गुरूजी सही कहते थे कि बचुवा पहले खूब पढ़ ले तब लिखना
और हम इतना जल्दियाए थे कि कहते थे बस्स गुरू जी बस्स
और एक दिन एक कवि का शीर्षक मैच कर गया तो
एक ससुरा इतना जोर से डांटा कि जैसे उनकी बछिया चुरा ली हो हमने
और इसी तरह एक दिन किसी कविता की गाली भी
तो लगा ऐसे जैसे सारी गालियां का कॉपीराइट उन्हीं के पास हो
हरेक डांट-फटकार ,गाली-गलौज में याद तो आते हैं गुरू जी
पर जितना कठिन है गलती मानना उससे भी कठिन महाभूतों का साक्षात्कार
सो गुरू जी क्षमा करिएगा कविता का विकास ऐसे ही लिखा था
पटना में दिल्ली में इंदौर में और आगे भी और आप जहां हैं वहां भी
और कविताओं की संख्या उतनी तेजी से बढ़ रही है जितनी तेजी से छोटका गिनती सीख रहा है
और पत्नी भी मुंह चमकाकर हाथ नचाकर विद्वान मानने लगी है
सो गुरू जी सही सही बताइएगा क्या गुरूआइन भी इसी तरह हाथ नचाकर आपको सराहती थी
जब दुनिया के सारे संज्ञा-सर्वनाम ,क्रिया और विशेषण घिस चुके थे
बिक चुका था मैगजीन और चौराहों का हरेक कोना
हम भी पुराने आइडिया को पूरी बेशरमी से मौलिक कह संपादक को भेजते
और संपादक भी उसी तेजी से आभार प्रकट कर चुप्पी मार देता
दरअसल अब कविता को अस्वीकृत नहीं किया जाता था
और कविता लौटाना भी पुराना फैशन था
इसी सुविधा ने मुझे कवि बनाए रखा सालों साल
और मैं भी एक कवि था
मेरे भी कुछ छंद थे ,विषय था
कुछ मेरे भी पाठक थे ,श्रोता भी थे
मंच ,गुट और कंठ को सुरीला बनाता
गोलमिर्च ,अदरख खाता
मैं एक कवि था
और हम इतना जल्दियाए थे कि कहते थे बस्स गुरू जी बस्स
और एक दिन एक कवि का शीर्षक मैच कर गया तो
एक ससुरा इतना जोर से डांटा कि जैसे उनकी बछिया चुरा ली हो हमने
और इसी तरह एक दिन किसी कविता की गाली भी
तो लगा ऐसे जैसे सारी गालियां का कॉपीराइट उन्हीं के पास हो
हरेक डांट-फटकार ,गाली-गलौज में याद तो आते हैं गुरू जी
पर जितना कठिन है गलती मानना उससे भी कठिन महाभूतों का साक्षात्कार
सो गुरू जी क्षमा करिएगा कविता का विकास ऐसे ही लिखा था
पटना में दिल्ली में इंदौर में और आगे भी और आप जहां हैं वहां भी
और कविताओं की संख्या उतनी तेजी से बढ़ रही है जितनी तेजी से छोटका गिनती सीख रहा है
और पत्नी भी मुंह चमकाकर हाथ नचाकर विद्वान मानने लगी है
सो गुरू जी सही सही बताइएगा क्या गुरूआइन भी इसी तरह हाथ नचाकर आपको सराहती थी
जब दुनिया के सारे संज्ञा-सर्वनाम ,क्रिया और विशेषण घिस चुके थे
बिक चुका था मैगजीन और चौराहों का हरेक कोना
हम भी पुराने आइडिया को पूरी बेशरमी से मौलिक कह संपादक को भेजते
और संपादक भी उसी तेजी से आभार प्रकट कर चुप्पी मार देता
दरअसल अब कविता को अस्वीकृत नहीं किया जाता था
और कविता लौटाना भी पुराना फैशन था
इसी सुविधा ने मुझे कवि बनाए रखा सालों साल
और मैं भी एक कवि था
मेरे भी कुछ छंद थे ,विषय था
कुछ मेरे भी पाठक थे ,श्रोता भी थे
मंच ,गुट और कंठ को सुरीला बनाता
गोलमिर्च ,अदरख खाता
मैं एक कवि था
No comments:
Post a Comment