यह तय है कि अपनी -अपनी रूचि और अपने -अपने संस्कार लेकर वस्तु का यथार्थ स्वरूप-निर्णय नहीं हो सकता ।कोई एक सामान्य मान-दण्ड होना चाहिए ।वह मान-दण्ड बुद्धि है अर्थात् किसी वस्तु ,धर्म या क्रिया के वास्तविक रहस्य का पता लगाने के लिए उसे अपने अनुराग-विराग या इच्छा -द्वेष के साथ नहीं सान देना चाहिए ,बल्कि देखना चाहिए कि देखनेवाले के बिना भी वस्तु अपने-आपमें क्या है ?गीता में इसी बात को नाना भाव से कहा गया है ।कभी द्वन्द्वों से अपरिचालित होने को ,कभी बुद्धि की शरण लेने को ,कभी 'अफलाशी' होकर कर्म करने को कहा गया है ।समालेाचना का जो ढर्श्रा चल रहा है ,उसमें द्वंद्वों द्वारा परिचालित होने को दोष का कारण तो माना नहीं जाता ,उल्टे कभी-कभी उसके लिए गर्व किया जाता है ।अनुराग-विराग,इच्छा-द्वेष आदि के द्वारा निर्णय पर पहुंचने को समालोचक गर्व की वस्तु समझता है ।
सम्मतियों की इस बहुमुखी विरोधिता का कारण है ,वस्तु को मानसिक संस्कारों के चश्मे से देखना और बुद्धि के द्वारा न देखना ।अत्यधिक आधुनिक भाषा में कहें तो सब्जेक्टीविटी देखना ,और ऑब्जेक्टीवली देखने का प्रयत्न न करना ।पर समालेाचक को अपनी लज्जा तो छिपानी ही चाहिए ।कुछ समालोचक तो लज्जित होना जानते ही नहीं ।वे हर गली-कूचे में अपनी विशेष राय और अपने सौप्रतिद्वन्द्वियों की बात गर्व के साथ सुनाते रहते हैं ।पर कुछ जो शीलवान हैं ,इस बात से शर्मिंदा भी होते हैं और इसी लज्जा से बचने के लिए वेदांत से लेकर कामशास्त्र तक का हवाला दिया करते हैा ।इन शर्मिंदा होने वाले शीलवानों के कारण समालोचना की समस्या और भी जटिल हो रही है ।इन्होंने इतने बहुविध शास्त्रीय दृष्टिकोण और लोक-शास्त्रादि पक्षों का आविष्कार किया है -महज परस्पर-विरोधी उक्तियों के समाधान के लिए-कि पाठक का चित्त र्विा्रांत हो जाता है । ऐसे ही एक प्रकार के समालोचकों ने एक स्वतंत्र रस-लोक की कल्पना की है ।इनके पास दर्शनशास्त्र की व्युत्पत्ति है और इसीलिए दर्शन की गम्भीरता से आतंकित सह्रदय समाज पर इनका सिक्का भी बहुत जम गया है ।ये छूटते ही शरीर के दो हिस्से कर डालते हैं -शरीर और आत्मा ,जड़ और चेतन ।अब चेतन में आइए तो चेतन भी देा ,लोक पक्षात्मक और भाव पक्षात्मक ।और लोकपक्ष भी दो ,आदर्शवादी और यथार्थवादी .... इत्यादि ।इस प्रकार समालोचना का मेघ-मल्हार शुरू होता है आर अनभ्र वज्रपात प्राय: ही होता दिख जाता है ।
साभार 'आलोचना का स्वतंत्र मान ' ,लोकभारती प्रकाशन
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