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Tuesday, 22 November 2011
निशांत झा की कविताएं
निशांत झा हिंदी और उर्दू कविता के बीच सेतु बनाते हुए अपना शिल्प और मुहावरा गढ़ने के लिए कटिबद्ध है । इनकी गजलों में एक नये लेखक की कच्ची मिट्टी की सुगंध आपको अनायास ही मिल जाएगी ।यह गंध जहां इनकी पहचान है ,वहीं भविष्य की अच्छी कविता का संकेत भी ।अच्छे कुम्हार की तरह उनको भी बहुत कुछ मथना है अभी ।
ज़िंदगी के पेच ओ ख़म से हम नहीं थे वाकिफ मगर ,
हम जिए ,दिल से जिए ,छोरी नहीं कोइ कसर !
तू सरापा खूब -सूरत थी , मगर ई ज़िंदगी !
हम ने ही पायी नहीं थी देखने वाली नज़र !
रूह क्या है , सागर ऐ नूर ऐ खुदा की बूँद है ,
चैन आ जाए उसे , सागर में मिल जाए अगर !
दिएर की क्यों ख़ाक छाने , जब वो हर ज़र्रे में है ,
क्यों न उसके अक्स को दिल में तलाशे हर पहर !
हम ग़रीबों के मुक़द्दर में कहाँ गुलशन लिखे ?
हमने काग़ज़ के गुलों पे इत्र छिरका उम्र भर !
:चैन : था या जीस्त के साहिल पे लिक्खा लफ्ज़ था ,
जब मिला तब तब मिटाने आ गयी ग़म की लहर !
2
पहले था सुना , अब यक़ीन सा हो चला है,
हर शख्स क्यों यहाँ बिका बिका सा लगा है |
ग्राहक तो हमेशा ख़ुश दिखते हैं बाज़ारों में,
हर ख़रीददार भी क्यों यहाँ लुटा लुटा लगा है |
इंसान ही बिकते हैं, इंसान ही ख़रीददार हैं,
इस जहाँ मैं आज , इंसानो का बाज़ार लगा है |
हर शख्स ने ख़ुद ही तय कर रखी हैं अपनी क़ीमतें,
कहीं जज़्बात ,कहीं ईमान, कहीं तन, का तख़्त लगा है |
क्या क्या नहीं करता इंसान पेट की खातिर,
ज़मीर के कमरे पे आज, भूख का ताला लगा है |
3
अपनी फूटी किस्मत से रो के बोली इक बेवह
क्या खता हुई मुझसे जो बना दिया विधवा
मांग का सिन्दूर उज्र ख़ाली है कलाई भी
अब तो बस मुक़द्दर में है सुफैद इक साड़ी
हाथ में नह चूरी है और न पाऊँ में पायल
मिट गया मेरा हर सुख हो गया है दिल घायल
अब कहाँ रहा बिस्टर मैं हूँ और चटाई है
घर का एक कोना ही बस मेरी खुदैई है
मुझ से हर खुशी रूठी रुंज -ओ -ग़म ने घेरा है
कुछ नज़र नहीं आता हर तरफ अँधेरा है
इक सिन्दूर मिटते ही मांग हो गयी सूनी
अब खमोश रहती हूँ पहले थी मैं बातूनी
अपनी अपनी खुशियों में लोग चूर रहते हैं
अब तो मेरे अपने भी मुझ से दूर रहते हैं
कितनी सदा -ओ -बेरुंग अब मेरी कहानी है
बस सफेद कपरों में ज़िंदगी बितानी है
देके रंज -इ तन्हाई उम्र भर का ग़म बख्शा
ऐ फलक यह बतला डे क्या कुसूर था मेरा
4
गूँथ रहा है सुबह से जगकर,
रिश्तों की चौखट पर।
माथे पर बल आ जाता है ,
थोड़ी सी आहट पर।।
कितने धागे कितनी लड़ियाँ,
कितने रंग के दाने हैं।
गिनता है बिसराता है,
प्यार भरी मुस्काहट पर।।
तपते दिन और शीतल रातें,
मशरूफी हर मौसम में।
रोज यहाँ पछताता है,
बिस्तर की सिलवट पर।।
'इश्क' ये इन्सां का अफसाना,
रिश्ते बुनते जाना है।
नए सहारे खोज रहा है,
हर दिल की अकुलाहट पर।।
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बहुत बढ़िया
ReplyDelete@रविभूषण पाठक जी जैसा कि निशांत जी समेत हरेक हिंदी गजलकार बहर का पालन करते हैं मगर जब मैथिली के शाइर बहर की बात करते है तो आपका स्वगत-कथन आता हैं कि मैथिली के शाइर गजल को पारंपरिक कर उसे प्राचीन बना रहे है। कृप्या आप यह बता सकते हैं की गजल को लेकर यह विरोधाभाष आपके मन मे क्यों है। जबाब केलिये प्रतीक्षारत........
ReplyDeleteश्रीमान् हम निशांत झाकेँ प्रतिभाशाली बुझैत छलिअन्हि। खास कए अहाँक प्रोत्साहन पाबि ओ आर निफिकिर भए गेल छलाह। मुदा की ई उचित छै जे दोसरकेँ रचना अपना नाम कए क कवि कहाबी। हम अपनेक वाल पर ई नै देबए चाहैत छलहु मुदा चूँकि अहाँ निशांत जीकेँ फैन छिअन्हि तँए हमरा मजबूरीमे ई देबए पड़ि रहल अछि.....
ReplyDeleteNishant Jha
हर दिन तो नहीं बाग़ , बहारों का ठिकाना !
गुलदान को कागज़ के गुलों से भी सजाना !
मुश्किल है चिराग़ों की तरह खुद को जलाना !
भटके हुए राही को डगर उसकी दिखाना !
क्या खेल है फेहरिस्त गुनाहों की मिटाना ?
जन्नत के तलबगार का गंगा में नहाना !
तू खैर ! मुसाफिर की तरह आ ! मगर आना !
इक शाम मेरे क्हानाह ऐ दिल में भी बिताना !
इक मैं हूँ जो गाता हूँ वो ही राग पुराना ,
इक उनका रिवाजों की तरह मुझ को भुलाना!
दर्द आह ओ फुगाँ बन के हालाक तक भी न आया !
क्या कीजे न आया जो हमें अश्क बहाना !
अफ़सोस कह अब यह भी रिवायत नहीं होगी ,
खुशियों में परोसी का परोसी को बुलाना !
सुलझी है , न यह जीस्त की सुलझे गी पहेली !
लोगों ने तमाम उम्र गवा दी तो यह जाना !
बदला ही नहीं हाल ऐ ज़माना ओ जिगर , "निशांत "
फिर कैसे नयी बात , नए शेर सुनाना ? — with Chitranshu Karna and 45 others.
Like · · Share · 26 minutes ago ·
Abhishek Singh Deepak, Shailesh Jha Bibas, Amit Mishra and 4 others like this.
1 share
Mala Choudhary woh woh !!!
20 minutes ago · Like · 1
Nishant Jha behad sukriyaah....Mala Choudhary jee
17 minutes ago · Like
Amit Mishra mast
17 minutes ago · Like
Nishant Jha bahoot bahoot dhanyvad Amit jee
16 minutes ago · Like
Ashish Anchinhar मुझे होता था कि निशांत जी बहुत ही प्रतिभाशाली है। बहुत ही अच्छी गजल लिखते हैं मगर आज ये राज खुला कि निशांत जी साहित्यिक चोर हैं। वैसे हमारे रविभूषण पाठक जी निशांत जीके बहुत बड़े फैन है। उपर जो गजल निशांत जी ने अपनी गजल कह कर दी है ( मकता मे निशांत) यह गजल धीरज आमेटा धीर का है। कविता कोष का लिंक दे रहा हूँ।http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%B9%E0%A4%B0_%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%A8_%E0%A4%A4%E0%A5%8B_%E0%A4%A8%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%82_%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BC%2C_%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%82_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%A0%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BE%21_%2F_%E0%A4%A7%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A4%9C_%E0%A4%86%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%9F%E0%A4%BE_%E2%80%98%E0%A4%A7%E0%A5%80%E0%A4%B0%E2%80%99.