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Sunday, 11 March 2012
मायामृग :लेखन और प्रकाशन का सच
आप मित्रों की सार्थक चर्चा के बीच कुछ कहने का साहस कर रहा हूं जो संभवत: अप्रिय लग सकता है पर हमें प्रकाशन और लेखक के बीच के संबंध और बाजार के साथ उसके त्रिकोण को नए सिरे से समझने की जरुरत जान पड़ती है। कुछ बातें यहां उल्लेखनीय हैं-
1. यह सही है कि प्रकाशकों ने ऐसा वातावरण बना दिया है कि लगने लगा है वहां सब गलत ही गलत है, सही कुछ हो नहीं सकता।
2. कविताओं की पुस्तकें सर्वाधिक लिखी और प्रकाशित की जा रही हैं उनमें से बहुत कम ही प्रभाव छोड़ पाती हैं और बिक्री के मामले में तो यह आंकड़ा और कम रह जाता है।
3. एक महत्वपूर्ण सवाल बिक्री का-
निवेदन यह कि हिन्दी पुस्तकों का बाजार दो जगह है
एक हिन्दी पुस्तकालय, सरकारी या गैर सरकारी खरीद के जरिये
दूसरा सीधे पाठकों को बिक्री
पुस्तकालयों में खरीद की पूरी प्रक्रिया अपारदर्शी और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाली है। अधिकांश राज्यों में सरकारी खरीद के लिए पहले खुद सरकार तीस से पैंतीस प्रतिशत छूट मांगती हैं और राज्य के विभिन्न पुस्तकालयों में वितरण के लिए वितरण व्यय के नाम पर पांच प्रतिशत अलग से राशि पहले प्रकाशक से ले ली जाती है।
यानी सौ रुपये की किताब 135 रुपये की तो यहीं हो गई। इसमें प्रकाशक के ट्रांसपोटेशन, पैकेजिंग आदि के व्यय जोड़ दें तो यह 140 रुपये हो जाती है। इसके बाद खरीद का तंत्र जिस तरह काम करता है वह मुझे नहीं लगता किसी प्रकाशक या लेखक से छिपा हुआ है। ऐसे में प्रकाशक अगर इस किताब की कीमत 200 से ऊपर ना करे तो उसके पास लागत भी लौटना मुश्किल हो जाए। यानी किसी भी किताब की कीमत यहां दुगुनी स्वाभाविक रुप से हो जाती है।
कविताओं की पुस्तकें अघोषित तौर पर आमतौर पर सरकारी खरीद में दोयम मानी जाती हैं। यथासंभव गद्य विधाओं की खरीद को प्राथमिकता दी जाती है।
दूसरा तरीका है सीधे पाठकों को विक्रय। जिन मित्रों ने पुस्तक मेले में कविताओं की पुस्तकें बिकती हुई देखी हैं उनसे जानना रुचिकर होगा कि किसी काव्य पुस्तक की कितनी प्रतियां उनके अनुसार विक्रय होती होंगी...। बेहतरीन कविताओं की पुस्तक की 100 प्रतियां अगर पूरे मेले के दौरान बिक जाएं तो यह बड़ी से भी बड़ी उपलब्धि मानी जानी चाहिए। यहां जरुर ध्यान रहे कि पुस्तक मेले में स्टॉल और उसे चलाए रखने का व्यय जोड़ा जाना चाहिए। यह बिक्री केवल तभी संभव है जब पुस्तक का मूल्य 50 रुपये से कम हो। इससे अधिक होते ही कविता पुस्तक की बिक्री नगण्य हो जाती है। हम अपने ही लेखक मित्रों से जान सकते हैं कि उन्होंने इस शानदार मेले में कविताओं की कितनी पुस्तकें खरीदी....किस दाम की...;।
अब रही बात नए लेखकों की तो एक साधारण सा प्रश्न है कि कोई प्रकाशक हमारी किताब अपने पूरे व्यय पर क्यों छापे...एक 100 पेज की पुस्तक मोटे तौर पर 20 हजार के लगभग व्यय पर छपती है, अनेक तरह की छीजत, मुफ्त भेंट, समीक्षा आदि के लिए भेजे जाने के व्यय इसमें जोड़ लें। तो लगभग 22 से 25 हजार रुपये में स्तरीय मुद्रण प्रकाशन संभव हो पाएगा। अब इसकी बिक्री की गति और दर तय करें। एक पुस्तक की बिक्री में दी जानी वाली छूट, विक्रय प्रतिनिधि के व्यय, ट्रांसपोटेशन, डेमेज आदि भी गिन लिए जाएं। एक साल में यदि उस पुस्तक की 100 से 150 प्रतियां बिक्री हों तो आप अनुमान लगा सकते हैं कि इस पुस्तक की लागत कितने समय में लौटेगी और प्रकाशक जो कि व्यवसायी भी है, उसका लाभांश कितने समय बाद और कितना आएगा....आएगा भी कि नहीं..;। यह खतरा कोई प्रकाशक कब उठाना चाहेगा, और किसके लिए यह विचारणीय सवाल है।
प्रकाशक के पास नित्य प्रकाशनार्थ आने वाली पांडुलिपियों की संख्या जान लें तो पता लगेगा कि यदि रोजाना तीन किताब छापें तो भी किसी किताब का नंबर साल भर से पहले नहीं आएगा...वह भी तब जबकि पांच में से एक पांडुलिपि ही छपे...शेष चार लौटा दी जाएं। इस गति से छापने के लिए प्रकाशक को हर माह लाखों रुपये की जरुरत होगी। यह ऐसा इनवेस्टमेंट होगा जिसके लाभ की कोई गारंटी नहीं, मूल लौटने का भी तय नहीं। ऐसे में उसे पहली खरीद की प्रक्रिया की तरफ आकर्षित होने से रोकना मुश्किल ही होगा। और ऐसे में प्रकाशक केवल भरोसे के नाम ही छापना पसंद करेगा, जिनकी बिक्री की संभावना नए लेखकों की तुलना में काफी अधिक है। आज भी मुंशी प्रेमचंद की किताब छापना किसी नए कहानीकार की िकताब की तुलना में कहीं अधिक बिकती है। ऐसे में क्या किया जाए। क्या नए लेखकों की किताब छापना बंद हो जाए...या सौं में से एकाध ही छापी जाए। पिफर आने वाली नई पीढ़ी कहां से आएगी...। नए रचनाकार कितने भी प्रतिभाशाली हों, उन्हें सामने लाने का काम कैसे हो....।
क्या ऐसा संभव है कि प्रकाशकों को दोष देने की बजाए सीधे पाठक तक बिक्री का ऐसा तंत्र विकसित किया जाए कि किसी प्रकाशक को अच्छी किताब लेखक का नाम देखे बिना छापने में संकोच ना हो। क्या हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि किसी िकताब की चार से पांच सौ प्रतियां विक्रय हो सकें, ऐसा कर पाएं तो यह नए रचनाकारों और प्रकाशन जगत सबके लिए हितकारी होगा।
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आभार रविभूषण जी, विचार साझा करने के लिए
ReplyDeleteमेरा ऐसा ही विमर्श पुस्तक मित्र पर चल रहा है रवि जी ………एक नया बाज़ार तो विकसित करना ही होगा। जल्द ही पूरा आलेख लगाऊँगी अपने ब्लोग पर ।
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