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Sunday, 24 March 2013

कबीर की अकथ कहानी(पुरूषोत्‍तम अग्रवाल) पर वागीश शुक्‍ल :साभार 'आलोचना'

चयनित अंश:-
समीक्षाधीन पुस्‍तक की सीमाऍं वही है जो आधुनिक विमर्श की है और जब तक उस आधुनिक विमर्श की जड़ों तक नहीं जाया जाता ,उसकी विसंगतियों की कोई पड़ताल भी सतक के नीचे नहीं जा सकती ।मैं केवल एक उदाहरण दूंगा :यदि कबीर के वर्णाश्रम-विरोध की परख 'ह्यूमन राइट्स' के संदर्भ में की जा सकती है तो उनके जीवहिंसा-विरोध की पड़ताल 'एनिमल राइट्स' के सन्‍दर्भ में क्‍यों नहीं की जा सकती ?यदि इसका कोई और कारण है ,सिवाय इसके कि 'ह्यूमन राइट्स' के लिए कानून बन चुके हैं और 'एनिमल राइट्स' के लिए अभी कानून नहीं बने ,तो वह समझना मेरे लिए सम्‍भव नहीं हुआ ।किन्‍तु कल वे बन भी सकते हैं ।तब ?

प्रारंभिक में कहा गया है कि कबीर यह चेतावनी दे रहे हैं :मेरे ब्रह्मविचार को तुम गीत मत समझ बैठना-'तुम जिन जानौ यह गीत है ,यह तो निज ब्रह्मविचार रे ।' गीत और ब्रह्मविचार में अन्‍तर की यह चेतावनी केवल कबीर ने ही नहीं अश्‍वघोष ने भी दी है ,लेकिन भगवत्‍पाद या कालिदास ने नहीं दी ,और यहीं उस मानसिकता का ,जिसे मैं 'पेगन मानसिकता' कहता हूं ,और उस मानसिकता का ,जिसे मैं 'डि-पेगनाइजेशन की मानसिकता' कहता हूं किन्‍तु जिसका प्रचलित नाम 'दूसरी परम्‍परा' है ,अन्‍तर मौजूद है ।

कालै यास्‍पर्स ने जब यह कहा था कि ईसाइयत के भीतर ट्रैजेडी नहीं लिखी जा सकती और जब फ़ारसी-अरबी के काव्‍यशास्‍त्री लगातार यह घोषणा करते हैं कि इस्‍लाम के भीतर कविता सम्‍भव नहीं है तो वे इस अन्‍तर की ही ओर इशारा कर रहे हैं ।

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