इतनी उदासी तो मौत के दुआर पर भी नहीं होती है ,और इस शहर के बीचोंबीच हम टहलते रहे ,परंतु शहर ने मानो नोटिस ही नहीं लिया हो ।हम धीरे-धीरे चल रहे थे ,हम हरेक रूकने वाले दुकानों पर रूक रहे थे ,हम जो खरीद सकते थे ,खरीद रहे थे ।हम चुटकुला-कहानी सुन सुना रहे थे ,परंतु शहर ने मानो अफीम के पानी से कुल्ला किया हो ।दुकानों में बच्चों के खिलौने सजे थे ,वहीं बगल में औरतों के श्रृंगार के सामान बिक रहे थे ,अयोध्या नरेश राम के विभिन्न मंदिरों के फोटू भी बिक रहे थे ।भजन के कैसेटों का दुकान अलग था ,उसमें विभिन्न भजनों के ऑडियो-वीडियो संगीत सुनाए जा रहे थे ।6 दिसंबर 1992 की घटनाओं का भी सचित्र प्रसारण चल रहा था ,कुछ नेतागण भी दिख रहे थे ,जिसे देश ने टुकड़ों में नायक या खलनायक कहा ।कैसेट विक्रेता निर्लिप्त भाव से कैसेट बेच रहे थे ।मेरी उदासी या उत्साह से उन पर कुछ प्रभाव नहीं पड़ा ,वे जुलाई के पुरवैये से पीडि़त थे ।मारक आलस्य उनकी आंखों में था ,वे मशीनी हो गए थे ।वे ऐसे शहर में रहते थे ,जिसका रिमोट बहुत दूर था ,और इस शहर को उस बहुत दूर वाले रिमोट से बांध दिया गया था ।इस शहर की अपनी जिंदगी खतम हो गई थी ,यहां के लोग अब लोग नहीं रह गए हैं ,वे संतों ,नेताओं ,कारसेवकों का बस पोस्टर गिनते हैं ।उनकी रोजी पोस्टर छापने ,चिपकाने में है ।पोस्टर के कंटेंट पर वे बहस नहीं करते ।उनका घर ,उनका पार्क ,उनका सड़क अचानक पोस्टरों ,बैनरों से घिर जाता है ।उनकी सांसें इन बैनरों के आर-पार नहीं जाती ,उनका दम घुटता है ,पर वे अपने सूखे होठों पर उदास मुस्कुराहट लाने की कोशिश करते हैं ।
और अयोध्या की ये उदासी हर कोई पहचानते हुए भी अनसूनी करता है ,कुछ जो पुराने ढ़ंग से सोचते हैं ,उन्हें अब भी लगता है कि मंथराऍं साजिश कर रही है ,और बूढ़ा राजा चुप्पी मारे हुए है ।उसकी चुप्पी उसके पिता ,पति और राजा की भूमिकाओं को और भी तिक्त बना देता है ।पति पिता का हाथ पकड़े है ,और पिता पति को मुंह दबाए ।राजा इन सबको देखके परेशान है ।राजा इसलिए भी परेशान है कि हस्तिनापुर और कुरूक्षेत्र से संजय ,विदुर ,कृष्ण भी पहुंच चुके हैं ,और सरयू की शांत धाराओं में पेंच ,तर्क ,नीति की भँवरे पड़ रही है ।अब अवध ही नहीं हस्तिनापुर की गद्दी का भी निर्धारण सरयू ही करेंगी ,पर पता नहीं सरयू को खुशी क्यों नहीं है ,उसकी दूधिया रंगें रक्तिम हो रही है ।इन धाराओं में अदृश्य हाथें दिख रही है ,ये बलिष्ठ हाथे हैं ,जिनकी नसों और मांसपेशियों से खून की लकीरें स्पष्ट दिख रही है ,ये थामने वाली हाथे नहीं हैं ,ये नाव चलाने वाली हाथें भी नहीं है ।इन हाथों में रखे सामानों का क्रम अस्त-व्यस्त है ,कभी चाकू ,कभी झंडा ,कभी तलवार ,कभी जमीन का नक्शा ,कभी हाथ उठते हैं सिग्नल की तरह ,कभी संकेत देते हैं ,धाराओं के दिशा को मोड़ने वाले ,कभी चुटकियों के बजते ही सरयू का पानी खतम हो जाता है ,कभी ईशारों से ही सरयू में उबाल पैदा किया जाता है ।इन हाथों के संकेत दूर तक जाते हैं ,शायद दुनियाभर के घुड़सवार इंतजार कर रहे हैं ।संकेत मिलते ही वे सरयू की तरफ कूच करेंगे ।सरयू के प्राण अब इन्हीं हाथों में है ,सरयू इन्हीं हाथों के सहारे देश के नदियों से मिल चुकी है ।देश की नदियां आपस में नहीं जुड़ी ,पर सरयू जुड़ चुकी है ,सरयू देश के बाहर की नदियों से भी जुड़ चुकी है ।
अयोध्या के राजा अपनी ही राजधानी में अठारह ताला और उन्नीस फाटक के अंदर बंद हैं ।जाहिलों की भीड़ उन्हें घर देना चाहती थी ,और इक्कीस साल के लिए खुले आसमान में कैद कर दिया ।अवधेश जिन्हें किराये की बिजली से चमकाया गया है ,कभी गुजराती शामियाना तो कभी सिंधी शामियाना में ठंडा ,गरमी,बरसात गुजार रहे हैं ।पूरे ब्रह्माण्ड का पोषण करने वाले पंडों के हाथ से मिश्री ,मूंगफली खा के समय काट रहे हैं ,त्रिलोक की रक्षा करने वाले श्री राम की सुरक्षा में पांच सौ से ज्यादा रायफलधारी लगाए गए हैं ,इतना ही नहीं महिला सुरक्षाकर्मी भी विष्णु की सुरक्षा में लगे हैं ।ये महिलाएं अपनी सुरक्षा ,सूचिता को बनाए रखकर भगवान की भी रक्षा कर रही हैं ।अपने घर-परिवार से दूर ये महिलाऍं भगवान की सुरक्षा को लेकर चौकस हैं ।चौबीस गुणे सात ही नहीं ,उन तीन दिनों में भी ,जिन दिनों के लिए वे अपवित्र घोषित कर दी गई हैं ,वे सतर्क हैं ।इन महिलाओं ने भगवान ही नहीं उन भक्तों को भी माफ कर दिया है ,जो महिलाओं की पवित्रता को लेकर ज्यादा चिंतित रहते हैं ।
और राम कई बार अयोध्या त्यागे ।कभी अध्ययन के लिए तो कभी पिता के दिए वचन को पूरा करने के लिए ।एक बार बुंदेलखंड के ओरछा भी चले गए ।एक बार सीता को वापस लाने और पता नहीं कब-कब ।उन्हें अयोध्या से बाहर जाते लोगों ने कई बार देखा है ।बाल्मीकि और तुलसी जो भी कहें बहुत ज्यादा उत्सव उनके लिए कभी भी सगुण नहीं रहा ।1992 ईसवी के मेले में पता नहीं राम ने क्या निश्चय किया ,परंतु मुझे तो नहीं लगता कि हजारों सुरक्षाकर्मियों से घिरे उस छोटे स्थान में भगवान हैं भी ।संगीनों की आमद भगवान को छोटा साबित करने के लिए पर्याप्त तो है ही आदमी को और इतिहास को भी छोटा साबित करता है ।
मुझे पता नहीं अयोध्या में इतिहास के साथ रहूं कि विश्वास के साथ रहूं । ये महल और मंदिर जो तीन-चार सौ साल से ज्यादा पुरानी नहीं है ,पुरातत्व के तर्क पर बहुत ज्यादा मजबूत नहीं है ,पर सरयू की उपस्थिति इतनी प्रामाणिक और विश्वसनीय है कि इतिहास और विश्वास दोनों को एकरूप कर देती है ।सीता की रसोई ,लक्ष्मण का घर ,मंथरा का निवास आदि कई नामकरण पुरातत्व की बजाय पुराण से संदर्भित है ,कुछ -कुछ पुरोहितवाद से भी ,परंतु आम भारत की इनके प्रति आस्था देखते ही बनती है ।किसी भी इतिहास को निरा तर्क से खंडित करने का साहस इनके प्रति नहीं हो सकता ।यह आस्था का इतिहास है ,और यह 'मैटर' को सीमित करता है ।परंतु इन आस्थाओं की एक सीमा होनी चाहिए ।आस्थाऍं देश ,समाज और मानवता को खंडित करने का प्रयास करें तो इनकी धुलाई-पोछाई और फिर से रँगाई होनी चाहिए,पर कौन रंगेगा इनको ।
और राम जब-जब अयोध्या से बाहर गए ,जो सबसे दृढ़ और निर्मल स्मरण था वह सरयू से ही संबंधित था ।सरयू की निर्मल और शांत धारा वे कभी भी भुला नहीं पाए ।इसी तट पर उनका शैशव और बचपन था ।मित्र थे ,गुरू थे ,मिथिलानी के साथ के वे समय ,जिन्हें धरती के जिस कोण रहे ,ह्रदय में रखे रहे ।अवध के किसानों की सहजता और दृढ़ता हरदम शक्ति के रूप में उनके साथ रही ।राम जब-जब अयोध्या में रहे ,सरयू और अवध शांति और समृद्धि के समरूप हो गए ।परंतु सरयू के जीवन में शांति कम ही रही है ।आज फिर सरयू अशांत था ,देश के विभिन्न नदियों ,नालों के जल सरयू में आ रहे थे ,सरयू का कछार ,पेटी और फिर छाती भर गया था ।अब पानी छाती से ऊपर बह रहा था ।यह सगुन नहीं था ,अवध के लिए और देश के लिए भी ।
और अयोध्या की ये उदासी हर कोई पहचानते हुए भी अनसूनी करता है ,कुछ जो पुराने ढ़ंग से सोचते हैं ,उन्हें अब भी लगता है कि मंथराऍं साजिश कर रही है ,और बूढ़ा राजा चुप्पी मारे हुए है ।उसकी चुप्पी उसके पिता ,पति और राजा की भूमिकाओं को और भी तिक्त बना देता है ।पति पिता का हाथ पकड़े है ,और पिता पति को मुंह दबाए ।राजा इन सबको देखके परेशान है ।राजा इसलिए भी परेशान है कि हस्तिनापुर और कुरूक्षेत्र से संजय ,विदुर ,कृष्ण भी पहुंच चुके हैं ,और सरयू की शांत धाराओं में पेंच ,तर्क ,नीति की भँवरे पड़ रही है ।अब अवध ही नहीं हस्तिनापुर की गद्दी का भी निर्धारण सरयू ही करेंगी ,पर पता नहीं सरयू को खुशी क्यों नहीं है ,उसकी दूधिया रंगें रक्तिम हो रही है ।इन धाराओं में अदृश्य हाथें दिख रही है ,ये बलिष्ठ हाथे हैं ,जिनकी नसों और मांसपेशियों से खून की लकीरें स्पष्ट दिख रही है ,ये थामने वाली हाथे नहीं हैं ,ये नाव चलाने वाली हाथें भी नहीं है ।इन हाथों में रखे सामानों का क्रम अस्त-व्यस्त है ,कभी चाकू ,कभी झंडा ,कभी तलवार ,कभी जमीन का नक्शा ,कभी हाथ उठते हैं सिग्नल की तरह ,कभी संकेत देते हैं ,धाराओं के दिशा को मोड़ने वाले ,कभी चुटकियों के बजते ही सरयू का पानी खतम हो जाता है ,कभी ईशारों से ही सरयू में उबाल पैदा किया जाता है ।इन हाथों के संकेत दूर तक जाते हैं ,शायद दुनियाभर के घुड़सवार इंतजार कर रहे हैं ।संकेत मिलते ही वे सरयू की तरफ कूच करेंगे ।सरयू के प्राण अब इन्हीं हाथों में है ,सरयू इन्हीं हाथों के सहारे देश के नदियों से मिल चुकी है ।देश की नदियां आपस में नहीं जुड़ी ,पर सरयू जुड़ चुकी है ,सरयू देश के बाहर की नदियों से भी जुड़ चुकी है ।
अयोध्या के राजा अपनी ही राजधानी में अठारह ताला और उन्नीस फाटक के अंदर बंद हैं ।जाहिलों की भीड़ उन्हें घर देना चाहती थी ,और इक्कीस साल के लिए खुले आसमान में कैद कर दिया ।अवधेश जिन्हें किराये की बिजली से चमकाया गया है ,कभी गुजराती शामियाना तो कभी सिंधी शामियाना में ठंडा ,गरमी,बरसात गुजार रहे हैं ।पूरे ब्रह्माण्ड का पोषण करने वाले पंडों के हाथ से मिश्री ,मूंगफली खा के समय काट रहे हैं ,त्रिलोक की रक्षा करने वाले श्री राम की सुरक्षा में पांच सौ से ज्यादा रायफलधारी लगाए गए हैं ,इतना ही नहीं महिला सुरक्षाकर्मी भी विष्णु की सुरक्षा में लगे हैं ।ये महिलाएं अपनी सुरक्षा ,सूचिता को बनाए रखकर भगवान की भी रक्षा कर रही हैं ।अपने घर-परिवार से दूर ये महिलाऍं भगवान की सुरक्षा को लेकर चौकस हैं ।चौबीस गुणे सात ही नहीं ,उन तीन दिनों में भी ,जिन दिनों के लिए वे अपवित्र घोषित कर दी गई हैं ,वे सतर्क हैं ।इन महिलाओं ने भगवान ही नहीं उन भक्तों को भी माफ कर दिया है ,जो महिलाओं की पवित्रता को लेकर ज्यादा चिंतित रहते हैं ।
और राम कई बार अयोध्या त्यागे ।कभी अध्ययन के लिए तो कभी पिता के दिए वचन को पूरा करने के लिए ।एक बार बुंदेलखंड के ओरछा भी चले गए ।एक बार सीता को वापस लाने और पता नहीं कब-कब ।उन्हें अयोध्या से बाहर जाते लोगों ने कई बार देखा है ।बाल्मीकि और तुलसी जो भी कहें बहुत ज्यादा उत्सव उनके लिए कभी भी सगुण नहीं रहा ।1992 ईसवी के मेले में पता नहीं राम ने क्या निश्चय किया ,परंतु मुझे तो नहीं लगता कि हजारों सुरक्षाकर्मियों से घिरे उस छोटे स्थान में भगवान हैं भी ।संगीनों की आमद भगवान को छोटा साबित करने के लिए पर्याप्त तो है ही आदमी को और इतिहास को भी छोटा साबित करता है ।
मुझे पता नहीं अयोध्या में इतिहास के साथ रहूं कि विश्वास के साथ रहूं । ये महल और मंदिर जो तीन-चार सौ साल से ज्यादा पुरानी नहीं है ,पुरातत्व के तर्क पर बहुत ज्यादा मजबूत नहीं है ,पर सरयू की उपस्थिति इतनी प्रामाणिक और विश्वसनीय है कि इतिहास और विश्वास दोनों को एकरूप कर देती है ।सीता की रसोई ,लक्ष्मण का घर ,मंथरा का निवास आदि कई नामकरण पुरातत्व की बजाय पुराण से संदर्भित है ,कुछ -कुछ पुरोहितवाद से भी ,परंतु आम भारत की इनके प्रति आस्था देखते ही बनती है ।किसी भी इतिहास को निरा तर्क से खंडित करने का साहस इनके प्रति नहीं हो सकता ।यह आस्था का इतिहास है ,और यह 'मैटर' को सीमित करता है ।परंतु इन आस्थाओं की एक सीमा होनी चाहिए ।आस्थाऍं देश ,समाज और मानवता को खंडित करने का प्रयास करें तो इनकी धुलाई-पोछाई और फिर से रँगाई होनी चाहिए,पर कौन रंगेगा इनको ।
और राम जब-जब अयोध्या से बाहर गए ,जो सबसे दृढ़ और निर्मल स्मरण था वह सरयू से ही संबंधित था ।सरयू की निर्मल और शांत धारा वे कभी भी भुला नहीं पाए ।इसी तट पर उनका शैशव और बचपन था ।मित्र थे ,गुरू थे ,मिथिलानी के साथ के वे समय ,जिन्हें धरती के जिस कोण रहे ,ह्रदय में रखे रहे ।अवध के किसानों की सहजता और दृढ़ता हरदम शक्ति के रूप में उनके साथ रही ।राम जब-जब अयोध्या में रहे ,सरयू और अवध शांति और समृद्धि के समरूप हो गए ।परंतु सरयू के जीवन में शांति कम ही रही है ।आज फिर सरयू अशांत था ,देश के विभिन्न नदियों ,नालों के जल सरयू में आ रहे थे ,सरयू का कछार ,पेटी और फिर छाती भर गया था ।अब पानी छाती से ऊपर बह रहा था ।यह सगुन नहीं था ,अवध के लिए और देश के लिए भी ।
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