त्रिलोचन की अवधी कविता संग्रह 'अमोला' पर लिखते हुए अष्टभुजा शुक्ल का ध्यान बरबस ही नागार्जुन पर जाता है ,तथा वे दोनों मित्र कवियों की तुलना करने लगते हैं ।'आलोचना' के पचासवें अंक में प्रकाशित एक लेख'बरवै में बिरवा(अमोला)' से एक अंश आभार सहित---
''कविद्वय -नागार्जुन और त्रिलोचन न तो लोकान्ध हैं और न ही लोक-विक्रेता बल्कि दोनों लोक-सम्बद्ध और लोक-प्रतिबद्ध हैं। इसी प्रतिबद्धता और सम्बद्धता की कीमत पर कभी-कभी दोनों प्रतिरोध को भी किनारे रख देते हैं पर उसका वाणिज्यिक इस्तेमाल नहीं करते ।दोनों लोक की आधुनिकता का साथ देते हुए और आरोपित आधुनिकता को नकारते हुए प्रगतिशील मूल्यों का निरन्तर प्रतिपादन करने वाले कवि हैं ......नागार्जुन की कारयित्री ऊर्ध्वाधार है तो त्रिलोचन की क्षैतिज ।नागार्जुन की हँसी में गूंज है तो त्रिलोचन में खनक ।नागार्जुन का व्यंग्य फट्ठा-पीठ है तो त्रिलोचन का कैंचीदार ।नागार्जुन में विक्षोभ और प्रखरता है तो त्रिलोचन में गहरी टीस और नुकीला कटाक्ष ।पहले की कविता की खूबी ज्यादातर असंयम में है तो दूसरे की ज्यादातर संयम में ।पहला करारी चोट करने वाला कवि है जबकि दूसरा करारी चोट सहने वाला ।
नागार्जुन में हिन्दी जाति का साहस एवं स्वाभिमान है तो त्रिलोचन में उसकी ऋजुता और निरहंकार । एक के प्रतिकार में जनता की सामूहिक चेतना है तो दूसरे की सहनशीलता में तिर्यक् अवज्ञा ।प्रतिकार एवं सहनशीलता- दोनों ही हिन्दी जाति,जीवन और कविता के स्वभाव हैं ।नागार्जुन प्रकृत्या काव्यानुशासन तोड़ने वाले कवि हैं जबकि त्रिलोचन प्राय: उसकी मर्यादा में रहने वाले ।इस लिहाज से एक ही अनुभूति ,अभिव्यक्ति की निजता और काव्यशैली अलग प्रकार की प्रतीत होती है तो दूसरे की उससे सर्वथा भिन्न ।बल्कि इन दोनों की काव्य-शैलियां निजी पृथगर्थता और सामूहिक एकार्थता का ऐसा सम्पूरक निर्मित करती हैं जिनमें हिन्दी कविता का पूर्वकृत एवं नवीकृत आवाजों के अनुवाद अपने-अपने आश्चर्यों के साथ झंकृत होते हैं ।दोनों की भूमिज संवेदना के उभयनिष्ठ तन्तु जहां उन्हें कविता के सामान्य धरातल पर एक साथ खड़ा करते हैं वहीं उनके सरोकार भारतीय जीवन-बोध के घनिष्ठ सम्पर्क में हैं ।दोनों के विश्वबोध की प्राथमिक ,द्वितीयक या तृतीयक मूल मिट्टी की देसजता और जनपदीयता में गहरे पैठी हुई है जहां उनके मूलगोप जीवन के खनिज संचित करते रहते हैं ।दोनों की कविता का मर्म और साधारण प्रतिज्ञा जनजीवन के मौलिक अनुताप उल्लास तक ही असमंजस प्रतिरोध संघर्ष और राग-विराग में घटित होती है ।ध्यान देने की बात यह भी है कि नागार्जुन मिथिलांचल के हैं तो त्रिलोचन अवध क्षेत्र के ।अपनी इन्हीं प्रतिबद्धताओं के चलते एक ने मैथिली में 'पत्रहीन नग्न गाछ' की रचना की तो दूसरे ने अवधी में 'अमोला' की ।''
नागार्जुन में हिन्दी जाति का साहस एवं स्वाभिमान है तो त्रिलोचन में उसकी ऋजुता और निरहंकार । एक के प्रतिकार में जनता की सामूहिक चेतना है तो दूसरे की सहनशीलता में तिर्यक् अवज्ञा ।प्रतिकार एवं सहनशीलता- दोनों ही हिन्दी जाति,जीवन और कविता के स्वभाव हैं ।नागार्जुन प्रकृत्या काव्यानुशासन तोड़ने वाले कवि हैं जबकि त्रिलोचन प्राय: उसकी मर्यादा में रहने वाले ।इस लिहाज से एक ही अनुभूति ,अभिव्यक्ति की निजता और काव्यशैली अलग प्रकार की प्रतीत होती है तो दूसरे की उससे सर्वथा भिन्न ।बल्कि इन दोनों की काव्य-शैलियां निजी पृथगर्थता और सामूहिक एकार्थता का ऐसा सम्पूरक निर्मित करती हैं जिनमें हिन्दी कविता का पूर्वकृत एवं नवीकृत आवाजों के अनुवाद अपने-अपने आश्चर्यों के साथ झंकृत होते हैं ।दोनों की भूमिज संवेदना के उभयनिष्ठ तन्तु जहां उन्हें कविता के सामान्य धरातल पर एक साथ खड़ा करते हैं वहीं उनके सरोकार भारतीय जीवन-बोध के घनिष्ठ सम्पर्क में हैं ।दोनों के विश्वबोध की प्राथमिक ,द्वितीयक या तृतीयक मूल मिट्टी की देसजता और जनपदीयता में गहरे पैठी हुई है जहां उनके मूलगोप जीवन के खनिज संचित करते रहते हैं ।दोनों की कविता का मर्म और साधारण प्रतिज्ञा जनजीवन के मौलिक अनुताप उल्लास तक ही असमंजस प्रतिरोध संघर्ष और राग-विराग में घटित होती है ।ध्यान देने की बात यह भी है कि नागार्जुन मिथिलांचल के हैं तो त्रिलोचन अवध क्षेत्र के ।अपनी इन्हीं प्रतिबद्धताओं के चलते एक ने मैथिली में 'पत्रहीन नग्न गाछ' की रचना की तो दूसरे ने अवधी में 'अमोला' की ।''
(साभार 'आलोचना' ,जुलाई-सितम्बर ,2013)
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