गांधीवादी रणनीति आमतौर पर नरम राष्ट्रवादी दौर में विकसित रणनीति ही थी ।परोक्ष या अपरोक्ष जैसे भी हो इसमें ग्राम्शियन तकनीकों का ही उपयोग किया गया था ।इसमें जनता और नेता का सुविचारित कार्यभाग था ।ग्राम्शी ने नेतृत्व को मुख्यालय या निर्देशक केन्द्र कहा ।अर्थात नेताओं को जनता की चेतना ,उसकी सामाजिक स्थिति के प्रति सजग रहना पडता है ।इसके साथ ही नेताओं को जगाना एवं शिक्षित भी करना पडता है ।इस प्रकार नेता एवं जनता की एक द्वन्द्वात्मक भूमिका विकसित होती है ।गांधी ने भारत जैसे बहुसांस्कृतिक एवं पिछडे देश में मुख्यालय की भूमिका को सही तरह से समझा ।मुख्यालय की प्रभावी भूमिका के बिना जनअसंतोष को सही रूप नहीं दिया जा सकता है ।
मुख्यालय की इस प्रभावी भूमिका के साथ ही गांधी जी को इस तथ्य का पता था कि बिना राष्ट्रीय आकांक्षा के कोई आंदोलन सफल नहीं हो सकता है ।अत: उन्होंने जनता की संधर्षशीलता ,उसकी निर्भयता ,आत्मत्याग की भावना ,साहस तथा नैतिक शक्ति का रणनीतिक दोहन किया ।उन्होंने इस चीज पर सर्वाधिक बल दिया कि जनता कब आंदोलन के लिए तैयार है और कब नहीं ।वे जनता के आंदोलन करने व संधर्ष करने की असीम शक्ति में विश्वास नहीं करते थे ,उनका स्पष्ट मानना था कि जनता में संघर्ष करने की असीमित शक्ति नहीं होती ।अत:आंदोलन के प्रारंभ करने के साथ ही समाप्त करने के लिए भी सही समय का चयन किया जाना चाहिए ।गांधी का 'संधर्ष विराम संधर्ष'सूत्र इन्हीं अचूक तर्कों पर आधारित था ।अत: उन्होंने 1920 एवं 1930 में प्रारंभ आंदोलन को आलोचना की चिंता किए बगैर अपने ढंग से व अपने समय से समाप्त किया ।
अन्ना का भी आंदोलन संभवत: सुविचारित है ।15 अगस्त के एक दिन बाद का समय वैसे भी राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत होता है ।मीडिया ,बुद्धिजीवियों तथा सिविल सोसाइटी की ईमानदारी के रास्ते से अन्ना लोगों के बीच ही नहीं हैं वे लोगों की भावनाओं से भी अवगत हैं ।केजरीवाल ,किरण बेदी ,प्रशांत भूषण जैसे विलक्षण मस्तिष्क इस आंदोलन को नई दिशा दे रहे हैं ।गांधीवादी रणनीति का आधार इस आंदोलन के फैलने और सफल होने का सूचक है ।
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