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Friday, 25 January 2013

मोती बी0 ए0 और दिनकर

भाई अनिल कुमार त्रिपाठी ने हिन्‍दी और भोजपुरी के प्रसिद्ध कवि-गीतकार मोती बी0ए0 पर विस्‍तार से बताया ।अनिल मानते हैं कि हिंदी फिल्‍मों से लगाव और उन संस्‍कारों को ज्‍यादा महत्‍व देने से कवि की रचनात्‍मकता और उनकी स्‍वीकृति प्रभावित हुई ।बाद में बरहज जैसे छोटे कस्‍बे में आने से उनके जीवन और संघर्ष से वह ताप खतम हो गया ,जो उनके गाने में देखे सुने गए ।


एक बार मोती बी0ए0 ने दिनकर की प्रसिद्ध पंक्तियों को आधार बनाते हुए एक कविता लिखी

हटा पंथ के मेघ व्‍योम में स्‍वर्ग लूटने वाले
अकुलाए बच्‍चों के हित में दूध छीनने वाले
कहां गए वो कवि दिनकर राष्‍ट्रीय कहाने वाले
सरकारी ओहदे पाकर गद्दारी करने वाले


अनिल बताते हैं कि यह कविता उन्‍होंने दिनकर के भागलपुर विश्‍वविद्यालय के कुलपति के पद स्‍वीकारने के बाद लिखी थी ।परंतु अनिल जी के पिता जी (श्री वीरेंद्र त्रिपाठी) के आग्रह पर उन्‍होंने दिनकर का नाम हटाकर महान शब्‍द जोड़ दिया ।





 

Wednesday, 16 January 2013

प्रभात मिलिंद की कविताएं

मुम्‍बई 2008 :कुछ दृश्‍यांश (श्री रा0 ठा0 के लिए सादर)


1

जिस शहर के बारे में कभी इल्‍म था उनको
कि जहां हर किसी के लिए गुजर-बसर है
कि जो कोई एक बार आया यहां ,फिर लौट कर वापस नहीं गया कभी
कि जहां जिंदगी का एक नाम बेफिक्री और आजादी है
कि जहां प्रेम करना दुनिया में सबसे निरापद है
कि जहां आधी रात को भी सड़कों पर बेखौफ भटकता है जीवन
         
                         कितनी हैरत की बात है
                         एक रोज उसी शहर से मार भगाया गया उनको
                           और वह भी एकदम दिनदहाड़े


2
वे कीड़ों-मकोड़ें की तरह सर्वत्र उपस्थ्‍िात थे
मुंबई से लेकर डिब्रूगढ़ तक ......और दिल्‍ली से कोलकाता तक
इसके बावजूद वे कीड़ों-मकोड़ों की तरह अनुपयोगी और संक्रामक नहीं थे

                         सिर्फ दो वक्‍त की रोटी की गरज में
                        हजारों मील पीछे छोड़ आए थे वे अपनी जमीन और स्‍मृतियां
                        वे माणूस भी नहीं थे ,बस दो अदद हाथ थे
                       जो हमेशा से ही शहर और जिंदगी के हाशिये पर रहे
                      लेकिन उनकी ही बदौलत टिका रहा शहर अपनी धुरी पर
                     और उसमें दौड़ती रही जिंदगी बखूबी

खेतों की मिट्टी में उसके पसीने का नमकीन स्‍वाद था
कारखाने और इमारतों की नींव में उनके रक्‍त की गंध

                     दरअसल वे जन्‍मे ही थे इस्‍तेमाल के लिए
                      और इसीलिए मुंबई से लेकर डिब्रूगढ़ तक
                     और दिल्‍ली से कोलकाता तक सर्वत्र उपस्थित रहे

लेकिन अंतत: वे कीड़े-मकोड़ों की तरह ही घृणित और अवांछित माने गए
और मारे भी गए कीड़े-मकोड़ों की ही तरह

3

वे इस दुनिया में नए वक्‍त के सबसे पुराने खानाबदोश हैं.....
उनके कंधे और माथे पर जो गठरियां और टिन के बक्‍से हैं
दरअसल वही हैं उनका घर-संसार
लिहाजा चाह कर भी आप उनको बेघर या शहरबदर नहीं कर सकते


                      आप उनको एक दिन पृथ्‍वी के कगार से धकेल कर
                     इतिहास के अंतहीन शून्‍य में गिरा देने की जिद में है
                    लेकिन यह फकत आपकी दिमागी खब्‍त है
                   इससे पहले कि आप इस कवायद से थक कर जरा सुस्‍ता सकें,
                  वे इसी इतिहास की सूक्ष्‍म जड़ों के सहारे
                  पृथ्‍वी के पिछले छोर से अचानक दोबारा प्रकट हो जाएंगे


वे इस दुनिया के नए वक्‍त के सबसे पुराने खानाबदोश हैं.......
(प्रभात मिलिंद)
मो0 09435725739


(साभार 'शुक्रवार ,साहित्‍य वार्षिकी 2013)









































Tuesday, 15 January 2013



गणमान्‍य तुम्‍हारी........

वह बीस वर्षों से 'दीप प्रज्‍जवलन' की दुनिया में है
और इस दरमियान वह करीब बीस हजार बार दीप प्रज्‍ज्‍वलित कर चुका है
इस एकरसता में एक सरसता अनुभव करता हुआ
वह सुरक्षा कारणों से अब तक टमाटरों ,अंडों ,जूतों ,पत्‍थरों ,थप्‍पड़ों
और गोलियों से तो दूर हैं लेकिन गालियों से नहीं

एक सघन हाशिये से लगातार सुनाई दे रही गालियों के बरअक्‍स
यह है कि दीप पर दीप जलाता जा रहा है
इस 'उत्‍सवरक्षतमदग्रस्‍त' वक्‍त में
इतनी संस्‍कृतियां हैं इतनी समितियां हैं इतनी बदतमीजियां हैं
कि उसे बुलाती ही रहती हैं अवसरानवसर दीप प्रज्‍ज्‍वलन के लिए
और वह भी है कि सब आग्रहों को आश्‍वस्‍त करता हुआ
प्रकट होता ही रहता है
एक प्रदीर्घ और अक्षत तम में ज्‍योतिर्मय बन उतरता हुआ


लेकिन तम है कि कम नहीं होता
और शालें हैं कि इतनी इकट्ठा हो जाती हैं
कि गर करोलबाग का एक व्‍यवसायी 'टच' में न हो
तब वह गोल्‍फ लिंक वाली कोठी देखते-देखते गोडाउन में बदल जाए
गाहे-ब-गाहे उसे बेहद जोर से लगता है
कि वे शालें ही लौट-लौटकर आ रही हैं
जो पहले भी कई बार उसके कंधों पर डाली जा चुकी है

(अविनाश मिश्र)

साभार 'शुक्रवार' साहित्‍य वार्षिकी 2013



Saturday, 12 January 2013

लक्ष्‍मी नारायण मिश्र

नाटककार लक्ष्‍मी नारायण मिश्र (1903 -1987)

मिश्र जी की 110 वीं जयंती पर 11 जनवरी 2013 को उनके गृहजनपद मऊ में एक छोटा सा कार्यक्रम आयोजित हुआ ,जिसमें कोई भी प्रसिद्ध साहित्‍यकार शामिल नहीं हुआ ।देश के दूसरे भागों में भी किसी महत्‍वपूर्ण कार्यक्रम के समाचार से हम अवगत नहीं हैं ।उनके अवदान पर एक महत्‍वपूर्ण लेख डॉ0 बच्‍चन सिंह का :-

 लक्ष्‍मी नारायण मिश्र   डी0 एल0 राय और प्रसाद की स्‍वच्‍छन्‍दतावादिता का विरोध करते हुए नाटक के क्षेत्र में आये ।प्रसाद तथा अन्‍य रोमैंटिक साहित्‍यकारों ने बुद्धिवाद का विरोध किया था तो मिश्र जी ने अपने को स्‍पष्‍ट कहते हुए कहा कि मैं बुद्धिवादी क्‍यों हूं  ? ' इस काल में लिखे प्राय: सभी नाटकों में रोमैंटिक प्रेम के विरोध में भारतीय विवाह संस्‍कारों का समर्थन किया गया है ।इस समस्‍या से संबद्ध नाटक हैं -संन्‍यासी ,राक्षस का मंदिर ,मुक्ति का रहस्‍य ,राजयोग ,सिन्‍दूर की होली और आधी रात ।

                      बुद्धिवाद का दावा करने के बावजूद मिश्र जी शॉ और इब्‍सन के अर्थ में बुद्धिवादी नहीं है ।शॉ रूढि़ विध्‍वंसक नाटककार हैं ।उनकी प्रसिद्धि इसलिए हुई कि उसने जनता को नैतिकता पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्‍य किया किन्‍तु रोमैंटिक प्रेम का विरोध करने पर भी मिश्र जी नैतिता के संबंध में पुनर्विचार करने के लिए बाध्‍य नहीं करते ।बल्कि वे रूढि़यों के समर्थन पर उतर आते हैं ।


           इब्‍सन ने एक स्‍थान पर कहा है कि यदि तुम विवाह करना चाहते हो तो प्रेम में मत पड़ो और यदि प्रेम करते हो तो प्रिय से अलग हो जाओ ।मिश्र जी के 'संन्‍यासी' नाटक की मालती कहती है   -' और फिर विश्‍वकान्‍त प्रेम करने की चीज है ...विवाह करने की नहीं ।प्रेम किसी दिन की ......किसी महीने की ,किसी साल की घड़ी भर के लिए ,जो चाहे जितना दु:ख-सुख दे .....उसमें जितनी बेचैनी हो ....जितनी मस्‍ती हो ....लेकिन वह ठहरता नहीं ।' एक दूसरे स्‍थान पर रोमैंटिक प्रेम की व्‍याख्‍या करती हुई वह पुन: कहती है -‍'जिसे प्रेम करे उसके सामने झुक जाना -बिल्‍कुल मर जाना-उसकी एक-एक बात पर अपने को न्‍योछावर कर देना रोमैंटिक प्रेम होता है ।हम लोग प्रेम नहीं करेंगे ।'  'राक्षस का मंदिर ' की ललिता का स्‍वर भी उससे भिन्‍न नहीं है ।'मुक्ति का रहस्‍य' की आशादेवी अंत में रोमांसविरोधी रूख अपनाती है ।'सिन्‍दूर की होली' की मनोरमा आद्यान्‍त रोमांस-विरोधी बनी रहती है ।


                      'सिन्‍दूर की होली' के दो पात्र मनोरमा और चन्‍द्रकान्‍ता एक-दूसरे के विरोधी हैं ।मनोरमा वैधव्‍य का समर्थन करती है और चन्‍द्रकान्‍ता रोमैंटिक प्रेम का ।मनोरमा का विधवा-विवाह का विरोध स्‍वयं बुद्धिवाद का विरोध करने लगता है और रोमैंटिक चन्‍द्रकान्‍ता का तर्क बुद्धिवाद हो जाता है ।


रोमैंटिक भावुकता और यथार्थवादी बुद्धिवाद की टकराहट मिश्र जी के नाटकों में इस ढ़ंग से चित्रित हुई है कि मिश्र जी भावुकता से मुक्‍त नहीं हो पाते ।प्राय: सभी पात्रों में भावुकता लिपटी हुई है ।मिश्र जी के व्‍यक्तित्‍व में ये दोनों तत्‍व पाये जाते हैं ।वे भीतर से भावुक और बाहर से बुद्धिवादी हैं ।भारतीयता के प्रति उनकी आस्‍था में भी विचित्र भावुकता का सन्निवेश हो गया है ।


               बुद्धिवादी रूख अपनाने के कारण मिश्रजी की भाषा प्रसाद की भाषा से भिन्‍न है ।उसमें तर्क करने की अद्भुत क्षमता है ।  'मुक्ति का रहस्‍य' में उन्‍होंने लिखा है -'शेक्‍सपियर के नाटकों के साथा जब प्रसाद के नाटक रखे जायेंगे त‍ब स्‍वगत का वही अतिरंजना ,वही संवादों की काव्‍यमयी कृत्रिमता ,मनोविज्ञान या लोकवृत्ति के अनुभव का वही अभाव ,संघर्ष और द्वंद्व की वही आंधी ......'कहना न होगा कि मिश्रजी ने उनसे बचने का प्रयास किया है ।संवादों में स्‍फूर्ति ,लघुता और तीव्रता का विशेष ध्‍यान रखा गया है ।वाग्‍वैदग्‍ध्‍य ,हाजिरजबाबी ,तर्कपूर्ण उत्‍तर-प्रत्‍युत्‍तर आदि समस्‍या नाटकों की विशेषताएं हैं ।इसमें संदेह नहीं कि अपनी त्रुटियों के बावजूद मिश्र जी ने हिन्‍दी नाटकों को रूमानियत से बाहर निकालने का प्रयास किया है ।



                              समस्‍या नाटकों के अतिरिक्‍त मिश्र जी ने कई ऐतिहासिक नाटकों की रचना भी की है ।गरूड़ध्‍वज ,नारद की वीणा ,वत्‍सराज ,दशाश्‍वमेघ ,वितस्‍ता की लहरें ,जगद्गुरू ,मृत्‍युंजय ,सरजू की धार आदि ऐतिहासिक नाटक हैं ।


(डॉ0 बच्‍चन सिंह 'आधुनिक हिन्‍दी साहित्‍य का इतिहास' में )

साभार 'लोक भारती प्रकाशन'

Thursday, 10 January 2013

इब्‍ने इंशा

इब्‍ने इंशा की कविताओं में निहित प्रभावों को रेखांकित करना कठिन है ,परंतु उनकी जीवन यात्रा से ही कुछ मजबूत रेखाएं स्‍पष्‍ट होती है । जून की पंद्रहवीं ,साल 1927 ईसवी को लुधियाना में जनम और 1949 में कराची और पाकिस्‍तान का वासी बनने की विवशता , यद्यपि जल्‍दी ही लोगों को पता चल गया कि उन्‍होंने जमीनी विभाजन को स्‍वीकारा नहीं था ।विभाजन की वास्‍तविकता और पीड़ा पर न लिखते हुए उन्‍होंने आदमी की पीड़ा पर लिखा ।लंबे समय तक लंदन में रहे ,ऑल इंडिया रेडियो में भी काम किया ।पाकिस्‍तान सरकार और यूनेस्‍को के द्वारा प्रदत्‍त कई सांस्‍कृतिक पदों को स्‍वीकारा ।विद्वानों ने उनके लहजे में मीर की खस्‍तगी और नजीर की फकीरी देखी है ।मनुष्‍य की स्‍वाधीनता और स्‍वाभिमान को सर्वोपरि मानते हुए आजीवन मानवतावादी वृत्तियों के प्रति संकल्पित रहे ।  11 जनवरी 1978 को लंदन में कैंसर से मृत्‍यु ।



                                                          इब्‍ने जी की रचनाएं सुखद आश्‍चर्य से भर देती है कि इस पाकिस्‍तानी साहित्‍यकार में हिंदुस्‍तानी जीवन ,शब्‍दावली और हिंदुस्‍तानी रंग के इतने इन्‍द्रधनुष कैसे हैं । इनकी गजलों में  जोगी ,सजन ,जोत ,मनोहर ,प्रेम ,बिरह ,रूप-सरूप ,सखि ,सांझ ,अंबर ,बरखा ,गोपी ,गोकुल ,मथुरा ,मनमोहन ,जगत ,भगवान संन्‍यास जैसे शब्‍दों का प्रयोग यह बतलाने के लिए पर्याप्‍त है कि उनके रचनात्‍मक संस्‍कार कैसे थे । अब्‍दुल बिस्मिल्‍लाह ने इस संबंध में कहा है कि 'उर्दू शाइरी की केंद्रीय अभिरूचि से यह काव्‍यबोध विलग है ।यह उनका निजी तख़य्युल है और इसीलिए उनकी शाइरी जुते हुए खेत की मानिंद दीख पड़ती है ।'


शायरी करते हुए भी इंशा जी शास्‍त्रीय संकीर्णता की परवाह नहीं करते ।इसीलिए अब्‍दुल बिस्मिल्‍लाह कहते हैं कि ' भाषा की रूपगत संकीर्णता से ऊपर उठकर शाइरी करनेवालों का एक वर्ग पाकिस्‍तान के उर्दू साहित्‍य में अपना अलग स्‍थान रखता है ,जिसमें नासिर काजि़मी ,अहमद फ़राज ,उमील-उद्दीन आली ,परवीन शाकिर आदि के नाम उल्‍लेखनीय है ।यह वर्ग इब्‍ने इंशा का वर्ग है......'


इब्‍ने इंशा ने हरेक दिन को ईद जैसा मनाया ,इसीलिए उनकी कविताओं में रंग-रंग के चांद मौजूद हैं ।उनकी पुण्‍यतिथि   11 जनवरी  पर उनकी कुछ गजलें :-



गोरी अब तू आप समझ ले ,हम साजन या दुश्‍मन हैं
गोरी तू है जिस्‍म हमारा ,हम तेरा पैराहन हैं

नगरी-नगरी घूम रहे हैं ,सखियों अच्‍छा मौका है
रूप-सरूप की भिक्षा दे दो ,हम इक फैला दामन है

तेरे चाकर होकर पाया दर्द बहुत रूस्‍वाई भी
तुझसे थे जो टके कमाए ,आज तुझी को अरपन है

लोगों मैले तन-मन-धन की ,हम को सख्‍त मनाही है
लोगों हम इस छूत से भागें ,हम तो खरे बरहमन हैं

पूछो खेल बनानेवाले ,पूछो खेलनेवाले से
हम क्‍या जानें किसकी बाजी ,हम जो पत्‍ते बावन है


सहरा से जो फूल चुने थे उनसे रूह मुअत्‍तर है
अब जो ख़ार समेटा चाहें ,बस्‍ती -बस्‍ती गुलशन है


दो-दो बूंद को अपनी खेती तरसी है और तरसेगी
कहने को तो दोस्‍त हमारे भादों हैं और सावन है



2

कुछ कहने का वक्‍़त नहीं ये कुछ न कहो ,खामोश रहो
ऐ लोगों खामोश रहो हां ऐ लोगों खामोश रहो

सच अच्‍छा पर उसके जलू में , जहर का है इक प्‍याला भी
पागल हो  ? क्‍यों नाहक को सुक़रात बनो ,खामोश रहो

हक़ अच्‍छा पर उसके लिए कोई और मरे तो और अच्‍छा
तुम भी कोई मंसूर हो जो सूली पर चढ़ो ,खामोश रहो


उनका ये कहना सूरज ही धरती के फेरे करता है
सर आंखों पर ,सूरज ही को घूमने दो -खामोश रहो

महबस में कुछ हब्‍स है और जंजीर का आहन चुभता है
फिर सोचो ,हां फिर सोचो ,हां फिर सोचो ,ख़ामोश रहो

गर्म आंसू और ठंडी आहें ,मन में क्‍या क्‍या मौसम है
इस बगिया के भेद न खोलो ,सैर करो ,खामोश रहो

आंखे मूंद किनारे बैठो ,मन के रक्‍खो बंद किवाड़
इंशा जी लो धागा लो और लव सी लो ,खामोश रहो

(साभार राजकमल प्रकाशन)