गणमान्य तुम्हारी........
वह बीस वर्षों से 'दीप प्रज्जवलन' की दुनिया में है
और इस दरमियान वह करीब बीस हजार बार दीप प्रज्ज्वलित कर चुका है
इस एकरसता में एक सरसता अनुभव करता हुआ
वह सुरक्षा कारणों से अब तक टमाटरों ,अंडों ,जूतों ,पत्थरों ,थप्पड़ों
और गोलियों से तो दूर हैं लेकिन गालियों से नहीं
एक सघन हाशिये से लगातार सुनाई दे रही गालियों के बरअक्स
यह है कि दीप पर दीप जलाता जा रहा है
इस 'उत्सवरक्षतमदग्रस्त' वक्त में
इतनी संस्कृतियां हैं इतनी समितियां हैं इतनी बदतमीजियां हैं
कि उसे बुलाती ही रहती हैं अवसरानवसर दीप प्रज्ज्वलन के लिए
और वह भी है कि सब आग्रहों को आश्वस्त करता हुआ
प्रकट होता ही रहता है
एक प्रदीर्घ और अक्षत तम में ज्योतिर्मय बन उतरता हुआ
लेकिन तम है कि कम नहीं होता
और शालें हैं कि इतनी इकट्ठा हो जाती हैं
कि गर करोलबाग का एक व्यवसायी 'टच' में न हो
तब वह गोल्फ लिंक वाली कोठी देखते-देखते गोडाउन में बदल जाए
गाहे-ब-गाहे उसे बेहद जोर से लगता है
कि वे शालें ही लौट-लौटकर आ रही हैं
जो पहले भी कई बार उसके कंधों पर डाली जा चुकी है
(अविनाश मिश्र)
साभार 'शुक्रवार' साहित्य वार्षिकी 2013
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