नई सदी की कविता ,पुरानी-नई दुखों में नया अर्थ भरने का प्रयास करते हुए ।यह नागार्जुन के भूमि की कविता है ।भूख ,मृत्यु ,प्रेत ,प्रवास ,अपमान ,संताप के असंख्य चित्रों के साथ ,परंतु भंगिमा उत्तर नागार्जुनी है ।मनोज नागार्जुन की तरह सीधे प्रहार करने में विश्वास नहीं करते ।व्यंग्य की भी नागार्जुनी अदा यहां अनुपस्थित है ।मनोज की जो शैली बन पड़ी है ,उस पर समकालीन पश्चिमी कविता का प्रभाव कम नहीं है ,परंतु प्रसंग खांटी भारतीय है ,और मनोज के पास कहने के लिए बहुत कुछ है ,भंगिमा भी स्टीरियोटाईप नहीं......।मनोज कहने की इस परंपरा में विश्वास करते हैं कि 'शेष ही कहा जाए' अर्थात जो कहा जा चुका है ,उससे बचते हुए अपनी बात कही जाए ।
मनोज इक्कीसवीं सदी के उत्तरपूंजीवादी जीवन में सामंती गर्भ का अल्ट्रासाउंड करते हैंमैं जहां रहता हूं वह महामसान है
चौदह लड़कियां मारी गयी पेट में फोटो खिंचाकर
और तीन मरी गर्भाशय के घाव से
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मृतक इतने हैं और इतने करीब कि लड़कियां साग खोंटने जाती है
तो मृत बहने भी साग डालती जाती हैं उनके खोइंछे में
कहते हैं फगुनिया का मरा भाई भी काटता है उसके साथ धान
वरना कैसे काट लेती है इतनी तेजी सेऔर
जिंदगी और मौत का यह बहनापा विरल है ,और यही बात मनोज को विशिष्ट बनाती है ,तथापि वे जीवन के कवि हैं ,और जीवन विरोधी तथ्यों के प्रति उनका तर्क मुखर है
इतनी कम ताकत से बहस नहीं हो सकती
अर्जी पर दस्तखत नहीं हो सकते
इतनी कम ताकत से तो प्रार्थना भी नहीं हो सकती
इन भग्न पात्रों से तो प्रभुओं के पांव नहीं धुल सकते
फिर भी घास थामती है रात का सिर और दिन के लिए लोढ़ती है ओस
यहां घास और ओस के साथ रात और दिन का प्रयोग विशिष्ट है ,और इस चीज को साबित करने के लिए पर्याप्त है कि मनोज काव्योपकरण के स्तर पर भी दुहराव से बचते हैं ।
'वागर्थे प्रतिपत्तये ' की तमाम संभावनाओं पर दृष्टि रखते हुए :
इस तरह न खोलें हमारा अर्थ
कि जैसे मौसम खोलता है विवाई
जिद है तो खोले ऐसे
कि जैसे भोर खोलता है कंवल की पंखुडि़यां
मनोज की कविताएं 'तथापि कविता ' नही है ।जीवन के विभिन्न रंगों से नहाया यह काव्य-संसार सभी कसौटियों पर उच्च कोटि की कविता है
मलिन मन उतरा जल में कि फाल्गुन बीता विवर्ण
लाल-लाल हो उठता है अंग-अंग अकस्मात
कौन रख चला गया सोए में केशों के बीच रंग का चूर ।
मनोज कुमार झा को जन्मदिन की मंगलकामना ।
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