशास्त्र के मर्मज्ञ थे तथा पारंपरिक काव्य परंपरा की रसस्वी धारा को उर्जापूर्वक रेखांकित किया ।उन्होंने तुलसी काव्य में नायक उपनायक की विरोधी स्थिति और तुलसी की रूपक कला को स्पष्ट किया ,इसी तरह सूर के बाल लीला में उन्होंने स्वाभाविकता को परिलक्षित किया ।देव में वे छंदवैविघ्य को अजायबघर की तरह देखते हैं तथा देव साहित्य की अभूतपूर्व कोमलता ,रसिकता और सुंदरता की प्रशंसा करते हैं ।आलोचना का यह पक्ष आधुनिकता से रहित है ,परंतु मिश्रबंधु रसिकता को कुछ कुछ तार्किकता से जोड़ते हुए आधुनिकता का मार्ग प्रशस्त करते हैं ।तुलनात्मक आलोचना के प्रवर्तन का भी श्रेय उन्हीं को है ,यद्यपि तुलना के लिए अपनाई गई उनकी प्रविधि से हम असहमत हैं ।
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