सुरेश सेन निशांत की कविताओं में पहाड़ का वह रूप नहीं है ,जो पंत या उसके बाद की कविताओं में है ।जहां पंत के पहाड़ 'ग्लोबल' हैं ,वहीं सुरेश के 'लोकल' ।इस स्थानीयता की अपनी आभा है ।यहां पहाड़ के साथ ही स्थानीय जीवन की तमाम तल्ख सच्चाईयां सामने हैं ।यह पर्वत-यात्रा आनंदित नहीं करती ,और इसके झकझोड़ने में ही कविता की शक्ति समाहित है
ओ सामने वाली पहाड़ी
एक(1)
मुझे नहीं पताइस बसंत में कैसी नजर आएगी तू
कैसी दिखेगी इस सावन में
जब बारिश से भींगी हुई होगी
तुम्हारी देह ।
हरे रंग का परिधान
तेरे जिस्म पर बहुत फबता है
बहुत भाता है मुझे
बुरांश के फूलों से सजा
तेरा रूप ।
मैं घंटों निहारता रहता हूं तुझे
जैसे कोई प्रेमी
अपनी प्रेमिका को निहारता है
जैसे कोई सत्रह बरस का युवक
किसी अति सुंदर लड़की को
अचरज से भरा निहारता ही जाता है
अपनी सुध-बुध खोता हुआ ।
जैसे कोई मछेरा हसरत भरी नजरों से
निहारता है नदी के निर्मल जल को।
उसी तरह हां उसी तरह
मैं निहारता रहता हूं तुम्हें ।
हर रोज नित नए ढ़ंग से
सँवरा हुआ लगता है मुझे तेरा रूप ।
तुम्हारी आंखों के जल में
रोज धोता हूं मैं अपनी देह ।
तुम्हारी देह की आंच में
सुखाता हूं अपना जिस्म ।
तुम्हारी आवाज की लहरों पर
तैराता हूं गांव भर के बच्चों के संग
अपनी भी कागज की कश्तियां।
मैं तुम्हारे जिस्म में
डूबो देता हूं अपना जिस्म
मिलता हूं वहां असंख्य जंतुओं से
असंख्य पंछियों से करता हूं दोस्ती ।
पता नहीं
कितने ही रहस्यों से भरी पड़ी है तू
जब भी तेरी देह में उतरता हूं
मैं ईश्वर को देखता हूं
तेरी देह में हरे रंग का परिधान पहने
एक कोमल पत्ते सा हिलते हूए
मैं देखता हूं वहां
अपने पुरखों को घास काटते हुए ।
सूखी लड़कियों का भरौटा उठाए
देखता हूं गांव भर की औरतों को उतरते ।
मैं हल की फाल उठाये
पिता को देखता हूं तेरे पास से
खुशी-खुशी लौटते ।
मैं देखता हूं
मुंह अंधेरे की गई मेरी बहिनें
मीठे काफलों की
भरी टोकरी लेकर लौट रही है तेरे पास से ।
पर इधर कोई
हरीश सिमेंट वाला टांग रहा है
तेरी देह पर अपना बोर्ड
तेरी देह से वस्त्र उतारने की
कर रहा है नित नए षड्यंत्र ।
हमारे ग्राम प्रधान और विधायक
लालच की नदी में डूबकर
उसकी महफिलों की बन गए हैं रौनक ।
ओ सामने वाली पहाड़ी
आजकल पूरे जनपद के कुम्हार
जब भी बनाने बैठते हैं घड़े
चाक पर रखी गीली मिट्टी में
सुनाई देती हैं उन्हें तुम्हारी सिसकियां
तुम्हारी कराहटों से भरी रहती है
उदास लुहारों की सुलगती गोरसियां
जब भी चरने छोड़ते हैं हम अपने मवेशी
वे दिन भर तुम्हें ही निहारते रहते हैं
मां से बिछुड़ रहे बच्चे सा होता है
उदासी और विलाप से भरा उनका रम्भाना
सो सामने वाली पहाड़ी
बच्चे आजकल
तुम्हारी वनस्पतियों को , पंछियों को
और तुम्हें अपने सपनों में बचाने की बातें
करते रहते हैं
वे तुम्हें सुमेरू पर्वत सा उठाकर
कही दूर छुपाकर बचा लेना चाहते हैं
उनकी भोली बातें सुन
दुख और क्रोध से भर जाती हैं औरतें
दुख और क्रोध से भर जाते हैं हम
हमारे इस विलाप में शामिल है
गीदड़ों का भी विलाप
दो (2)
ओ सामने वाली पहाड़ी
तीन कोस दूर पे
एक और फैक्टरी है सिमेंट की
ए0सी0सी0 नाम है उसका ।
यहां हर रोज बारूद के धमाकों से
तोड़ी जाती है एक पहाड़ी
वहां हर रोज
मरते हैं कुछ चिडि़यों के बच्चे
जो अभी उड़ना ही सीख रहे होते हैं
हर रोज बारूद के धमाकों से
सहमा जल निथरता जाता है
धरती की गहराई की ओर
हर रोज कम होता जाता है
हमारी बावडि़यों और कुओं का जल
हर रोज बढ़ती जाती है
हमारे गांव-घर की औरतों की
पानी के स्रोतों से दूरी ।
यहां हर रोज़ धमाकों से
कांपती है घरती
कांपता है हमारा मन
कांपती रहती है आसपास की
पहाडि़यों की रूह
कांपता रहता है भय से भरा
देर तक इस सतलुल का भी जल ।
ओ सामने वाली पहाड़ी
उसमें थोड़ा सा दूर जाएं
तो एक और सीमेंट फैक्टरी है
दूजी पहाड़ी पर बनी
अंबुजा नाम है उसका
वहां भी वैसी ही है
बारूद के धमाकों की गूंज
वैसा ही है धूऍं के बीच दौड़ते
ट्रकों का बेतहाशा शोर ।
उसकी बगल वाली पहाड़ी पर
जे0पी0 सीमेंट फैक्टरी है ।
यहां हर जगह सुनी जा सकती है
धरती की सिसकियां
और इन पहाडि़यों के सौदागरों की
ऊँची ठहाकेदार हँसी भी ।
तीन (3)
कहां जाऍंगे हम
हमारे मवेशी कहां जाऍंगे
कहां जाएँगे इन पहाडि़यों पर
बसने वाले परिंदे
हम बारिशों को
कौन से गीत गाकर बुलाऍंगे
हम धरती के इतने घावों को
कैसे भरेंगे
कहां रखेंगे
कहां बोएंगे
भय से सूखते
इन पेड़ों के बीज
चार(4)
ए0सी0सी0 सिमेंट फैक्ट्री के
बगल वाले गांव में है
मेरी बहिन का घर
धूल की एक मोटी दीवार है
हमारे और बहिन के घर के बीच
नहीं सुनाई देती है
बहिन की दुख भरी आवाज
उसकी सिसकियां ।
धूल की एक मोटी पर्त
बिछी रहती है
बहिन की घर की छत पर भी
जिसे धोती है कभी कभार होने वाली वारिश ।
धूल ही धूल है
घासनियों की घास पर भी
जिसे नहीं खाते हैं मवेशी ।
बहिन के पांच साल के बेटे को
हो गई है खांसी
जो जाती ही नहीं
यही बीमारी है उसके पिता को भी
वंशानुगत नहीं है यह रोग
अभी-अभी फैला है ।
सुरेश सेन निशांत
( गांव-सलाह ,डाक-सुन्दरनगर-1 ,जिला-मण्डी ,174401 ,हिमाचल प्रदेश)
फोन 09816224478
सभार 'बया' ,'अंतिका प्रकाशन' , गौरीनाथ(संपादक 'बया')
ओ सामने वाली पहाड़ी
एक(1)
मुझे नहीं पताइस बसंत में कैसी नजर आएगी तू
कैसी दिखेगी इस सावन में
जब बारिश से भींगी हुई होगी
तुम्हारी देह ।
हरे रंग का परिधान
तेरे जिस्म पर बहुत फबता है
बहुत भाता है मुझे
बुरांश के फूलों से सजा
तेरा रूप ।
मैं घंटों निहारता रहता हूं तुझे
जैसे कोई प्रेमी
अपनी प्रेमिका को निहारता है
जैसे कोई सत्रह बरस का युवक
किसी अति सुंदर लड़की को
अचरज से भरा निहारता ही जाता है
अपनी सुध-बुध खोता हुआ ।
जैसे कोई मछेरा हसरत भरी नजरों से
निहारता है नदी के निर्मल जल को।
उसी तरह हां उसी तरह
मैं निहारता रहता हूं तुम्हें ।
हर रोज नित नए ढ़ंग से
सँवरा हुआ लगता है मुझे तेरा रूप ।
तुम्हारी आंखों के जल में
रोज धोता हूं मैं अपनी देह ।
तुम्हारी देह की आंच में
सुखाता हूं अपना जिस्म ।
तुम्हारी आवाज की लहरों पर
तैराता हूं गांव भर के बच्चों के संग
अपनी भी कागज की कश्तियां।
मैं तुम्हारे जिस्म में
डूबो देता हूं अपना जिस्म
मिलता हूं वहां असंख्य जंतुओं से
असंख्य पंछियों से करता हूं दोस्ती ।
पता नहीं
कितने ही रहस्यों से भरी पड़ी है तू
जब भी तेरी देह में उतरता हूं
मैं ईश्वर को देखता हूं
तेरी देह में हरे रंग का परिधान पहने
एक कोमल पत्ते सा हिलते हूए
मैं देखता हूं वहां
अपने पुरखों को घास काटते हुए ।
सूखी लड़कियों का भरौटा उठाए
देखता हूं गांव भर की औरतों को उतरते ।
मैं हल की फाल उठाये
पिता को देखता हूं तेरे पास से
खुशी-खुशी लौटते ।
मैं देखता हूं
मुंह अंधेरे की गई मेरी बहिनें
मीठे काफलों की
भरी टोकरी लेकर लौट रही है तेरे पास से ।
पर इधर कोई
हरीश सिमेंट वाला टांग रहा है
तेरी देह पर अपना बोर्ड
तेरी देह से वस्त्र उतारने की
कर रहा है नित नए षड्यंत्र ।
हमारे ग्राम प्रधान और विधायक
लालच की नदी में डूबकर
उसकी महफिलों की बन गए हैं रौनक ।
ओ सामने वाली पहाड़ी
आजकल पूरे जनपद के कुम्हार
जब भी बनाने बैठते हैं घड़े
चाक पर रखी गीली मिट्टी में
सुनाई देती हैं उन्हें तुम्हारी सिसकियां
तुम्हारी कराहटों से भरी रहती है
उदास लुहारों की सुलगती गोरसियां
जब भी चरने छोड़ते हैं हम अपने मवेशी
वे दिन भर तुम्हें ही निहारते रहते हैं
मां से बिछुड़ रहे बच्चे सा होता है
उदासी और विलाप से भरा उनका रम्भाना
सो सामने वाली पहाड़ी
बच्चे आजकल
तुम्हारी वनस्पतियों को , पंछियों को
और तुम्हें अपने सपनों में बचाने की बातें
करते रहते हैं
वे तुम्हें सुमेरू पर्वत सा उठाकर
कही दूर छुपाकर बचा लेना चाहते हैं
उनकी भोली बातें सुन
दुख और क्रोध से भर जाती हैं औरतें
दुख और क्रोध से भर जाते हैं हम
हमारे इस विलाप में शामिल है
गीदड़ों का भी विलाप
दो (2)
ओ सामने वाली पहाड़ी
तीन कोस दूर पे
एक और फैक्टरी है सिमेंट की
ए0सी0सी0 नाम है उसका ।
यहां हर रोज बारूद के धमाकों से
तोड़ी जाती है एक पहाड़ी
वहां हर रोज
मरते हैं कुछ चिडि़यों के बच्चे
जो अभी उड़ना ही सीख रहे होते हैं
हर रोज बारूद के धमाकों से
सहमा जल निथरता जाता है
धरती की गहराई की ओर
हर रोज कम होता जाता है
हमारी बावडि़यों और कुओं का जल
हर रोज बढ़ती जाती है
हमारे गांव-घर की औरतों की
पानी के स्रोतों से दूरी ।
यहां हर रोज़ धमाकों से
कांपती है घरती
कांपता है हमारा मन
कांपती रहती है आसपास की
पहाडि़यों की रूह
कांपता रहता है भय से भरा
देर तक इस सतलुल का भी जल ।
ओ सामने वाली पहाड़ी
उसमें थोड़ा सा दूर जाएं
तो एक और सीमेंट फैक्टरी है
दूजी पहाड़ी पर बनी
अंबुजा नाम है उसका
वहां भी वैसी ही है
बारूद के धमाकों की गूंज
वैसा ही है धूऍं के बीच दौड़ते
ट्रकों का बेतहाशा शोर ।
उसकी बगल वाली पहाड़ी पर
जे0पी0 सीमेंट फैक्टरी है ।
यहां हर जगह सुनी जा सकती है
धरती की सिसकियां
और इन पहाडि़यों के सौदागरों की
ऊँची ठहाकेदार हँसी भी ।
तीन (3)
कहां जाऍंगे हम
हमारे मवेशी कहां जाऍंगे
कहां जाएँगे इन पहाडि़यों पर
बसने वाले परिंदे
हम बारिशों को
कौन से गीत गाकर बुलाऍंगे
हम धरती के इतने घावों को
कैसे भरेंगे
कहां रखेंगे
कहां बोएंगे
भय से सूखते
इन पेड़ों के बीज
चार(4)
ए0सी0सी0 सिमेंट फैक्ट्री के
बगल वाले गांव में है
मेरी बहिन का घर
धूल की एक मोटी दीवार है
हमारे और बहिन के घर के बीच
नहीं सुनाई देती है
बहिन की दुख भरी आवाज
उसकी सिसकियां ।
धूल की एक मोटी पर्त
बिछी रहती है
बहिन की घर की छत पर भी
जिसे धोती है कभी कभार होने वाली वारिश ।
धूल ही धूल है
घासनियों की घास पर भी
जिसे नहीं खाते हैं मवेशी ।
बहिन के पांच साल के बेटे को
हो गई है खांसी
जो जाती ही नहीं
यही बीमारी है उसके पिता को भी
वंशानुगत नहीं है यह रोग
अभी-अभी फैला है ।
सुरेश सेन निशांत
( गांव-सलाह ,डाक-सुन्दरनगर-1 ,जिला-मण्डी ,174401 ,हिमाचल प्रदेश)
फोन 09816224478
सभार 'बया' ,'अंतिका प्रकाशन' , गौरीनाथ(संपादक 'बया')
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