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Sunday, 1 April 2012
नामवर सिंह और आनंद मोहन
पिछले सप्ताह मैं दिल्ली गया था ,तो सोचा कि अपने नामवर दादा यहीं रहते हैं ,तो क्यों न उनसे भी मिल लिया जाए ! सो एक अनूठे उत्साह से ,जो प्राय:बिहार ओर पूर्वांचल के पाठकों में होता है ,मैं ऑटो वाले को अलकनंदा अपार्टमेंट चलने के लिए कह दिया । और लगभग एक घंटे में ही मैं उनके यहां पहुंच गया .....समय था लगभग छह बजे भोर का । समय का चुनाव मेरे इस तर्क पर आधारित था कि अभी तो कोई कवि ,पत्रकार वहां होगा नहीं ,मैं बचपन से ही सुनता आ रहा था कि दिल्ली में सुबह दस बजे हुआ करती है ।वहां की मेमें तो तब जगती हैं ,जब सूर्य भगवान दो -तीन घंटे से उनकी दरवाजों -खिड़कियों पे मिहनत कर चुके होते हैं .....अफसोस ! ये सब किताबी बातें ही साबित हुई ।अलकनंदा अपार्टमेंट के विशाल मैदान में औरतें जॉगिंग कर रही थी ,और अपने शरीर की वसाओं को वैसे ही कम कर रही थी ,जैसे नामवर जी कविता में से अलंकार को कम करने के लिए कहते हैं । फिर भी मैं डरते-डरते उनके पास पहुंचा कि कहीं वही उनके कमरे के विषय में बता दे ,और उस महिला ने कहा कि 'गुड नामवर को कौन नहीं जानता ।गो अहेड... देन टर्न लेफ्ट ..ग्रेट मेन लिब्स देयर विद ए लॉट ऑफ चेला ,चेलाइन ,जर्नलिस्ट एंड .......'
और उस महिला के बताए नक्शे के ही हिसाब से मैं वहां पहुंचा ,कमरा नंबर कई कई बार चेक किया ,फिर दरवाजे पर खड़े दो राईफलधारी से विनम्रतापूर्वक कहा कि जाईये और बता दीजिए कि महिषी ग्राम से आपका एक प्रशंसक आया है ।राईफलधारी ने अपने मन से ही पूछा 'क्या काम है '
मैंने पुन:विनम्रता पूर्वक कहा कि बस नामवर जी का दर्शन करना है
दूसरे राईफलधारी ने तुरत कहा कि 'परंतु दर्शन के लिए तो साहब ने शाम का समय रखा है '
मैंने तुरत अपने को काबिल ,महान ,प्रगतिशील होने का मुखमंडल बनाया और एक मोटी किताब से अपने मुंह पर हवा करते हुए कहा कि बस आप एक बार बता तो दीजिए ......
सो यह पत्ता काम कर गया और बंदे ने अंदर जाने की आज्ञा दे दी ।
अंदर का कमरा बहुत बड़ा था ,और एक व्यक्ति मेज पर ही लेटा हुआ था ।कई व्यक्ति सूटेड बूटेउ और लुंगी धोती में भी ,उस आदमी के मॉलिश में लगे थे ।कोई तेल ,कोई बिना तेल ही ,कोई कविता कहानी की अंर्तकथाओं के साथ कोई चुपचाप अपने काम में लगा हुआ था ।इन व्यक्तियों में कई मेरे परिचित थे ,कई बनारस ,पटना ,भोपाल के थे ,तथा बहुतों को अखबारों से ,पत्रिकाओं से और फेसबुक से जानता था ।
जल्दी ही पता चल गया था कि लेटा हुआ व्यक्ति ही नामवर सिंह हैं ,तथा उनको कोई बीमारी नहीं थी तथा उपस्थित व्यक्ति भी रूटीन में लगे थे ।मैंने भी नामवर जी को प्रणाम किया और बताया कि सर मैं महिषी ग्राम से आया हूं आपसे मिलने ।
'परंतु मैं तो कभी महिषी गया नहीं '
हां पर वह गांव भी प्रसिद्ध है सर
'तो क्या उस गांव में भैंसे ज्यादा मिलती है ,अर्थात ग्राम की प्रसिद्धि भैंसबहुलता के कारण है या भैंस पर चढ़ने वाली कोई माता ,कोई तांत्रिक सम्प्रदाय ?'
नहीं सर ,वह मंडन का गांव है न
'कौन मंडन ,कोई विधायक हैं क्या ? '
मैंने कहा नहीं सर ,मंडन मिश्र प्रसिद्ध दार्शनिक हैं न वहीं ,अरे वही भारती के पति ....जिसने शंकराचार्य को भी परिचित कर दिया था
'अच्छा तो आप उनके गांव से आए हैं ,बताइए क्या हाल चाल हैं आपके .....'
तभी आनंद मोहन जी भी आ गए ।आनंद मोहन सिंह हमारे विधायक रहे हैं तथा एक अधिकारी की हत्या के जूर्म में सजा काट रहे हैं ।आनंद मोहन जी मुझे देख मुस्कुराए पर नामवर जी तुरत खड़े हो गए ।उन्होंने धोती ,कुरता धारण किया ,पान को पनबट्टी में से निकाला ,पान को अंगुलियों मे फंसाया ,तथा मुंह के अंदर रख लिया ।पानग्रहण (पाणिग्रहण नहीं) की बाकायदा तस्वीरें ली गई ,तथा नामवर जी आनंद मोहन सिंह की पुस्तकों को उलटापुलटाकर देखने लगे ।नामवर जी के चेहरे पर गर्व और संतोष का भाव था ।कुछ ऐसा ही भाव जैसा अपभ्रंश पर लिखते ,छायावाद पर लिखते ,आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां लिखते और नए प्रतिमानों की बात करते हुए रहा करता है ।फिर कमरे से मुझको और कुछ अन्य लोगों को निकालने की तैयारी होने लगी ।
हम लोग कमरे में से बाहर आ गए तथा लॉन में एक वृक्ष के छाये में आ गए ।पता नहीं कब नींद आ गयी और एक बड़े दृश्य को मैं देखने लगा ।सपने में नामवर की एक विराट मूर्ति दिखी और आनंद मोहन सिंह विनीत भाव से उनके सामने बैठे थे ।नामवर जी कह रहे थे
'हम दोनों महान राम के वंशज हैं ,तथा उनका ही काम बढ़ाते हैं ।हम दोनों संहार करते हैं ।यह न ही कवियों का न ही व्यक्तियों का संहार है यह तो प्रवृत्तियों का संहार है ।किए हुए काम के प्रति पश्चाताप का भाव व्यर्थ है । उनके लिए तर्क का खोजा जाना जरूरी है ,तर्क ही सृजन कराता है ,और तुममें वह बीज है ।बाल्मीकि जब वह कर सकते हैं ,तो तुम तो इक्कीसवीं सदी के पढ़े लिखे ठाकुर हो ....तुम क्यूं नहीं ?'
नामवर जी के यह बोलते ही आनंदमोहन का भ्रम जाता रहा । 'आत्म तत्व विवेक ' से वे परिचित हो चुके थे ।शब्द ,स्फोट ,जगत् ही उनके लिए भ्रम नहीं गोली और गन भी माया प्रतीत हो रहा था ।इस हेत्वाभास पर आप जल्द ही नयी कविता का दर्शन करेंगे ।प्रकाशक होंगे राजकमल ,वाणी या कोई और जिनको प्रसिद्धि भी चाहिए और पुरस्कार भी ।नामवर जी ने प्रकाशकों को पूरी गारंटी दिया है कि मुनाफा 'सरबा' कहां जाएगा !
महाराज दिलीप ,भरत और भगवान राम के वंशज दोनों ठाकुर पैदल ही राजपथ पर टहल रहे थे ।कभी अंबानी ,कभी लालू ,कभी सहारा के सुब्रत राय ,हजारी प्रसाद द्विवेदी ,रामविलास शर्मा ,आदि कई लोग उनको चलते देख आनंद आनंद हो रहे थे ।
इस दृश्य को देखकर यद्यपि पुष्पवर्षा नहीं हुई थी ,परंतु एक चालू आलोचक जो जाति का ब्राह्मण ,स्वभाव से मसखरा और वेतन बिल के हिसाब से प्रोफेसर था तुरत डायरी में लिखने लगा :
तुलनात्मक आलोचना - आनंद मोहन की तुलना में नामवर जी ज्यादा मारक हैं ,क्योंकि उनका मारा पानी नहीं मांगता ।जबकि आनंद मोहन का मारा कई आदमी जिंदा है । यद्यपि दोनों भगवान राम के वंशज हैं ,दोनों में क्रोध और उत्साह ज्यादा है ,परंतु आनंद मोहन उत्तर आधुनिकता की ओर प्रस्थान करते हैं ।उन्होंने सोचने समझने की केंद्रीय धारा को चुनौती दी है ।दोनों प्रगतिशील हैं तथा रस की बजाय संघर्ष पर बल देते हैं ।
नयी आलोचना - यह चर्चा इस बात पर बल देती है कि कवि की बजाय कविता महत्वपूर्ण है ।अत:कौन ,कहां ,कैसे मारा ,मरा ,मराया यह महत्वपूर्ण नहीं है ।सबसे महत्वपूर्ण है उजले कागज पर कवि का लिखा हुआ वह काला वह काला ........... ।
निष्कर्ष :आनंद मोहन की तुलना में नामवर ज्यादा मारक हैं ,क्योंकि उनका मारा पानी भी नहीं मांग पाता ,जबकि आनंद मोहन की शूटिंग कला में कई खामियां हैं ,उनका मारा कई जगह मिल जाएगा ,एक हाथ ,एक पैर ,एक आंख के साथ ......जी0 कृष्णैया तो अभागा था बस ।नामवर जी किसी को पूरी कला ,साजसज्जा के साथ मारते हैं ।पहले आधा घंटा बोलेंगे ,फिर पानी पियेंगे ,फिर उसके मरने की ऐतिहासिक अनिवार्यता पर बात करेंगे ,अंत में गोली मारेंगे ।फिर गरदन हिलायेंगे कि मरा कि नहीं .....इस कलात्मकता का आनंद मोहन में अभाव है ।
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