इब्ने इंशा की कविताओं में निहित प्रभावों को रेखांकित करना कठिन है ,परंतु उनकी जीवन यात्रा से ही कुछ मजबूत रेखाएं स्पष्ट होती है । जून की पंद्रहवीं ,साल 1927 ईसवी को लुधियाना में जनम और 1949 में कराची और पाकिस्तान का वासी बनने की विवशता , यद्यपि जल्दी ही लोगों को पता चल गया कि उन्होंने जमीनी विभाजन को स्वीकारा नहीं था ।विभाजन की वास्तविकता और पीड़ा पर न लिखते हुए उन्होंने आदमी की पीड़ा पर लिखा ।लंबे समय तक लंदन में रहे ,ऑल इंडिया रेडियो में भी काम किया ।पाकिस्तान सरकार और यूनेस्को के द्वारा प्रदत्त कई सांस्कृतिक पदों को स्वीकारा ।विद्वानों ने उनके लहजे में मीर की खस्तगी और नजीर की फकीरी देखी है ।मनुष्य की स्वाधीनता और स्वाभिमान को सर्वोपरि मानते हुए आजीवन मानवतावादी वृत्तियों के प्रति संकल्पित रहे । 11 जनवरी 1978 को लंदन में कैंसर से मृत्यु ।
इब्ने जी की रचनाएं सुखद आश्चर्य से भर देती है कि इस पाकिस्तानी साहित्यकार में हिंदुस्तानी जीवन ,शब्दावली और हिंदुस्तानी रंग के इतने इन्द्रधनुष कैसे हैं । इनकी गजलों में जोगी ,सजन ,जोत ,मनोहर ,प्रेम ,बिरह ,रूप-सरूप ,सखि ,सांझ ,अंबर ,बरखा ,गोपी ,गोकुल ,मथुरा ,मनमोहन ,जगत ,भगवान संन्यास जैसे शब्दों का प्रयोग यह बतलाने के लिए पर्याप्त है कि उनके रचनात्मक संस्कार कैसे थे । अब्दुल बिस्मिल्लाह ने इस संबंध में कहा है कि 'उर्दू शाइरी की केंद्रीय अभिरूचि से यह काव्यबोध विलग है ।यह उनका निजी तख़य्युल है और इसीलिए उनकी शाइरी जुते हुए खेत की मानिंद दीख पड़ती है ।'
शायरी करते हुए भी इंशा जी शास्त्रीय संकीर्णता की परवाह नहीं करते ।इसीलिए अब्दुल बिस्मिल्लाह कहते हैं कि ' भाषा की रूपगत संकीर्णता से ऊपर उठकर शाइरी करनेवालों का एक वर्ग पाकिस्तान के उर्दू साहित्य में अपना अलग स्थान रखता है ,जिसमें नासिर काजि़मी ,अहमद फ़राज ,उमील-उद्दीन आली ,परवीन शाकिर आदि के नाम उल्लेखनीय है ।यह वर्ग इब्ने इंशा का वर्ग है......'
इब्ने इंशा ने हरेक दिन को ईद जैसा मनाया ,इसीलिए उनकी कविताओं में रंग-रंग के चांद मौजूद हैं ।उनकी पुण्यतिथि 11 जनवरी पर उनकी कुछ गजलें :-
गोरी अब तू आप समझ ले ,हम साजन या दुश्मन हैं
गोरी तू है जिस्म हमारा ,हम तेरा पैराहन हैं
नगरी-नगरी घूम रहे हैं ,सखियों अच्छा मौका है
रूप-सरूप की भिक्षा दे दो ,हम इक फैला दामन है
तेरे चाकर होकर पाया दर्द बहुत रूस्वाई भी
तुझसे थे जो टके कमाए ,आज तुझी को अरपन है
लोगों मैले तन-मन-धन की ,हम को सख्त मनाही है
लोगों हम इस छूत से भागें ,हम तो खरे बरहमन हैं
पूछो खेल बनानेवाले ,पूछो खेलनेवाले से
हम क्या जानें किसकी बाजी ,हम जो पत्ते बावन है
सहरा से जो फूल चुने थे उनसे रूह मुअत्तर है
अब जो ख़ार समेटा चाहें ,बस्ती -बस्ती गुलशन है
दो-दो बूंद को अपनी खेती तरसी है और तरसेगी
कहने को तो दोस्त हमारे भादों हैं और सावन है
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कुछ कहने का वक़्त नहीं ये कुछ न कहो ,खामोश रहो
ऐ लोगों खामोश रहो हां ऐ लोगों खामोश रहो
सच अच्छा पर उसके जलू में , जहर का है इक प्याला भी
पागल हो ? क्यों नाहक को सुक़रात बनो ,खामोश रहो
हक़ अच्छा पर उसके लिए कोई और मरे तो और अच्छा
तुम भी कोई मंसूर हो जो सूली पर चढ़ो ,खामोश रहो
उनका ये कहना सूरज ही धरती के फेरे करता है
सर आंखों पर ,सूरज ही को घूमने दो -खामोश रहो
महबस में कुछ हब्स है और जंजीर का आहन चुभता है
फिर सोचो ,हां फिर सोचो ,हां फिर सोचो ,ख़ामोश रहो
गर्म आंसू और ठंडी आहें ,मन में क्या क्या मौसम है
इस बगिया के भेद न खोलो ,सैर करो ,खामोश रहो
आंखे मूंद किनारे बैठो ,मन के रक्खो बंद किवाड़
इंशा जी लो धागा लो और लव सी लो ,खामोश रहो
(साभार राजकमल प्रकाशन)
इब्ने जी की रचनाएं सुखद आश्चर्य से भर देती है कि इस पाकिस्तानी साहित्यकार में हिंदुस्तानी जीवन ,शब्दावली और हिंदुस्तानी रंग के इतने इन्द्रधनुष कैसे हैं । इनकी गजलों में जोगी ,सजन ,जोत ,मनोहर ,प्रेम ,बिरह ,रूप-सरूप ,सखि ,सांझ ,अंबर ,बरखा ,गोपी ,गोकुल ,मथुरा ,मनमोहन ,जगत ,भगवान संन्यास जैसे शब्दों का प्रयोग यह बतलाने के लिए पर्याप्त है कि उनके रचनात्मक संस्कार कैसे थे । अब्दुल बिस्मिल्लाह ने इस संबंध में कहा है कि 'उर्दू शाइरी की केंद्रीय अभिरूचि से यह काव्यबोध विलग है ।यह उनका निजी तख़य्युल है और इसीलिए उनकी शाइरी जुते हुए खेत की मानिंद दीख पड़ती है ।'
शायरी करते हुए भी इंशा जी शास्त्रीय संकीर्णता की परवाह नहीं करते ।इसीलिए अब्दुल बिस्मिल्लाह कहते हैं कि ' भाषा की रूपगत संकीर्णता से ऊपर उठकर शाइरी करनेवालों का एक वर्ग पाकिस्तान के उर्दू साहित्य में अपना अलग स्थान रखता है ,जिसमें नासिर काजि़मी ,अहमद फ़राज ,उमील-उद्दीन आली ,परवीन शाकिर आदि के नाम उल्लेखनीय है ।यह वर्ग इब्ने इंशा का वर्ग है......'
इब्ने इंशा ने हरेक दिन को ईद जैसा मनाया ,इसीलिए उनकी कविताओं में रंग-रंग के चांद मौजूद हैं ।उनकी पुण्यतिथि 11 जनवरी पर उनकी कुछ गजलें :-
गोरी अब तू आप समझ ले ,हम साजन या दुश्मन हैं
गोरी तू है जिस्म हमारा ,हम तेरा पैराहन हैं
नगरी-नगरी घूम रहे हैं ,सखियों अच्छा मौका है
रूप-सरूप की भिक्षा दे दो ,हम इक फैला दामन है
तेरे चाकर होकर पाया दर्द बहुत रूस्वाई भी
तुझसे थे जो टके कमाए ,आज तुझी को अरपन है
लोगों मैले तन-मन-धन की ,हम को सख्त मनाही है
लोगों हम इस छूत से भागें ,हम तो खरे बरहमन हैं
पूछो खेल बनानेवाले ,पूछो खेलनेवाले से
हम क्या जानें किसकी बाजी ,हम जो पत्ते बावन है
सहरा से जो फूल चुने थे उनसे रूह मुअत्तर है
अब जो ख़ार समेटा चाहें ,बस्ती -बस्ती गुलशन है
दो-दो बूंद को अपनी खेती तरसी है और तरसेगी
कहने को तो दोस्त हमारे भादों हैं और सावन है
2
कुछ कहने का वक़्त नहीं ये कुछ न कहो ,खामोश रहो
ऐ लोगों खामोश रहो हां ऐ लोगों खामोश रहो
सच अच्छा पर उसके जलू में , जहर का है इक प्याला भी
पागल हो ? क्यों नाहक को सुक़रात बनो ,खामोश रहो
हक़ अच्छा पर उसके लिए कोई और मरे तो और अच्छा
तुम भी कोई मंसूर हो जो सूली पर चढ़ो ,खामोश रहो
उनका ये कहना सूरज ही धरती के फेरे करता है
सर आंखों पर ,सूरज ही को घूमने दो -खामोश रहो
महबस में कुछ हब्स है और जंजीर का आहन चुभता है
फिर सोचो ,हां फिर सोचो ,हां फिर सोचो ,ख़ामोश रहो
गर्म आंसू और ठंडी आहें ,मन में क्या क्या मौसम है
इस बगिया के भेद न खोलो ,सैर करो ,खामोश रहो
आंखे मूंद किनारे बैठो ,मन के रक्खो बंद किवाड़
इंशा जी लो धागा लो और लव सी लो ,खामोश रहो
(साभार राजकमल प्रकाशन)
गद्य हो या पद्य, इब्ने इंशा का जवाब नहीं ...
ReplyDeleteधन्यवाद मित्र ।
Deleteआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज शनिवार (12-1-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
ReplyDeleteसूचनार्थ!
धन्यवाद वंदना जी
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