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Saturday, 14 April 2012
जय गंगे
बिसूखी गाय इस आशा से किसान को जिलाती कि
बस नौ-दस महीने की ही तो बात है
पर जब नदी बिसूखती है तो
झुलसा शहर पचास सौ किलोमीटर आगे-पीछे हो जाता है
मेरा विश्वास नहीं होगा आपको तो थार के नीचे की जमीन खोद डालिए
सरस्वती आज भी गुमनाम बहती वहां
इस इंतजार के साथ कि कोई न कोई भगीरथ तो होगा उसके भी नसीब में
2 जब तुम्हें सूखना ही था गंगा
तो क्यों की हजार किलोमीटर की जद्दोजहद
लाखों वर्षों की वह यात्रा
जो गोमुख से बंगाल तक में पूरी होती
क्या इतने दिन में तुम समर्थ हुई सबको पवित्र करने में
सभ्यताओं का कचड़ा ढ़ोने में निहित संवेग तब मिला
या वैसे ही बढ़ती रही समुद्र से मिलने
कहीं उन बोलियों से मिलने तो नहीं बढ़ती रही
जो सुवासित थे प्रयाग ,काशी ,पटना ,सिमरिया ,हावड़ा के घाटों पर
या देखने चली थी राजवंशों का इतिहास
उनके सनक करतब उनके
कभी हँसी या नहीं मगध के पतन पर
3 विद्यापति की वह कविता है मेरे पास
जिसमें तुम्हारे घाटों पर वह अंतिम समय बिताते हैं
और जगन्नाथ की 'गंगा लहरी ' भी
जिसे लिखते लिखते आचार्य तुम्हारी लहरों में समा गए
अब बोल गंगे
तुम्हारी अंतिम ईच्छा क्या है
तुम्हें कैसी मौत पसंद है
जूता उद्योग वस्त्र उद्योग
कागज उद्योग या शहरी सीवर
या सरकारी परियोजनाओं के फाईलों पर सर रखकर
4 जैसे बसंतबहार फिल्म में भीमसेन जोशी को हारना ही था मन्नाडे के सामने
उसी तरह वैजुबावरा में उस्ताद आमिरखान हारे
फिल्मों में प्राण ,अमजद खान ,अमरीश पुरी रेगुलरली हार रहे हैं
क्यों क्यों क्यों
क्योंकि ये स्क्रिप्ट में लिखा है
और गंगा तेरी मौत भी स्क्रिप्ट का ही हिस्सा है
बस बरसात के कुछ दिन तू अपनी कर
फिर स्क्रिप्ट में समा जा माते.........
5 होना तो बस एक ही है
या तो तुम हमें बर्बाद कर दोगी
या हम तुम्हें नाथ देंगे
तुम्हारे लहरों को गिन
तुम्हारे वेग को बांध
कल-कल ध्वनि को टेप कर
तमाम दृश्यों की क्लोनिंग कर
तुम्हें छोड़ देंगे
या फिर तुम हमें हमारे शहरों को
धर्म सभ्यता को
कालदेव की गति से मिल
अखंड अनुरणन से नष्ट कर दोगी
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श्रीमान् हम निशांत झाकेँ प्रतिभाशाली बुझैत छलिअन्हि। खास कए अहाँक प्रोत्साहन पाबि ओ आर निफिकिर भए गेल छलाह। मुदा की ई उचित छै जे दोसरकेँ रचना अपना नाम कए क कवि कहाबी। हम अपनेक वाल पर ई नै देबए चाहैत छलहु मुदा चूँकि अहाँ निशांत जीकेँ फैन छिअन्हि तँए हमरा मजबूरीमे ई देबए पड़ि रहल अछि.....
ReplyDeleteNishant Jha
हर दिन तो नहीं बाग़ , बहारों का ठिकाना !
गुलदान को कागज़ के गुलों से भी सजाना !
मुश्किल है चिराग़ों की तरह खुद को जलाना !
भटके हुए राही को डगर उसकी दिखाना !
क्या खेल है फेहरिस्त गुनाहों की मिटाना ?
जन्नत के तलबगार का गंगा में नहाना !
तू खैर ! मुसाफिर की तरह आ ! मगर आना !
इक शाम मेरे क्हानाह ऐ दिल में भी बिताना !
इक मैं हूँ जो गाता हूँ वो ही राग पुराना ,
इक उनका रिवाजों की तरह मुझ को भुलाना!
दर्द आह ओ फुगाँ बन के हालाक तक भी न आया !
क्या कीजे न आया जो हमें अश्क बहाना !
अफ़सोस कह अब यह भी रिवायत नहीं होगी ,
खुशियों में परोसी का परोसी को बुलाना !
सुलझी है , न यह जीस्त की सुलझे गी पहेली !
लोगों ने तमाम उम्र गवा दी तो यह जाना !
बदला ही नहीं हाल ऐ ज़माना ओ जिगर , "निशांत "
फिर कैसे नयी बात , नए शेर सुनाना ? — with Chitranshu Karna and 45 others.
Like · · Share · 26 minutes ago ·
Abhishek Singh Deepak, Shailesh Jha Bibas, Amit Mishra and 4 others like this.
1 share
Mala Choudhary woh woh !!!
20 minutes ago · Like · 1
Nishant Jha behad sukriyaah....Mala Choudhary jee
17 minutes ago · Like
Amit Mishra mast
17 minutes ago · Like
Nishant Jha bahoot bahoot dhanyvad Amit jee
16 minutes ago · Like
Ashish Anchinhar मुझे होता था कि निशांत जी बहुत ही प्रतिभाशाली है। बहुत ही अच्छी गजल लिखते हैं मगर आज ये राज खुला कि निशांत जी साहित्यिक चोर हैं। वैसे हमारे रविभूषण पाठक जी निशांत जीके बहुत बड़े फैन है। उपर जो गजल निशांत जी ने अपनी गजल कह कर दी है ( मकता मे निशांत) यह गजल धीरज आमेटा धीर का है। कविता कोष का लिंक दे रहा हूँ।http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%B9%E0%A4%B0_%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%A8_%E0%A4%A4%E0%A5%8B_%E0%A4%A8%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%82_%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BC%2C_%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%82_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%A0%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BE%21_%2F_%E0%A4%A7%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A4%9C_%E0%A4%86%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%9F%E0%A4%BE_%E2%80%98%E0%A4%A7%E0%A5%80%E0%A4%B0%E2%80%99.