ओ निरंकुश स्वेच्छाचारी मनमौजी संपादक
राजतंत्र के समाप्त होने के बाद
झेल रहा तुझे दो सौ साल से
तेरा ही वाद, आंदोलन
तेरी कविता तेरा जीवन
तेरी ही आंख से देखता
विरक्ति व समर्पण
तेरे ही यति,छंद,गीत
क्या वसंत क्या शीत
स्वार्थ का मितकथन
हित का अतिरेक
कहां था इसमें
आलोचना का विवेक ।
जिसको चाहा
छाप ली
इसी तरह लौटाई
जूही की कली ।
वादों आंदोलनों की महाशती
से विचरता
मैं आ पहुंचा वाद के अंत तक
तुमने यह भी बताया कि
विचारधारा व इतिहास का भी अंत हो चुका है
तुने यह नहीं बताया कि विद्वता का भी अंत हो चुका है
खतम हो चुका है वह छन्नी
मर चुका है संपादक
संपादक के गल चुके गर्भ से ही
ब्लाग का जन्म हुआ ।
राजतंत्र के समाप्त होने के बाद
झेल रहा तुझे दो सौ साल से
तेरा ही वाद, आंदोलन
तेरी कविता तेरा जीवन
तेरी ही आंख से देखता
विरक्ति व समर्पण
तेरे ही यति,छंद,गीत
क्या वसंत क्या शीत
स्वार्थ का मितकथन
हित का अतिरेक
कहां था इसमें
आलोचना का विवेक ।
जिसको चाहा
छाप ली
इसी तरह लौटाई
जूही की कली ।
वादों आंदोलनों की महाशती
से विचरता
मैं आ पहुंचा वाद के अंत तक
तुमने यह भी बताया कि
विचारधारा व इतिहास का भी अंत हो चुका है
तुने यह नहीं बताया कि विद्वता का भी अंत हो चुका है
खतम हो चुका है वह छन्नी
मर चुका है संपादक
संपादक के गल चुके गर्भ से ही
ब्लाग का जन्म हुआ ।
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