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Sunday, 6 April 2014

हम जहां रहते हैं

भोर में टहलते हुए सड़क पर प्राय: किसी का कफ ,पानका पीक या चबाया गुटखा दिख जाता है ,तब द्विअक्षरी गाली से काम नहीं चलता है और पंचाक्षरी तक जाना पड़ता है ।यही हाल हिंदी साहित्‍य ,पत्रकारिता और विश्‍वविद्यालयों में प्राय:देखने को मिलता है ,कोई किसी का भाई है ,दामाद है ,बेटा है ,चेला है ,और उनका सबसे बड़ा एसाइनमेंट यही है ।अब इन आलियाओं ,कपूरों और धवनों के सामने आपको उखाड़ने के लिए क्‍या बचता है ?

Saturday, 29 March 2014

(सांप्रदायिकता बहुआयामी ,जटिल एवं बहुस्‍तरीय होता है ।

चना श्रेष्‍ठ होता है गेहूं से ,गेहूं के पत्‍ते चने के पत्‍ते से ज्‍यादा सजीला होता है ,गेहूं देश के बारे में ज्‍यादा सोचता है ,गेहूं पूरबैया में ज्‍यादा जोर से नाचता है ।चना का फूल ज्‍यादा कामुक होता है ,चना लतर कर देश का ज्‍यादा जमीन छेकता है ,चना की नीयत गेहूं के प्रति खराब़ है ।चना गेहूं को बरबाद करना चाहता है ।गेहूं अपनी लंबाई से चने के परागन को रोकता है ,गेहूं चने की ओर आने वाले हवा ,पानी ,गीत सबको रोकता है ।खेत ज्‍यादा अच्‍छे होते यदि केवल चना ही होता ।ये दुनिया ज्‍यादा प्‍यारी होती ,यदि केवल चने की खेती की जाती ,आखिर प्रोटीन ही तो सब कुछ है ।देश का ज्‍यादा से ज्‍यादा संसाधन केवल गेहूं के लिए खर्च हो रहा है ,सारी बिजली ,सारा खाद ,श्रमिक वर्ग ,थ्रेशिंग ,ट्रैक्‍टर सब गेहूं की पूजा में व्‍यस्‍त ।

(रवि भूषण पाठक)

Friday, 21 March 2014

संपादक का परिवारवाद

समास-8 के प्रकाशक ,लेखक और संपादक पर जरा ध्‍यान दीजिए ।
संपादक-उदयन वाजपेेयी,प्रकाशक-अशोक वाजपेयी
तीन सौ बीस पृष्‍ठ के साठ पृष्‍ठ में संपादकीय और वार्तालाप मिलाकर उदयन वाजपेयी हैं ।पांच पृष्‍ठ और लेकर एक आलेख में भी है ।पांच पृष्‍ठ में प्रकाशक महोदय की कविता पर ध्रुव शुक्‍ल का आलेख है ।चौदह पृष्‍ठ किसी आस्‍तीक वाजपेयी के लिए है ,जिनके घर का पता संपादकीय कार्यालय का पता है ।मतलबसाहित्‍य ,कला और सभ्‍यता पर एकाग्र की घोषणा के साथ इस अनियतकालीन पत्रिका का एक चौथाई हिस्‍सा अपने घर-परिवार से संबंधित है ।ये सामग्री चाहे जितनी भी अनिवार्य रही हो ,प्रकाशक और संपादक को अपने विवेक का इस्‍तेमाल तो करना ही चाहिए ।और आस्‍तीक जी आपकी कविता चाहे जितनी भी कमाल की हो ,घर में छपने से बचिए ।

Wednesday, 12 March 2014

कबीर संजय की कहानी 'मकड़ी के जाले '

कबीर संजय की कहानी 'मकड़ी के जाले'  नया ज्ञानोदय के फरवरी अंक में प्रकाशित हुई है ।कहानी नई कहानी के बहुप्रचारित 'नएपन' से आगे आकर प्रारंभ होती है ।पहली कक्षा में पढ़ रहा अंची के हवाले से लेखक गांव के दुआरा ,बरामदा,कमरा ,नीम से जुड़े भूगोल का मुआयना करता है ,तथा बहुत ही बारीकी से अंची के दिमाग में प्रवेश करता है ।चींटे के जैविक चक्र,आवास को बालमनोविज्ञान के चश्‍मे से कहानी में शामिल करते हुए लेखक अभिव्‍यक्ति के नए स्‍वर्ग की ओर प्रस्‍थान करता है ।करौंदे का पेड़ ,घोंसला ,मकड़ी का जाला केवल अंची के लिए ही नया बन के नहीं आता है ,एक पाठक को भी ऐसे सहज सामान्‍य चीजों को देखने का नया एंगल मिलता है ।अंची के सर में तेल लगाने ,उसे नहाने एवं टिफिन तैयार करने के विवरण में इतनी सहजता है ,और एक-एक चरण पर इतना गहन ध्‍यान कि कहानियों में रूपक और प्रतीक की बात बेमानी लगने लगती है ।अंची का एक बड़ा भाई भी है जो अपने पिता को एक औरत के साथ सोए देखकर घर से भाग गया है ,इस सोने वाले प्रसंग को कबीर विस्‍तार नहीं देते हैं ,विमल चंद्र पांडेय की एक कहानी जो 'अनहद' में प्रकाशित हुई है ,लगभग ऐसे ही प्रसंग में बेडरूम के चित्‍कारों से भरी है ।कबीर का संयम बहुत ही कलात्‍मक है ।इस कहानी में नन्‍दू लौटता है ,और पिता उसके भागने के कारणों से अनजान पिटाई करते हैं ।नंदू क्रोध और प्रतिशोध से अपना ओठ भींचता है ।अंची भी ओंठ को भींचते हुए चींटी ,ललमुनिया और कौवा के प्राकृतिक आवास पर आक्रमण करता है ।नाराज कौवे अंची पर आक्रमण करते हैं तथा उसके हाथ से पेड़ की डाली छूट जाती है ।कबीर संजय की इस कहानी के द्वारा हम ग्रामीण बाल मनोविज्ञान की एक अछूती दुनिया से परिचित होते हैं ।निरंतर क्रूर हो रही दुनिया और परिवार के पास अंची और नंदू के लिए कुछ भी नही है ।परिवार और विद्यालय यहां पर क्रोध ,हिंसा और प्रतिशोध सिखाने के साधन मात्र हैं ।अंची जो मकड़ी के जाले को जिज्ञासा से देखता है , और  उसमें फँसता ही चला जाता है ............

(रवि भूषण पाठक)

Thursday, 13 February 2014

।दलाली जिंदाबाद !

किसानी बकबास है ,बनियौटी चोखा ,निवेशक की बजाय ब्रोकिंग में चमक थी ,और जो था फायदा ही ,निवेश केवल मुंह ,मुखौटा एवं भंगिमा का ही था ।देह धुनती थी रंडियां ,मजा मारते थे भड़ुए ।लेखक की बजाय प्रकाशक बनना मुफीद था ,नए लेखक यहां आराम से फँसते थे ।यह कोई छोटा-खोटा धंधा नहीं था ,दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश जो अपने आपको सबसे बड़ा लोकतंत्र और सबसे महान वामपंथी कहते थे , को भी ये पता था कि दलाली कोई साधारण चीज नहीं है ,इसीलिए वे हथियार बनाते भी थे ,और दलाली भी खुद ही करते थे ।यह महायुग था ,जिसमें सबसे ज्‍यादा चमक तृतीयक क्षेत्र के पास ही था ।दलाली जिंदाबाद !



दलाली कर रहे हैं न भैया ,एकदम करिए ,परंतु आकाश की ऊंचाई से या फिर धरती की गुरूता से एकदम ही प्रभावित नहीं होइए ,होइए भी तो दिखे नहीं ,और दिख भी जाए तो उसका फायदा हो ।मौका मिले तो ये भी कहिए कि धरती की गुरूत्‍वाकर्षण शक्ति को आप कम या ज्‍यादा कर सकते हैं ,या फिर आकाश को खींच के नीचा या फिर मुक्‍का मार के ऊपर कर सकते हैं यदि नहीं कर पाए तो ये बताइए कि आपकी नामर्दी जनहित में है ।

Saturday, 8 February 2014

(मऊ से पटना वाया फेफना,बक्‍सर

सरकारों ने भले ही मऊ से पटना जाने के लिए वाया बलिया और वाया भटनी का रूट बनाया ,सजाया हो ,जनता इस रूट से नहीं चलती ।यहां के लोग फेफना में उतरकर ऑटो एवं जीप से बक्‍सर पहुंचते हैं ,फिर बक्‍सर से रेल के माध्‍यम से पटना पहुंचते हैं ।व्‍यापारियों ,किसानों ,कर्मचारियों ,तस्‍करों का यही रूट है ।यही रूट ज्‍यादा लोकप्रिय और सुरक्षित भी है ।बक्‍सर के टूटे पुल से निर्बाध यात्रा जारी है ,पुल का मुख्‍य हिस्‍सा कई भागों में बँटा दिखता है ,और एक हिस्‍से से दूसरे पर जाते वक्‍त दोनों हिस्‍से हिलते हैं ,आवाज करते हैं तथा डराते हैं ।लोगों ने बताया कि कई महीना पहले ही पुल को सरकारी तौर पर बंद कर दिया गया है ,परंतु भारी और हल्‍के वाहन पहले की ही तरह चल रहे हैं ।कुछ लोग डरे भी हैं कि कहीं सही में रूट बंद हो गया तो बलिया से पटना की यह यात्रा कुछ ज्‍यादा घंटों की मांग करेगी ।शायद उत्‍तर प्रदेश और बिहार के सरकारों के लिए यह उच्‍च प्राथमिकता का विषय नहीं रहा हो ,परंतु यहां के लोगों के लिए यह रोटी-बेटी का प्रश्‍न है ।
(मऊ से पटना वाया फेफना,बक्‍सर)

Wednesday, 18 December 2013

साहित्‍य के पिचकू

मुझको अपनी बात कहने तो दीजिए ,मुझे डराइए मत ,मुझे उनका कद,वजन,प्रतिष्‍ठा ,प्रभाव से परिचय मत कराइए ,थोड़ा बहुत हम भी जानते हैं ,निस्‍संदेह वे प्रभावशाली लोग हैं ,उनकी एक टिप्‍पणी से हम जैसे लोगों का जीवन(लेखन नहीं) आरामदेह हो सकता है ।उनका एक संकेत ,सिफारिशी चिट्ठी हमारा भाग्‍योदय कर सकता है ,परंतु जब हम इस लाभ-लोभ की ओर झुकने की बजाय अपेक्षाकृत ईमानदार रूख अपनाते हैं ,तो आप समर्थन की बजाय हमें धमकाते हैं ,और हिंदी के उन महापुरूषों के कुकृत्‍यों पर ईमानदारी पूर्वक चर्चा करने की बजाय उनके पहले के रिकार्ड पर बात करना पसंद करते हैं ।


                                              मुझे जानकारी है कि आप में से बहुतों के एकाधिक किताबें छप चुकी है , आप में से कुछेक पुरस्‍कृत भी चुके हैं ,आप में से कई इस पुरस्‍कार और सम्‍मान के वाकई हकदार हैं ,परंतु इसका मतलब ये नहीं है कि रास्‍तों का विकल्‍प समाप्‍त हो गया है । हमें उनसे लड़ते-झगड़ते आगे बढ़ने दीजिए ,पाद-सेवन ,अर्चन-पूजन की बजाय नए रास्‍तों को सामने आने दीजिए ,ऐसे राहियों को चना-चबेना भले न दीजिए ,थोड़ा आंख तो मूंद सकते हैं  । व्‍यभिचारियों के बिस्‍तर बनने से खुद को बचाईए ।हम समझते हैं आपकी आदत हो चुकी है ,परंतु कभी-कभी परहेज भी दवा होती है ।


                                                          हम किसको कोसें ,सरसो पैदा करने वाले किसान को ,तेल पेरने वाले तेली को ,बोतल,रैपर,पिचकू,स्‍प्रे में उपलब्‍ध कराने वाले बनिये को या आपके उस एप्रोच को ।आपके पूज्‍य को भी शायद यह इतना बुरा लगे ,जितना कि आपको लगता है । 

Sunday, 15 December 2013

नागार्जुन और त्रिलोचन पर अष्‍टभुजा शुक्‍ल

त्रिलोचन की अवधी कविता संग्रह 'अमोला' पर लिखते हुए अष्‍टभुजा शुक्‍ल  का ध्‍यान बरबस ही नागार्जुन पर जाता है ,तथा वे दोनों मित्र कवियों की तुलना करने लगते हैं ।'आलोचना' के पचासवें अंक में प्रकाशित एक लेख'बरवै में बिरवा(अमोला)' से एक अंश आभार सहित---
''कविद्वय -नागार्जुन और त्रिलोचन न तो लोकान्‍ध हैं और न ही लोक-विक्रेता बल्कि दोनों लोक-सम्‍बद्ध और लोक-प्रतिबद्ध हैं। इसी प्रतिबद्धता और सम्‍बद्धता की कीमत पर कभी-कभी दोनों प्रतिरोध को भी किनारे रख देते हैं पर उसका वाणिज्यिक इस्‍तेमाल नहीं करते ।दोनों लोक की आधुनिकता का साथ देते हुए और आरोपित आधुनिकता को नकारते हुए प्रगतिशील मूल्‍यों का निरन्‍तर प्रतिपादन करने वाले कवि हैं ......नागार्जुन की कारयित्री ऊर्ध्‍वाधार है तो त्रिलोचन की क्षैतिज ।नागार्जुन की हँसी में गूंज है तो त्रिलोचन में खनक ।नागार्जुन का व्‍यंग्‍य फट्ठा-पीठ है तो त्रिलोचन का कैंचीदार ।नागार्जुन में विक्षोभ और प्रखरता है तो त्रिलोचन में गहरी टीस और नुकीला कटाक्ष ।पहले की कविता की खूबी ज्‍यादातर असंयम में है तो दूसरे की ज्‍यादातर संयम में ।पहला करारी चोट करने वाला कवि है जबकि दूसरा करारी चोट सहने वाला ।



                                                                             नागार्जुन में हिन्‍दी जाति का साहस एवं स्‍वाभिमान है तो त्रिलोचन में उसकी ऋजुता और निरहंकार । एक के प्रतिकार में जनता की सामूहिक चेतना है तो दूसरे की सहनशीलता में तिर्यक् अवज्ञा ।प्रतिकार एवं सहनशीलता- दोनों ही हिन्‍दी जाति,जीवन और कविता के स्‍वभाव हैं ।नागार्जुन प्रकृत्‍या काव्‍यानुशासन तोड़ने वाले कवि हैं जबकि त्रिलोचन प्राय: उसकी मर्यादा में रहने वाले ।इस लिहाज से एक ही अनुभूति ,अभिव्‍यक्ति की निजता और काव्‍यशैली अलग प्रकार की प्रतीत होती है तो दूसरे की उससे सर्वथा भिन्‍न ।बल्कि इन दोनों की काव्‍य-शैलियां निजी पृथगर्थता और सामूहिक एकार्थता का ऐसा सम्‍पूरक निर्मित करती हैं जिनमें हिन्‍दी कविता का पूर्वकृत एवं नवीकृत आवाजों के अनुवाद अपने-अपने आश्‍चर्यों के साथ झंकृत होते हैं ।दोनों की भूमिज संवेदना के उभयनिष्‍ठ तन्‍तु जहां उन्‍हें कविता के सामान्‍य धरातल पर एक साथ खड़ा करते हैं वहीं उनके सरोकार भारतीय जीवन-बोध के घनिष्‍ठ सम्‍पर्क में हैं ।दोनों के विश्‍वबोध की प्राथमिक ,द्वितीयक या तृतीयक मूल मिट्टी की देसजता और जनपदीयता में गहरे पैठी हुई है जहां उनके मूलगोप जीवन के खनिज संचित करते रहते हैं ।दोनों की कविता का मर्म और साधारण प्रतिज्ञा जनजीवन के मौलिक  अनुताप उल्‍लास तक ही असमंजस प्रतिरोध संघर्ष और राग-विराग में घटित होती है ।ध्‍यान देने की बात यह भी है कि नागार्जुन मिथिलांचल के हैं तो त्रिलोचन अवध क्षेत्र के ।अपनी इन्‍हीं प्रतिबद्धताओं के चलते एक ने मैथिली में 'पत्रहीन नग्‍न गाछ' की रचना की तो दूसरे ने अवधी में 'अमोला' की ।''
(साभार 'आलोचना' ,जुलाई-सितम्‍बर ,2013)

Sunday, 8 December 2013

पुरानी पत्रिका से: मल्लिकार्जुन मंसूर(आजकल ,सितंबर 2011)

पुरानी पत्रिकाओं से की दूसरी किश्‍त में आजकल का सितंबर 2011 इस मायने में विशिष्‍ट है कि मल्लिकार्जुन मंसूर को जन्‍म शताब्‍दी वर्ष के अवसर पर याद करती है ,साथ ही यह पं0 भीमसेन जोशी एवं गिर्दा के महाप्रस्‍थान को भी समेटती है ,परंतु अशोक वाजपेयी की कविता एवं यतींद्र मिश्र की कविता एवं स्‍मृतिलेख के कारण यह अंक संग्रहणीय है ।

                    यतींद्र मिश्र अपने प्रिय गायक को याद करते हुए कहते हैं--

यह कहने में मुझे तनिक भी झिझक नहीं कि अपने समकालीनों एवं परवर्ती गायको ,फनकारों....का संगीत जितना श्रद्धास्‍पद ,अद्भुत,मनोग्राही और महान था-उसमें थोड़ी अतिरिक्‍त आस्‍था ,रहस्‍य ,मनोग्रह्यता और महानता का योग कराने के बाद बनने वाला संगीत ही मल्लिकार्जुन मंसूर का संगीत हो सकता था ।पंडित जी के गायन के लिए कम से कम कोई साधारण उत्‍प्रेक्षा ,उपमा या रूपक तलाशना भी उनका एक स्‍तर पर अपमान करना है ।



मल्लिकार्जुन मंसूर पर अशोक वाजपेयी की कुछ कविताएं


मल्लिकार्जुन मंसूर


(1)
काल के खुरदरे आंगन में
समय के लंबे गूंजते गलियारों में
वे गाते हैं
अपने होने के जीवट का अनथक गान

वे चहलकदमी करते हुए
किसी प्राचीन कथा के
बिसरा दिए गए नायक से
पूछ आते हैं उसका हालचाल

वे बीड़ी सुलगाए हुए
देखते हैं
अपने सामने झिलमिल
बनते-मिटते संसार का दृश्‍य

देवताओं और गंधर्वों के चेहरे
उन्‍हें ठीक से दीख नहीं पड़ते
अपनी शैव चट्टान पर बैठकर
वे गाते हैं
अपने सुरों से
उतारते हुए आरती संसार की -

वे एक जलप्रपात की तरह
गिरते रहते हैं-
स्‍वरों की हरियाली
और राग की चांदनी में
अजस्र-

वे सींचते हैं
वे जतन से आस लगाते हैं
वे खिलने से निश्‍छल प्रसन्‍न होते हैं
वे समूचे संसार को एक फूल की तरह चुनकर
कालदेवता के पास
फिर प्रफुल्‍लता पर लौटने के लिए
रख आते हैं-

वे बूढ़े ईश्‍वर की तरह सयाने-पवित्र
एक बच्‍चे की फुरती से
आते हैं-
ऊंगली पकड़
हमें अनश्‍वरता के पड़ोस में ले जाते हैं

(2)

अपनी रफ्तार से चलते हुए
बहुत बाद में
आते हैं
मल्लिकार्जुन मंसूर
और समय से आगे निकल जाते हैं

उलझनों-भरे घावों-खरोचों से लथपथ
टुच्‍चे होते जाते समय से
आगे
उनके पीछे आता है
गिड़गिड़ाता हुआ समय दरिद्र और अपंग
भीख मांगता हाथ फैलाए समय-
हांफता हुआ

मल्लिकार्जुन मंसूर
अपने भरे पर फिर भी सीधे बुढ़ापे में
हलका -सा झुककर
रखते हैं
कल के कंधे पर पर अपना हाथ
ठिठककर सुलगाते हैं अपनी बीड़ी
चल पड़ते हैं फिर किसी अप्रत्‍याशित
पड़ाव की ओर

अपने लिए कुछ नहीं बटोरते उनके संत-हाथ
सिर्फ लुटाते चलते हैं सब कुछ
गुनगुनाते चलते हैं पंखुरी-पंखुरी सारा संसार

ईश्‍वर आ रहा होता
घूमने इसी रास्‍ते
तो पहचान न पाता कि वह स्‍वयं है
या मल्लिकार्जुन मंसूर


(3)

राग के अदृश्‍य घर का दरवाजा खोलकर
अकस्‍मात् वे बाहर आते हैं
बूढ़े सरल-सयाने

राग की भूलभुलैया में
न जाने कहां
वे बिला जाते हैं
और फिर एक हैरान बच्‍चे की तरह
न जाने कहां से निकल आ जाते हैं
वे फूल की तरह
पवित्र जल की तरह
राग को रखते हैं
करते हैं आराधना
होने के आश्‍चर्य और रहस्‍य की ,
वे ख़याल में डूबते हैं
वचन में उतरते हैं

वे गाते हैं
जो कुछ बहुत प्राचीन हममें जागता है
गूंजता है ऐसे जैसे कि
सब कुछ सुरों से ही उपजता है
सुरों में ही निमजता है
सुरों में ही निवसता और मरता है ।

(अशोक वाजपेयी)


आकाश कुसुम
झरता है
सूर्य के आकाश से
चकित और उल्‍लसित

पारिजात की पगडण्‍डी
बनती जाती है
राग की विनम्र धरती
पीताभा में अपनी

घर हो
मन्दिर का कोई कोना हो
दीप्‍त हो उठता है वहां
सुन्‍दर का सपना
जैसे वह सच का सहोदर हो

गाकर
संसार के जिस भेद को
सुर और लय की अठखेली से
कुसुमित करते हैं वे
वह फूल
सूर्य के आकाश से झरता है ।

(यतीन्‍द्र मिश्र)

साभार  'आजकल' ,अशोक वाजपेयी ,यतीन्‍द्र मिश्र

Friday, 6 December 2013

आधुनिक हिंदी साहित्‍य पर केदारनाथ सिंह

पुरानी पत्रिकाओं से स्‍तंभ की प‍हली किश्‍त में प्रगतिशील वसुधा के अक्‍तूबर-दिसम्‍बर 2009 अंक में केदारनाथ सिंह से सुधीर रंजन की बातचित को याद किया जा रहा है ।अनौपचारिकता से भरी यह बातचित न केवल लंबाई में बड़ी है ,बल्कि हिंदी साहित्‍य के लंबे सफर की विविधरंगी यादों से भरपूर है ।बातचित में सुधीर रंजन के प्रश्‍न उनके अध्‍ययन एवं चिंतन की गहराई को स्‍पष्‍ट करते हैं ,जिसे केदारनाथ जी ने भी कई बार सराहा है ।बातचित प्रारंभ से ही आधुनिक हिंदी साहित्‍य पर केंद्रित है ,दोनों लोगों ने लेखकों के निजी जीवन पर कम समय खर्च किया है ,सारा संकेंद्रण हिंदी साहित्‍य के प्रस्‍थानविन्‍दु को स्‍पष्‍ट करने में है ।इस प्रस्‍थान-विन्‍दु की खोज में महेश नारायण ,मैथिली शरण गुप्‍त और निराला पर उत्‍तेजक चर्चा होती है ।अतुकांत कविता की प्रासंगिकता ,मैथिली और भोजपुरी की तुलना के साथ ही समकालीन कविता के महारथियों पर भी उल्‍लेखनीय चर्चा होती है ।

          सुधीर रंजन याद दिलाते हैं कि निराला और त्रिलोचन ने अपने आलोचनात्‍मक लेख में मैथिली शरण गुप्‍त को काफी महत्‍व दिया है ।केदारनाथ जी खड़ी बोली हिंदी को बनाने में गुप्‍त जी के महत्‍व को स्‍वीकारते हुए भी यह कहते हैं कि
भारत भारती एक युग का पीस है ,बड़ी कविता नहीं ।बड़ी कविता माने जो बहुत लम्‍बे समय तक मनुष्‍य को संचारित करती रहे । आगे वे नामवर जी को उद्धृत करते हुए कहते है पंचायती कविता है वो ।ये करो ,वो करो ,ये हटाओ ,वो जोड़ो ।ककुल मिलाकर एक रूप बना उसका ।हाली और क़ैफी के मुसद्दस के जवाब में लि‍खी हुई कविता है ।

                   आगे केदारनाथ जी द्विवेदी युग एवं छायावाद के छंद पर विचार करते हैं तथा यह भी जोड़ते हैं कि
आज हिंदी में जो गद्य के लय में कविता लिखी जा रही है ,वो मात्रिक छन्‍द से बचने के लिए लिखी चली आ रही है ।सुधीर जी इस तथ्‍य की दुर्लभता को सिद्ध करते हुए फिर दोहराते हैं कि मात्रिक से बचने के लिए गद्य में कविता ।सुधीर जी यह भी कहते हैं कि उर्दू की तुलना में हिंदी गद्य नया भी था और काव्‍यभाषा की निर्भरता भी उस पर बनी रही ,इसीलिए स्‍वभावत: भारत भारती निबंधात्‍मक है ।


              सुधीर रंजन ऐतिहासिक प्रस्‍थान बिन्‍दु की बात करते हुए महेश नारायण  की
स्‍वप्‍न कविता उल्‍लेख करते हैं ,केदारनाथ जी पहले कविता को उर्दू मानते हैं ,परंतु सुधीर जी के बल देने पर स्‍वीकार करते हैं वो कविता बहुत ही मीनिंगफुल है और एक प्रस्‍थान बिन्‍दु बन सकती है ।हमारे पूरे काव्‍य विकास को ,काव्‍यभाषा के विकास को ,और काव्‍यभाषा के लय और छन्‍द के विकास के संदर्भ में उस कविता को बहुत ही सिग्‍नीफिकेण्‍ट मैं मानता हूं ।

                   सुधीर रंजन आगे बिहार में ब्रजभाषा की अकेंद्रीयता पर बल देते हुए यह भी स्‍पष्‍ट करते हैं कि महेश नारायण अंग्रेजी के आदमी थे ,इसीलिए उनके यहां प्रयोग संभव हुआ ।सुधीर जी आगे बहुमुखी प्रतिभाशाली के रूप में श्रीधर पाठक का उल्‍लेख करते हैं ।दोनों व्‍यक्ति संध्‍या वर्णन वाली कविता को अद्भुत मानते हैं ,साथ ही दोनों व्‍यक्ति आयरिश कवि गोल्‍डस्मिथ की तीन कविताओं के अनुवाद को हिंदी भाषा और कविता के विकास में महत्‍वपूर्ण मानते हैं ।सुधीर रंजन बलपूर्वक प्रसाद के
प्रेम पथिक और राम नरेश त्रिपाठी के पथिक की पृष्‍ठभूमि में श्रीधर पाठक के श्रान्‍त पथिक को रखते हैं ।यही नहीं सुधीर रंजन यह भी मानते हैं कि कामायनी का बीज प्रेम पथिक में पड़ चुका था ।केदारनाथ जी भी इस बात को दमदार मानते हैं ।

          आगे केदारनाथ जी त्रिलोचन के सॉनेटकार रूप को सामने लाने का श्रेय अज्ञेय को देते हैं तथा रेणु के विषय में एक महत्‍वपूर्ण टिप्‍प्‍णी करते हैं-
हमारे जेहन में आजादी के बाद का सबसे बड़ा गद्यकार है ।भाषा की गतिविधियों से ,गलत प्रयोगों से बड़ी भाषा पैदा की जा सकती है ।इसका उदाहरण है रेणु का गद्य ।सुधीर रंजन जी भी विटिंग्‍स्‍टाइन को उद्धृत करते हुए कहते हैं भाषा की अशुद्धि में ताक़त छुपी होती है ।सुधीर रंजन रेणु को याद करते हुए कहते हैं कि रेणु वैसे लेखक हैं जहां गद्य और कविता का भेद मिट जाता है ,केदारनाथ जी इसी संदर्भ में बाणभट्ट को याद करते हैं ।केदारनाथ जी आगे यह भी कहते हैं कि जो परम्‍परा चली आ रही थी लम्‍बे समय से हिन्‍दी गद्य की ,उससे अलग हटकर रेणु थे ।बांग्‍ला ,नेपाली ,मैथिली- उस सबसे मिलकर भाषा बनी थी ।वह आदमी क्रियेट कर रहा था ,जो उसका अपना कमाल था ।केदारनाथ जी नलिन विलोचन शर्मा के विषय में भी स्‍पष्‍ट टिप्‍पणी करते हैं उनसे प्रबुद्ध आदमी हिन्‍दी में- पूरे पश्चिम और भारतीय साहित्‍य को लेकर इतना प्रबुद्ध कौन था यहीं नहीं केदारनाथ जी नामवर जी के उलट नलिन जी की कविताओं को विचारनीय मानते हैं ।


        
केदारनाथ जी प्रयोगवाद को समय सीमा में बांधे जाने का विरोध करते हुए इसे निराला तक ले जाते हैं ,तथा सुधीर रंजन के साथ सहमति जताते हैं कि यह हिंदी कविता का बहुत बड़ा डिपार्चर था ।केदारनाथ जी पुन: कहते हैं –‘ निराला में यह कोशिश थी ।वो छायावाद की खिड़कियों से बाहर निकलने की कोशिश कर रहे थे ।मैं हमेशा कोशिश को भाषा में देखता हूं पहले। क्‍योंकि पहले वो भाषा में तब आयेगी ,जब आपके भीतर बेचैनी हो ...।

         केदारनाथ जी महादेवी की कविताओं के विषय में स्‍पष्‍ट कहते हैं कि
बहुत बड़ा रेंज उनका नहीं हैं ...लेकिन बड़ी ठनी हुई ,कसी हुई । इसके साथ ही पंत के साथ तुलना करते हुए यह भी स्‍पष्‍ट करते हैं उनके यहां टिकाऊ कविताएं ज्‍यादा हैं ,सुमित्रानन्‍दन पन्‍त की तुलना में ।

       साहित्‍य की गांवों में ग्राह्यता के प्रश्‍न को स्‍पष्‍ट करते हुए केदारनाथ जी कहते हैं
मैथिलीशरण गुप्‍त अन्तिम हिन्‍दी कवि हैं ,जो गांव तक पहुंचे थे ।.....थोड़ा-सा संशोधन करूं तो दिनकर अपने गांव तक पहुंचे हैं ।लेकिन व्‍यापक गांव तक नहीं पहुच्‍ा सके ।वो अपने उस इलाके में पहुंचे


        केदारनाथ जी नागार्जुन ,राजकमल और इन दोनों की मातृभाषा पर भी खुलकर कहते हैं- राजकमल अकविता का ही नहीं था ,मैथिली का भी था.....नागार्जुन की बहुत सारी कविताएं मूलत: मैथिली में है ।ये लोग अपनी भाषा में जितना परफेक्‍ट थे ,हिन्‍दी में नहीं थे ।......ये दोनों अपनी भाषा के कवि पहले हैं ।....ये बड़ा महत्‍वपूर्ण निर्णय था उनका ।काश ,मैं मैथिली-भाषी होता।उन दोनों की जो ताकत थी ,उनकी भाषा से आई थी ।भोजपुरी की संभावना को स्‍वीकार करते हुए भी केदारनाथ जी यह निर्णय देते हैं कि मैथिली की समृद्ध परंपरा उसे मूल्‍यवान बनाती है ।


       अज्ञेय जी और नामवर सिंह के संबंधों को याद करते हुए अज्ञेय जी के द्वारा रिल्‍के के अनुवाद की चर्चा होती है तथा केदारनाथ जी एक महत्‍वपूर्ण बात करते हैं कि
अनुवाद हम हमेशा अपने समय के लिए करते हैं ,और अपने समय के लिए करेंगे तो अपनी तरह करेंगे ।

            राजेश जोशी और अरूण कमल पर केदारनाथ जी कहते हैं-
राजेश में एक टिपिकल भोपाल का कवि है ।भोपाल कुछ कविताओं में बोलता है .....हर अच्‍छे कवि की अपनी एक निजी ज़मीन होनी चाहिए.....अरूण का एक अलग रंग है ।उनके यहां बहुत सारे शब्‍द ऐसे हैं ,जो बोलचाल से एकदम ठेठ बिहार के ,अपनी भाषा के आते हैं ।काफी हैं ऐसे ।वहां वह बहुत जेनुइन लगता है ।आलोक धन्‍वा में भी उनको अलग रंग दिखता है ,वे उनको महत्‍वपूर्ण भी मानते हैं ,परंतु शायद वह अपनी कविता को लेकर किन्‍हीं कारणों से एक वृत्‍त में फँसा हुआ है ।उसका विकास और ज्‍यादा होना चाहिए था ।

ज्ञानेन्‍द्रपति की परवर्ती भाषा पर वे ऐतराज जताते हैं ,क्‍योंकि यह थोड़ी विच्‍छृंखलित सी है और उसमें एक अतिरिक्‍त सा‍हित्यिक कोशिश दिखती है ।इसके साथ ही केदारनाथ जी बाद वाले कवियों में उदय प्रकाश ,बद्रीनारायण ,विनोद कुमार शुक्‍ल और विष्‍णु खरे को भी महत्‍वपूर्ण मानते हैं ।


(साभार 'प्रगतिशील वसुधा' ,केदारनाथ सिंह ,सुधीर रंजन)

Sunday, 17 November 2013

कविता ,कवि और रचनात्‍मकता

मेरी कुछ कविताएं हिंदी दैनिक 'जनसंदेश टाइम्‍स' के 27 अक्‍तूबर 2013 के साहित्‍य पृष्‍ठ पर प्रकाशित हुई ।सारी कविताएं कविता,कवि और रचनात्‍मकता पर है ।

(साभार 'जन संदेश टाइम्‍स)

Thursday, 31 October 2013

काशी और कुटिलता : व्‍योमकेश दरवेश

काशी में विद्वता और कुटिल दबंगई का अद्भुत मेल दिखलाई पड़ता है ।कुटिलता ,कूटनीति ,ओछापन ,स्‍वार्थ आदि का समावेश विद्वता में हो जाता है । काशी में प्रतिभा के साथ परदुखकातरता ,स्‍वाभिमान और अनंत तेजस्विता का भी मेल है जो कबीर ,तुलसी ,प्रसाद और भारतेंदु ,प्रेमचंद आदि में दिखलाई पड़ता है । काशी में प्राय: उत्‍तर भारत ,विशेषत: हिंदी क्षेत्र के सभी तीर्थ स्‍थलों पर परान्‍नभोजी ,पाखंडी पंडों की भी संस्‍कृति है ,जो विदग्‍ध ,चालू ,बुद्धिमान और अवसरवादी कुटिलता की मूर्ति होते हैं । काशी के वातावरण में इस पंडा संस्‍कृति का भी प्रकट प्रभाव है । वह किसी जाति-सम्‍प्रदाय ,मुहल्‍ला तक सीमित नहीं है ।वह ब्रह्म की तरह सर्वत्र व्‍याप्‍त है ।पता नहीं कब किसमें झलक मारने लगे ।

(विश्‍वनाथ त्रिपाठी'व्‍योमकेश दरवेश ' में )

Tuesday, 20 August 2013

महाकवि त्रिलोचन की कुछ कविताएँ

महाकवि त्रिलोचन की 96 वीं जयन्ती पर उनकी कुछ कविताएँ
01.
भीख माँगते उसी त्रिलोचन को देखा कल
जिस को समझा था है तो है यह फ़ौलादी
ठेस-सी लगी मुझे, क्योंकि यह मन था आदी
नहीं; झेल जाता श्रद्धा की चोट अचंचल,
नहीं संभाल सका अपने को; जाकर पूछा
'भिक्षा से क्या मिलता है; 'जीवन' 'क्या इसको
अच्छा आप समझते हैं' 'दुनिया में जिसको
अच्छा नहीं समझते हैं करते हैं, छूछा

पेट काम तो नहीं करेगा' 'मुझे आप से
ऎसी आशा न थी' 'आप ही कहें, क्या करूँ,
खाली पेट भरूँ, कुछ काम करूं कि चुप मरूँ,
क्या अच्छा है ।' जीवन जीवन है प्रताप से,
स्वाभिमान ज्योतिष्क लोचनों में उतरा था,
यह मनुष्य था, इतने पर भी नहीं मरा था ।
02.
वही त्रिलोचन है, वह-जिस के तन पर गंदे
कपड़े हैं। कपड़े भी कैसे-फटे लटे हैं
यह भी फ़ैशन है, फ़ैशन से कटे कटे हैं।
कौन कह सकेगा इसका यह जीवन चंदे
पर अवलम्बित् है। चलना तो देखो इसका-
उठा हुआ सिर, चौड़ी छाती, लम्बी बाहें,
सधे कदम, तेजी, वे टेढ़ी मेढ़ी राहें
मानो डर से सिकुड़ रही हैं, किस का किस का
ध्यान इस समय खींच रहा है। कौन बताए,
क्या हलचल है इस के रुंधे रुंधाए जी में
कभी नहीं देखा है इसको चलते धीमे।
धुन का पक्का है, जो चेते वही चिताए।
जीवन इसका जो कुछ है पथ पर बिखरा है,
तप तप कर ही भट्ठी में सोना निखरा है।
03.
दर्शन हुए, पुनः दर्शन, फिर मिल कर बोले,
खोला मन का मौन, गान प्राणों का गाया,
एक दूसरे की स्वतन्त्र लहरों को पाया
अपनी अपनी सत्ता में, जैसे पर तोले
दो कपोत दाएँ, बाएँ स्थित उड़ते उड़ते
चले जा रहे दूर, क्षितिज के पार, हवा पर,
उसी तरह हम प्राणों के प्रवाह पर स्वर भर
लिख देते अपनी कांक्षाएँ। मुड़ते मुड़ते
पथ के मोड़ों पर, संतुलित पदों से चलते
और प्राणियों के प्रवेग की मौन परीक्षा
करते हैं इस लब्ध योग की सहज समीक्षा।
शक्ति बढ़ा देती है, नए स्वप्न हैं पलते।
विपुला पृथ्वी और सौर-मंडल यह सारा
आप्लावित है; दो लहरों की जीवन-धारा।
04.
यदि मैं तुम्हारे प्रिय गान नहीं गा सका तो
मुझे तुम एक दिन छोड़ चले जाओगे
एक बात जानता हूँ मैं कि तुम आदमी हो
जैसे हूँ मैं जो कुछ हूँ तुम वैसे वही हो
अन्तर है तो भी बड़ी एकता है
मन यह वह दोनों देखता है
भूख प्यास से जो कभी कही कष्ट पाओगे
तो अपने से आदमी को ढूंढ़ सुना आओगे
प्यार का प्रवाह जब किसी दिन आता है
आदमी समूह में अकेला अकुलाता है
किसी को रहस्य सौंप देता है
उसका रहस्य आप लेता है
ऎसे क्षण प्यार की ही चर्चा करोगे और
अर्चा करोगे और सुनोगे सुनाओगे
विघ्न से विरोध से कदापि नहीं भागोगे
विजय के लिए सुख-सेज तुम त्यागोगे
क्योंकि नाड़ियों में वही रक्त है
जो सदैव जीवनानुरक्त है
तुमको जिजीविषा उठाएगी, चलाएगी,
बढ़ाएगी उसी का गुन गाओगे, गवाओगे
05.
लाशों की चर्चा थी, अथवा सन्नाटा था
राज्यपाल ने दावत दी थी, हा हा ही ही,
चहल-पहल थी, सागर और ज्वार-भाटा था ।
जो सुनता था वही थूकता था, "यह। छी-छी ।
यह क्या रंग-ढंग है। मानवता थोड़ी सी
आज दिखा दी होती ।" "वे साहित्यकार हैं",
कहा किसी ने । औरत बोली झल्लाई सी-
"बादर होइँ, पहाड़ होइँ, आपन कपार हैं ।"
पति ने कहा, "होश में बोलो ।" "धुआँधार हैं
उन के भाषण संस्कृति पर ।" "कोई तो स्याही
जा कर मुँह पर मल देता ।" "ये भूमिहार हैं..."
"कर की कालिख़ आप पोत ली है मनचाही ।"
भय का कंपन आज वायु में भरा-भरा था,
छाती पर जो घाव लगा था, हरा-हरा था।

Saturday, 10 August 2013

कलमकार कहानी प्रतियोगिता

कलमकार कहानी प्रतियोगिता

कलमकार एक कहानी प्रतियोगिता का आयोजन कर रहा है । जिसमें भाग लेने के लिए देश भर के रचनाकारों से कहानियां आमंत्रित की जा रही है ।

एक प्रथम पुरस्कार - 21 हजार रुपए
दो द्वितीय पुरस्कार – 11 हजार रुपए
तीन तृतीय पुरस्कार - 5 हजार रुपए
दस सांत्वना पुरस्कार- - ढाई हजार रुपए

निर्णायक- ममता कालिया, अखिलेश और ऋचा अनिरुद्ध

- पुरस्कार वितरण दिल्ली में समारोहपूर्वक किया जाएगा
- एक प्रतियोगी सिर्फ एक कहानी भेज सकते हैं
- कहानी के साथ उसके मौलिक और अप्रकाशित होने का पत्र जरूरी है
- पुरस्कृत कहानी पर कलमकार का कॉपीराइट होगा ।
- पुरस्कृत कहानियों का एक संग्रह प्रकाशित करने का अधिकार कलमकार का होगा
- पुरस्कृत कहानीकारों को कहानी संग्रह की एक प्रति दी जाएगी
- निर्णायक मंडल का फैसला अंतिम और मान्य होगा
- डाक या कूरियर में कहानी खो जाने की जिम्मेदारी कलमकार की नहीं होगी
- पुरस्कृत कहानी पर कलमकार का कॉपीराइट होगा लेकिन कहानी को उसको किसी भी पत्रिका में छपवाने का हक होगा
- किसी भी तरह के विवाद होने पर उसका निबटारा दिल्ली की सक्षम अदालत में ही होगा

कहानी भेजने की अंतिम तिथि- 30 अगस्त 2013
कहानी भेजने का पता – 4 डी, पॉकेट ए, सिद्धार्थ एक्सटेंशन, नई दिल्ली- 110014

फोन- 08447879744
ईमेल- kalamkarfoundation@gmail.com
मेल से कृपया मंगल फॉंट में कहानी भेजें । साथ ही अपना नाम, पता और फोन नंबर साफ साफ लिखें ताकि आपसे संपर्क करने में दिक्कत ना हो

साभार www.kalamkar.org

Tuesday, 16 July 2013

नौंवी नवलेखन प्रतियोगिता

नौंवी नवलेखन प्रतियोगिता

1 नौंवी नवलेखन प्रतियोगिता उपन्‍यास विधा के लिए सुनिश्चित की गई है ।

2 पांडुलिपि की गुणवत्‍ता के अनुसार चयनित पांडुलिपि पर रू एक लाख (100000) का पुरस्‍कार प्रदान किया जाएगा । चयनित पांडुलिपि को भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित करेगा ।ज्ञानपीठ केनियमानुसार प्रकाशित पुस्‍तक के लिए लेखक को रॉयल्‍टी दी जाएगी ।अनुशंसित पांडुलिपियां भी ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित होंगी ।

3 इस बार 40 वर्ष की आयु तक के लेखकों से उपन्‍यास की पांडुलिपियां आमन्त्रित है ।

4 लेखक का प्रथम उपन्‍यास होना चाहिए , भले ही लेखक की रचनाएं अन्‍य विधाओं में प्रकाशित हुई हों ।

5उपन्‍यास की पांडुलिपि कम से कम 200 टंकित पृष्‍ठों की होनी चाहिए ।

6 लेखक द्वारा जन्‍मतिथि सहित अपना पूरा परिचय भेजना आवश्‍यक है ।

7 प्रतियोगिता में भेजी जाने वाली पांडुलिपि पर '  नवलेखन प्रतियोगिता के लिए ' जरूर लिखें ।

8 भारतीय ज्ञानपीठ की वेबसाइट पर उपलब्‍ध  नवलेखन प्रतियोगिता फार्म भी साथ में भेजें अथवा कार्यालय से मँगबाऍं ।

9 यदि कोई कृति पुरस्‍कार के योग्‍य नहीं पायी गयी तो इस वर्ष पुरस्‍कार नहीं दिया जाएगा ।

10 निर्णायक मंडल का निर्णय मान्‍य और अन्तिम होगा ।

11 इस वर्ष कार्यालय में पांडुलिपि प्राप्‍त होने की अंतिम तिथि 30 सितम्‍बर , 2013 है ।

कृपया पुरस्‍कार सम्‍बन्‍धी कोई पत्र व्‍यवहार न करें ।
किसी से भी अनुशंसा कराने वाले लेखक को प्रतियोगिता के अयोग्‍य घोषित किया जा सकता है ।


(साभार 'नया ज्ञानोदय' जुलाई 2013)

भारतीय ज्ञानपीठ
18 ,इन्‍सटीट्यूशनल एरिया ,लोदी रोड

पोस्‍ट बॉक्‍स नं0 -3113

नई दिल्‍ली 110033

Saturday, 13 July 2013

सरयू की एक उदास सांझ

इतनी उदासी तो मौत के दुआर पर भी नहीं होती है ,और इस शहर के बीचोंबीच हम टहलते रहे ,परंतु शहर ने मानो नोटिस ही नहीं लिया हो ।हम धीरे-धीरे चल रहे थे ,हम हरेक रूकने वाले दुकानों पर रूक रहे थे ,हम जो खरीद सकते थे ,खरीद रहे थे ।हम चुटकुला-कहानी सुन सुना रहे थे ,परंतु शहर ने मानो अफीम के पानी से कुल्‍ला किया हो ।दुकानों में बच्‍चों के खिलौने सजे थे ,वहीं बगल में औरतों के श्रृंगार के सामान बिक रहे थे ,अयोध्‍या नरेश राम के विभिन्‍न मंदिरों के फोटू भी बिक रहे थे ।भजन के कैसेटों का दुकान अलग था ,उसमें विभिन्‍न भजनों के ऑडियो-वीडियो संगीत सुनाए जा रहे थे ।6 दिसंबर 1992 की घटनाओं का भी सचित्र प्रसारण चल रहा था ,कुछ नेतागण भी दिख रहे थे ,जिसे देश ने टुकड़ों में नायक या खलनायक कहा ।कैसेट विक्रेता निर्लिप्‍त भाव से कैसेट बेच रहे थे ।मेरी उदासी या उत्‍साह से उन पर कुछ प्रभाव नहीं पड़ा ,वे जुलाई के पुरवैये से पीडि़त थे ।मारक आलस्‍य उनकी आंखों में था ,वे मशीनी हो गए थे ।वे ऐसे शहर में रहते थे ,जिसका रिमोट बहुत दूर था ,और इस शहर को उस बहुत दूर वाले रिमोट से बांध दिया गया था ।इस शहर की अपनी जिंदगी खतम हो गई थी ,यहां के लोग अब लोग नहीं रह गए हैं ,वे संतों ,नेताओं ,कारसेवकों का बस पोस्‍टर गिनते हैं ।उनकी रोजी पोस्‍टर छापने ,चिपकाने में है ।पोस्‍टर के कंटेंट पर वे बहस नहीं करते ।उनका घर ,उनका पार्क ,उनका सड़क अचानक पोस्‍टरों ,बैनरों से घिर जाता है ।उनकी सांसें इन बैनरों के आर-पार नहीं जाती ,उनका दम घुटता है ,पर वे अपने सूखे होठों पर उदास मुस्‍कुराहट लाने की कोशिश करते हैं ।

                                               और अयोध्‍या की ये उदासी हर कोई पहचानते हुए भी अनसूनी करता है ,कुछ जो पुराने ढ़ंग से सोचते हैं ,उन्‍हें अब भी लगता है कि मंथराऍं साजिश कर रही है ,और बूढ़ा राजा चुप्‍पी मारे हुए है ।उसकी चुप्‍पी उसके पिता ,पति और राजा की भूमिकाओं को और भी तिक्‍त बना देता है ।पति पिता का हाथ पकड़े है ,और पिता पति को मुंह दबाए ।राजा इन सबको देखके परेशान है  ।राजा इसलिए भी परेशान है कि हस्तिनापुर और कुरूक्षेत्र से संजय ,विदुर ,कृष्‍ण भी पहुंच चुके हैं ,और सरयू की शांत धाराओं में पेंच ,तर्क ,नीति की भँवरे पड़ रही है ।अब अवध ही नहीं हस्तिनापुर की गद्दी का भी निर्धारण सरयू ही करेंगी ,पर पता नहीं सरयू को खुशी क्‍यों नहीं है ,उसकी दूधिया रंगें रक्तिम हो रही है ।इन धाराओं में अदृश्‍य हाथें दिख रही है ,ये बलिष्‍ठ हाथे हैं ,जिनकी नसों और मांसपेशियों से खून की लकीरें स्‍पष्‍ट दिख रही है ,ये थामने वाली हाथे नहीं हैं ,ये नाव चलाने वाली हाथें भी नहीं है  ।इन हाथों में रखे सामानों का क्रम अस्‍त-व्‍यस्‍त है ,कभी चाकू ,कभी झंडा ,कभी तलवार ,कभी जमीन का नक्‍शा ,कभी हाथ उठते हैं सिग्‍नल की तरह ,कभी संकेत देते हैं ,धाराओं के दिशा को मोड़ने वाले ,कभी चुटकियों के बजते ही सरयू का पानी खतम हो जाता है ,कभी ईशारों से ही सरयू में उबाल पैदा किया जाता है ।इन हाथों के संकेत दूर तक जाते हैं ,शायद दुनियाभर के घुड़सवार इंतजार कर रहे हैं ।संकेत मिलते ही वे सरयू की तरफ कूच करेंगे ।सरयू के प्राण अब इन्‍हीं हाथों में है ,सरयू इन्‍हीं हाथों के सहारे देश के नदियों से मिल चुकी है ।देश की नदियां आपस में नहीं जुड़ी ,पर सरयू जुड़ चुकी है ,सरयू देश के बाहर की नदियों से भी जुड़ चुकी है ।



अयोध्‍या के राजा अपनी ही राजधानी में अठारह ताला और उन्‍नीस फाटक के अंदर बंद हैं ।जाहिलों की भीड़ उन्‍हें घर देना चाहती थी ,और इक्‍कीस साल के लिए खुले आसमान में कैद कर दिया ।अवधेश जिन्‍हें किराये की बिजली से चमकाया गया है ,कभी गुजराती शामियाना तो कभी सिंधी शामियाना में ठंडा ,गरमी,बरसात गुजार रहे हैं ।पूरे ब्रह्माण्‍ड का पोषण करने वाले पंडों के हाथ से मिश्री ,मूंगफली खा के समय काट रहे हैं ,त्रिलोक की रक्षा करने वाले श्री राम की सुरक्षा में पांच सौ से ज्‍यादा रायफलधारी लगाए गए हैं ,इतना ही नहीं महिला सुरक्षाकर्मी भी विष्‍णु की सुरक्षा में लगे हैं ।ये महिलाएं अपनी सुरक्षा ,सूचिता को बनाए रखकर भगवान की भी रक्षा कर रही हैं ।अपने घर-परिवार से दूर ये महिलाऍं भगवान की सुरक्षा को लेकर चौकस हैं ।चौबीस गुणे सात ही नहीं ,उन तीन दिनों में भी ,जिन दिनों के लिए वे अपवित्र घोषित कर दी गई हैं ,वे सतर्क हैं ।इन महिलाओं ने भगवान ही नहीं उन भक्‍तों को भी माफ कर दिया है ,जो महिलाओं की पवित्रता को लेकर ज्‍यादा चिंतित रहते हैं ।


                       और राम कई बार अयोध्‍या त्‍यागे ।कभी अध्‍ययन के लिए तो कभी पिता के दिए वचन को पूरा करने के लिए ।एक बार बुंदेलखंड के ओरछा भी चले गए ।एक बार सीता को वापस लाने और पता नहीं कब-कब ।उन्‍हें अयोध्‍या से बाहर जाते लोगों ने कई बार देखा है ।बाल्‍मीकि और तुलसी जो भी कहें बहुत ज्‍यादा उत्‍सव उनके लिए कभी भी सगुण नहीं रहा ।1992 ईसवी के मेले में पता नहीं राम ने क्‍या निश्‍चय किया ,परंतु मुझे तो नहीं लगता कि हजारों सुरक्षाकर्मियों से घिरे उस छोटे स्‍थान में भगवान हैं भी ।संगीनों की आमद भगवान को छोटा साबित करने के लिए पर्याप्‍त तो है ही आदमी को  और इतिहास को भी छोटा साबित करता है ।

                                  मुझे पता नहीं अयोध्‍या में इतिहास के साथ रहूं कि विश्‍वास के साथ रहूं । ये महल और मंदिर जो तीन-चार सौ साल से ज्‍यादा पुरानी नहीं है ,पुरातत्‍व के तर्क पर बहुत ज्‍यादा मजबूत नहीं है ,पर सरयू की उपस्थिति इतनी प्रामाणिक और विश्‍वसनीय है कि इतिहास और विश्‍वास दोनों को एकरूप कर देती है ।सीता की रसोई ,लक्ष्‍मण का घर ,मंथरा का निवास आदि कई नामकरण पुरातत्‍व की बजाय पुराण से संदर्भित है ,कुछ -कुछ पु‍रोहितवाद से भी ,परंतु आम भारत की इनके प्रति आस्‍था देखते ही बनती है ।किसी भी इतिहास को निरा तर्क से खंडित करने का साहस इनके प्रति नहीं हो सकता ।यह आस्‍था का इतिहास है ,और यह 'मैटर' को सीमित करता है ।परंतु इन आस्‍थाओं की एक सीमा होनी चाहिए ।आस्‍थाऍं देश ,समाज और मानवता को खंडित करने का प्रयास करें तो इनकी धुलाई-पोछाई और फिर से रँगाई होनी चाहिए,पर कौन रंगेगा इनको ।

                                          और राम जब-जब अयोध्‍या से बाहर गए ,जो सबसे दृढ़ और निर्मल स्‍मरण था वह सरयू से ही संबंधित था ।सरयू की निर्मल और शांत धारा वे कभी भी भुला नहीं पाए ।इसी तट पर उनका शैशव और बचपन था ।मित्र थे ,गुरू थे ,मिथिलानी के साथ के वे समय ,जिन्‍हें धरती के जिस कोण रहे ,ह्रदय में रखे रहे ।अवध के किसानों की सहजता और दृढ़ता हरदम शक्ति के रूप में उनके साथ रही ।राम जब-जब अयोध्‍या में रहे ,सरयू और अवध शांति और समृद्धि के समरूप हो गए ।परंतु सरयू के जीवन में शांति कम ही रही है ।आज फिर सरयू अशांत था ,देश के विभिन्‍न नदियों ,नालों के जल सरयू में आ रहे थे ,सरयू का कछार ,पेटी और फिर छाती भर गया था ।अब पानी छाती से ऊपर बह रहा था ।यह सगुन नहीं था ,अवध के लिए और देश के लिए भी ।

Saturday, 6 July 2013

ट्रांसफर वाला सालाना ऊर्स

ये हैं ट्रांसफर के जायरीन ,बढ़ रहे हैं अपना चूड़ा-सत्‍तू बांध के ।कोई बस से ,ट्रेन से ,कोई अपने वाहन से ।यात्रा गांव से तहसील की ओर ,तहसीलों से जिला मुख्‍यालय और जिला मुख्‍यालय से राजधानी की ओर ।ये पचास साल पहले के गंगास्‍नानार्थियों से भी गए गूजरे हैं ,कोई गाय का गोबर छू रहा है ,कोई मोगलाही बाबा को मुर्गा चढ़ा रहा है ,कोई पान और माछ से सगुन बना रहा है ,और जोशी जी को तो ज्‍योतिषी ने कह दिया था कि गिलहरी का गोबर छू के ही यात्रा प्रारंभ करें ,सो वे शहर के जंगल और पार्क में गिलहरी ढ़ूंढ़ रहे हैं ।पहले के दो दिनों में तो सफलता नहीं मिली है ,पर तीसरे दिन पार्क के कर्मचारी गफूर मियां ने खास टिप्‍स दी है कि गिलहरी बस सुबह और शाम को ही दिशा-मैदान पर निकलते हैं ,सो जोशी जी ने भी टार्गेट पर ध्‍यान दिया है ,और आज वे अपने इकलौते बेटे और नौकर के साथ ही आऐंगे और मिशन पूरा करके ही लौटेंगे ।सबसे जो महत्‍वपूर्ण है कि देश की सर्वोत्‍तम नीतियों में से एक धर्मनिरपेक्षता का पालन पूरी तरह से हो रहा है ।डॉ0 ब्रह्मदेव शुक्‍ल मोगलानी बाबा को मुर्गा चढ़ा रहे हैं और मो0 साजिद पैदल वैद्यनाथ धाम जाऐंगे ।वाह रे हिंदुस्‍तान का सेकुलर रिवाज और गंगा-जमुनी तहजीब ।


पूरे प्रदेश में ट्रांसफर खतम होने वाले हैं ,तो हमारे विभाग में अब शुरू होने वाला है ।मतलब औरों के वार्षिक चक्र से अलग है हमारा वार्षिक चक्र ।मानो हमारे बच्‍चों के लिए हाकिमों ने स्‍कूल में स्‍थान सुरक्षित रखबाया है ,मानो हमारी यात्रा बरसात की किच-किच में ही अपने मुकाम पे पहुंचती है ,और हमारी विदाई पे लोग रोते नहीं ,साथी मूंछ पिजाते हैं ,अ‍धीनस्‍थ आश्‍वस्‍त होता है 'स्‍साला नकचढ़ा गया जिला से 'और अधिकारी ये बतियाते छिपाते नहीं कि 'मैं चाहता तो रोक लेता उसे ' ।जो भी हो दलाल जिला से लेकर राजधानी तक फैल गए हैं ।आपके शहर में तो वे हैं ही ,जो पिछले कई महीनों से आपसे पूछ रहे हैं ,फिर आपकी पत्‍नी को भी कनविंस करने का प्रयास कर रहे हैं 'भाभी जी कहां ठीक रहेगा ' ,'बच्‍चों के स्‍कूल के लिए ये ठीक रहेगा '  ।और पता नहीं स्‍टेशन से ही दललबा सब पीछे लगा हुआ है ,विधान सभा मार्ग ,सचिवालय के सामने वाले सड़क पर भी कई सफेदपोश ,कृष्‍णवस्‍त्र धारक ,पॉकेटमार और सिनेमा टिकट का ब्‍लैक मार्केटर अपने अपने अंदाज से आपसे पूछता हुआ फिर आपके जेब को और आपको चेक करता हुआ ।


आप किसी गफलत में नहीं रहे ।ये जरूरी नहीं कि सफेद पोश और वह काला कोट धारी ही आपको मंजिल तक ले जाए ,वह पॉकेटमार भी कम धांसू नहीं और कुछ साहेब लोग पॉकेटमारों को ज्‍यादा पसंद करते हैं ,क्‍योंकि पॉकेटमार आपसे ज्‍यादा मोल-तोल करते हुए उनको ज्‍यादा से ज्‍यादा दिलबाता है ,और सफेदपोश जल्‍दी में रहता है ,और उनका हिस्‍सा भी कम होता है ,वह बात हरदम मुख्‍यमंत्री और मंत्री का ही करेगा ,और आपके सामने भी किसी का फोन आएगा तो एकदम चौकस होके कहेगा 'बाद में बात करिए अभी तो प्रमुख सचिव से बात चल रही है '   ।मूंछ वाला ,बिना मूंछ वाला ,रीढ़ वाला ,बिना रीढ़ वाला ,दिमाग वाला ,बिना दिमाग वाला भी कोई भी हमारा ट्रांसफर करा सकता है ।सबकी अपनी पहुंच है ,अपना रेट है ।सब कोई आश्‍वस्‍त कर रहा है ।अब आपके विवेक पर है ,रहने और जाने के रिस्‍क को तौलते हुए जल्‍दी उन्‍हें बता दीजिए ,और आप भी अपना जेब ,दिल ,जुबान को चेक करते हुए उन्‍हें बता दीजिए ।वे बड़े महत्‍वपूर्ण मिशन पर हैं ,उनका समय मत खाईये ,उनका दिमाग मत खाईए ।वे जो बता रहे ,मूक होकर ग्रहण करें।हमारे एक मित्र 'संशयात्‍मा विनश्‍यति' कहकर उनका दिमाग और चढ़ाते हैं ।लेकिन जब कोई बाजार में है तो क्‍यों न ठोक बजाकर ही खरीदे ।अब वे वाराणसी के नाम पर चंदौली और फैजाबाद के नाम पर अयोध्‍या कर देंगे तो आप कहां कहां मुंह दिखाऐंगे ,किस किस से आपबीती बताऐंगे और बताकर ही क्‍या कुछ कर लेंगे ।एक रस्‍ता ये भी है कि चुपचाप जाके बड़े साहेब की गोद में बैठ जाईए और उनके झोले के निकट अपना पर्स रख दीजिए ,फिर वे जितना मन हो निकाल लेंगे ,और आपके मन की जगह पर आपको दे देंगे ।और जब एक ही जगह पर आपही की तरह दो कंपिटेंट लोग हो ,तब साहेब के दाढ़ी को सहलाईए ,उसमें इत्र लगाइए ,उन दाढि़यों पर कोई शेर कहिए।


                                                                          यदि शेरों से काम नहीं चले तो रोईए,झूठ बोलिए कि पिता की तबियत खराब है ,और जिस अस्‍पताल में ईलाज करानी है ,वह इसी शहर में है ।यदि रोने से भी काम न चले तो साहेब के घर चले जाईए ,साहेब की ही नहीं उनकी बेगम का भी पैर पकड़ लीजिए ,क्‍या पता वहीं काम बन जाए ।ध्‍यान दीजिएगा साहेब के बेगम का पैर पकड़ते वक्‍त नफासत में कोई कमी न हो ,कोई शेर वेर पढ़ने की गलती मत कीजिएगा ,हां जितना मन होगा रोईएगा ,थोड़ा गाकर ,थोड़ा चिल्‍लाकर ,कुछ भर्वल भी आल्‍हा की तरह ।यदि बेगम पसीझ गई तो फिर समझ लीजिए आपका काम सस्‍ता भी होगा और अच्‍छा भी ।फिर अगली मीटिंग आप जब आए तो यह कहते हुए कि मेरे क्षेत्र का प्रसिद्ध आईटम है एक-दो साड़ी जरूर लाईए ।वैसे ये कोई अनिवार्य आईटम नहीं है ,जितनी मैडम उतनी पसंद ।सो अपना सारा ध्‍यान मैडम की पसंद पर एकाग्र करिए ।

अब इधर देखिए सब बुद्धि रंजन की तरह बुद्धिमान तो है नहीं कि जाते हैं राजधानी तो बताते हैं कि जा रहे आजमगढ़ ।सब उनकी तरह धैर्यवान भी नहीं है कि कितना भी हिचकोला लगे डकार तक नहीं निकालेंगे ,हम लोग तो पहली बार बस पर चढ़े यात्री की तरह थे ,जो बस खिसकी और हम लोग लगे आंख-नाक मूनने ।विनय जी आऐंगे और आपकी पेट से सबकुछ निकलबा लेंगे ,वे भी कुछ बोलेंगे ,लेकिन वह आपके काम का नहीं होगा ,वह उनके द्वारा पहले से ही सोचे गए पार्ट और डायलॉग का एक हिस्‍सा होगा ।और वे वहीं करेंगे जो बोलेंगे नहीं ,आज तक यही हुआ है ।वे बड़़े दिमाग वाले आदमी हैं ,सबको अपने ही ग्रूप का मनबाने का नौटंकी करते हुए ,वे कम ही लोगों के हैं ।वे उन सबके हैं ,जिनका कोई विकल्‍प उनके पास नहीं है ,परंतु वे आजकल सबसे पूछ रहे हैं कि ट्रांसफर में इस साल कहां जाना चाहते हैं ।

                                                       काम कराने की कोई मानक विधि नहीं है ,कोई मानक माध्‍यम भी नहीं है ,कोई मानक राशि भी नहीं है ,कोई खास देवता एवं कोई स्‍पेशल मंत्र भी नहीं है ।किसी मंत्री ,विधायक की शरण लीजिए ।वे आपका काम कराऐंगे ,लेकिन चिट्ठी लिखाने की गलती मत कीजिए ।अइसन अइसन दू सौ चिट्ठी ई सचिवालय में डेली आवत हई ।विधायक जी कहेंगे कि 'अपना भाई है ' या फिर 'निकट संबंधी है ' ।अब आपके काम में कुछ वेट है ।अब फिर इतिश्री समझने की गलती मत कराईए ।साहेब से मिलिए तो विधायक की बदतमीजी के लिए गलती मानिए और उनको आश्‍वस्‍त करिए कि 'मेरी चिंता को देखते हुए पिता से नहीं रहा गया और ये गलती हो गई ' ।अब क्षमा मांगने की पूरी नौटंकी करते हुए अपना पर्स खोल दीजिए ।इंशाअल्‍लाह चाहेंगे तो काम जरूर बन जाऐगा 



यदि काम यहां भी नहीं बनता है तो फिर इस मूलमंत्र पर आईए कि साहेबबा का चाहत है
? कोई खास गहना,कोई खास शूट ,किसी खास तरह की कोई बात ।थोड़ा दिमाग पे जोर डालिए ई ससुरा चाहत का है ?
कोई औरत कोई मरद कोई आशीर्वाद कोई जन्‍तर कोई टोना टोटका ।यदि समय मिले तो उसे भालू और हकीम से जरूर फूंकबा दीजिए । कभी-कभी भालू के फूंकने से पतला चीज भी मोटा दिखने लगता है 
!शायद भालू के दांत और मुंह से इतिहास का अंत हो जाता है ,और हकीम के दांत और मुंह की गंदगी से विश्‍वास का रास्‍ता उत्‍तरआधुनिकता का संकेत करता है ।


                                                                             अभी तो हाकिम का कमरा भी सजा होगा ,उन्‍हीं का क्‍यूं रामविजय बाबू और श्‍यामविजय बाबू भी मजे में होंगे ।उनके टेबुल पर ढ़ेर सारी फाईलें ,और टेबुल के नीचे लस्‍सी ,नमकीन के ढ़ेर सारे निशानियां मौजूद होंगे ,जिन्‍हें चपरासी भी साफ नहीं करता होगा ,ताकि कोई भी आनेवाला शऊर न भूले ।रामविजय ट्रांसफर की सूची में हर अनिच्‍छुक का नाम दिखाता होगा ,ज‍बकि ट्रांसफर चाहने वालों से भर मुंह बात भी कैसे कर पाएगा ।चाहने वाले के लिए 'कैसे होगा  ,बड़ा मुश्किल है ,बड़ी ही टाईट सिचुएशन है ,बड़ा लेट कर दिए 'जैसा लतीफा निकालता होगा ,और नहीं चाहनेवालों के लिए भी ऐसे ही वाक्‍यों की महा-श्रृंखलाएं




Tuesday, 7 May 2013

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी : आलोचना का स्‍वतंत्र मान



 यह तय है कि अपनी -अपनी रूचि और अपने -अपने संस्‍कार लेकर वस्‍तु का यथार्थ स्‍वरूप-निर्णय नहीं हो सकता ।कोई एक सामान्‍य मान-दण्‍ड होना चाहिए ।वह मान-दण्‍ड बुद्धि है अर्थात् किसी वस्‍तु ,धर्म या क्रिया के वास्‍तविक रहस्‍य का पता लगाने के लिए उसे अपने अनुराग-विराग या इच्‍छा -द्वेष के साथ नहीं सान देना चाहिए ,बल्कि देखना चाहिए कि देखनेवाले के बिना भी वस्‍तु अपने-आपमें क्‍या है  ?गीता में इसी बात को नाना भाव से कहा गया है ।कभी द्वन्‍द्वों से अपरिचालित होने को ,कभी बुद्धि की शरण लेने को ,कभी 'अफलाशी' होकर कर्म करने को कहा गया है ।समालेाचना का जो ढर्श्रा चल रहा है ,उसमें द्वंद्वों द्वारा परिचालित होने को दोष का कारण तो माना नहीं जाता ,उल्‍टे कभी-कभी उसके लिए गर्व किया जाता है ।अनुराग-विराग,इच्‍छा-द्वेष आदि के द्वारा निर्णय पर पहुंचने को समालोचक गर्व की वस्‍तु समझता है ।

सम्‍मतियों की इस बहुमुखी विरोधिता का कारण है ,वस्‍तु को मानसिक संस्‍कारों के चश्‍मे से देखना और बुद्धि के द्वारा न देखना ।अत्‍यधिक आधुनिक भाषा में कहें तो सब्‍जेक्‍टीविटी देखना ,और ऑब्‍जेक्‍टीवली देखने का प्रयत्‍न न करना ।पर समालेाचक को अपनी लज्‍जा तो छिपानी ही चाहिए ।कुछ समालोचक तो लज्जित होना जानते ही नहीं ।वे हर गली-कूचे में अपनी विशेष राय और अपने सौप्रतिद्वन्‍द्वियों की बात गर्व के साथ सुनाते रहते हैं ।पर कुछ जो शीलवान हैं ,इस बात से शर्मिंदा भी होते हैं और इसी लज्‍जा से बचने के लिए वेदांत से लेकर कामशास्‍त्र तक का हवाला दिया करते हैा ।इन शर्मिंदा होने वाले शीलवानों के कारण समालोचना की समस्‍या और भी जटिल हो रही है ।इन्‍होंने इतने बहुविध शास्‍त्रीय दृष्टिकोण और लोक-शास्‍त्रादि पक्षों का आविष्‍कार किया है -महज परस्‍पर-विरोधी उक्तियों के समाधान के लिए-कि पाठक का चित्‍त र्विा्रांत हो जाता है । ऐसे ही एक प्रकार के समालोचकों ने एक स्‍वतंत्र रस-लोक की कल्‍पना की है ।इनके पास दर्शनशास्‍त्र की व्‍युत्‍पत्ति है और इसीलिए दर्शन की गम्‍भीरता से आतंकित सह्रदय समाज पर इनका सिक्‍का भी बहुत जम गया है ।ये छूटते ही शरीर के दो हिस्‍से कर डालते हैं -शरीर और आत्‍मा ,जड़ और चेतन ।अब चेतन में आइए तो चेतन भी देा ,लोक पक्षात्‍मक और भाव पक्षात्‍मक ।और लोकपक्ष भी दो ,आदर्शवादी और यथार्थवादी .... इत्‍यादि ।इस प्रकार समालोचना का मेघ-मल्‍हार शुरू होता है आर अनभ्र वज्रपात प्राय: ही होता दिख जाता है ।

साभार 'आलोचना का स्‍वतंत्र मान ' ,लोकभारती प्रकाशन






Sunday, 24 March 2013

कबीर की अकथ कहानी(पुरूषोत्‍तम अग्रवाल) पर वागीश शुक्‍ल :साभार 'आलोचना'

चयनित अंश:-
समीक्षाधीन पुस्‍तक की सीमाऍं वही है जो आधुनिक विमर्श की है और जब तक उस आधुनिक विमर्श की जड़ों तक नहीं जाया जाता ,उसकी विसंगतियों की कोई पड़ताल भी सतक के नीचे नहीं जा सकती ।मैं केवल एक उदाहरण दूंगा :यदि कबीर के वर्णाश्रम-विरोध की परख 'ह्यूमन राइट्स' के संदर्भ में की जा सकती है तो उनके जीवहिंसा-विरोध की पड़ताल 'एनिमल राइट्स' के सन्‍दर्भ में क्‍यों नहीं की जा सकती ?यदि इसका कोई और कारण है ,सिवाय इसके कि 'ह्यूमन राइट्स' के लिए कानून बन चुके हैं और 'एनिमल राइट्स' के लिए अभी कानून नहीं बने ,तो वह समझना मेरे लिए सम्‍भव नहीं हुआ ।किन्‍तु कल वे बन भी सकते हैं ।तब ?

प्रारंभिक में कहा गया है कि कबीर यह चेतावनी दे रहे हैं :मेरे ब्रह्मविचार को तुम गीत मत समझ बैठना-'तुम जिन जानौ यह गीत है ,यह तो निज ब्रह्मविचार रे ।' गीत और ब्रह्मविचार में अन्‍तर की यह चेतावनी केवल कबीर ने ही नहीं अश्‍वघोष ने भी दी है ,लेकिन भगवत्‍पाद या कालिदास ने नहीं दी ,और यहीं उस मानसिकता का ,जिसे मैं 'पेगन मानसिकता' कहता हूं ,और उस मानसिकता का ,जिसे मैं 'डि-पेगनाइजेशन की मानसिकता' कहता हूं किन्‍तु जिसका प्रचलित नाम 'दूसरी परम्‍परा' है ,अन्‍तर मौजूद है ।

कालै यास्‍पर्स ने जब यह कहा था कि ईसाइयत के भीतर ट्रैजेडी नहीं लिखी जा सकती और जब फ़ारसी-अरबी के काव्‍यशास्‍त्री लगातार यह घोषणा करते हैं कि इस्‍लाम के भीतर कविता सम्‍भव नहीं है तो वे इस अन्‍तर की ही ओर इशारा कर रहे हैं ।

Saturday, 23 March 2013

धाकड़ मजिस्‍ट्रेट




धाकड़ मजिस्‍ट्रेट वो होता है ,जो मेला ,दंगा और परीक्षा ड्यूटियों में डेली हिसाब करता है ।उसे दिहाड़ी कहने-कहाने का भय नहीं है ,बल्कि 'लेते' वक्‍त एक आत्‍मसंतोष का भाव होता है कि 'कोई फ्री का थोड़े ही ले रहा हूं 'वह मेला में दुकान गिनकर ,दंगा में मूड़ी गिनकर और परीक्षा में एडमिट कार्ड गिनकर लेता है ।अब जैसे कि परीक्षा ड्यूटी है तो प्रति पाली प्रति विद्यार्थी मात्र दस रूपये की दर से हिसाब कर दीजिए ।अब आप सोच रहे होंगे कि इससे तो दोहजार -तीन हजार डेली ही मिल पाएगा ,और यदि अंत में लिया जाए तो लेने के कई नाम है -कोपरेशन के लिए ,नॉन आपरेशन केलिए ,होली सेलिब्रेशन के लिए या फिर सॉलिड ठकुरई कि 'भय बिनु ...' या फिर अचूक ब्राह्मणवाद कि राजा ,ब्राह्मण और देवता के यहां लोग खाली हाथ नहीं जाते हैं ,और लेनदेन के तमाम मॉडल इसी वाद में अंर्तभुक्‍त हैं ।अब आप डेली हिसाब नहीं किए और कहीं हाकिम ने ड्यूटी बदल दी ,तो ये पुराना बनिया/स्‍कूल प्रबंधक आपसे मिलेगा ? और आप कुछ ले पाऐंगे ?।इसलिए जो भी हो 'हस्‍तामलक' की तरह हो 'बाद में मिलना है ' या 'किसी दिन देख लेंगे' वालों को आप दिखा दीजिए कि आप कितने बड़े मजिस्‍ट्रेट हैं ,और नियमों ,अधिनिय और आदेशों का इतना धुर्रा उड़ाइए कि ससुर स्‍कूल सहित उड़ जाए ।ये जो पिछले दिन ड्यूटी बदली है तो स्‍कूल प्रबंधक और मजिस्‍ट्रेट बहनों की तरह रोए ,और आने वाले मजिस्‍ट्रेट के लिए ढ़ेर सारी कथाऍं ,घटनाऍं मौजूद रहे कि 'साहब कितने अच्‍छे थे ' , और 'साहब तो गाना भी गाते थे ' ।अब आपके पास दो ही विकल्‍प है या तो दिहाड़ी की तरह डेली वसूलें या फिर अच्‍छे की तरह गाना गाऍं .........