आचार्य हजारी
प्रसाद द्विवेदी
सांस्कृतिक निरंतरता और अखंडता के बोध
के साथ पदार्पण ।अनुसंधानपरक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को आधार बनाकर
समीक्षा कार्य कार्य ।नवीन मानवतावाद और समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण के कारण उनका
पांडित्य सर्वस्वीकार्य ।संस्कृत साहित्य ,रवीन्द्र साहित्य तथा लोकोन्मुख
आधुनिक बोध से एक नए तरह का आलोचना ।
दृष्टि--
दृष्टि--
1स्व्च्छन्दतावादी एवं ऐतिहासिक
समीक्षा शैली जो क्रमश: मानवतावादी एवं समाजवादी मूल्यों को स्वीकारने से पुष्ट
होती चली गयी है ।
2 हिन्दी साहित्य को ‘भारतीय चिन्ता का स्वाभाविक विकास’ माना , ‘हतदर्प पराजित जाति की सम्पत्ति’ नहीं ।
3व्याख्यात्मक आलोचना पर्याप्त नहीं
,आलोचना का मूल्यांकन आवश्यक ।इसके लिए संस्कृत के लक्षणग्रंथ पर्याप्त नहीं ।
4साहित्य का चरम लक्ष्य – ‘मनुष्य’ ।
5 यथार्थ का मतलब प्रकृतवादी असीमित यथार्थ नहीं , कला माध्यमों के विशिष्ट प्रयत्नों एवं चयनों का महत्व स्वीकारा ।
5 यथार्थ का मतलब प्रकृतवादी असीमित यथार्थ नहीं , कला माध्यमों के विशिष्ट प्रयत्नों एवं चयनों का महत्व स्वीकारा ।
6 जीवन और साहित्य राजनीति ,अर्थनीति
,आधुनिक विज्ञान के बिना मात्र वाक्विलास ।
7 कविता भी ‘स्वर्गीय कुसुम’ नहीं ।यह केवल कौशल नहीं ।
8 लोकभाषा ही वास्तविक और सच्ची भाषा
।इसकी शैली सहज ,आडम्बररहित एवं प्रसन्न ।इसी में शक्ति और प्रभाव ।
8 छन्द को रसानुभव का सहायक माना ,जो
वाणी में आवेश की गति आ जाने से भावावेग के प्रकाशन में सुविधा करती है ।
9 शब्दों को कवि के देश-काल से जोड़ना ।
9 शब्दों को कवि के देश-काल से जोड़ना ।
10आदिकालीन साहित्य के विरोधाभासों की
काव्य-रूढि़यों एवं कथानक-रूढि़यों के माध्यम से व्याख्या ।
11 साहित्य को वृहत सांस्कृतिक आयामों
से जोड़ा ।साहित्य के साथ ही उस युग की समस्त साधनाओं- नृत्य ,कला ,इतिहास
,विज्ञान आदि की बात भी करते हैं ।
योगदान/ व्यावहारिक समीक्षा
1’सूर-साहित्य’ को भक्तिशास्त्र और समाजशास्त्र की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर आकलित किया
।कृष्ण के व्यक्तित्व में समाहित विभिन्न धर्म साधनाओं के मार्मिक तत्वों की
व्याख्या ।राधा को ‘लिरिकल’ पात्र माना ,तथा
सूर-सागर को गीति काव्यात्मक मनोरागों पर आधारित विशाल महाकाव्य ।
2 कबीर के काल,समाज एवं व्यक्तित्व के
विभिन्न गांठों को अपने ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक गांठों से खोला ।कबीर को मूलत:
भक्त माना ,तथा उनकी छन्द योजना ,उक्ति-वैचित्र्य और अलंकार-विधान के स्वाभाविक
और अयत्नसाधित रूप का उद्घाटन किया ।कबीर काव्य के विभिन्न शब्दों को कवि के
देश-काल से जोड़ा ।
3 ‘जायसी’ ,कृष्ण काव्य के श्रोत एवं स्वरूप , ‘केशव’ ,’रीतिकाव्य’ तथा ‘बिहारी’ के संबंध में चिंतन ने शुक्ल जी के चिंतन को पुष्ट किया ।
4 नन्ददुलारे वाजपेयी के विपरीत ‘तुलसीदास’ ,’राम की शक्तिपूजा’ और ‘सरोज स्मृति’ को निराला का श्रेष्ठ रचना कहा ।
3 ‘जायसी’ ,कृष्ण काव्य के श्रोत एवं स्वरूप , ‘केशव’ ,’रीतिकाव्य’ तथा ‘बिहारी’ के संबंध में चिंतन ने शुक्ल जी के चिंतन को पुष्ट किया ।
4 नन्ददुलारे वाजपेयी के विपरीत ‘तुलसीदास’ ,’राम की शक्तिपूजा’ और ‘सरोज स्मृति’ को निराला का श्रेष्ठ रचना कहा ।
5 प्रेमचन्द को महान प्रगतिशील लेखक के
रूप में याद किया ।
6आधुनिकता की सबसे पहले व्याख्या ।अनासक्त भाव से देखना और व्यक्ति से अधिक दृश्य(परिवेश) को मानना आधुनिकता की बुनियादी शर्त ।उन्होंने आधुनिकता की व्याख्या में परलोक के स्थान पर इहलोक और व्यष्टि के स्थान पर समष्टि को महत्वपूर्ण माना।
7 अपने निबंधों एवं समीक्षा आलेखों में आलोचनात्मक शब्दों ----कृती-तत्वान्वेषी ,विनिवेशन ,अन्यथाकरण ,अन्वयन ,भावानुप्रवेश ,यथालिखिताभाव आदि के द्वारा हिंदी आलोचना को समृद्ध किया ।
6आधुनिकता की सबसे पहले व्याख्या ।अनासक्त भाव से देखना और व्यक्ति से अधिक दृश्य(परिवेश) को मानना आधुनिकता की बुनियादी शर्त ।उन्होंने आधुनिकता की व्याख्या में परलोक के स्थान पर इहलोक और व्यष्टि के स्थान पर समष्टि को महत्वपूर्ण माना।
7 अपने निबंधों एवं समीक्षा आलेखों में आलोचनात्मक शब्दों ----कृती-तत्वान्वेषी ,विनिवेशन ,अन्यथाकरण ,अन्वयन ,भावानुप्रवेश ,यथालिखिताभाव आदि के द्वारा हिंदी आलोचना को समृद्ध किया ।
सीमा--
1मनुष्यता को रस और साहित्य का पर्याय मान लिया ।इससे साहित्य और असाहित्य के बीच कोई विभाजक रेखा खींचना संभव नहीं हो पाता ।
2राम स्वरूप चतुर्वेदी का मानना है कि अपने युग के साहित्य के प्रति उनकी समझदारी और साझेदारी सीमित रही है ।
(रवि भूषण पाठक)
1मनुष्यता को रस और साहित्य का पर्याय मान लिया ।इससे साहित्य और असाहित्य के बीच कोई विभाजक रेखा खींचना संभव नहीं हो पाता ।
2राम स्वरूप चतुर्वेदी का मानना है कि अपने युग के साहित्य के प्रति उनकी समझदारी और साझेदारी सीमित रही है ।
(रवि भूषण पाठक)
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