'कान्यकुब्ज कुल कुलांगार' का प्रयोग केवल कान्यकुब्जों के लिए नहीं था ।इस शब्द के द्वारा निराला ने एक व्यापक क्षेत्र में परिवर्तनविरोधी हठधर्मिता को पहचाना ।खाकर के पत्तल में छेद करने वालों की स्थिति मज़बूत ही हुई है ।हिंदी दिवस के अवसर पर हिंदी भाषा और हिंदी कविता के सबसे बड़े साधक का याद आना स्वाभाविक है ।इस अवसर पर निराला की कविता 'हिन्दी के सुमनों के प्रति पत्र ' :
'हिन्दी के सुमनों के प्रति पत्र '
मैं जीर्ण-साज बहु छिद्र आज,
तुम सुदल सुरंग सुबास सुमन
मैं हूं केवल पदतल-आसन
तुम सहज विराजे महाराज ।
ईर्ष्या कुछ नहीं मुझे ,यद्यपि
मैं ही वसन्त का अग्रदूत,
ब्राह्मण -समाज में ज्यों अछूत
मैं रहा आज यदि पार्श्वच्छवि ।
तुम मध्य भाग के महाभाग
तरू के उर के गौरव प्रशस्त
मैं पढ़ा जा चुका पत्र, न्यस्त
तुम अलि के नव रस-रंग-राग ।
देखो,पर,क्या पाते तुम फल
देगा जो भिन्न स्वाद रस भर
कर पार तुम्हारा भी अंतर
निकलेगा जो तरू का सम्बल ।
फल सर्वश्रेष्ठ नायाब चीज
या तुमा बांध कर रँगा धागा
फल के भी उर का कटु त्यागा,
मेरा आलोचक एक बीज ।
'हिन्दी के सुमनों के प्रति पत्र '
मैं जीर्ण-साज बहु छिद्र आज,
तुम सुदल सुरंग सुबास सुमन
मैं हूं केवल पदतल-आसन
तुम सहज विराजे महाराज ।
ईर्ष्या कुछ नहीं मुझे ,यद्यपि
मैं ही वसन्त का अग्रदूत,
ब्राह्मण -समाज में ज्यों अछूत
मैं रहा आज यदि पार्श्वच्छवि ।
तुम मध्य भाग के महाभाग
तरू के उर के गौरव प्रशस्त
मैं पढ़ा जा चुका पत्र, न्यस्त
तुम अलि के नव रस-रंग-राग ।
देखो,पर,क्या पाते तुम फल
देगा जो भिन्न स्वाद रस भर
कर पार तुम्हारा भी अंतर
निकलेगा जो तरू का सम्बल ।
फल सर्वश्रेष्ठ नायाब चीज
या तुमा बांध कर रँगा धागा
फल के भी उर का कटु त्यागा,
मेरा आलोचक एक बीज ।
कान्यकुब्ज कुल कुलंगार... समस्त ब्राह्मणवादी समाज-सास्कृतिक परंपराओं के प्रति धिक्कार है...
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