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Friday, 6 December 2013

आधुनिक हिंदी साहित्‍य पर केदारनाथ सिंह

पुरानी पत्रिकाओं से स्‍तंभ की प‍हली किश्‍त में प्रगतिशील वसुधा के अक्‍तूबर-दिसम्‍बर 2009 अंक में केदारनाथ सिंह से सुधीर रंजन की बातचित को याद किया जा रहा है ।अनौपचारिकता से भरी यह बातचित न केवल लंबाई में बड़ी है ,बल्कि हिंदी साहित्‍य के लंबे सफर की विविधरंगी यादों से भरपूर है ।बातचित में सुधीर रंजन के प्रश्‍न उनके अध्‍ययन एवं चिंतन की गहराई को स्‍पष्‍ट करते हैं ,जिसे केदारनाथ जी ने भी कई बार सराहा है ।बातचित प्रारंभ से ही आधुनिक हिंदी साहित्‍य पर केंद्रित है ,दोनों लोगों ने लेखकों के निजी जीवन पर कम समय खर्च किया है ,सारा संकेंद्रण हिंदी साहित्‍य के प्रस्‍थानविन्‍दु को स्‍पष्‍ट करने में है ।इस प्रस्‍थान-विन्‍दु की खोज में महेश नारायण ,मैथिली शरण गुप्‍त और निराला पर उत्‍तेजक चर्चा होती है ।अतुकांत कविता की प्रासंगिकता ,मैथिली और भोजपुरी की तुलना के साथ ही समकालीन कविता के महारथियों पर भी उल्‍लेखनीय चर्चा होती है ।

          सुधीर रंजन याद दिलाते हैं कि निराला और त्रिलोचन ने अपने आलोचनात्‍मक लेख में मैथिली शरण गुप्‍त को काफी महत्‍व दिया है ।केदारनाथ जी खड़ी बोली हिंदी को बनाने में गुप्‍त जी के महत्‍व को स्‍वीकारते हुए भी यह कहते हैं कि
भारत भारती एक युग का पीस है ,बड़ी कविता नहीं ।बड़ी कविता माने जो बहुत लम्‍बे समय तक मनुष्‍य को संचारित करती रहे । आगे वे नामवर जी को उद्धृत करते हुए कहते है पंचायती कविता है वो ।ये करो ,वो करो ,ये हटाओ ,वो जोड़ो ।ककुल मिलाकर एक रूप बना उसका ।हाली और क़ैफी के मुसद्दस के जवाब में लि‍खी हुई कविता है ।

                   आगे केदारनाथ जी द्विवेदी युग एवं छायावाद के छंद पर विचार करते हैं तथा यह भी जोड़ते हैं कि
आज हिंदी में जो गद्य के लय में कविता लिखी जा रही है ,वो मात्रिक छन्‍द से बचने के लिए लिखी चली आ रही है ।सुधीर जी इस तथ्‍य की दुर्लभता को सिद्ध करते हुए फिर दोहराते हैं कि मात्रिक से बचने के लिए गद्य में कविता ।सुधीर जी यह भी कहते हैं कि उर्दू की तुलना में हिंदी गद्य नया भी था और काव्‍यभाषा की निर्भरता भी उस पर बनी रही ,इसीलिए स्‍वभावत: भारत भारती निबंधात्‍मक है ।


              सुधीर रंजन ऐतिहासिक प्रस्‍थान बिन्‍दु की बात करते हुए महेश नारायण  की
स्‍वप्‍न कविता उल्‍लेख करते हैं ,केदारनाथ जी पहले कविता को उर्दू मानते हैं ,परंतु सुधीर जी के बल देने पर स्‍वीकार करते हैं वो कविता बहुत ही मीनिंगफुल है और एक प्रस्‍थान बिन्‍दु बन सकती है ।हमारे पूरे काव्‍य विकास को ,काव्‍यभाषा के विकास को ,और काव्‍यभाषा के लय और छन्‍द के विकास के संदर्भ में उस कविता को बहुत ही सिग्‍नीफिकेण्‍ट मैं मानता हूं ।

                   सुधीर रंजन आगे बिहार में ब्रजभाषा की अकेंद्रीयता पर बल देते हुए यह भी स्‍पष्‍ट करते हैं कि महेश नारायण अंग्रेजी के आदमी थे ,इसीलिए उनके यहां प्रयोग संभव हुआ ।सुधीर जी आगे बहुमुखी प्रतिभाशाली के रूप में श्रीधर पाठक का उल्‍लेख करते हैं ।दोनों व्‍यक्ति संध्‍या वर्णन वाली कविता को अद्भुत मानते हैं ,साथ ही दोनों व्‍यक्ति आयरिश कवि गोल्‍डस्मिथ की तीन कविताओं के अनुवाद को हिंदी भाषा और कविता के विकास में महत्‍वपूर्ण मानते हैं ।सुधीर रंजन बलपूर्वक प्रसाद के
प्रेम पथिक और राम नरेश त्रिपाठी के पथिक की पृष्‍ठभूमि में श्रीधर पाठक के श्रान्‍त पथिक को रखते हैं ।यही नहीं सुधीर रंजन यह भी मानते हैं कि कामायनी का बीज प्रेम पथिक में पड़ चुका था ।केदारनाथ जी भी इस बात को दमदार मानते हैं ।

          आगे केदारनाथ जी त्रिलोचन के सॉनेटकार रूप को सामने लाने का श्रेय अज्ञेय को देते हैं तथा रेणु के विषय में एक महत्‍वपूर्ण टिप्‍प्‍णी करते हैं-
हमारे जेहन में आजादी के बाद का सबसे बड़ा गद्यकार है ।भाषा की गतिविधियों से ,गलत प्रयोगों से बड़ी भाषा पैदा की जा सकती है ।इसका उदाहरण है रेणु का गद्य ।सुधीर रंजन जी भी विटिंग्‍स्‍टाइन को उद्धृत करते हुए कहते हैं भाषा की अशुद्धि में ताक़त छुपी होती है ।सुधीर रंजन रेणु को याद करते हुए कहते हैं कि रेणु वैसे लेखक हैं जहां गद्य और कविता का भेद मिट जाता है ,केदारनाथ जी इसी संदर्भ में बाणभट्ट को याद करते हैं ।केदारनाथ जी आगे यह भी कहते हैं कि जो परम्‍परा चली आ रही थी लम्‍बे समय से हिन्‍दी गद्य की ,उससे अलग हटकर रेणु थे ।बांग्‍ला ,नेपाली ,मैथिली- उस सबसे मिलकर भाषा बनी थी ।वह आदमी क्रियेट कर रहा था ,जो उसका अपना कमाल था ।केदारनाथ जी नलिन विलोचन शर्मा के विषय में भी स्‍पष्‍ट टिप्‍पणी करते हैं उनसे प्रबुद्ध आदमी हिन्‍दी में- पूरे पश्चिम और भारतीय साहित्‍य को लेकर इतना प्रबुद्ध कौन था यहीं नहीं केदारनाथ जी नामवर जी के उलट नलिन जी की कविताओं को विचारनीय मानते हैं ।


        
केदारनाथ जी प्रयोगवाद को समय सीमा में बांधे जाने का विरोध करते हुए इसे निराला तक ले जाते हैं ,तथा सुधीर रंजन के साथ सहमति जताते हैं कि यह हिंदी कविता का बहुत बड़ा डिपार्चर था ।केदारनाथ जी पुन: कहते हैं –‘ निराला में यह कोशिश थी ।वो छायावाद की खिड़कियों से बाहर निकलने की कोशिश कर रहे थे ।मैं हमेशा कोशिश को भाषा में देखता हूं पहले। क्‍योंकि पहले वो भाषा में तब आयेगी ,जब आपके भीतर बेचैनी हो ...।

         केदारनाथ जी महादेवी की कविताओं के विषय में स्‍पष्‍ट कहते हैं कि
बहुत बड़ा रेंज उनका नहीं हैं ...लेकिन बड़ी ठनी हुई ,कसी हुई । इसके साथ ही पंत के साथ तुलना करते हुए यह भी स्‍पष्‍ट करते हैं उनके यहां टिकाऊ कविताएं ज्‍यादा हैं ,सुमित्रानन्‍दन पन्‍त की तुलना में ।

       साहित्‍य की गांवों में ग्राह्यता के प्रश्‍न को स्‍पष्‍ट करते हुए केदारनाथ जी कहते हैं
मैथिलीशरण गुप्‍त अन्तिम हिन्‍दी कवि हैं ,जो गांव तक पहुंचे थे ।.....थोड़ा-सा संशोधन करूं तो दिनकर अपने गांव तक पहुंचे हैं ।लेकिन व्‍यापक गांव तक नहीं पहुच्‍ा सके ।वो अपने उस इलाके में पहुंचे


        केदारनाथ जी नागार्जुन ,राजकमल और इन दोनों की मातृभाषा पर भी खुलकर कहते हैं- राजकमल अकविता का ही नहीं था ,मैथिली का भी था.....नागार्जुन की बहुत सारी कविताएं मूलत: मैथिली में है ।ये लोग अपनी भाषा में जितना परफेक्‍ट थे ,हिन्‍दी में नहीं थे ।......ये दोनों अपनी भाषा के कवि पहले हैं ।....ये बड़ा महत्‍वपूर्ण निर्णय था उनका ।काश ,मैं मैथिली-भाषी होता।उन दोनों की जो ताकत थी ,उनकी भाषा से आई थी ।भोजपुरी की संभावना को स्‍वीकार करते हुए भी केदारनाथ जी यह निर्णय देते हैं कि मैथिली की समृद्ध परंपरा उसे मूल्‍यवान बनाती है ।


       अज्ञेय जी और नामवर सिंह के संबंधों को याद करते हुए अज्ञेय जी के द्वारा रिल्‍के के अनुवाद की चर्चा होती है तथा केदारनाथ जी एक महत्‍वपूर्ण बात करते हैं कि
अनुवाद हम हमेशा अपने समय के लिए करते हैं ,और अपने समय के लिए करेंगे तो अपनी तरह करेंगे ।

            राजेश जोशी और अरूण कमल पर केदारनाथ जी कहते हैं-
राजेश में एक टिपिकल भोपाल का कवि है ।भोपाल कुछ कविताओं में बोलता है .....हर अच्‍छे कवि की अपनी एक निजी ज़मीन होनी चाहिए.....अरूण का एक अलग रंग है ।उनके यहां बहुत सारे शब्‍द ऐसे हैं ,जो बोलचाल से एकदम ठेठ बिहार के ,अपनी भाषा के आते हैं ।काफी हैं ऐसे ।वहां वह बहुत जेनुइन लगता है ।आलोक धन्‍वा में भी उनको अलग रंग दिखता है ,वे उनको महत्‍वपूर्ण भी मानते हैं ,परंतु शायद वह अपनी कविता को लेकर किन्‍हीं कारणों से एक वृत्‍त में फँसा हुआ है ।उसका विकास और ज्‍यादा होना चाहिए था ।

ज्ञानेन्‍द्रपति की परवर्ती भाषा पर वे ऐतराज जताते हैं ,क्‍योंकि यह थोड़ी विच्‍छृंखलित सी है और उसमें एक अतिरिक्‍त सा‍हित्यिक कोशिश दिखती है ।इसके साथ ही केदारनाथ जी बाद वाले कवियों में उदय प्रकाश ,बद्रीनारायण ,विनोद कुमार शुक्‍ल और विष्‍णु खरे को भी महत्‍वपूर्ण मानते हैं ।


(साभार 'प्रगतिशील वसुधा' ,केदारनाथ सिंह ,सुधीर रंजन)

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