छह साल से हम लोग लगे हुए थे ......पंडित जाति का था अधिकारी .....जब भी मिलते पैर छू लेते ,हमारे दादा भी 'पांउ लागी' तो कहते ही थे.............हम सारे लोग एक ही चीज की मांग कर रहे थे कि हमारा चक पासियों के बीच से हटाइए....दूसरी चकबंदी थी ,और यही मौका था कि हम लोग किसी दूसरे क्षेत्र में अपना चक बनबा लें .......साहब खरचा-बरचा की बात तो हमने खुल के कहा .........पर हरदम ईमानदारी का झौंस देता था...........अब जब चक बन रहा है तो नियम-कानून पाद रहा है .......कहते हैं कि लेलो पचास-साठ हजार तुम भी खुश ,हम भी खुश ,पर हमारा काम करते गांड फट रही है ,जैसे कि सरकार राजधानी से हमारा चक और इनका जेब ही चेक कर रही है ।साहब बार-बार कहा कि किसी भी तरह से हम लोगों का चक यहां से हटाओ....अब कितना कहें कि सुबह-शाम आप खेत की ओर घूम नहीं सकते ।हमारे ही खेत में दिसा-मैदान करना ,इसी में साग-पात करना ,इसी में घास छिलना और रोको तो गाली-गलौज ,मार-पीट ,पर ये सब कहके क्या होगा ,काम जब होना ही नहीं है ।तुम अपना कानून अपने गां... में रखो ,हम अपना चक अपने गां... में रखते हैं ।पैसा रहेगा ,तो तुम नहीं करोगे ,कोई और करेगा ,तुम नहीं तुम्हारा साहेब करेगा ,वह तुम्हीं से कराएगा ,और तूम जीसर ,यससर कहके करोगे .........
(रसूलपुर डायरी 1)
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