महाकवि त्रिलोचन की 96 वीं जयन्ती पर उनकी कुछ कविताएँ
01.
भीख माँगते उसी त्रिलोचन को देखा कल
जिस को समझा था है तो है यह फ़ौलादी
ठेस-सी लगी मुझे, क्योंकि यह मन था आदी
नहीं; झेल जाता श्रद्धा की चोट अचंचल,
नहीं संभाल सका अपने को; जाकर पूछा
'भिक्षा से क्या मिलता है; 'जीवन' 'क्या इसको
अच्छा आप समझते हैं' 'दुनिया में जिसको
अच्छा नहीं समझते हैं करते हैं, छूछा
01.
भीख माँगते उसी त्रिलोचन को देखा कल
जिस को समझा था है तो है यह फ़ौलादी
ठेस-सी लगी मुझे, क्योंकि यह मन था आदी
नहीं; झेल जाता श्रद्धा की चोट अचंचल,
नहीं संभाल सका अपने को; जाकर पूछा
'भिक्षा से क्या मिलता है; 'जीवन' 'क्या इसको
अच्छा आप समझते हैं' 'दुनिया में जिसको
अच्छा नहीं समझते हैं करते हैं, छूछा
पेट काम तो नहीं करेगा' 'मुझे आप से
ऎसी आशा न थी' 'आप ही कहें, क्या करूँ,
खाली पेट भरूँ, कुछ काम करूं कि चुप मरूँ,
क्या अच्छा है ।' जीवन जीवन है प्रताप से,
स्वाभिमान ज्योतिष्क लोचनों में उतरा था,
यह मनुष्य था, इतने पर भी नहीं मरा था ।
02.
वही त्रिलोचन है, वह-जिस के तन पर गंदे
कपड़े हैं। कपड़े भी कैसे-फटे लटे हैं
यह भी फ़ैशन है, फ़ैशन से कटे कटे हैं।
कौन कह सकेगा इसका यह जीवन चंदे
पर अवलम्बित् है। चलना तो देखो इसका-
उठा हुआ सिर, चौड़ी छाती, लम्बी बाहें,
सधे कदम, तेजी, वे टेढ़ी मेढ़ी राहें
मानो डर से सिकुड़ रही हैं, किस का किस का
ध्यान इस समय खींच रहा है। कौन बताए,
क्या हलचल है इस के रुंधे रुंधाए जी में
कभी नहीं देखा है इसको चलते धीमे।
धुन का पक्का है, जो चेते वही चिताए।
जीवन इसका जो कुछ है पथ पर बिखरा है,
तप तप कर ही भट्ठी में सोना निखरा है।
03.
दर्शन हुए, पुनः दर्शन, फिर मिल कर बोले,
खोला मन का मौन, गान प्राणों का गाया,
एक दूसरे की स्वतन्त्र लहरों को पाया
अपनी अपनी सत्ता में, जैसे पर तोले
दो कपोत दाएँ, बाएँ स्थित उड़ते उड़ते
चले जा रहे दूर, क्षितिज के पार, हवा पर,
उसी तरह हम प्राणों के प्रवाह पर स्वर भर
लिख देते अपनी कांक्षाएँ। मुड़ते मुड़ते
पथ के मोड़ों पर, संतुलित पदों से चलते
और प्राणियों के प्रवेग की मौन परीक्षा
करते हैं इस लब्ध योग की सहज समीक्षा।
शक्ति बढ़ा देती है, नए स्वप्न हैं पलते।
विपुला पृथ्वी और सौर-मंडल यह सारा
आप्लावित है; दो लहरों की जीवन-धारा।
04.
यदि मैं तुम्हारे प्रिय गान नहीं गा सका तो
मुझे तुम एक दिन छोड़ चले जाओगे
एक बात जानता हूँ मैं कि तुम आदमी हो
जैसे हूँ मैं जो कुछ हूँ तुम वैसे वही हो
अन्तर है तो भी बड़ी एकता है
मन यह वह दोनों देखता है
भूख प्यास से जो कभी कही कष्ट पाओगे
तो अपने से आदमी को ढूंढ़ सुना आओगे
प्यार का प्रवाह जब किसी दिन आता है
आदमी समूह में अकेला अकुलाता है
किसी को रहस्य सौंप देता है
उसका रहस्य आप लेता है
ऎसे क्षण प्यार की ही चर्चा करोगे और
अर्चा करोगे और सुनोगे सुनाओगे
विघ्न से विरोध से कदापि नहीं भागोगे
विजय के लिए सुख-सेज तुम त्यागोगे
क्योंकि नाड़ियों में वही रक्त है
जो सदैव जीवनानुरक्त है
तुमको जिजीविषा उठाएगी, चलाएगी,
बढ़ाएगी उसी का गुन गाओगे, गवाओगे
05.
लाशों की चर्चा थी, अथवा सन्नाटा था
राज्यपाल ने दावत दी थी, हा हा ही ही,
चहल-पहल थी, सागर और ज्वार-भाटा था ।
जो सुनता था वही थूकता था, "यह। छी-छी ।
यह क्या रंग-ढंग है। मानवता थोड़ी सी
आज दिखा दी होती ।" "वे साहित्यकार हैं",
कहा किसी ने । औरत बोली झल्लाई सी-
"बादर होइँ, पहाड़ होइँ, आपन कपार हैं ।"
पति ने कहा, "होश में बोलो ।" "धुआँधार हैं
उन के भाषण संस्कृति पर ।" "कोई तो स्याही
जा कर मुँह पर मल देता ।" "ये भूमिहार हैं..."
"कर की कालिख़ आप पोत ली है मनचाही ।"
भय का कंपन आज वायु में भरा-भरा था,
छाती पर जो घाव लगा था, हरा-हरा था।
ऎसी आशा न थी' 'आप ही कहें, क्या करूँ,
खाली पेट भरूँ, कुछ काम करूं कि चुप मरूँ,
क्या अच्छा है ।' जीवन जीवन है प्रताप से,
स्वाभिमान ज्योतिष्क लोचनों में उतरा था,
यह मनुष्य था, इतने पर भी नहीं मरा था ।
02.
वही त्रिलोचन है, वह-जिस के तन पर गंदे
कपड़े हैं। कपड़े भी कैसे-फटे लटे हैं
यह भी फ़ैशन है, फ़ैशन से कटे कटे हैं।
कौन कह सकेगा इसका यह जीवन चंदे
पर अवलम्बित् है। चलना तो देखो इसका-
उठा हुआ सिर, चौड़ी छाती, लम्बी बाहें,
सधे कदम, तेजी, वे टेढ़ी मेढ़ी राहें
मानो डर से सिकुड़ रही हैं, किस का किस का
ध्यान इस समय खींच रहा है। कौन बताए,
क्या हलचल है इस के रुंधे रुंधाए जी में
कभी नहीं देखा है इसको चलते धीमे।
धुन का पक्का है, जो चेते वही चिताए।
जीवन इसका जो कुछ है पथ पर बिखरा है,
तप तप कर ही भट्ठी में सोना निखरा है।
03.
दर्शन हुए, पुनः दर्शन, फिर मिल कर बोले,
खोला मन का मौन, गान प्राणों का गाया,
एक दूसरे की स्वतन्त्र लहरों को पाया
अपनी अपनी सत्ता में, जैसे पर तोले
दो कपोत दाएँ, बाएँ स्थित उड़ते उड़ते
चले जा रहे दूर, क्षितिज के पार, हवा पर,
उसी तरह हम प्राणों के प्रवाह पर स्वर भर
लिख देते अपनी कांक्षाएँ। मुड़ते मुड़ते
पथ के मोड़ों पर, संतुलित पदों से चलते
और प्राणियों के प्रवेग की मौन परीक्षा
करते हैं इस लब्ध योग की सहज समीक्षा।
शक्ति बढ़ा देती है, नए स्वप्न हैं पलते।
विपुला पृथ्वी और सौर-मंडल यह सारा
आप्लावित है; दो लहरों की जीवन-धारा।
04.
यदि मैं तुम्हारे प्रिय गान नहीं गा सका तो
मुझे तुम एक दिन छोड़ चले जाओगे
एक बात जानता हूँ मैं कि तुम आदमी हो
जैसे हूँ मैं जो कुछ हूँ तुम वैसे वही हो
अन्तर है तो भी बड़ी एकता है
मन यह वह दोनों देखता है
भूख प्यास से जो कभी कही कष्ट पाओगे
तो अपने से आदमी को ढूंढ़ सुना आओगे
प्यार का प्रवाह जब किसी दिन आता है
आदमी समूह में अकेला अकुलाता है
किसी को रहस्य सौंप देता है
उसका रहस्य आप लेता है
ऎसे क्षण प्यार की ही चर्चा करोगे और
अर्चा करोगे और सुनोगे सुनाओगे
विघ्न से विरोध से कदापि नहीं भागोगे
विजय के लिए सुख-सेज तुम त्यागोगे
क्योंकि नाड़ियों में वही रक्त है
जो सदैव जीवनानुरक्त है
तुमको जिजीविषा उठाएगी, चलाएगी,
बढ़ाएगी उसी का गुन गाओगे, गवाओगे
05.
लाशों की चर्चा थी, अथवा सन्नाटा था
राज्यपाल ने दावत दी थी, हा हा ही ही,
चहल-पहल थी, सागर और ज्वार-भाटा था ।
जो सुनता था वही थूकता था, "यह। छी-छी ।
यह क्या रंग-ढंग है। मानवता थोड़ी सी
आज दिखा दी होती ।" "वे साहित्यकार हैं",
कहा किसी ने । औरत बोली झल्लाई सी-
"बादर होइँ, पहाड़ होइँ, आपन कपार हैं ।"
पति ने कहा, "होश में बोलो ।" "धुआँधार हैं
उन के भाषण संस्कृति पर ।" "कोई तो स्याही
जा कर मुँह पर मल देता ।" "ये भूमिहार हैं..."
"कर की कालिख़ आप पोत ली है मनचाही ।"
भय का कंपन आज वायु में भरा-भरा था,
छाती पर जो घाव लगा था, हरा-हरा था।
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